छाया मेखल / भाग-1 / अज्ञेय
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अंगारे-सी सुलगती और बड़ी होती हुई आँख कुहरे में से आगे बढ़ती आयी और निकल गयी; क्रुद्ध चिचियाहट के साथ गाड़ी का आकार स्पष्ट हुआ, गाड़ी धीमी हुई और रुक गयी। भाप की व्यग्र सिसकारी कुहरे को और घना करने लगी।
प्लेटफॉर्म पर पट्-पट्-पट् के अकुलाये स्वर के साथ एक स्त्री आकार कुहरे में उभरा; अनिश्चित पैर एक बार इधर मुड़े, एक बार उधर दौड़े; गाड़ी ने भर्रायी-सी सीटी दी और एक गड़गड़ाहट के साथ डिब्बे हिले; स्त्री ने एक दरवाजे के हत्थे पर हाथ रखा और क्षण-भर के अनिश्चय के बाद दृढ़तापूर्वक दरवाजा खोल कर सवार हो गयी। उस स्टेशन पर डाक गाड़ी रुकती नहीं थी, पहले दर्जे की कोई सवारी कभी वहाँ से बैठने आयी तो स्टेशन मास्टर को कह कर गाड़ी रुकवा सकती थी। इस सवारी के साथ सामान नहीं था; इस के लिए यह पाँच-एक सेकेंड का रुकना काफी था - गाड़ी चल दी थी।
दरवाजे पर हिचकिचाने का कारण था। डिब्बे के दरवाजे-खिड़कियाँ सब बंद थे। उनके क्रम से इतना तो बाहर से जाना जा सकता था कि यह डिब्बा कूपे है; पर भीतर जगह होगी या नहीं, या कौन, कैसे लोग होंगे - और उस तड़के के और अप्रत्याशित स्टॉप पर कैसी अवस्था में - किस पोशाक में! - यह जानने का कोई उपाय नहीं था। इतना ही था कि भीतर से सिटकनी बंद नहीं थी, इससे कुछ भरोसा हो सकता...
भीतर अँधेरा था। स्त्री के हाथ थोड़ी देर सहमे-से टटोलते रहे, फिर बटन मिला और उसके दबते ही एक हल्का बैंगनी प्रकाश डिब्बे में फैल गया - अच्छा ही हुआ कि बटन रातवाली रोशनी का था, पूरी रोशनी का नहीं। इसमें देखने लायक काफी रोशनी होगी, खुद वह उतना स्पष्ट नहीं दीखेगी, यह सोचते हुए स्त्री ने चारों ओर नजर दौड़ायी और फिर पहले-से भी कुछ अधिक असमंजस में पड़ कर ठिठक गयी।
कूपे ही था; ऊपर की बर्थ पर सिर्फ दो सूटकेस पड़े थे, निचली पर एक सफेद चादर या कंबल से ढँकी एक लंबी देह सो रही थी; उसके सिरे पर की कुर्सी में एक व्यक्ति भारी कोट में ठोड़ी धँसाये झुका बैठा था - सोता हुआ या जागता हुआ, पता नहीं लग सकता था।
कूपे दो सवारियों के कब्जे में है तो वे बर्थ पर सोएँ या फर्श पर लेटें, और बर्थ पर जूते रखें, किसी तीसरी सवारी को क्या जिसका कोई अधिकार नहीं है - कम के कम दिन चढ़ आने तक! पर क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि यह आदमी ऊपर की बर्थ पर लेट जाता, और वह सिरेवाली कुर्सी खाली मिल जाती? लोग भी न जाने कैसे-कैसे यात्रा करते हैं। और कहीं होता तो स्त्री के लिए जगह छोड़ दी जाती - पर चलो, अच्छा ही है, नहीं तो अकेली स्त्री के साथ ज्यादा गैलेंट्री बरतने लगें तो अलग मुसीबत हो...
उँह! कौन बहुत दूर जाना है। खड़े रहेंगे। स्त्री ने बर्थ और कुर्सी की ओर पीठ फेर ली; दरवाजे के भीतरी हत्थे पर हल्का-सा हाथ टेक कर खड़ी हो गयी। घंटे भर में जंक्शन भी आ जाएगा, रोशनी भी हो जाएगी : जगह न बनी तो वह डिब्बा बदल भी लेगी - कोई उसे सामान ढोना है!
बैंगनी रोशनी वह पूर्ववत् बुझा दे, या रहने दे? उँह, वह क्यों परवाह करे, जिसे गरज होगी, उठ कर बुझा लेगा! और इन्हें तो देखो, कैसे पसर कर सोये हैं - जैसे लाश पड़ी हो! इतनी नींद कैसे आती है लोगों को रेलगाड़ी में? और मुँह-सिर सब लपेट कर सोते कैसे हैं - दम नहीं घुटता?
गड्ड-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्-गड्ड गड़ाट्, न जाने कैसे लोग गाड़ी की गड़गड़ाहट में 'छे-छे पैसे चल कलकत्ते' सुन लेते हैं! 'छुक्-छुक् गाड़ी' कहने तक तो बात ठीक है, निभती है, पर आगे? हो सकता है कि अलग-अलग तरह की बोगियों से अलग-अलग बोल सुनाई देते हों - अठपहिया गाड़ी की लय भी चौपहिया बोगी से अलग होगी और बोल भी दूसरे होंगे, और सोलहपहिया - पर आठ के बाद बारह पहियेवाली होती है कि सोलहवाली? यह गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट् यह लय तो बारह पहियोंवाली जैसी लगती है... या कि इस बात से फर्क पड़ता है कि रेल की पटरियों के जोड़ बराबर-बराबर आते हैं कि आगे-पीछे? 'छे-छे पैसे चल कलकत्ते'-गड़गड़-गड़गड़, गड़गड़-गड़गड़... तीन ताल। या फिर गड़ड़-गड़ाट्-गड़ड़-गड़ाट्-दादरा।...
“आप यहाँ बैठ सकती हैं।”
स्त्री ने चौंक कर मुड़ कर देखा, कुर्सीवाला आदमी उठ कर खड़ा हो गया है।
“नहीं, थैंक्स।”
“आप नाराज हो सकती हैं कि मैंने पहले क्यों नहीं ऑफर किया। सोये हुए होने का बहाना भी मैं नहीं कर सकता। कुछ सोच में खो गया था, माफी चाहता हूँ।”
“नहीं-नहीं, आप बैठें, मुझे थोड़ी ही दूर जाना है।”
क्षण-भर रुक कर, मानो यह समझ कर कि उसे खड़ा कर के स्त्री नहीं बैठेगी, उसने कहा, “मैं-मैं यहाँ अपने साथी के पास बैठ जाऊँगा।” कहते-कहते वह 'साथी' के पैताने एक कूल्हा जरा-सा टेक कर बैठ गया।
स्त्री ने विवश भाव से कुर्सी स्वीकार करते हुए कहा, “आप अपने साथी को पैर थोड़ा समेट लेने को नहीं कह सकते कि बैठने की जगह हो जाय?”
जवाब देर में मिला। इस बीच स्त्री ने कनखियों से देख लिया कि वह आदमी फिर 'कुछ सोच में खो गया था'।
“नहीं। वह पैर समेट नहीं सकता। असल में - ही इज डैड।”
आँ - ...स्त्री के मुँह से एक हल्की-सी चीख निकल गयी। जीवन में पहली बार छोटे स्टेशन पर डाक गाड़ी रुकवा कर सफर किया तो - एक लाश के साथ! फिर अपने को संयत करती हुई बोली, “मैंने आप को कष्ट दिया, मैं दोबारा माफी चाहती हूँ। आप यहीं कुर्सी पर बैठें - मुझे खड़े-खड़े कोई कष्ट नहीं होगा। आप न मालूम कितनी दूर से आये हैं - कितनी देर का और सफर है!”
आदमी ने हाथ के इशारे से उसे हिलने से बरज दिया, बोला नहीं।
देर बाद उसने कहा, “दूर से तो नहीं आया। हाँ, देर करने की गुंजाइश मेरे साथी को नहीं है, यह आप समझती हैं न...”
अब की बार स्त्री को उत्तर देने की जल्दी - या जरूरत भी - नहीं थी। देर बाद, थोड़ी घुटन का अनुभव करते हुए, वातावरण को थोड़ा हिलाने की जरूरत से ही, उसने कहा, “आप - उन्हें - घर ले जा रहे हैं? आपके - रिश्तेदार थे? क्या हुआ था?”
“घर!” अजीब ढंग से यह एक शब्द कह कर आदमी देर तक चुप रहा। “हाँ, उसके घर ले जा रहा हूँ। मेरा रिश्तेदार नहीं था, साथी था। पर रिश्तेदार से ज्यादा - भाई से ज्यादा। आप समझ सकती हैं?”
“हाँ... आई एम सॉरी... क्या हुआ था?”
आदमी ने मुड़कर उसकी ओर देखा। क्या वह बैंगनी रोशनी का ही करिश्मा था, या कि इसलिए कि उस कोण पर से आँखें नहीं दीखती थीं, सिर्फ अँधेरे गड्ढे और वे भी विवर्ण त्वचा के एक ढाँचे में से, कि क्षण-भर स्त्री को लगा, आदमी नहीं, उसका 'साथी' ही उसकी ओर देख रहा है? उसने सिहर कर दीठ फेर ली और सन्न प्रतीक्षा में बैठी रही। कभी तो आदमी बोलेगा ही! और अभी नहीं भी बोलेगा तो वह सवाल पूछ लेने के बाद कुछ न कुछ-चाहे कैसा भी - जवाब मिलने तक तो वह और कुछ नहीं कह सकती है... लेकिन यह - ढाँचा - यह चेहरा एकटक उसकी ओर देखता क्यों जा रहा है, कुछ बोलता क्यों नहीं? और देर तक ऐसे देखेगा तो वह चीख पड़ेगी, सह नहीं सकेगी...
“गोली लगी थी। गोलियाँ लगी थीं - कई एक। मृत्यु भी तत्काल नहीं हुई - देर से हुई।” कुछ रुक कर, यत्नपूर्वक ठंडे और तटस्थ किये हुए स्वर में, “कष्ट के साथ हुई...”
स्त्री को लगा कि दोबारा 'आई एम सॉरी' कहने का कुछ मतलब नहीं होगा; मगर इसके अलावा वह कहे भी क्या, यह वह सोच नहीं पायी। केवल फेरी हुई आँखें उसने फिर आदमी की ओर मोड़ लीं, चुप देखती रही। उसे आँख चुराने की क्या जरूरत है? वह भी एकटक देख सकती है। पुरुष है तो क्या हुआ।
देर बाद उसने सधे स्वर में कहा, “और बताएँगे?” कुछ रुक कर, “दुखे तो न बताएँ। पर कभी अजनबी को बता देने से दर्द बहलता भी है।”
अजनबी। गड्ड-गड़ाट्, गड्ड-गड़ाट्... दो अजनबियों के बीच गाड़ी की गड़गड़ाहट की यह दीवार : दो अजनबियों के? तीन के? कि गाड़ी खुद चौथा अजनबी है, कि यह सारा घटना-प्रपंच ही एक अजनबी है जो अपने में सबको समेटे ले रहा है -
“अजनबी। हूँ... आपने सुना है न - या उपन्यासों में पढ़ा होगा - कि लोग अचानक, अकारण अजनबियों पर विश्वास कर लेते हैं; जो बातें किसी से नहीं कही वे उनसे कह देते हैं...” यहाँ तक स्वर सम था, फिर एकाएक धारदार हो आया, “क्यों कह देते हैं?”
स्त्री ने, कुछ ऐसे भाव से मानो परीक्षा देता उम्मीदवार हो, उत्तर दिया, “जी हल्का होता है। इनसान फिर अपने को इनसान पहचान लेता है। दर्द के दबाव से इनसान पत्थर हो जाता है; किसी पर विश्वास कर सकने से दर्द पसीजता है तो पत्थर के नीचे दबा इनसान निकल आता है।”
आदमी ने आगे ढिठाई के लिए साहस बटोरते स्वर से कहा, “आप ऐसे बोलती हैं जैसे आपको कुछ पता ही हो।”
समाज में होता, तो वह भी ऐसा ही व्यंग्य-भरा जवाब देती, या कुछ बड़ी स्मार्ट बात कहती। यहाँ... यहाँ उसका न मौका है, न जरूरत। आदमी ने पैंतरा नहीं दिखाया, खरी बात ही कही है। चुप भी अगर खरी बात नहीं, तो पैंतरा तो नहीं है। वह चुप रही।
थोड़ी देर बाद दूर की एक अनुगूँज बोली, “क्यों कह देते हैं? कैसे भरोसा कर लेते हैं?”
एकाएक स्त्री को लगा कि इस आदमी में कहीं कुछ है जो बच्चा है : सरल और अबोध और अविकृत है, पर सहारा माँगता है क्यों कि सहारे में आस्था रखता है। उसने कहा : “अजनबी अजनबी होते हैं। पर भरोसा करो तो अजनबी नहीं रहते - बँध जाते हैं और भरोसे के बंधन से निकलना कोई आसान काम नहीं होता।”
जवाब नदारद। आदमी ने उसकी बात मानी, या मानने लायक न पा कर गिर जाने दी? चेहरे पर या मुद्रा में, कहीं कोई संकेत नहीं मिला। सिर्फ एक बार उसने चेहरा उठा कर नजर चारों ओर फिराते हुए थोड़ी देर ऊपर की बर्थ पर पड़े सूटकेस पर टिकायी, तो उन अँधेरे गड्ढों में आँखें चमक गयीं : गहरी, स्वच्छ आँखें-निश्छल, लेकिन - लेकिन -क्या विशेषण दे उस गुण को जो उसे लक्षित हो रहा है? - प्राइवेट... हाँ। निश्छल लेकिन प्राइवेट आँखें। आँखों को प्राइवेट कहना क्या ठीक है? छल वहाँ नहीं है, पर ये आँखें अपनी बात किसी से कहतीं नहीं, अपने तक रखती हैं - अविश्वास के कारण नहीं, अपनापे की अक्षुण्णता की रक्षा के लिए...
स्त्री ने कहा : “पहल मैं करती हूँ। मैं पुलिस कप्तान की बेटी हूँ। घर से भाग कर आयी हूँ - अभी सवेरे। तभी इस छोटे स्टेशन पर आ कर गाड़ी पकड़नी पड़ी। मोटर मैंने बाहर छोड़ दी, वह दिन में कभी पहचान ली जाएगी और वापस मँगा ली जाएगी।”
आदमी ने अब एक दिलचस्पी से उसकी ओर देखा। यह दीठ नयी थी; स्त्री को अच्छा लगा, कुछ सफलता का-सा अनुभव हुआ।
“पुलिस कप्तान की बेटी - कौन-मिस्टर जैतली की बेटी? मिस जैतली?”
खुली आँखों की स्वीकृति : बोल कर स्वीकार करना जरूरी नहीं है। मगर थोड़ी देर बाद एक चौंकने का-सा भाव।
“तो आप मिस्टर जैतली को जानते हैं। कैसे जानते हैं?”
“ठीक जानता तो नहीं। नाम जानता हूँ। देखा है। कर्रे पुलिस अफसर मशहूर हैं। जल्दी-जल्दी तरक्की पाते रहे हैं।”
कर्रे। कर्रे। यानी क्या? अच्छे कि बुरे? डिपेंड्स कि आप किस तरफ हैं। टफ। अगली बात से अपने आप पता लग जाएगा।
“पुलिस कप्तान की बेटी वैसी अजनबी तो नहीं है जिस पर भरोसा करने की हिम्मत आसानी से हो जाय - इतना तो आप मानेंगी।”
“मान लेती हूँ।”
अगर 'कर्रे' की ध्वनि वह नहीं समझी थी, तो इस 'मान लेती हूँ' की व्यंजना उसके पल्ले भी आसानी से नहीं पड़ेगी। न पड़े। ठीक ही है।
“पुलिस कप्तान पुलिस कप्तान होता है - वर्दी, बिल्ले, कंधे पर ताज और तारा, सिर पर टोपी, हाथ में बेंत या कमर पर पेटी से लटकता रिवॉल्वर - यह सब तो हम जानते रहते हैं। पर यह नहीं सूझता कि पुलिस कप्तान की बेटी भी होती है, और वह भी...” कहते-कहते आदमी ने अपने को रोक लिया।
स्त्री को उत्कंठा हुई कि पूछे, वह भी क्या? जवाब जरूर अच्छा लगेगा... पर स्त्री-मन ने यह भी पहचाना कि उधर जोखम है, और चुप रही।
गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्...
“मिस जैतली!”
स्त्री ने दीठ उठा कर उधर देखा; कुछ कहा नहीं, मानो इतना जता दिया कि वह अन्यमनस्क नहीं है, सुन रही है।
“आपने शायद अखबार में इस बारे में कुछ पढ़ा हो - घटना का एक सतही ब्योरा।”
वह रुक गया; मिस जैतली को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी - इतने कम आधार पर यह कैसे बता सकती हैं कि 'इस' बारे में कुछ पढ़ा या नहीं।
“मेरे साथी का नाम है वीरेश्वर नाथ - नाम था। नहीं, नाम है, साथी-था। क्रांतिकारियों के साथ था। जिस घटना में मारा गया उसे छोड़िए - क्योंकि इस समय का तथ्य यही है कि शिकार पार्टी में अकस्मात् गोलियाँ लग गयीं जिससे मृत्यु हुई। राजा साहब का बयान भी था जिनकी शिकार पार्टी थी, सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट भी कि दुर्घटना में मृत्यु हुई। राजा साहब ने ही लाश घर ले जाने की व्यवस्था करा दी।”
वह थोड़ी देर रुका तो मिस जैतली ने कहा, “इस दुर्घटना का ब्यौरा तो पढ़ा था, याद पड़ता है - शायद परसों ही, न?”
“हाँ। अब आप समझती हैं न - पुलिस कप्तान को घटना के एक दूसरे ब्यौरे में कितनी दिलचस्पी हो सकती है, मिस - जैतली?”
नाम पर जिस ढंग से उसने बल दिया, उसका संकेत स्पष्ट था।
“मैं घर छोड़ आयी हूँ। समझ लीजिए कि नाम भी छोड़ आयी हूँ। जैतली नाम था तो, अब नहीं है; अब - सिर्फ सोमा। वह भी चाहे अगले स्टेशन पर उतरते तक छोड़ दूँ - नाम पूरा ही नया ठीक होगा।”
“मैं - मेरा नाम है सामंत - मोहन सामंत। डॉक्टर। वीरेश्वर की लाश उसके घर ले जा रहा हूँ।”
“वहाँ कौन है?”
“उसकी विधवा माँ। घर अच्छा खाता-पीता है - पिता का कारोबार था - एक भाई भी है, पर कहाँ, इस का पता नहीं; कुछ बरस पहले विदेश चला गया था और सुनते हैं कि वहाँ जम गया है; पर पक्का पता नहीं।”
“बेचारी माँ... उसे कुछ पता है?”
“मृत्यु का तो पता लग गया है, हमारे आने की खबर भी दे दी गयी थी। और -
“नहीं, मेरा मतलब - “
“मैं समझ गया। कुछ तो पता होगा ही - निश्चय ही था। कितना, यह नहीं कह सकता; पर अगर पता है कि क्रांतिकारियों के साथ है तो बाकी सब अपने-आप ही जाना हुआ मान लेना चाहिए। आखिर माँ है। और अब तो कुछ राजनीति में भी काम करती है - शायद बेटे के प्रभाव से।”
“बेचारी... तो वहाँ - आप मदद करेंगे?”
“मदद... पता नहीं। यानी क्या मदद चाही जाएगी, पता नहीं।” सामंत थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “मिस जैतली - सोमा जी, आप को अजनबी मान कर ही सलाह पूछूँ तो आप देंगी?”
“पूछिए। भरसक कोशिश करूँगी।”
एक लंबी चुप रही जो भारी नहीं लगी, क्योंकि उस में कहीं दोनों ओर से सहजता की स्वीकृति थी : बात टूटी नहीं है, केवल विश्रांति के एक स्थल पर है; जब चलेगी तो अपने-आप आगे चल पड़ेगी।...
“वीरेश्वर की अंतिम इच्छा थी कि उसकी लाश बेच दी जाए।”
“क्या?” सोमा अपनी अचकचाहट छिपा नहीं सकी थी, इसलिए सवाल पूछ बैठने के बाद उसने अपना ओठ काट लिया।
“हाँ। उसकी इच्छा थी कि लाश बेच दी जाए और उससे जो आय हो वह उसके क्रांतिकारी दल को दे दी जाए।”
अबकी बार सोमा चुप रही, सामंत भी प्रतीक्षा में रहा कि बात पूरी पैठ जाय तब आगे चले।
“लाशें बिकती भी हैं? कौन लेता है? किस लिए? और क्या-बहुत दाम मिलेंगे जो...”
“बिकती तो हैं। मेडिकल कॉलेजों के आखिरी सालों के विद्यार्थी लेते हैं - कभी-कभी डॉक्टर भी जो सर्जरी का विशेष अभ्यास करते हैं। आम तौर पर लावारिस लाशें -जिन का सत्कार नगरपालिका के जिम्मे पड़ता है। खाने में अंतिम सत्कार का खर्चा दिखा दिया जाता है, और जिनके जिम्मे यह काम होता है वे लाश बेच लेते हैं - सब का फायदा हो जाता है - और लाश का कुछ बिगड़ता नहीं।”
“कैसी बात करते हैं आप!”
“शायद गलत ही कह रहा हूँ। लाश का कुछ बिगड़ता नहीं, यह कहनेवाला मैं कौन होता हूँ - जानता भी कैसे हूँ! मतलब यह कि - इट डजंट माइंड।”
“डजंट माइंड - कैसी बात करते हैं! आप अपने साथी की लाश चीर-फाड़ के लिए बेच देंगे, और उसकी माँ को दुःख नहीं होगा?”
“मैं लावारिस लाश की बात कह रहा था, जिसकी ओर से माइंड करनेवाला कोई न हो। और 'इट' की ही बात कर रहा था, और किसी की नहीं। आखिर लाश के बारे में हम जो सोचते हैं, हमारी भावुकता ही तो है - लाश को उससे क्या होता जाता है? आप देखिए न - हमारे संस्कार में भी जो लाश को एक अपवित्र चीज माना गया सो क्यों? मृतक के बंधु-परिजनों की भावनाएँ पवित्र हों, लाश तो लाश है - “
सोमा ने कुछ वितृष्ण भाव से कहा, “बोलते जाइए - “
सामंत उस वितृष्णा को लक्ष्य कर के रुक गया। थोड़ी देर बाद बोला, “आप इसे हृदयहीनता न समझें - आप से सलाह ही पूछना चाहता हूँ, पर बोलते-बोलते ही तो बोल पाऊँगा। आखिर मैं भी तो अपने साथी ही की बात कर रहा हूँ - किसी लावारिस की नहीं।”
“मैं माफी चाहती हूँ।”
“लाश के बहुत अधिक पैसे तो नहीं मिलते। 'रेट' जो भी है आखिर लावारिस लाशों का है : न खरीदनेवाले को चीर-फाड़ का कोई अधिकार होता है, न बेचनेवाले को बेचने का ही कोई अधिकार : चोर-बाजारी ही तो है। और उतने पैसे शायद दूसरी तरह भी मिल सकें, अगर क्रांतिकारी दल को आर्थिक समस्या की ही बात हो। पर अंतिम इच्छा का भी तो मूल्य होता है न - और यह एक आदर्शवादी जेस्चर तो है ही कि मरने के बाद के अवशेष भी दल के काम आवें। है कि नहीं रोमांटिक जेस्चर?”
सोमा नहीं कह सकी कि नहीं है।
“असल में इस सारे क्रांतिकारी आंदोलन में रोमांटिक तत्त्व खासा है। मैं जानता हूँ और स्वीकार करता हूँ। यह उसकी बुराई के लिए नहीं कहता, सही पहचान के लिए ही कहता हूँ, रोमांटिक आइडिया में बल है - और उसकी शक्ति का प्रयोग करना चाहना क्यों गलत है? खास कर उस आंदोलन के लिए जो 'सभी संभाव्य साधन' काम में लाने को तैयार है - जायज मानता है?”
सोमा के पास इसका जवाब नहीं, न वह बहस करना चाहती है।
“अंतिम इच्छा की बात तो है। पर फिर भी, लाश बेच कर मिलेगा क्या?”
“मैंने कहा न, बहुत अधिक नहीं। शायद दो सौ रुपया। वह भी तत्काल गाहक मिले तब। बेचनेवाला यहाँ माल दबाकर नहीं बैठ सकता, यह तो आप समझती हैं न। ...लेकिन यही तो सलाह पूछना चाहता हूँ आपसे। मैं माँ को जा कर बता दूँ कि वीरेश्वर की अंतिम इच्छा क्या थी, तो वह क्या करेंगी? मान जायेंगी? मानेंगी तो, और न मानेंगी तो - उन्हें भयानक कष्ट होगा। पर न बताऊँ तो वह जिम्मेदारी क्या मुझे ओढ़नी चाहिए?”
सोमा देर तक चुप रही। फिर उसे ध्यान आया कि काफी देर हो गयी है और उस से कुछ-न-कुछ जवाब तो अपेक्षित है ही अब, इसलिए कुछ और मोहलत पाने के लिए उसने पूछा, “आप-उस समय थे वहाँ? आप ही को बताया था वीरेश्वर ने?”
“नहीं। मैं नहीं था। जो लोग थे वे उसे उठा लाये थे। उन्हीं ने डॉक्टरी जाँच-वाँच का सारा काम किया। मुझे तो बाद में सारी घटना बताई गयी और यह काम सौंपा गया।”
सोमा बोली नहीं, पर उसकी आँखों में जो प्रश्न था उसे सामंत ने ठीक ही समझा : 'आखिर आप को क्यों?'
“इसी लिए कि मैं सारी घटना से थोड़ा अलग था - थोड़ी दूर था। जो लोग ज्यादा निकट थे, सब कहीं इधर-उधर हो गये होंगे - वह जरूरी होता है। मैं छिप कर रहने को बाध्य नहीं था। फिर यह भी है कि वीरेश्वर मेरा साथी था, और उसकी माँ मुझे पहचानती भी है।”
थोड़ी देर दोनों चुप रहे।
“इससे मेरा काम कुछ कम कठिन नहीं हो जाता। आखिर मैं क्या कहूँगा माँ से? वह बड़ी हौसलेवाली है, फिर भी।”
फिर एक लंबी चुप। गाड़ी उसी लय पर गड़गड़ाती हुई चली जा रही है। तेज हो, या धीमी हो, तो कहीं पहचान हो कि चल रही है, काल के आयाम में चल रही है; इस एक-सी चाल से मानो वह एक कालातीत क्षण में लटकी हुई है और वह क्षण लंबा होता जा रहा है, लंबा होता जा रहा है... और कोई इस दीर्घायित निश्चलता को तोड़ने को तैयार नहीं है...
गड़ड़-गड़ाट्, गड़ड़-गड़ाट्...
सोमा को संदेह हुआ कि गाड़ी की गति तनिक-सी - एक बहुत बेमालूम तनिक-सी, धीमी हुई है। पर इतना बोध-भर उसे कालातीत निष्क्रियता की परिधि से नीचे फेंक देने को काफी था। उसने एक नियंत्रित हड़बड़ी से कोट के पल्ले की ओट पड़ा हुआ पर्स उठाया, खोल कर उस में से बटुआ निकाला, उसकी एक तह खोल कर उस में से तहाये हुए कुछ नोट निकाले और हाथ सामंत की ओर बढ़ाती हुई बोली, “मिस्टर सामंत, ये चार सौ रुपये हैं। आपको - जो दो सौ रुपये मिलते इन्हें उनके एवज में समझ लीजिए। अपने साथी का शव आप उसकी माँ को सौंप कर उसका ठीक से दाह-कर्म कराइए, और रुपया उसकी पार्टी को दे कर उसकी अंतिम इच्छा पूरी कीजिए। बल्कि मेरी समझ में तो दो सौ रुपया पार्टी को दीजिए, बाकी दाह-कर्म के लिए दीजिए। पार्टी क्या करेगी या करती है, मैं नहीं जानना चाहती, पर उससे मुझे कोई हमदर्दी नहीं है, यह तो आप साफ-साफ समझते हैं न?”
सामंत थोड़ी देर तक उसके बढ़े हुए हाथ की ओर देखता रहा। फिर उसने हाथ बढ़ा कर नोट ले लिये। संकोच से मुक्त होता हुआ-सा सोमा का हाथ लौट कर कोट में छिप गया। सामंत का हाथ अधर में नोट सँभाले टिका रहा; सामंत एकटक उसकी ओर देखता रहा, मानो नोटों को खींच कर अपनी ओर नहीं ला पा रहा है। नोटों को वहीं-का-वहीं टाँके हुए-से रखता वह ठंडे स्वर में बोला : “आप दयालु गाहक हैं - कद्रदाँ हैं। मेरे दोस्त की लाश आप की हुई। आप जहाँ कहें, पहुँचा दूँ। आप का माल है, पर ढुलाई का जिम्मा अभी मेरा है।”
सोमा का बदन एक बार थरथरा गया। फिर उसका जी हुआ कि कस कर एक तमाचा सामंत के मुँह पर मार दे। फिर जैसे भीतर ही भीतर एक प्रकाश की कौंध ने उसे सँभाल दिया। आखिर सामंत को भी कैसा लग रहा होगा - कैसे वह इस स्थिति को सँभालेगा सिवाय इस तरह अपने को, अपने साथी को, सभी को तीखे व्यंग्य की बरछी से छेदे बिना? वह क्या तमाचा सामंत को मारेगी, जब वह स्वयं एक दुखती जगह पर तमाचा मार कर उस दर्द को दबा देना चाह रहा है... उसने संयत होकर कहा, “आपको क्या करना है, मैंने बता दिया। आपने सलाह पूछी थी।” उसका ध्यान शून्य में टँके हुए नोटों की ओर गया। स्वर में कुछ और नरमाई लाते हुए उसने कहा, “इसे जेब में रख लीजिए। चाहे दो में बाँट कर रख लीजिए, जैसा मैंने कहा है, चाहे सब दे दीजिए अगर आपको वही ठीक लगे - मुझे मत बताइए, क्योंकि उस फैसले में मैं कहीं नहीं हूँ; वह आपका ही है।”
सामंत चौंका जैसे कि अधर में टँके वे नोट उसे अभी-अभी एकाएक मिल गये हों। “हूँ।” कर उसने धीरे-धीरे हाथ अपनी ओर समेटा और नोट जेब में रख लिये।
थोड़ी देर बाद बोला, “थैंक यू, मिस जैतली। आपने मेरा बोझ हल्का कर दिया। अभी तो नहीं, बाद में मैं वीरेश्वर की माँ को उसकी अंतिम इच्छा की पूरी बात बता दूँगा - उन्हें अच्छा लगेगा। शायद कुछ सांत्वना मिलेगी - तब जब सांत्वना पाने लायक हालत उनकी होगी... थैंक यू।”
“मिस जैतली नहीं, सोमा। और थैंक यू नहीं - मुझे तो बिल्कुल नहीं। बल्कि आपकी तरह बात करूँ तो कहूँ कि थैंक तो डैडी को कीजिए क्यों कि रुपये तो उनके हैं। मैं उन्हें बताने को चिट्ठी तो छोड़ आयी हूँ - पर रुपये मैंने उनके अनजाने उठाये हैं और अभी तक तो उन्हें पता नहीं है।”
“तब तो थैंक्स मिस जैतली को ही गये - और ऋणी मैं आपका हूँ। सोमा जी का।”
सोमा ने हाथ के इशारे से सारी बात को एक तरफ ठेल दिया : आभार-वाभार का तकल्लुफ आखिर कहाँ तक खींचा जा सकता है।
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