छाया मेखल / भाग-3 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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उसके इस रूप से सामंत काफी सहम गया था। सोमा का हाथ फिर उठा हुआ है, यह देख कर उसने भी फुर्ती से बढ़ कर उसके दोनों हाथ फिर पकड़ लिये। अब की बार वह सावधान था, इसलिए कलाइयों पर उसकी जकड़ काफी कड़ी थी। कसमसा कर सोमा ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की, 'चट्!' सी एक हल्की आवाज से उसने जाना कि उसकी कलाई की काली चूड़ी टूट गयी है, और क्षण-भर बाद ही एक तीखे दर्द से पहचाना कि काँच कलाई में चुभ भी गया है। इससे क्रोध कम नहीं हुआ, बल्कि आग में मानो घी ही पड़ा; उसने फिर अपने को छुड़ाने की व्यर्थ कोशिश की और फुफकारते हुए कहा, “विधवा-विधवा-विधवा! एक दिन तुम्हारी ही विधवा बनूँगी, तब - “

सामंत ने उसकी कलाइयाँ छोड़ दीं और दो कदम पीछे हट गया। क्षण-भर सोमा के तमतमाये, अस्तव्यस्त रूप को और धौंकनी-से चलते हुए सीने को निहारता रहा, फिर बोला, “आयी मस्ट से, मिस जैतली आप के हौसले बड़े बुलंद हैं।”

सोमा अपने मुँह से निकल गयी बात की व्यंजनाएँ सोच कर ही बौखलाई हुई थी; सामंत की बात की व्यंजना से और भी हतप्रभ हो गयी। उसे सूझा नहीं कि सामंत की इस नयी ढिठाई का कैसे जवाब दे। थोड़ी देर उसे घूरती रही, मानो दीठ की आग से ही भस्म कर देगी, फिर केवल एक शब्द बोली, “स्कंक!” और उसकी ओर पीठ फेर कर खड़ी हो गयी।

दोनों एक लंबे क्षण तक ऐसे ही खड़े रहे : मानो एक-दूसरे को तौलते हुए - सामंत भरपूर आँखों से उसे देखता हुआ, वह कनखी से उसकी शिस्त लेती हुई, दोनों निश्चल; जैसे शिकार और शिकारी दोनों ताक में हों कि कौन हिले तो कौन वार करे... फिर सामंत ही हिला - पर वार करने को नहीं; वह नीचे झुका, टूटी हुई काली चूड़ी का काँच उठाने के लिए। और तब सोमा को वह जवाब सूझ आया जो ऐन समय पर नहीं सूझा था।

“किसी की विधवा बनने के लिए उससे ब्याह जरूरी नहीं है, मिस्टर - डॉक्टर सामंत; यह शिक्षा मुझे आप ही से मिली है। गलतफहमी में न रहिएगा।”

सामंत फिर कुछ कहने को हुआ, पर उसने अपने को रोक लिया। बदले स्वर में बोला, “सोमा जी, आपकी कलाई कट गयी है - खून बह रहा है। आई एम सॉरी, बिना चाहे हर बार मैं आपको चोट पहुँचाता हूँ - “

सोमा ने नजर झुका कर कलाई की ओर देखा। सचमुच खून बह कर हथेली पार करता हुआ उँगलियों तक आ गया था। वह फर्श पर न टपके, इसलिए मुट्ठी बंद कर के हाथ उठा कर वह जाने लगी तो सामंत ने कहा, “काँच कहीं अंदर न रह गया हो - मुझे देखने दीजिए - “ और रूमाल निकाल कर आगे बढ़ आया।

संग्राम से सोमा थक गयी थी। उसने सामंत को कलाई पकड़ कर देखने दी; टोह कर सामंत ने एक जगह से त्वचा दबायी और काँच के दो टुकड़े भीतर से निकाले। खून कुछ अधिक बहने लगा था, रूमाल वहीं दबा कर वह बोला, “इसे तनिक ऐसे ही पकड़े रहिए, दवा मैं ले कर आता हूँ - “ और फुर्ती से नीचे उतर कर रुई, पट्टी और मरहम की एक ट्यूब ले आया।

“पट्टी-वट्टी रहने दीजिए - अम्मा को क्या बताऊँगी!”

सामंत ने एक बार अनुताप-भरी, याचक दृष्टि से उसकी ओर देखा और जैसे बात मान ली; घाव साफ कर के उसने मरहम लगा कर रुई का गाला उस पर रखा और बोला, “थोड़ी देर इसे दबाये रखिए, खून अभी बंद हो जाएगा, और यह दवा महकेगी भी नहीं।”

सामंत डॉक्टर हो या न हो, उपचार तो अच्छा करता है, और उसके हाथ में वह लिहाज, वह मजबूत नरमी है जो डॉक्टर के हाथ में होती है या होनी चाहिए...

सोमा धीरे-धीरे हट कर एक ओर चौकी पर बैठ गयी, सामंत खड़ा रहा। थोड़ी देर बाद जैसे हौसला जुटाता हुआ बोला, “सोमा जी, आपने बुलाया था - यह एक अच्छी-खासी वारदात तो हो गयी पर काम की बात तो शायद कुछ नहीं हुई। वह कर नहीं लेनी चाहिए?”

सोमा ने कहा, “हाँ। इसका फैसला तो जब जैसा होगा, होगा। अभी तो मान न मान, मैं तेरा मेहमानवाली हालत है - वी जस्ट हैव टु पुल टुगेदर।”

“घबराइए नहीं, सोमा जी, नाव कुछ ऐसी खस्ता नहीं है, न यह अभी मँझधार ही है - कोई ऐसा बड़ा प्रॉब्लेम नहीं है - “

सोमा ने तीखी नजर से उसकी ओर देखा : नहीं, वह हँस नहीं रहा था। तब बोली, “हाँ, प्रॉब्लेम बड़ा नहीं है। मुझे यहाँ से निकलना है, बस। और जाऊँगी तो अम्मा जी को बता कर जाऊँगी, यह मैंने उन्हें वायदा कर दिया है। पर जब भी जाऊँगी, वह मान लेंगी -क्रांति का रास्ता उनका नहीं है पर क्रांतिकारियों की जिम्मेदारी के प्रति उनमें बड़ी श्रद्धा है।”

“क्रांतिकारियों की, और उनकी बहुओं की - है न?” कहते-कहते सामंत ने उसकी ओर देखा। थोड़ा-सा मजाक करने का मौका वह चूकना नहीं चाहता था, पर डर भी रहा था कि इस कँटीले रास्ते पर पैर रखते ही फिर हंगामा तो नहीं हो जाएगा।

सोमा ने फिर भड़कने की जरूरत नहीं समझी। बोली, “हाँ, तो परसों का कह दूँ? कल भी जा सकती, पर उन्हें बता कर थोड़ा समय दे देना चाहती हूँ। उन्होंने मेरा कुछ बिगाड़ा नहीं है, अचानक उनके जीवन में आ गयी हूँ; उन्होंने जो स्नेह दिया है, उसकी ऋणी भी हूँ - बिना वजह उन्हें तकलीफ नहीं देना चाहती।”

“सो तो है। पर आप चाहें तो सोच सकती हैं कि आपने भी उन्हें कुछ दिया है -हिसाब बराबर है।”

“वह कैसे?”

“उनका बेटा था - अब नहीं है। माँ के पास अब क्या बचता है? कुछ नहीं। पर बहू है तो - कंटिन्यूइटी है, फ्यूचर के साथ भी एक रिश्ता है, सिर्फ पास्ट के साथ नहीं।”

सोमा थोड़ा-सा झिझकी; फिर उसने झकझोर कर अपने को समझाया कि आज की दुनिया में ऐसी बातों में संकोच कोई नहीं करता और वह यों भी कौन अपनी बात कर रही है, एक सिद्धांत की ही तो बात कर रही है बोली, “कंटिनीइटी ऐसी बात बहू के साथ तो नहीं, संतान के साथ हो सकती - या संतान के एक्स्पेक्टेशन के साथ। यहाँ तो वह सब लागू नहीं होता।”

“वैसी बात होती तब तो बहुत बड़ा सहारा होता - तब आपको - तब बहू के घर छोड़ कर जाने का भी कोई सवाल न होता, कम से कम फिलहाल। पर इतना भी कम नहीं है। फिक्र करने को कोई हो, यह भी सहारा होता है। आप चली जायेंगी तो वह आपके बारे में सोचेंगी कि कब कहाँ क्या कर रही होगी बेचारी; बेटे को ले कर जो कुछ वह अब नहीं सोच सकतीं बहू को ले कर सोचेंगी और उन भावनाओं को बहने का रास्ता मिलता रहेगा।”

सोमा ने मानते हुए भी स्वीकार न करते हुए कहा, “होगा। आई सपोज-क्रांतिकारियों को भी अपनी सफाई के लिए कोई-न-कोई दलील तो खोजनी पड़ती है! माँ-बाप को छोड़ कर चल दते हैं तो क्या उनके भले के लिए, या उनकी भावनाओं को बहने का रास्ता देने के लिए?”

इस पटरी का अंत आ चुका था। सामंत ने पूछा, “कहाँ जायेंगी, आपने तै कर लिया?”

“हाँ। पहले तो दिल्ली जाऊँगी। वहाँ से आगे और - उसके बाद कोई प्रॉब्लेम नहीं है।”

“मुझे मुरादाबाद जाना है। वहाँ तक साथ चल सकता हूँ - इफ यू विश। नहीं तो यहीं से दूसरी गाड़ी में बैठ जाऊँगा।”

“क्यों, मेरा क्या हर्ज है? ठीक है। परसों तै है। कारण आप अम्मा जी को बता दें तो - जाने की बात मैं कह दूँगी।”

“मैं ही कह दूँगा - कह दूँगा कि मैं पहुँचाता जाऊँगा।”

“और कि खबर भी देता रहूँगा - यों आपकी बात का भरोसा तो उन्हें क्या ही होगा!”

सामंत नीचे उतर गया।

शोभा देवी ने आते ही पूछा, “क्या बात है, बहू?”

सोमा चौंकी। किस बारे में पूछ रही हैं?

“रोयी है?”

“नहीं तो, अम्मा जी - “

“चेहरा उतरा हुआ है।” कहते-कहते उन की नजर सोमा की कलाई पर पड़ी। खून तो नहीं बह रहा था, पर कटा हुआ तो दीखता था। और काँच की एक काली चूड़ी ही सही, उसकी अनुपस्थिति तो फौरन खटकती है।

“चूड़ी तूने तोड़ी - चूड़ी टूट गयी!” अपने अनुमान पर एकाएक करुण वात्सल्य से भर कर उन्होंने एक बाँह से सोमा को घेर लिया।

“टूट गयी, अम्मा जी!” सोमा समझ रही थी कि अम्मा जी क्या सोच रही होंगी; उन्हें वैसा सोचते जाने देना भी वह नहीं चाहती थी, पर रोकने के लिए क्या कहे जो उसकी स्थिति में प्रत्याशित लगे, यह भी वह नहीं तै कर पा रही थी। पर शोभा देवी को भी लगा कि इस बात को छोड़ देना चाहिए; अधिक चर्चा से शायद दुःख उभरेगा ही... फिर किसी समय बात कर लेंगी; काँच की एक चूड़ी में कोई हर्ज भी नहीं है और रहना भी नहीं चाहिए, उन्हें थोड़ा सहारा रहेगा... शहीद की विधवा कोई साधारण विधवा नहीं होती, वह अपने वैधव्य को भी सौभाग्य की तरह ही ओढ़ती है... शोभा देवी थोड़ी देर चुपचाप उसकी पीठ सहलाती रहीं, फिर उठ कर चली गयीं।

प्रोग्राम सुन कर शोभा देवी को क्लेश न हुआ हो सो तो नहीं; पर बाधा उन्होंने नहीं डाली। पहले बताया जाने पर उन्होंने चौंक कर कहा, “इतनी जल्दी?” और उमड़ते आँसू छिपाने के लिए उठ कर दूसरे कमरे में चली गयीं। पर तुरंत ही लौट कर उन्होंने कहा, “सब तैयारी मैं कर रखूँगी - खाना भी साथ ले जाना - एक दिन से आगे तो मैं कुछ कर नहीं सकती, तुम सुननेवाले भी कहाँ हो!” और बात तै हो गयी।

दूसरे दिन सवेरे ही शोभा देवी अपने कमरे के साथ सामान - घर में न जाने क्या उथल-पुथल करने लगीं। सोमा देर तक बक्से इधर-उधर खींचे और एक-दूसरे के ऊपर रखे-उतारे जाने का शब्द सुनती रही। उसे स्वयं तो कुछ तैयारी करनी नहीं थी; अम्मा जी ने भी खाना साथ रख देने की जिद तो की थी, जिसे मान लेना भी बहुत कठिन नहीं था; पर यह सब उथल-पुथल क्या अभिप्राय रखती है? उँह, होगा; सोमा यही क्यों मानती है कि इस सबका उसी से संबंध है...

शोभा देवी ने आ कर कुछ सकुचाते हुए कहा, “बहू, ये दो-तीन चीजें तुम्हें देने के लिए लायी हूँ।”

सोमा ने चौंकते, सकपकाते हुए कहा, “कैसी चीजें, अम्मा जी?” एक और कठिन बातचीत के आसन्न संकट से उसकी देह कंटकित हो आयी।

पहली ही चीज से उसकी दुःशंका पुष्ट हो गयी। सोने के मनकों की एक माला थी।

“बीरू ने तो कभी इस तरह की बात करने का कोई मौका नहीं दिया, पर यह मैंने बहू के लिए रखा था। और भी चीजें थीं, पर मैं जानती हूँ, तू और के लिए मानेगी नहीं - पर एक चीज तो तुझे लेनी ही होगी।” सोमा कुछ कहने को थी, पर शोभा देवी ने उसके मुँह पर हाथ रख कर उसे रोक दिया। “नहीं बहू, पहले मेरी सुन ले - मैं बड़ा साहस बटोर कर कहने आयी हूँ। तू ऐसे न आयी होती - बेटे के साथ आयी होती - साथ तो आयी पर ऐसे नहीं - “ कहते-कहते उन की आवाज काँप गयी, पर वह हठपूर्वक कहती ही गयीं, “तो न जाने क्या-क्या करती। पर तू एक निशानी भी नहीं रखेगी तो मैं कैसे रहूँगी, बता? मुझे लगेगा कि तू भी नाता तोड़ कर जा रही है।”

शोभा देवी चुप हो गयीं। सोमा ने एक बार आँख उठा कर उन की ओर देखा कि उन की बात पूरी हो गयी और वह कुछ कह सकती है या नहीं, पर तै नहीं कर पायी। शोभा देवी इसी बीच फिर बोल भी पड़ीं, “अपनी ओर से तो यही एक चीज दे रही हूँ। जिद कर के दे रही हूँ। बाकी तू देखना चाहे देख ले, रखना चाहे रख छोड़, या ले जाना चाहे ले जा - तेरी हैं। मैं क्या करूँगी...”

बचने का जो मार्ग मिल जाय, अपनाते हुए सोमा ने कहा, “अम्मा, देखिए न, यहाँ पड़ा रहेगा तो धन है, कभी जरूरत होगी तो ले सकूँगी। मुझे कुछ पहनना तो है नहीं। क्रांतिकारियों की जिंदगी में - आप सोच सकती हैं - गहना किस काम का? सिवा इसके कि खरा धन है, मुसीबत में काम आ सकता है। और इसके लिए उसका यहीं पड़े रहना ठीक है। ऐसे ही संकट में पड़ूँगी तो आप से माँग लूँगी”

“संकट में पड़ें तेरे दुश्मन! पर तू ठीक कहती है - उन्हें रखे ही रहने दे। पर एक चीज तो तुझे ले जानी ही पड़ेगी। अच्छा, माला भी नहीं लेती तो कोई छोटी चीज ले जा -मुँदरी ले जा - पर मैंने तो माला ही सोची थी - “

टालने की नीयत से सोमा ने कहा, “और क्या है, अम्मा जी?”

“और सबका तो, बेटी, मुझे पता भी नहीं। बीरू के कुछ कागज हैं, कुछ चिट्ठियाँ हैं, दो-चार फोटू हैं। मैंने तो कागज पढ़ कर नहीं देखे - क्या जाने क्या उनमें हो। वह होता तो तुझे भी न दिखाती-पर... पर अब तो तू ही हकदार है - देख लेना, फिर जो ठीक समझना, करना - रखनेवाले हैं कि फेंकनेवाले, क्या पता... पर उसने सँभाल कर छिपा कर रख छोड़े थे, तो मैंने भी नहीं फेंके।”

बड़े असमंजस में सोमा ने कहा, “अम्मा जी, इन्हें भी आप रख छोड़ें तो कैसा हो? मेरी जिंदगी तो जैसी होगी, आप सोच ही सकती हैं।”

“सो तो तू ठीक कहती है, बेटी। पर एक बार तू देख तो ले, अगर रखनेवाले होंगे तो मैं रख लूँगी, और अगर कोई बेकार जोखम के हों या तेरे काम के हों तो ले जाना, या जला देंगे। देख तो ले।”

सोमा कैसे कहे कि नहीं देखेगी? वह रख लेगी, वैसे ही लौटा देगी और रख छोड़ने की कह देगी। पर ऐसा भी वह कैसे करेगी? सचमुच वैसे कागज हुए जो 'जोखिम के' हों तो बाद में अम्मा जी क्या कहेंगी-करेंगी? पर उसे क्या? जोखम जिसका है, जिसका था उसी का है या होगा, वह बीच में पड़नेवाली कौन है; वह उस में आती ही किस अधिकार से है? न आ टपकी होती तो कौन तै करता - अम्मा जी ही न? या सामंत? सामंत को दिखा लेगी? पर उसके देखने के न हुए तो? उसका भी फैसला वह कैसे करेगी - देख कर ही तो?

“किस सोच में पड़ गयी बेटी? तो ये सब मैं छोड़ जाऊँ न? सँभाल लेगी? या कोई अटाची या झोला ला दूँ - “

“नहीं, अम्मा जी, रख दीजिए, मैं देख लेती हूँ। फिर बता दूँगी।”

“और यह माला - “ कह कर शोभा देवी उसे उठा कर सोमा के गले में डालने लगीं तो सोमा ने सकुचा कर कहा, “यह नहीं अम्मा जी, छोटा-सा कुछ दे दीजिए जिसे मैं हर वक्त साथ रख सकूँ और जिस पर लोगों का ध्यान न जाय।”

“तो माला ऐसी कौन आँखों में चुभनेवाली है, बेटी! पर तेरी मर्जी। यह अँगूठी रख ले - यह मेरी सास की थी, जब मैं इस घर में आयी थी तब मुझे मिली थी। माला तो मैंने अपने चाव से बनवायी थी - “

क्या फर्क पड़ता है कि वह अँगूठी लेती है कि माला? उसके झूठ का बोझ दोनों के साथ उसे ओढ़ना होगा - बल्कि अँगूठी के साथ तो कुल-परंपरा का दोहरा बोझ उस पर आ जाएगा। माला तो अम्मा जी की अपनी बनवायी हुई है, उसे वह केवल शोभा देवी का ऋण मान कर ले ले सकेगी, कभी लौटा देगी - 'सास' की सास की अँगूठी का बोझ उससे कैसे झिलेगा। सोमा ने कहा, “जैसी आप की खुशी, अम्मा जी! आप माला ही दे दीजिए।”

शोभा देवी उसके गले में माला डालने लगीं तो सोमा ने झुक कर उनके पाँव छू लिये।

“क्या आशीर्वाद दूँ, बेटी? मेरे आशीर्वाद की सकत तो बीरू के साथ चली गयी। पर जिस भी काम में तू लगी है, घर-बार छोड़ कर मारी-मारी फिरेगी, वह काम पूरा हो और तुझे सुख दे...”

सोमा को लगा, अनजाने ही शोभा देवी ने उसे वही आशीर्वाद दिया है जिसकी उसे सबसे अधिक जरूरत है - वह क्या स्वयं भी जानती है कि किस काम में लगी वह घर-बार छोड़ कर मारी-मारी फिरेगी? उसकी आँखों में आँसू आ गये जिन्हें छिपाने को वह झुकी ही रही।

“उठ बेटी, उठ!” कहती हुई शोभा देवी ने उसकी पीठ सहलायी और फिर हट गयीं।

सोमा ने कागज और फोटो उठाये, चौकी पर बैठ कर उन्हें गोद में रख कर विचारों की उधेड़-बुन में खो गयी।

इन्हें खुद देख जाना ही ठीक होगा, सामंत को दिखाना नहीं। या इस बात पर वह बाद में सोचेगी कि दिखाये या न दिखाये। पर पढ़ेगी अभी तुरंत नहीं - रात में अकेले बैठ कर सब पढ़ लेगी... उसने आलमारी खोली, ताक पर अपने पर्स के पीछे सब कागज रख कर आलमारी बंद कर दी।

पर रात में जब वह एकांत पा कर उन्हें ले कर बैठी, तो फिर अनमनी हो गयी। पढ़े - क्यों पढ़े? अगर अम्मा जी को ही रख छोड़ने के लिए नहीं दे देती, तो भी क्यों पढ़े - क्यों न फिलहाल अपने साथ रख छोड़े? एक बार उसने सरसरी तौर पर कागज उलट-पलट कर देखे, ऐसा खास तो उनमें कुछ नहीं लगता था जिन्हें 'जोखम के कागज' समझा जा सके - पर ऐसे कैसे पता लग सकता है? कभी लिखावट का भी तो महत्व होता है - वही बड़ा सुराग या सुबूत हो जाती है, इतना तो वह जानती है। पर वैसा भी हो तो उसके पास कागज कम-से-कम उतने ही सुरक्षित होंगे जितने यहाँ - इस घर में तलाशी तो हो ही सकती है और जहाँ तक सोमा का सवाल है, उसके डैडी कभी उसे पकड़ कर भी मँगवाएँगे तो कागजों से तो उनका मतलब नहीं होगा...

कागज उसने वैसे ही लपेट कर एक तरफ कर दिये; फिर पर्स के बराबर रख कर नाप कर देखे, उसमें अँट जायेंगे? हाँ, मजे में...

अब वह फोटो देखने लगी। फोटो जरूर जोखम के होते हैं। तभी तो वीरेश्वर उन्हें नष्ट करना भी चाहता होगा। पर ये स्कूली लड़कों के फोटो - इनमें क्या जोखम हो सकता है? इनमें वीरेश्वर जी हैं या नहीं? उसका चेहरा तो वह पहचान लेती तो अच्छा होता! अनदेखे पति की बहू की बातें तो रूपकथाओं में पढ़ी सुनी हैं - ठाकुर के अरूप राजा की बात भी उसे याद हो आयी - पर अनदेखे की विधवा - दैट इज टू मच! पर शोभा देवी से पूछेगी तो कैसे? कि अम्मा जी, यह तो बता दीजिए कि मेरा पति इनमें था कौन-सा? सारे फोटो एक बार फिर वह देख गयी, फिर उसने सामूहिक रूप से उन सबकी ओर एक बार मुँह बिचका दिया। उसे याद आया, कॉलेज से आते-जाते कभी अनमने सड़क पार करते समय कोई मोटर ज्यादा पास से निकल जाती तो उनका आपस का मजाक थाः 'अरे भई, गाड़ी के नीचे आ कर ही जान देनी है तो गाड़ी तो अच्छी-सी पसंद कर लो!' जिसे संक्षेप में यों भी व्यंजित कर दिया जाता था कि 'भई, श्योरली नॉट दैट वन!' एक मुस्कान उसके अंतराकाश में दौड़ गयी - 'श्योरली नॉट दैट वन!' पर इन सब छायाकृतियों में कौन-सा? उसने फोटो भी हटा दिये, अब वह दोनों ग्रुप फोटो ही सामने रख कर एक-एक चेहरे को देखने लगी। फोटो माउंट किये हुए थे, पर माउंट की दफ्ती ऊपर-नीचे दोनों तरफ से तोड़ कर अलग कर दी गयी थी; सोमा ने अनुमान किया कि वहाँ अवसर का या नामों का ब्योरा छपा रहा होगा जैसा ऐसे औपचारिक ग्रुप चित्रों में होता है। दोनों चित्रों को देख कर उसने पहचाना कि कुछ चेहरे तो दोनों में समान हैं, कुछ आकृतियाँ भिन्न हैं। वीरेश्वर तो दोनों में होगा, ऐसी उसने अटकल लगायी - कौन-कौन से चेहरे हैं जो दोनों में हैं? और सामंत? एक चेहरा उसे लगा जो सामंत का हो सकता था, पर वह एक ही फोटो में था; जो दोनों में थे उनमें कोई ठीक उस जैसा नहीं लगता था, हालाँकि दो ऐसे थे जो हो भी सकते थे - फिनिश किये हुए फोटो में कभी पहचानना मुश्किल हो जाता है। पहले से पहचानते हों तो सादृश्य भी दीख जाता है, सादृश्य के सहारे पहचान में कठिनाई होती है... खैर, देखेगी...

ग्रुप फोटो भी उसने पर्स से नाप कर देखे। दोनों तरफ के हाशिये की दफ्ती भी तोड़ कर अलग कर दी जाय, जैसे ऊपर-नीचे की कर दी गयी है, तो वे भी पर्स में रखे जा सकते हैं। हाशिये उसने तोड़ कर सावधानी से अलग कर दिये, फिर सब चीजें आलमारी में रख दीं। देखा जाएगा...

पर वह सो नहीं पायी। और दिन भी सो पाने में दिक्कत होती थी। अनपहचाने घर की बात नहीं थी, न शोर होता था, पर अपनी स्थिति को ले कर उधेड़-बुन रात के अधिकांश चलती रहती थी... शोभा देवी को अपने जाने की बात कह देने से और तारीख तै हो जाने से उसकी मुक्ति का रास्ता खुल गया था और उसका जी कुछ शांत हुआ था; फिर भी रात-भर न जाने क्या उसे व्यग्र किये रहा। जैसे-तैसे तड़के तक छटपटाती पड़ी रह कर वह उठी; शोभा देवी की जो साड़ी वह पहने हुए थी उसे धो कर उसने फैला दिया और जिन कपड़ों में आयी थी वही पहन कर तैयार हो कर दबे-पाँव कमरे में चक्कर काटती रही। आगे के बारे में भी उसे सोचना था, पर वह सब तो एक बार इस घर से निकलने पर सोच लिया जाएगा - आगे वही तो सोचा जाता रहेगा, पर यहाँ जिस परिस्थिति में वह उलझी हुई है उसके आकार-प्रकार तो कुछ स्पष्ट उसे समझ लेना चाहिए - उसमें से कितनी वह यहीं छोड़ जाएगी, कितनी उसे बरबस साथ ले जानी ही पड़ेगी, कितनी जीवन-भर उसके साथ लगी रहेगी-इन सब बातों का जवाब पाने का कोई साधन है? टहलती हुई हर कदम पर ताल देती हुई वह मानो पूछती जाती थी : है? है? है?

शोभा देवी ने आ कर कहा, “बड़ी जल्दी तैयार हो गयी, बहू? जाने में तो देर है न?”

“हाँ, अम्मा जी! अभी तो बहुत समय है।” कहते-कहते सोमा ने जल्दी से एक निश्चय किया।

“अम्मा जी!”

“क्या है?”

“अम्मा जी, जरा यह बताइए - “कहते हुए उसने आलमारी से ग्रुप फोटो निकाले। “अम्मा जी, इनमें कौन-कौन हैं जिन्हें आप पहचानती हैं? कुछ को तो मैं जानती हूँ - “

“बहू, कागज सब तूने देख लिये?”

“अम्मा जी, एक नजर तो देख गयी। पर अभी पक्का नहीं तै कर पायी। वैसे लगता तो यही है कि जोखम-वोखम के कोई नहीं हैं, यहीं रखे रहेंगे। आगे चल कर जब-जब उन की जीवनी लिखी जाएगी तब जरूरत पड़ेगी। अभी...”

“हाँ ऽऽ,” शोभा देवी ने ऐसे कहा जैसे शहीद के जीवन के इस पक्ष पर तो उन्होंने सोचा ही नहीं था; पर ठीक तो है, कभी तो जीवनी लिखी जाएगी...

अंतरात्मा की कोंच से उबरने का यत्न करते हुए सोमा ने कहा, “इसी लिए अभी कागज सब मैंने साथ रखे हैं : कुछ और जानकारी बटोर रखूँगी। बाकी ये फोटो - बताइए तो कौन-कौन हैं-”

ग्रुप फोटो ले कर शोभा देवी थोड़ी देर देखती रहीं।

“पुराना फोटू है - स्कूल की टीम का है।” थोड़ी देर रुक कर उँगली से इशारा करते हुए, “यह तो तेरा बीरू है - हमेशा ऐसे गरदन थोड़ी टेढ़ी कर के खड़ा होता था! पर तू तो पहचानती होगी। और यह - यह मन्नू है। स्कूल का चेहरा मैं अब भी ज्यादा पहचानती हूँ। अब - अब कैसा - शहरी जैसा हो गया है।”

“देखूँ, अम्मा जी, वह भी इसमें हैं?” कह कर सोमा आगे झुकी कि पहचान कर ले, कौन-सा वीरेश्वर है, कौन-सा मन्नू, और मन के पट पर उनकी पहचान और फोटो में उनके स्थान पक्के अंकित कर ले। “और कौन-कौन हैं?”

“और यह रामेश्वर है, और यह किशन, और यह मोहन, और यह - इसका नाम याद नहीं आ रहा, अच्छा हँसमुख लड़का था, अक्सर घर आया करता था पर नहीं याद आ रहा... बाकी तो याद नहीं आते।”

“अम्मा जी, ये लोग अभी यहीं रहते हैं कि सब कहीं-कहीं चले गये?”

“बहू, स्कूल के साथियों का तो तू जानती है, कैसे होता है। बीरू कॉलेज गया तो सब बिखर गये। और जब से वह इस काम में पड़ा तब से तो कोई आता भी होता तो कतराने लगा। कौन मुफ्त में जोखम मोल लेता है!”

“पर परिवार तो यहीं होंगे? आप किन्हीं को जानती हैं?” अपनी उत्कंठा को संगति देने के लिए सोमा ने जोड़ दिया, “कभी तो बचपन की भी सब जानकारी की जरूरत पड़ेगी - कहाँ-कहाँ मिल सकेगी, इसका पता रखना चाहिए।”

“हाँ। कोई-कोई तो हैं अभी यहीं। किशन के घर के लोग तो यहीं हैं। वह भी यहीं स्कूल में मास्टर हो गया है।”

“पूरा नाम आप जानती हैं?”

“सब शर्मा जी - शर्मा जी कहते हैं - पता लग जाएगा। पूछ दूँगी। पर पूछ कब दूँगी - तू तो अभी जा रही है!”

“पूछ रखिएगा। और भी जो।” कहती हुई सोमा ने मन में कहीं टीप लिया : किशन शर्मा, स्कूल मास्टर।

सीढ़ी पर आहट हुई। सोमा ने फोटो जल्दी से पर्स में डाल कर पर्स आलमारी में रख दिया और बोली, “अम्मा जी, नाश्ता बनाने में मैं कुछ मदद कर देती हूँ।”

“नहीं बेटी, मेरा तो रोज का काम है।”

सोमा ने निहोरे से कहा, “इसीलिए तो, अम्मा! आज मुझे कर लेने दीजिए।”

“बेटी, तू ऐसा कहती है तो मुझे और लगता है कि तू जा रही है! पर तेरी मर्जी।”

“मैं आ जाऊँगी, अम्मा जी!” सोमा कह तो गयी, फिर उसने अपने से पूछा, क्या मैं और एक अनावश्यक झूठ बोल रही हूँ? पर भीतर-ही-भीतर जैसे उसे उत्तर भी मिला, नहीं, वह फिर आएगी। कभी। कब, पता नहीं, पर आएगी। और एकाएक उसने फिर कहा, “मैं आऊँगी, अम्माजी!” और रसोई की ओर बढ़ गयी।

सामंत क्या सीढ़ी पर ठिठक कर उनकी बात सुनता रहा था? शोभा देवी ने सीढ़ियों की ओर उन्मुख हो कर कहा, “आज जाना है तो तू भी बड़ी जल्दी तैयार हो गया! और बताने भी आ रहा है - या कि नाश्ते की जल्दी है?”

“जल्दी नहीं, अम्मा! कोई काम हो तो - “

“तू कब से मेरे काम करने लगा? बहू नाश्ता बना रही है, मैं अभी लाती हूँ।”

ग्यारह बजे सामंत ताँगा ले आया। सोमा ने एक बार फिर शोभा देवी के पैर छुए, कहा, “मैं आऊँगी, अम्मा जी!” और आँचल सिर पर लंबा खींच कर मुड़ गयी।

शोभा देवी ने कहा, “भगवान् सब देखते हैं, बहू, वही तेरी रक्षा करें...”

सामंत ने भी पैर छुए।

“खबर लेते रहना, बेटा। बीरू तो नहीं है अब - पर इसे वैसे ही अपना घर समझते रहना - “ कहते-कहते शोभा देवी ने फिर आँचल से मुँह दाब लिया।

“हाँ, अम्मा।”

ताँगा चल पड़ा।

बरेली का स्टेशन निकल जाने तक कोई कुछ नहीं बोला। सामंत ने अखबार लिया था, निकाल कर देखता रहा; सोमा घर से एक किताब उठा लायी थी, सिर झुकाये पढ़ती रही। बरेली से गाड़ी छूटी तो सोमा ने पूछा, “आपको तो यहाँ उतरना था कि मुरादाबाद?”

सामंत ने चौंक कर कहा, “यहाँ क्यों? बरेली में मेरा क्या है?”

सोमा ने बड़ी मासूमियत से कहा, “कुछ नहीं, मैं तो पागलखाने वाला घिसा-पिटा मजाक कर रही थी। पर आप शायद आगरेवाला मुहावरा ही जानते हैं, बरेली का नहीं।”

सामंत तीखी नजर से उसकी ओर देखता रहा, कुछ बोला नहीं।

“यहाँ एक मेडिकल कॉलेज भी तो है न?”

“हाँ” कह कर सामंत थोड़ी देर रुका। फिर उसने कहा, “मैं वहाँ का पढ़ा नहीं हूँ।”

मुरादाबाद में वह उतर गया। बाहर खड़े हो कर बोला, “अब आपसे कब, कहाँ भेंट होगी? होगी भी?”

सोमा ने कहा, “चांस ही तो है। पर चांस एक बार होता है तो दोबारा भी होता है।”

“यों, आपको कभी खबर देनी होगी तो अम्मा की मारफत तो मुझे पहुँच ही सकती है।”

तीखा-सा जवाब सोमा की जबान पर आया, उसने रोक लिया। कितने बरस बाद अम्मा के पास आये थे - और वह भी कैसे में? प्रकट उसने कहा, “सो तो है। पता लेने तो आप जाते ही रहेंगे।”

“आप भी तो जायेंगी - आप तो वायदा कर के आयी हैं।”

गाड़ी चलने लगी तो सामंत ने एकाएक हाथ हिला कर कहा, “टा-टा, सोमा जी -मिसेज वीरेश्वर नाथ!”

हतप्रभ न होते हुए सोमा ने मिलाने के लिए हाथ बढ़ा दिया और वैसे ही स्वर में कहा, “गुडबाई, मन्नू जी - डॉक्टर सामंत!”

साथ की सवारियों ने कुछ कुतूहल से यह दृश्य देखा। आजकल के नौजवानों के फ्लर्टेशन के ढंग भी अनोखे हैं। या कि यह फ्लर्टेशन था ही नहीं, कुछ और था?

सोमा पीछे हट कर बैठने ही लगी थी कि उसने देखा, सामंत तेज डग भरता हुआ फिर खिड़की के बराबर आ गया है और साथ भाग रहा है।