छाया मेखल / भाग-2 / अज्ञेय
जहाँ थोड़ी देर पहले नोट थे, मानो उसी जगह पर टँकी हुई एक चुप्पी दोनों के बीच रह गयी; दोनों सूनी-सी आँखों से उधर देखते बैठे रहे। फिर सामंत उठा; ऊपर की बर्थ से सूटकेस उतार कर उसने फर्श पर रखा और डिब्बे की दीवार से पीठ टेकता हुआ उस पर बैठ गया। अभी तक वह तिरछे हो कर एक कंधे के ऊपर से ही सोमा से बात कर पा रहा था, अब सामने से कर सकता था। पर अब बात कुछ नहीं हो रही थी।
गड़ड़-गड़ाऽट्, गड़ड़-गड़ऽट्... गाड़ी की चाल सचमुच कुछ कम तेज हो गयी थी, यद्यपि धीमी नहीं : जंक्शन अभी दूर ही होगा, पर वहाँ गाड़ी की सूचना की एक घंटी बज गयी होगी...
“आप कहाँ, जंक्शन पर उतरेंगे?”
“नहीं, उससे दो स्टेशन और आगे जाना होगा। आप...?”
“मैं...” सोमा अचकचा गयी। यह सवाल उसने अभी स्पष्ट अपने-आप से भी नहीं पूछा था। धुँधला-सा उत्तर वह जानती थी कि तीन-चार घंटे की यात्रा तो वह करेगी ही : कहाँ उतरेगी, इसके दो-तीन विकल्प उसके सामने थे और समय से पहले वह परेशान नहीं होना चाहती थी। “मैं-मैं और आगे जाऊँगी।”
सामंत ने और नहीं पूछा।
गाड़ी की गति कुछ और धीमी हो गयी।
सामंत ने उठ कर सूटकेस खोला, उसमें से एक फूलमाला निकाल कर उसे बंद किया, फिर वह फूलमाला चादर के ऊपर से ही बर्थ पर पड़े शरीर के सिर की ओर पहना दी। फिर सूटकेस पर बैठ गया; घुटनों पर कोहनियाँ टेक कर गाल हथेलियों में छिपा लिये; आँखें अनदेखती-सी अधर पर टिक गयीं।
सोमा समझ गयी कि यह जंक्शन के लिए तैयारी है, कुछ बोली नहीं।
गाड़ी थोड़ी और धीमी हो गयी।
“आपको पहचाने जाने की कोई चिंता नहीं है? आप के पिता का इलाका है?”
सोमा ने चौंक कर कहा, “नहीं।” पर मन-ही-मन सोचा, यह आदमी ठीक समय पर ठीक बात सोच लेता है और उपाय कर लेता है। अच्छी बात है। और उसने पीठ टटोल कर साड़ी का पल्ला खींच कर कोट के बाहर निकाल लिया : यथा समय वह सिर ढँक लेगी और जरूरी होगा तो चेहरा भी ओट कर लेगी।
गाड़ी और धीमी हुई तो सामंत ने कहा, “मैं दरवाजे पर खड़ा रहूँगा। वैसे तो कूपे रिजर्व हैं, कोई आएगा नहीं, पर कभी कोई कम-से-कम झाँक लेना जरूर चाहते हैं। आप वहीं बैठी रहें।”
सोमा ने सिर संक्षिप्त-सा हिला दिया।
भीड़ थी, बहुत नहीं। दरवाजा बिल्कुल बंद भी छोड़ा जा सकता था, कि कोई खटखटाये तो ही जवाब दिया जाए, पर सामंत का अनुमान ठीक ही था कि दरवाजा खुला रखने में ही कम झंझट होगा - कोई कुछ पूछेगा भी नहीं। दो-एक आदमियों ने जिद कर के भीतर झाँका जरूर, पर चादर पर पड़ी माला देख कर ठिठके और 'सॉरी!' कहते हुए आगे बढ़ गये। एक सज्जन ने दोनों हाथ जोड़ कर स्वल्प-सा नमस्कार भी किया और मुँह फेरते हुए जल्दी से निकल गये। सोमा सिर पर आँचल डाले सिमटी बैठी रही। आठ-दस मिनट कितने लंबे होते हैं, इसके बारे में तरह-तरह के अनुमान उसने किये थे, पर बैठे-बैठे उसे लगा कि खैर, बहुत लंबे तो नहीं होते...
प्लेटफॉर्म पर चहल-पहल विरल हो गयी। सामंत ने एकाएक मुड़ कर धीमे स्वर में पूछा, “आप को चाय-वाय तो नहीं पीनी है?”
सोमा ने सिर हिला दिया, और एकाएक अपने सिर हिलाने के ढंग पर उसे थोड़ा अचंभा भी हुआ; कैसे उसने इस सारी स्थिति में अपने को मिल जाने दिया है कि वह उस लाश के पाँयते बैठी है और सामंत उससे चाय के लिए पूछ रहा है... पर जब यही होना था कि वह जीवन में पहली क्या, एकमात्र घर-बार छोड़ कर भागे और बिना स्टॉप के स्टेशन पर गाड़ी रुकवा कर उस में बैठे तो उसमें एक लाश का साथ हो जाय, तब और किसी संयोग पर वह क्या चौंके! नहीं, वह उतर कर दूसरे डिब्बे में भी नहीं जाएगी - तब सोच लेगी कि उसे कहाँ उतरना है, किस के पास जाना है...
सीटी बजी होगी, उसने अपने सोच में नहीं सुनी। गाड़ी चल पड़ी।
मगर इस स्टेशन पर इतने लोग क्यों थे? और सब गाड़ी के रुकने से पहले ही अकुलाये-से इधर-उधर खोजते-से दौड़ने लगे थे, हालाँकि स्पष्ट था कि ये न पहले दर्जे की सवारियाँ हैं, न सवार होने को उतावली हैं। फिर एकाएक सोमा की समझ में आ गया कि कारण क्या होगा; सामंत दरवाजा खोल कर उतरा तो उसने जल्दी से आँचल से सिर अच्छी तरह ढँक लिया। लोग वहीं आयेंगे लाश उतारी जाएगी -
इससे आगे सोचने का उसे मौका नहीं मिला। चार-पाँच आदमी कूपे में घुस आये थे; एक ने बाहर लटक कर दबे-से स्वर में पुकारते इशारा किया, 'इधर हैं, इधर हैं!' और कई और लोग भी उधर बढ़ आये।
इन्हें लाश उतारने में तकलीफ होगी। रास्ते में हटने के लिए सोमा आँचल और नीचा खींच कर अपने को समेटते हुए उठी और डिब्बे से नीचे उतर गयी। लोगों ने एक स्ट्रेचर या अरथी डिब्बे के बराबर प्लेटफॉर्म पर रखी और निःशब्द समझौते से लाश के पास कतार लगा कर खड़े हो गये कि कैसे उसे हाथ दे कर नीचे उतारेंगे।
एकाएक भीड़ के भीतर अलग एक स्त्रियों की टोली से एक अधेड़ उम्र की खद्दरपोश महिला आगे बढ़ीं, लोगों ने उनके आगे रास्ता छोड़ दिया, लाश पर झुकते हुए एक ही कलेजा-फोड़ सिसकी में उन्होंने कहा, “हाय मेरा बेटा-मेरा बीरू - “ और फिर वह सिसकी नीरव हो गयी, केवल शरीर का ढाँचा काँपता रहा जैसे भीतर-ही-भीतर मथा जा रहा हो। देखती हुई सोमा की आँखों में भी आँसू आ गये, उसे डर लगा कि वह भी सिसक उठेगी, उसने आँचल और नीचा खींच कर तमतमाया चेहरा बिल्कुल ढँक लिया और साथ ही एकाएक उसे यह याद कर के संतोष भी हुआ कि सवेरे-सवेरे लोगों का ध्यान न आकृष्ट करने के ख्याल से वह एक सादी सफेद धोती पहन कर ही घर से निकली थी -नहीं तो इस परिस्थिति में कितनी कनस्पिकुअस हो जाती!
अधेड़ महिला सीधी खड़ी हो कर एक तरफ हट गयी। स्पष्ट था कि उसने बड़े संकल्पपूर्वक अपने को वश में किया है, और केवल इसलिए नहीं कि भावनाओं का प्रदर्शन अशोभन होगा, कुछ इस बोध से कि जो घटित हो रहा है, वह ऐतिहासिक है और उस ऐतिहासिक घटना में कहीं उसका भी स्थान है - उसे भी एक भूमिका निबाहनी है। सोमा के मन में प्रशंसा का भाव उठा, साथ ही संकोच का भी कि वह स्वयं ऐसी स्थिति के लिए कितनी अप्रस्तुत है; संकोच से वह और भी सिमट कर झुक गयी।
महिला उतर आयी थी; लाश भी उतार ली गयी थी। गार्ड कुछ दूर पर खड़ा देखता रहा था; कार्यवाही पूरी हो गयी जान कर उसने सीटी दी और साथ ही गाड़ी ने; दरवाजे पर खड़े हुए लोगों ने क्षण-भर मानो संकेत की प्रतीक्षा में एक-दूसरे की ओर देखा; झटके से गाड़ी के खिंचने की गड़गड़ाहट 'राम नाम सत्त है!' की पुकार में मिल गयी; सोमा गाड़ी की ओर मुड़े-मुड़े सोचने ही लगी थी कि दो बाँहों ने एकाएक उसे घेर लिया और एक बिल्कुल टूटे हुए दिल की कराह उसके कंधे पर फूट पड़ी : “मेरी बहू - मेरी बेटी -ईऽईऽई...”
सोमा बिल्कुल सकते में आ गयी थी। परिस्थिति का यह मोड़ संभावना से भी परे था, अकल्पित था। पर जब परिस्थिति ने यह मोड़ ले ही लिया तब एकाएक वह यह पहचानने को भी बाध्य थी कि इससे अधिक स्वाभाविक क्या हो सकता था? अधेड़ महिला की कौली में उसने देह को कुछ कड़ा करने की कोशिश की थी, पर वह आलिंगन और घना हो आया था; और वह कराह इतनी टूटी हुई, इतनी कातर थी कि उस जकड़ से अपने को छुड़ाने में जल्दी करना सोमा को अनावश्यक क्रूरता लगी। बेटे की लाश के सामने माँ एक ऐतिहासिक भूमिका अदा कर रही थी - वह शहीद की माँ थी; पर अनजान बहू के सामने अपना दुःख-दुर्भाग्य कबूलने में क्या संकोच, वह तो खुद उतनी अभागी और दुःख की मारी होगी...
परिस्थिति से भावना के मामले में बेलाग हो कर उसे देख सकने में कुछ सहारा था, पर उससे परिस्थिति के बाहर शरीर से तो नहीं निकाला जा सकता था! गाड़ी चली गयी थी। लाश को लोगों ने थोड़ी-सी सलाह के बाद उठा लिया था; सलाह इस बात को ले कर हुई थी कि बँधा हुआ चेहरा उघाड़ा जाए या नहीं, पर सामंत ने एक बड़े दुर्निवार इशारे से सब को रोक दिया; लोग समझ गये कि चेहरे की हालत शायद अब देखने लायक न होगी - क्या पता चेहरा भी हो कि न हो! - और एक बार चोर आँखों से उस खद्दर-धारिणी महिला की ओर देख कर सब कंधा देने के लिए झुक गये थे। पुरुषों की टोली लाश के पीछे हो ली थी; स्त्रियों की टोली उसके पीछे जुट रही थी जिसके केंद्र में वह खद्दर-धारिणी अधेड़ महिला अपनी बाँहों के घेरे से सोमा को मानो और सब से बचाती हुई खड़ी थीं।
भीतर ही भीतर सोमा ने अपना सामना किया और हार मान ली। उसे क्या जल्दी है कहीं पहुँचने की; और कौन बड़ा जोखम है थोड़ी देर विधवा बहू बनने में - इस सार्वजनिक मौके से निकल कर वह अकेली होगी तो कुछ-न-कुछ कर लेगी... उसने शरीर ढीला छोड़ा; बाँहों से प्रेरित जिधर को चलायी जा रही थी, चलने लगी। इस प्रकार माँ और वह बाकी स्त्रियों से आगे, कुछ अलग भी हो गये थे; इसमें सोमा को थोड़ी रक्षा भी दीखी - इस तरह वह फिलहाल उनके कुतूहल से तो बची रहेगी...
कैसी होती होगी क्रांतिकारी की बहू - शहीद की विधवा!
बाहर थोड़ी देर शायद इस पर विचार हुआ कि लाश ट्रक पर रखी जाएगी या लोग कंधा दे कर ले जायेंगे; ट्रक लाया गया था पर कंधा देना चाहनेवालों की बात ऊपर रही। ट्रक के पीछे एक मोटर थी; माँ के साथ सोमा उधर प्रेरित होती गयी और गाड़ी में बिठा दी गयी; अगली सीट पर किसी ने सामंत को बिठाने की कोशिश की, पर वह छिटक कर कंधा देनेवालों के साथ हो लिया। और कोई स्त्री वहाँ बैठे? पर कोई बैठने को नहीं बढ़ी; उनकी टोली ज्यों-की-त्यों रही। तब गाड़ी का दरवाजा बंद कर दिया गया। उस अल्पकालिक और आंशिक अकेलेपन में सोमा को एकाएक लगा कि वह बहुत थक गयी है, बहुत थक गयी है। ...उसने शिथिल हो कर सिर माँ के कंधे पर टेक दिया। माँ ने तुरंत दूसरा हाथ उठा कर उसके सिर को और कंधे के साथ सटा लिया और धीरे-धीरे थपकने लगी। सोमा को पल-भर तो लगा कि वह फूट पड़ेगी; वैसा तो नहीं हुआ पर एक बड़ा-सा आँसू टपक कर माँ की कलाई पर गिरा; उसकी थपकी एक पल ही-भर को ठिठकी और फिर जारी हो गयी। मोटर धीरे-धीरे सरकने लगी। आगे रह-रह कर स्वर गूँज उठता : “राम नाम सत्य है!”
राम नाम सत्य है! लेकिन सत्य क्या है? राम के अलावा भी कुछ वह है कि नहीं?
2
चौथे तक सोमा जैसे स्वप्नाविष्ट-सी चली आयी थी। जो कुछ घटित हुआ, यह नहीं कि उस में से कुछ उसकी नजर से ओट हो गया हो, या उसकी छाप अधूरी ग्रहण की गयी हो; पर कर्तृ-भाव जैसे उस में नहीं रहा था, या स्थगित था। वह कुछ कर नहीं रही थी, कुछ हो रहा था जिस में वह भी अनिवार्य रूप से थी। वीरेश्वर की माँ शोभा देवी ने सारी स्थिति ऐसी कुशलता से सँभाल कर अपने अधीन कर ली थी कि सोमा देखती रह गयी थी। उसे अच्छा भी लगा था कि यह अधेड़ और साधारण पढ़ी विधवा इस तरह परिस्थिति पर काबू रखे है - इतना अच्छा लगा था कि वह प्रायः भूली-सी रही थी कि उस परिस्थिति का वह भी हिस्सा बनी हुई है : कि विधवा का काबू उसे भी अपनी परिधि में समेटे है।
इस का कारण भी था। इस में रक्षा थी। कार में जबसे अपनी बाँहों के घेरे में शोभा देवी ने सोमा को बाकी स्त्रियों से अलग कर लिया था तब से वह उसे बराबर ओट दिए हुए थीं। अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ निस्संदेह सहानुभूति प्रकट करने आयी थीं, पर उनमें कम कुतूहल भी नहीं था वीरेश्वर की उस बहू को देखने का जिस का उन्हें अब तक पता भी नहीं था - माँ को ही कहाँ पता था कि वीरेश्वर ने विवाह कर लिया था! इतना ही तो वह जानती थीं कि क्रांतिकारियों में प्रायः ऐसा होता है कि सहकर्मिणी ही सहधर्मिणी भी बन जाती है। यह स्वाभाविक भी है; वैसे गोपन काम के लिए सुविधा और सुरक्षाजनक भी, और सच बात यह है कि जब नौजवान लड़के-लड़कियों का दिन-रात का साथ हो और वह भी जोखम और तकलीफों से भरा, तो अच्छा है कि उनके जोड़े बन जायें... कुछ ऐसी बात दूसरी स्त्रियों को समझाते हुए शोभा देवी को सोमा ने सुना भी था। सोमा को आगंतुकों और मातमपुर्सी करनेवालों से बचाने के लिए शोभा देवी सबसे दूसरे कमरे में ही मिलती थीं - कोई बहू के साथ हमदर्दी दिखाता भी था तो वह कह देती थीं, 'उसे अभी अकेला छोड़ दो - सँभल लेने दो - अभी तो बिचारी रो भी नहीं पायी है...' या कभी अपनी ही बात को काटती हुई, 'रो सकती भी तो नहीं होगी : ऐसे कर्रे काम करनेवालों को रो सकने की छूट थोड़े ही होती होगी...' वह एक शहीद की माँ है, एक राष्ट्रकर्मी की जो गोली खा कर मरा है, इस बात की याद से उन्हें स्वयं तो एक गर्व का बोध भी होता था, वह उन्हें स्त्री-समाज के बीच कुछ ऊँचा उठा देती थी और उन्हें लगता था कि उन्हें इस समाज को बताना है कि ऐसी स्थिति कैसे ओढ़ी और निबाही जाती है, ऐसा दुःख कैसे सहा जाता है... कहीं मन में छिपा हुआ यह भाव भी रहा होगा कि यह न रोनेवाली, चुपचाप कलेजा फूँकनेवाली क्रांतिकारिणी बहू भी तो जाने कि वह भी शहीद की माँ है, वह भी बिना हारे अपना दुःख ढो सकती है... कमरे में सन्न बैठी रहती सोमा ने इस बात को भाँप लिया था; कभी उसको अपने ऊपर कुढ़न भी होती कि वह क्यों ऐसे अपने को परिस्थिति के शिकंजे में और कसता जाने दे रही है; पर साथ ही ऐसी छोटी-छोटी बातों की पहचान से उसे कुछ सहारा भी मिलता था - वे उसकी स्थिति को कुछ अधिक सहनीय नहीं तो कम दुस्सह तो बनाती ही थीं... स्त्रियों का आना-जाना दिन-भर ही रहता था; तीसरे पहर सबको घरों में अवकाश होता था इसलिए उस समय आवा-जाही बढ़ जाती थी; पर शोभा देवी को तीसरे पहर कांग्रेस के दफ्तर में काम करने जाना होता था इसलिए थोड़ी देर में सबको विदा कर के वह सोमा से कह जाती थीं कि नीचे का कुंडा बंद कर ले और महरी के आने या स्वयं उनके लौटने तक किसी के लिए न खोले। सोमा को भी इसमें बड़ी सुविधा थी। शोभा देवी के चले जाने पर वह अकेली बैठी कुछ-न-कुछ पढ़ती रहती थी; नीचे कुंडा खड़कते ही वह माथा ढक कर जा कर किवाड़ खोल देती और फिर धीरे-धीरे लौट आती थी।
और मोहन सामंत? दाहकर्म वाली शाम के बाद से उसे सोमा ने देखा नहीं था। उस रात तो वह माँ से कुछ बात करने आया था। तभी मौका देख कर आगे बढ़ कर धीरे से कह गया था, 'अम्मा मुझे मन्नू नाम से ही जानती हैं, ध्यान रखना!' उसके बाद फिर नहीं दीखा। उसे नीचे बाहर का कमरा दिया गया था; नीचे से ही वह सवेरे नाश्ता कर के चला जाता था और रात को किसी समय आता था। सोमा मन-ही-मन उस पर बेहद कुढ़ रही थी, पर बिना उससे मिले और बात किये अपना कर्तव्य निर्धारित भी नहीं कर पा रही थी। एक बार उसने चाहा था कि शोभा देवी से पूछे - पर क्रांतिकारियों के बारे में पूछना होता है कि नहीं - क्रांतिकारियों में ऐसा पूछना संभव है कि नहीं, इस बारे में शंका होने से वह झिझक गयी। आखिर तो मिलेगा ही, जब मिलेगा तब सलट लेगी, तब तक उसे भी क्या जल्दी है! यह सोच कर वह रह गयी थी।
पर पाँचवें दिन सवेरे ही माँ ने आ कर पूछा, “बहू, मन्नू को तूने कहीं भेजा है, या तुझसे कुछ कह के गया है?”
सोमा ने चकित हो कर कहा, “नहीं तो, अम्मा जी! मैंने तो तीन दिन से देखा ही नहीं।”
“रात का खाना भी वैसे ही रखा है - रात को आया नहीं लगता। मैं तो नाश्ता देने गयी थी।”
“बाहर-बाहर चले जाते हैं।” सोमा कह गयी, फिर उसे ध्यान आया कि आदरसूचक बहुवचन तो ठीक नहीं है।
“रात को दरवाजा नहीं खुलवाता?”
“नहीं, बाहर का कमरा बाहर से भी बंद होता है। चाभी उसके पास है। देर-सबेर आता-जाता है न। न मैं पूछती हूँ, न जरूरत से ज्यादा कुछ जानना चाहिए - है न? पर खाना रखने को तो कह गया था?”
“मुझे तो कुछ पता नहीं। पहले भी ऐसा करता रहा है?”
“पहले कब! बरसों बाद तो आया है। मैं तो अचानक और कहीं मिलती तो पहचान भी पाती कि नहीं, पता नहीं। बीरू के खेल के साथियों में था - मुझे क्या पता था कि आगे क्या-क्या खेल खेलेंगे ये लोग!”
शोभा देवी थोड़ी देर चुप रहीं। फिर बोलीं, “बहू, देश का काम तो देश का काम है। सबके रास्ते अपने-अपने हैं, इनके-इनके। क्या तू भी तो उसी रास्ते की है! - रास्ते दूसरों को तकलीफ देनेवाले हैं, पर माँओं का तो काम ही है सब सहना। पर तू ही कह, यह बिना बताये चल देने की तकलीफ देना क्या हमेशा जरूरी होती है? मैं क्या रोकती हूँ? मैंने अपने सगे बेटे को नहीं रोका तो...” एकाएक उनकी आवाज भर्रा आयी, उन्होंने चुप हो कर आँचल के छोर से आँखें दबा लीं और क्षण-भर बाद बोलीं, “तेरी सुनता है?”
सोमा क्या जवाब दे? “अम्मा जी, बात करने का मौका होता तो तब तो बताऊँ! पर मैं पूछूँगी आया तो।”
“हाँऽ - वैसे तो तुम लोगों के काम में कौन किससे बात करता होगा!”
पानी गहरा ही होता जाता है।
“नहीं, माँ जी, सो बात नहीं। कभी तो बात होती ही है। मैं जरूर पूछूँगी।”
“पूछना, बेटा। पर क्या पता, कब तू भी ऐसे ही बिना बताये चली जाएगी, और मैं बरसों राह देखती बैठी रहूँगी। बरस भी क्या दिखाएँगे, तू आएगी कि...”
अब की बार वह अपने को सँभाल नहीं सकीं। सोमा कहती रह गयी कि “नहीं माँ, मैं बताये बिना नहीं जाऊँगी - “ और शोभा देवी उठ कर दूसरे कमरे में चली गयीं। वहाँ से कुछ पटक-पटक कर झाड़ने-पोंछने के स्वर सुन कर सोमा समझ गयी, शोभा देवी को स्वस्थ होने में थोड़ी देर लगेगी।
थोड़ी देर बाद उसने धीरे से पुकारा, “अम्मा जी!”
“अभी आयी।”
सोमा बैठी सामंत पर कुढ़ती रही। अब आये तो लिहाज नहीं करना होगा। कुछ साफ-साफ बात करनी ही होगी। हालाँकि ठीक क्या बात, पर उसके सामने स्पष्ट नहीं हो रहा था। विचार इसी बात पर अटक गया कि अच्छा हो ऐसे समय आये जब शोभा देवी सामने न हों - नहीं तो बात करना बहुत कठिन हो जाएगा - परिस्थिति निबाह कर बात करने की चिंता में वह गुस्सा ठीक-ठीक प्रकट भी कर पाएगी कि नहीं, पता नहीं! पर आये तो सही, आये तो सही...
“क्या है, बहू?”
सोमा अचकचा गयी। वह भूल गयी थी कि क्या कहने के लिए उसने अम्मा को पुकारा था। बोली, “मुझे कुछ काम बताइए न - खाली तो बैठी रहती हूँ।”
शोभा देवी ने नरम स्वर में कहा, “कर लेना काम, बेटी। ऐसा क्या काम रहता है!” फिर कुछ बदल कर, “पर तुझे काम भी क्या सौंपूँ - तू रहेगी भी?”
सच्चाई का भी आग्रह था, अनुकूल मौका भी था, सोमा ने संकोच दिखाते हुए कहा, “अम्मा जी, सो तो है। चली तो जाऊँगी जल्दी ही। बता कर जाऊँगी। पर जाना तो होगा ही-”
“हाँ तू देश का ही काम करना। अम्मा का काम जैसे इतने दिन हुआ है, और हो लेगा। तेरा घर है, जब आएगी आ जाना। मैं कुछ पूछूँगी नहीं - इतना तो बीरू ने मुझे सिखा दिया। पर तू अभी से जाने की सोच रही है?”
अब मौका बनता जा रहा है, इसे छोड़ना नहीं होगा! “हाँ, अम्मा जी, जल्दी ही जाना होगा। सामंत आ जाए तो तै करूँगी।”
माँ थोड़ी देर चुप रहीं। फिर बोलीं, “तो तेरी पार्टी में उसका नाम सामंत है!”
सोमा ने ओठ काट लिया। यह क्या वह कह गयी? पर साथ ही एक प्रश्न भी उसके मन में अटक गया : मन्नू वीरेश्वर का बचपन का साथी है; यह तो हो सकता है कि शोभा देवी उसका पूरा नाम भूल गयी हों, पर सामंत नाम सुन कर भी उन्हें याद न आये, इस पर विश्वास करने में जरा जोर पड़ता है... प्रश्न को टालते हुए उसने पूछा, “अम्मा जी, मन्नू के घर के लोग क्या यहीं आसपास कहीं रहते हैं?”
“रहते थे। अब तो चले गये हैं। बाप कहीं दफ्तर में काम करता था। बीरू की तो आदत थी, अपने खेल के साथियों को स्कूल से ही साथ ले आता था - अम्मा, यह मन्नू है, यह रामू है, यह मोहन है, यह फलाना है... जैसे बस, इतना नाम जान कर मैं सब को अपने ही बेटे मान लूँगी! पर सब मेरे बेटे ही तो हैं - “ कहते-कहते माँ फिर उदास हो गयीं।
सोमा ने बात को सँभालने और राह लाने के लिए फिर पूछा, “कहाँ चले गये वे लोग?”
“ठीक तो याद नहीं? लखनऊ गये थे - या नहीं शायद; हाँ, बरेली बदली हो गयी थी, ऐसा सुना था। यह भी कभी सुना था कि मन्नू डॉक्टरी पढ़ेगा, कॉलेज में भरती हुआ है-”
हूँ... डॉक्टरी पढ़ेगा... डॉक्टर मोहन सामंत...
“अम्मा जी, कितने बरस हो गये?”
“आठ-दस बरस तो हो ही गये। पढ़ता होगा तो अभी पढ़ ही रहा होगा - बीरू से तो दो बरस छोटा था। बीरू ने तीन बरस पहले कॉलेज छोड़ा था - पर बीरू की बात तुझे क्या बताऊँ, तू तो सब जानती होगी!”
“अम्मा जी, क्रांतिकारियों के बारे में कौन क्या जानता है! कितना भी जान लो, और जानने को बहुत कुछ रह जाता है।”
“सो तो तू ठीक कहती है, बहू। मैं ही समझती रही, बीरू मेरा बेटा है, नौ महीने मेरे पेट में रहा, मुझसे ज्यादा उसे कौन जानेगा। पर फिर रोज नये गुल खिलने लगे तो समझ में आया, कोई किसी को नहीं जानता या जान सकता - सब जैसे एक दूसरा चेहरा पहने हुए इस दुनिया में आते हैं, एक-दूसरे से मिलते हैं, नाते-रिश्ते जोड़ते हैं और चले जाते हैं। सब सोचते हैं कि हम एक-दूसरे को पहचानते हैं, पर कोई किसी को नहीं पहचानता - कोई किसी को नहीं पहचानता...”
इस चिंता-धारा को थोड़ी देर बह लेने का, विचार को पच जाने का समय दे कर सोमा बोली, “अम्मा जी, अपने को ही कौन पहचानता है - दूसरों के नाम और चेहरे तो सब जानते हैं, या समझते हैं कि जानते हैं - पर खुद जो चेहरा पहने हैं उसे भी पहचानते हैं या नहीं, इसका भी क्या ठिकाना है। मुझे तो लगता है, कभी एकाएक शीशे में चेहरा दीख जाय तो यही सोचते रह जायें कि सामने कौन खड़ा है! वह तो पहले से जान लेते हैं कि शीशे में मुँह देखना है, तो जो मुँह दीखता है उसे अपना मान लेते हैं।”
शोभा देवी को लगा कि बात जितनी उन्होंने कही थी उससे आगे बढ़ गयी है - उन्हीं का दिया हुआ विचार था पर ज्यादा उलझ कर, गहरा हो कर लौट आया है। अनिश्चित स्वर से बोलीं, “हाँ, बहू...” फिर बात को कुछ बदलते हुए उन्होंने कहा, “बीरू के कुछ पुराने बचपन के फोटू घर में हैं, दिखाऊँगी। बाद के उसने सब ले लिये थे - जला दिये। कहता था कि ऐसी चीजें जितनी कम हों, अच्छा। वह तो बचपन के फोटू भी सब जला देता, मैं लड़ गयी!”
सोमा ने जल्दी से कहा, “देखूँगी, अम्मा जी, सब देखूँगी।” वह फोटो देखने के संकट से भरसक बचना भी चाहती थी, पर उदासीनता दिखाने से भी कैसे चलता, इसलिए उसे कुछ कहना ही था।
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। फिर शोभा देवी ने कहा, “अभी तक भी नहीं आया। अब क्या पता कब आएगा - आज आएगा भी कि नहीं - कल-परसों, दस दिन बाद... माँ होना भी एक शाप ही है...” कहती-कहती वह उठ खड़ी हुईं, “चल कर कुछ काम करूँ - भगवान् जो दिखाएँगे, देखना ही होगा...”
“अम्मा जी, मैं कुछ नहीं कर सकती?”
“करेगी, करेगी - “ पुचकारते-से स्वर में कहती और साथ ही बरजती हुई शोभा देवी चली गयीं।
मिलने आनेवालों की बैठक का समय भी हो गया। सबको विदा कर के शोभा देवी जाने की तैयारी करने लगीं तो नीचे कुंडा खड़कने की आवाज सुनाई दी। शोभा देवी ने ऊपर से ही आवाज दी, “कौन - मन्नू?”
नीचे से सामंत की आवाज आयी, “हाँ, अम्मा!”
“आ गया तू? बता के तो जाना चाहिए - मैं सोच-सोच के मरती रही कि पता नहीं क्या हो गया - “
“अम्मा, काम पड़ गया थ। इतनी देर हो जाएगी, यह ख्याल नहीं था। और रात बाहर रहने का जरा भी ख्याल होता तो जरूर बता जाता, अम्मा!”
“हूँ, सब एक-से ही होते हैं! ...कुछ खाया-वाया है, लाऊँ?”
“खा आया, माँ। अब रात को ही...”
“अच्छा, अब तो यहीं रहेगा न? मैं बाहर जा रही हूँ। कहीं जाएगा तो बहू से कह के जाना - उस से बात कर के जाना।”
सोमा की कल्पना ही थी, या कि स्वर धीमा हो जाने के साथ कुछ सहमा-सा भी हो गया था, “हाँ, अम्मा। अभी आता हूँ।”
शोभा देवी नीचे उतरीं और थोड़ी देर और मन्नू पर भुनभुना कर चली गयीं। नीचे किवाड़ बंद हो गये। सन्नाटा हो गया। थोड़ी देर उसे सुनते रहने के बाद सोमा ने आवाज दी, “सामंत - ए डॉक्टर साहेब!”
कुछ घबराई-सी आवाज में उत्तर आया, “आया - हाजिर हुआ।” सीढ़ियों पर जूतों की छप्-छप् हुई जो ऊपर की सीढ़ियों पर आते-आते कुछ धीमी हो गयी, फिर दरवाजे के पास सामंत का स्वर बोला, “कहिए।”
“कहती हूँ - सामने तो आइए जरा!”
सामंत धीरे-धीरे सरकता हुआ कमरे के भीतर आ गया।
“मुझे यहाँ ऐसे फँसा कर लापता हो जाने का क्या मतलब होता है?”
सामंत थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “मैंने फँसाया, यह कहना तो आप का सरासर अन्याय है। मैंने ऐसा कुछ नहीं किया। मैंने क्या एक शब्द भी कहा जिससे यह स्थिति आ गयी? कोई ऐसी हरकत की?”
सोमा को मन-ही-मन मानना पड़ा कि उसकी बात में तत्त्व है। पर इस बाध्यता से उसका गुस्सा भड़का ही। “न कहा सही, हरकत न की सही; पर ओमिशन का अपराध भी उतना ही बड़ा होता है। क्यों नहीं कह सकते थे कि यह हमारे साथ नहीं है?”
सामंत ने भी थोड़ा तेज पड़ कर कहा, “आप क्यों नहीं कह सकती थीं? रेलगाड़ी भर लोग थे - मैं क्या सब के बारे में कहने गया था कि मेरे साथ नहीं हैं?”
“पर आपके डिब्बे में तो नहीं थे - कूपे में साथ लड़की हो और बाकी रेलगाड़ी में लोग हों, क्या एक बराबर होते हैं?”
“कूपे में साथ लड़की हो क्यों? मैंने तो नहीं बुलाया था।”
सोमा को अपने पर और खीझ आने लगी। क्यों उसने यह गलत नुकता चुना झगड़ा करने के लिए?
“तुम अपने साथी की लाश उसके घर पहुँचाने ला रहे थे, रास्ते में उसे बेच कर पैसे बना लिये!”
सामंत तिलमिला गया। “आपको यह जानने में दिलचस्पी हो, तो वह सारा रुपया मैं पार्टी के खाते में जमा कर आया हूँ। पर आप कहिए, आपने क्या सोच कर वह लाश खरीद ली?”
“तुम्हारी सॉब-स्टोरी सुन कर पिघल गयी। मैं लाश भी खरीद नहीं रही थी, उसे बेचने के संकट से तुम्हें मुक्त कर रही थी।”
“आपका एहसानमंद हूँ। पर उससे आगे जो कुछ हुआ, उसकी मेरी जिम्मेदारी नहीं है। बल्कि आप के यहाँ आने ने मेरे लिए कुछ कम मुश्किल नहीं खड़ी की है”
“क्या मुश्किल खड़ी की है, मन्नू साहब? कि आपको - “
“जो भी की है, उसका ब्योरा अब नहीं दूँगा - बेकार है। अब जो स्थिति है सो है -कि आप इस घर की बहू हैं, मेरे भाई की विधवा - “
आग के धुएँ-से में एक कदम आगे बढ़ कर सोमा ने कहा, “जरा इधर तो देखो, देवर!” और तड़ से एक तमाचा सामंत के गाल पर जड़ दिया। दूसरा हाथ उठा कर वह एक और भी थप्पड़ जमानेवाली थी कि सामंत ने उठा हुआ हाथ पकड़ लिया; सोमा ने फिर पहला हाथ उठाया और सामंत ने वह भी पकड़ लिया। सोमा एक क्षण फुफकारती-सी उसे देखती रही, फिर एकाएक झटके से उसने हाथ छुड़ा, फुरती से सामंत के आगे को झुके हुए बालों का लच्छा पकड़ कर झटक दिया। अप्रत्याशित वार से लड़खड़ाये सामंत से उसका दूसरा हाथ भी छूट गया। झटका देने में सोमा का अपना कच्चा जूड़ा भी खुल गया था और बाल ढलक कर चेहरे पर आ गये थे; एक हाथ से उन्हें हटाते हुए फिर आगे बढ़ कर उसने कहा, “खबरदार जो मुझे फिर विधवा कहा तो!”