छाया मेखल / भाग-4 / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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“सोमा जी, फिर मिलना कब होगा, कुछ पक्का बता सकती हैं?”

सोमा ने बिना सोचे कह दिया, “ठीक एक महीने के बाद - इसी समय - स्विस होटल के आसपास।” और कुछ रुक कर, “और वह नहीं तो उसके एक महीने बाद, डिट्टो।”

“अच्छा, आइ'ल ट्राइ!” सामंत कुछ पिछड़ने लगा था, दो कदम दौड़ कर फिर बराबर आ गया; बोला, “माफी आप मुझे दे देंगी, ऐसी आशा करता हूँ।”

सोमा ने मुस्करा कर कहा, “इट वाज नाइस मीटिंग यू - सो लांग!”

सामंत इस स्वर से थोड़ा अप्रतिभ हुआ। पर ऐसा दीखने न देते हुए उसने हाथ उठा कर हिलाया। उसकी चाल धीमी हो गयी, गाड़ी की तेज, वह खड़ा हो कर भी हाथ हिलाता रहा जब तक कि उसका चेहरा धुँधला नहीं हो गया - सोमा का चेहरा तो उसके लिए कहीं पहले चलते हुए एक पट का हिस्सा बन गया होगा।

3

दिल्ली में सहेली ने और उसकी गृहस्थी ने सोमा को बड़े चाव से लिया, और सोमा को लगा कि वह चाहे तो वहाँ काफी दिन तक रह सकती है। पर एक तो वह जल्दी से जल्दी अपने लिए कुछ रास्ता चुन लेना चाहती थी, दूसरे कब तक उसकी सहेली का कुतूहल नहीं जागेगा, कब तक वह सवाल पूछे बिना रह जाएगी? सवाल उठने और पूछे जाने लगें, इससे पहले ही सोमा वहाँ से हट जाना चाहती थी। यह अंदेशा उसे फिलहाल नहीं था कि डैडी उसके पीछे पड़ेंगे, पर जब पता लगेगा तब उन का गुस्सा उन सब लोगों पर तो उतरेगा ही जिन्होंने सोमा को सहारा दिया - और वह इस मुसीबत में बिना वजह किसी को नहीं डालना चाहती!

घर से भाग जाने की उसकी योजना को पकते-पकते कुछ महीने लगे थे। कॉलेज की पढ़ाई उसने पूरी कर ली थी; समाज के 'हाई सोसायटी' नामक अंग की - हालाँकि लखनऊ की 'हाई सोसायटी' को प्रांतीयता की बात सोच कर उसे कभी बड़ी खीझ आती थी - 'कल्चर' की परिभाषा में और जो कुछ आता है वह भी उसने आप्त कर लिया था : कुछ संगीत, कुछ नृत्य, पेंटिंग, फूल-सज्जा... पेंटिंग में बल्कि उसकी रुचि उस सीमा से कहीं आगे तक चली गयी थी जिसे एक सामाजिक 'एकाम्प्लिेशमेंट' माना जाता है और जिसकी चर्चा वर-कन्या की खोज करनेवाले माता-पिता शादी के विज्ञापनों में करना जरूरी या उपयोगी समझते हैं। 'हाइली एजुकेटेड, ब्यूटीफुल (या स्थिति अथवा हौसले के अनुसार 'फेयर,' 'टॉल,' 'स्लिम', 'गोल्डन या ह्वीट-कम्प्लेक्शंड' वगैरह)', एकाम्प्लिटड इन फाइन आर्ट्स...' सोमा कई बार अपने परिचय की लड़कियों के लिए ऐसे काल्पनिक विज्ञापन बनाया करती थी - कभी विनोद के लिए दो तरह के - एक का वर्णन माता-पिता की ओर से, दूसरे का किसी तटस्थ दर्शक की ओर से। पेंटिंग से उसका इतना लगाव हो गया था कि वह जानती थी, उसके विषय में विज्ञापन में कभी इसका उल्लेख होगा (अव्वल तो वह विज्ञापन होने नहीं देगी!) तो वह उसे काट देगी : जिन चीजों से सचमुच गहरा लगाव होता है, उनका विज्ञापन करने का सस्तापन सहन नहीं होता। वैसे तो शादी के लिए विज्ञापन की बात ही में सस्तापन है; पर उस तरह बसायी हुई गिरस्ती, वैसी शादी, वैसे पति-पत्नी-सास-ससुर, वैसी बारातें, वंश-बेलें, सेहरे, मिलनियाँ, सगुन और मुँह-दिखाइयाँ, वैसा समाज और वैसी सारी जिंदगी में ही तो एक भयानक सस्तापन भरा हुआ है : औसत इनसानी जिंदगी है ही तो एक सस्ती चीज! उसे सस्तेपन से बचाने या उबारने के लिए उस में क्या और कितना गहरा-तर अर्थ हम भरते हैं, यह हम पर है; इस पर है कि हम क्या हैं, क्या होना चाहते हैं, जो होना चाहते हैं उसके लिए कितनी तपस्या करने को, कितनी मार खाने को तैयार हैं... डैडी के जीवन को, समाज को, आदर्शों और आकांक्षाओं को उसने मन-ही-मन अस्वीकार कर दिया था; उसके लिए जिस जीवन की कल्पना वह कर रहे हैं, या कर सकते हैं, सोमा कभी अपना नहीं सकेगी, यह वह अच्छी तरह जानती थी। नौकरी - कैसी नौकरी? अभी तक लड़की के लिए नौकरी का मतलब है मास्टरी - बहुत होगा तो कॉलेज में लेक्चरारी - यों स्कूल की मास्टरी को तो डैडी की प्रेस्टीज भी स्वीकार न कर पाती। हाँ, कॉलेज की पढ़ाई की योग्यता के लिए लड़की विदेश जा कर पढ़े, यह उन्हें बिल्कुल संगत लगता - पर वैसा तो वह शादी कर के पति के साथ जाकर भी कर सकती है - क्यों जरूरी है कि अकेली ही जाए? खर्चे की बात है - पर शादी के बाद भी तो लड़कियाँ विदेश जाती हैं सो पति के या ससुर के खर्चे पर थोड़े ही, लड़की के बाप के खर्चे पर ही तो जाती हैं - चाहे वह पहले ही दहेज में उगाह लिया गया हो, चाहे शर्त में हो कि दामाद को आगे पढ़ायी या ट्रेनिंग के लिए, फॉरेन भेजेंगे। ऐसे ही वह खुद गये थे - ऐसे ही वह दामाद को भी भेज सकेंगे - अगर उसकी जरूरत होगी; नहीं तो उनका दामाद तो ऐसा होना चाहिए जिसे इस की जरूरत न हो। इस की जरूरत न होगी तो वह और कुछ चाहेगा - वह देखा जाएगा - उनकी पोजीशन में कोई समस्या न होनी चाहिए...

शादी की बात उठती ही रहती थी; जब-तब सोमा के सामने भी। उसकी स्पष्टता प्रकट कर दी गयी उदासीनता के बावजूद। सोमा ने एक खास तरह का बहरापन अपने को सिखा लिया था : ऐसी बातें होती थीं तो वह तुरत एक दीवार की ओट हो लेती थी और सारी बात अनसुनी उस दीवार से टकरा कर नीचे गिर जाती थी। धीरे-धीरे डैडी ने भी यह पहचान लिया था; सोमा की आँखों में उस दीवार की छाया उन्हें दीख जाती थी तो या तो वह बात छोड़ देते थे या करते रहते थे तो सोमा को श्रोतृत्व के वृत्त से बाहर छोड़ कर ही।

पेंटिंग अपने डिप्लोमा के बाद भी सोमा ने छोड़ी नहीं थी; बल्कि अपनी शिक्षा की संकीर्णता और प्रांतीयता से मुक्ति पाने के लिए अभ्यास के साथ-साथ बहुत कुछ पढ़ती और संग्रह भी करती रही थी। विभिन्न देशों-प्रदेशों की कला की शैलियों का इतिहास, विभिन्न चित्रकारों के हाथ की विशेषताएँ, रंग और कूची के प्रयोग में अंतर, नजर में ही अंतर - इन सब के बारे में जहाँ जो कुछ पढ़ने-देखने को मिलता वह देख-पढ़ लेती; कभी रंग और कूची ले कर प्रत्येक ढंग का अभ्यास भी करती कि नकल द्वारा वह तकनीकी बारीकियों को ठीक-ठीक आत्मसात् कर सके। जिन लड़कियों ने उसके साथ पेंटिंग सीखी थी उनसे कभी इस ढंग की बात करती तो वे शंका प्रकट करतीं, 'अरे, ऐसे तो ओरिजिनैलिटी बिल्कुल मर जाएगी। यू मस्ट बी ओरिजिनल!' पर सोमा एक बार सिर से पैर तक उन्हें देखती और एक हल्की सी व्यंग्य मुस्कान उसके चेहरे पर दौड़ जाती। ओरिजिनल - कौन इनमें ओरिजिनल है, कहाँ पर? ओरिजिनल कोई कहीं होता है तो भीतर से : ओरिजिनैलिटी खोजने से नहीं आती, बल्कि दूसरों की पहचान करते-करते ही अपनी विशेषता निखर आती है - बशर्ते कि विशेषता कहीं कुछ हो भी! और नहीं हो, तो इस सब में अनुभव और हाथ की मँजाई तो है ही!

सोमा को नहीं मालूम था कि विज्ञापन, फिर भी, निकलता रहा है। डैडी से मिलने प्रायः लोग आते रहते थे, शाम को सोशल विजिट के अलावा प्रायः जूनियर अफसर भी आ जाते थे जिनके लिए वह एक महत्वपूर्ण सामाजिक अवसर होता था - सीनियर अधिकारी के ड्राइंगरूम में रिसीव किया जाना अपने-आप में एक चीज है, प्रेस्टीज की बात है, फिर मिलने-जुलने और प्रभाव डालने का मौका तो है ही; और ऐसे मौके पर सीनियर लोगों से ऐसी-ऐसी गुर की बातें सुनने को मिल जाती हैं जो जीवन में कितना काम देती हैं... ऐसे अवसरों पर अकसर उसे भी बैठना पड़ता था - यह उसकी 'सोशल ट्रेनिंग' भी थी, और यों कभी उसे स्वयं भी एक तटस्थ दिलचस्पी होती थी इस समाज को देख कर... 'ह्वाट ए लाइफ!' कभी-कभी वह मन-ही-मन कहती; इस लाइफ का उपन्यासकार हमारे देश में अभी तक क्यों नहीं हुआ? ऐसे तो हुए हैं जो कुछ इस लाइफ में से निकले हैं - पर वे अंग्रेजी में ही नहीं चले गये तो ऐतिहासिक उपन्यासकार हो गये हैं - यानी इस देश से नहीं भागे तो इस काल से भाग गये हैं! क्यों नहीं अभी तक किसी में इतना साहस हुआ (या कि इतनी प्रक्रिया ही नहीं हुई?) कि इस समाज को ज्यों-का-त्यों देश के वृहत्तर समाज के सामने रखे? या कि शायद इस जीवन का उपन्यासकार होता ही तो उस उपन्यासकार का पाठक नहीं होता! पढ़ा-लिखा हमारा सारा समाज तो यही होना चाहता है जो यहाँ इस ड्राइंगरूम में बैठा है - नौकर, मगर सुविधा-संपन्न, हुकूमत जतानेवाला जबरदस्त नौकर-तरक्की पाया हुआ गुलाम, जिसे हाथ में चाबुक दे दी गयी है कि दूसरे गुलामों को हाँक सके... खान-इ-सामाँ, और खानसामा - कितना कम अंतर है! क्या वह खुद कभी इस की जिंदगी की पेंटर हो सकेगी? इतना तेजाब वह कहाँ से लाएगी... तेजाब की बात से उसका ध्यान ताँबे की खुदाई की ओर जाता; हाँ, शायद पेंटिंग नहीं, ऐचिंग ही इस जीवन के चित्रण के लिए ठीक माध्यम होगा...पर वह सीखेगी कहाँ?

पर कभी-कभी उस दिलचस्पी की तटस्थता या विरक्तता को एक दूसरे प्रकार का झटका लगता था। जूनियर अफसरों में कभी कोई उसकी तरफ एक खास, तौलते हुए अंदाज से देखता था जिसे वह फौरन ताड़ जाती थी; उसके मन में पहला सवाल यही होता था कि यह क्या डैडी की एप्रूवल से है, या कि 'दिस यंग मैन इज हैविंग आइडियाज'? यह नहीं कि किसी भी सूरत में कोई बहुत अंतर पड़ता, क्यों कि ऐसे 'यंग मैन' की दिलचस्पी को एक झटका देने का उसका संकल्प बदलता नहीं, पर अगर डैडी की शह की संभावना रही हो तो उम्मीदवार के सपनों का गुब्बारा नीचे गिराने में शायद थोड़ी दया की गुंजाइश वह रख सकती थी।

पर एक दिन यह बात एकाएक सतह पर आ गयी। ठीक कैसे, यह भी वह स्पष्ट नहीं पहचान सकी। ड्राइंगरूम में नये लोग थे, पर ऐसा तो कई बार होता था कि अपरिचित लोग आ जायें और वहीं डैडी से उनका परिचय हो। पर नहीं, इस ग्रुप में कुछ विशेषता थी... सहसा एक कौंध-सी में स्थिति सोमा के सामने स्पष्ट हो गयी : ये लोग उसे 'देखने' आये हैं... ऐसा कैसे हुआ? एक बार तो उसने सोचा, वहीं की वहीं डैडी से पूछ ले, पर उसने अपने को रोक लिया। थोड़ी देर बाद वह उठी, अपने को 'एक्स्क्यूज' कर के बाहर गयी, और फिर लौटी नहीं, दूसरी तरफ से बाहर निकल कर टहलने चली गयी। लौटी, तब तक वे लोग चले गये थे; सिर्फ डैडी की एक तीखी अभियोग-भरी दृष्टि का सामना करती हुई वह भीतर जाने को थी कि डैडी ने रोक लिया : “कहाँ चली गयी थीं?” घूमने? घूमने जाने का यही समय है? समय तो यही है, वह प्रायः इसी समय जाती भी है। एक दिन छोड़ा नहीं जा सकता था, जब कि खास उससे मिलने लोग आये थे?

“मुझसे? मैं तो उनमें से किसी को भी नहीं जानती!”

तो क्या हुआ? डैडी ने मिलवाया तो था। बाद में और परिचय वह दे देते। उन्होंने खास तौर से समय दिया था -

सोमा ने मुँह फोड़ कर पूछ ही तो डाला, “डैडी, आपने एड्वर्टाइज किया था?”

डैडी ने जवाब नहीं दिया, एकटक उसी नाराजगी की नजर से उसे देखते रहे, मानो स्पष्ट कर देना चाहते हों कि यह और गुस्ताखी है जिसे वह गवारा नहीं कर सकते।

“आप को बॉदर करने की जरूरत नहीं है।”

नाराज होते हैं तो हों। कभी तो साफ बात कहनी ही होगी। सोमा कह कर उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना तेजी से वहाँ से हट गयी। पीछे उसने सुना, डैडी धीरे से दुहरा रहे हैं, 'बॉदर... बॉदर!' मानो कड़वी थूक का एक घूँट न निगल पा रहे हों, न थूक देने की जगह दीख रही हो।

उसी रात सोमा ने स्पष्ट देखा कि वह घर छोड़ कर चली जाने का निश्चय भीतर-ही-भीतर कर चुकी है; बाकी इतना और तै करना है कि कब और कैसे। छोड़ जा कर क्या करेगी, इसका जवाब अनंतर सोचना होगा - और यह भी तो है कि यह बाहर की बहुत-सी चीजों पर निर्भर करेगा कि वह क्या कर सकती है या कितना चॉएस उसके पास है - सिर्फ घर छोड़ देने की बात चॉयस से परे जा चुकी है - उसे स्वाधीन होना ही है। सोमा मन-ही-मन ऐसे लोगों की सूची बनाने लगी जिन से वह सहायता की या कम से कम सलाह-मशविरे की आशा कर सकती है।

सिविल लाइंस में एक विदेशी चित्रकार दंपति रहते थे। पत्नी प्रसिद्ध चित्रकार थीं जिनकी शकीहों का विशेष सम्मान था; पति का हाथ बहुत अच्छा था पर शैली अधिक शास्त्रीय थी इसलिए उनके चित्रों की वैसी धूम नहीं थी। पर चित्रकार से भी अधिक वह कलापारखी थे : उनका घर एक अच्छा-खासा छोटा संग्रहालय भी था और शो-रूम भी। विदेशी ग्राहक प्रायः उन्हीं के यहाँ से भारतीय कला वस्तुएँ खरीदते थे। दाम निस्संदेह वह अच्छे लेते थे, पर चीज वहाँ से खरी और प्रामाणिक मिलती थी, इसलिए उनकी प्रतिष्ठा संग्रहालयवालों में भी बहुत थी। उनका नाम भी सोमा ने पहली बार संग्रहालय में डायरेक्टर से ही सुना था जिन्होंने एक संदिग्ध प्राचीन चित्र पर उनसे राय ली थी; तभी सोमा को मालूम हुआ कि कार्ल स्टेगर की असल-नकल की परख का विदेशों में भी सम्मान है। इतना ही नहीं, प्राचीन चित्रों के मूल-रूप को पुनः उद्धारित या निरूपित करने में उन्होंने विशेष कुशलता प्राप्त की है; कई संग्रहालयों के लिए उन्होंने बदले हुए चित्रों के नीचे से असल चित्र निकाल कर दिया है या खराब होते हुए चित्रों को ठीक कर दिया है। सोमा ने उन्हीं से मिल कर यही काम सीखने का निश्चय किया। इसकी उपयोगिता देश में क्या होगी, इसका कोई जवाब फौरन उसे नहीं सूझा; पर इस कौशल का मान और इस की आवश्यकता देश में संग्रहालयों के साथ बढ़ती जानी चाहिए इसमें उसे संदेह नहीं था -तैल-चित्र माध्यम में अभी उतनी नहीं तो जल रंगों और वनस्पति रंगों के क्षेत्र में तो बहुत अधिक-सारी भारतीय चित्रकला के साथ इस की गुंजाइश है, और भित्तिचित्रों की रक्षा और पुनःप्रतिष्ठा का राज भी कभी तो महत्व पाएगा ही - सरकारी तौर पर नहीं तो शोध के स्वतंत्र विषय के रूप में... और इस क्षेत्र में दूसरे कोई व्यक्ति कम-से-कम उसकी जानकारी में तो नहीं थे।

कार्ल स्टेगर को उससे मिल कर और उसकी इच्छा जान कर विस्मय हुआ। इतने बरसों में कभी कोई भारतीय चित्रकार उनसे कुछ सीखने नहीं आया था - और वह भी स्त्री और वह भी चित्रों के रेस्टोरेशन की कला सीखने! उन्होंने अपनी पत्नी सैसी स्टेगर को भी बुला लिया; साथ बैठ कर चाय पीते-पीते तीनों देर तक बातचीत करते रहे। सोमा ने कभी अपनी पैरवी इतने जोरों से नहीं की थी; पर सच बात यह है कि उसे अब तक कभी इस की जरूरत भी नहीं पड़ी थी; आज उसने ठान रखी थी कि वह नकारात्मक जवाब ले कर लौटनेवाली नहीं है। फिर भी उस दिन तो बात पक्की नहीं तय हो पायी। स्टेगर दंपति ने उसके हाथ का कुछ काम देखना चाहा : डिप्लोमा की बात का कुछ तो असर था, पर अधिक नहीं - 'इस काम में डिप्लोमा बहुत अहमियत नहीं रखते, बात हाथ की, आँख की और लगन की होती है' - लेकिन सोमा तो उस समय डिप्लोमा दिखाने की स्थिति में भी नहीं थी, काम कहाँ से लाती! फिर भी, दोनों जब बीच-बीच में अपने संग्रह की कई एक चीजें उसे दिखा कर तरीके से उस से ऐसे सवाल पूछ चुके जिन के जवाब में उसे अपनी पसंद, अपने ज्ञान और अपनी परख सभी का पता देने का अवसर मिलता रहे, तब कार्ल स्टेगर ने एक खुली मुस्कान के साथ कहा, “हम जरूर फिर एक बार इस की बात करना चाहेंगे - क्यों, ऐसा है न, सैसी?” और क्षण-भर पत्नी से आँख मिला कर उन्होंने फिर सोमा की ओर उन्मुख हो कर कहा, “आपके विचार में मुझे बड़ी दिलचस्पी है, मिस - मिस”

सोमा ने जल्दी से कहा, “मिसेज नाथ - लेकिन आप सोमा ही कहिए -”

“मिसेज नाथ - सोमा। हम लोग इस की थोड़ी और बात करें। आप क्यों न कल फिर आ जाइये - या परसों, जैसी सुविधा हो - और थोड़ी देर सैसी के स्टूडियो में काम कीजिये! सैसी तो आजकल बाहर एक कमीशन पेंट कर रही है - आप को तीन-चार घंटे अकेले काम करने को मिल जायेंगे।”

सैसी ने कहा, “ठीक है। एंड डोंट माइंड द मेस-वैसे तो हर आर्टिस्ट को हर दूसरे आर्टिस्ट का स्टूडियो अस्त-व्यस्त लग सकता है - या अस्त-व्यस्त होना ही जरूरी और ठीक भी लग सकता है - “ वह कई संभावनाएँ खुली छोड़ दे कर मुस्करा दीं।

'हर आर्टिस्ट को हर दूसरे आर्टिस्ट का - ' सोमा ने संकोच का अनुभव किया, संतोष का भी। वह कहाँ की आर्टिस्ट है अभी! पर इन लोगों ने उसे रिजेक्ट तो नहीं कर दिया है, परीक्षा अभी पूरी न भी हुई हो तो अनुकूलता तो दीख रही है... उसने कहा, “आप दोनों की बड़ी कृपा है। मैं कल ही आ जाऊँगी।” सैसी की ओर उन्मुख हो कर, “आपके स्टूडियो में काम कर सकूँ, यह मेरे लिए बड़े गौरव की बात होगी।” फिर कार्ल की ओर, “और आपसे कुछ सीख सकूँ - “

सैसी ने पति को थोड़ा चिढ़ाते हुए कहा, “सिखाने में तो यह बहुत अच्छे हैं - अगर शागिर्द की जान पहले न ले लें। इसी लिए तो शागिर्द लेते नहीं, किसी को लेनेवाले हों तो मैं नहीं लेने देती।”

सोमा ने कहा, “मेरे मामले में आशा है आप अपवाद मानेंगी।” और फिर उत्तर का मौका न दे कर, “और जहाँ तक जान लेने की बात है, मैं बिल्ली जैसी सख्त जान हूँ - आठ जानें फालतू रखती हूँ।”

“स्मार्ट गर्ल!” कहते हुए कार्ल खड़े हो गये। मिलाने के लिए उन्होंने हाथ बढ़ाया। लेकिन एकाएक नये विचार से उन्होंने पूछा, “आप के पति की क्या राय होगी, अगर आप घंटों पुराने चीथड़ों के साथ बिताएँगी? विल ही लाइक इट?”

सोमा ने संक्षेप में कहा, “आई एम ए विडो।” कहते-कहते एक दूसरा दृश्य, एक और वाक्य उसके मन में कौंध गया : 'इट डजंट माइंड'...

“आयी बेग योर पार्डन।” कार्ल के स्वर में खरा अनुताप था, मानो उनसे भारी अनौचित्य हो गया है। उन्होंने एक याचना-भरी निगाह से सैसी की ओर देखा। संकेत समझते हुए सैसी ने विदाई का मामला हाथ में ले लिया, “हमारे लॉन का तीर्थंकर आपने देखा है?”

सैसी स्टेगर जब सोमा को बाहर के फाटक तक छोड़ आयीं तो सोमा ने मुड़ कर घर के सामने की रौंस और उसके बीच में पक्के चबूतरे पर जमी हुई नेमिनाथ की प्रस्तर मूर्ति को ऐसे देखा मानो उस परिवेश को पहचान रही हो, जिसमें अब उसे रहना है।

उस दिन के लिए इतनी उपलब्धि काफी थी, पर सोमा तुरंत सहेली के पास लौटना नहीं चाहती थी। टहलने के लिए भी वह इलाका अच्छा था, पर सोमा के मन का भाव ऐसा था कि गरम निहाई को ठंडा नहीं होने देना चाहिए-एक और मार, एक और मार...

कुछ ही दूर पर, रामकिशोर लेन में एक बँगले के अहाते में एक छोटी काटेज का आधा हिस्सा उसे मिल गया। दूसरे आधे में एक धनहीन परिवार रहता था - माँ और स्कूल की आयु की बेटी - और वे लोग एक पुरुष-रहित प्रतिवेशी ही चाहते थे। उनके लिए सोमा उतना ही आदर्श पड़ोसी थी जितना सोमा के लिए वे आदर्श मकानदार और पड़ोसी।

दिन-भर अच्छी कमायी कर आये होने का भाव ले कर सोमा सहेली के घर लौटी। सहेली उसकी प्रतीक्षा ही कर रही थी। सोमा ने देर तो बहुत कर दी थी, फिर भी अभी थोड़ी देर तक तो 'लेडीज टॉक' का समय था ही, इससे पहले की सहेली को अपने शाम के कार्यों से व्यस्त हो जाना पड़े। पर सोमा इस समय जनाना बातचीत के मूड में बिल्कुल नहीं थी; आते ही उसने बता दिया कि वह सब तय कर आयी है, उसे काम भी मिल गया है, घर भी, और... फिर सहेली के चेहरे की हल्की निराशा देख कर वह रुक गयी, साथ ही उसे यह भी ध्यान आया कि अभी 'काम' मिला कहाँ है, भले ही संभावना काफी है... सहेली को भी ध्यान आया, गप्प न कर सकने की निराशा के ऊपर सोमा की सफलता की ओर उसे ध्यान देना चाहिए; बोली, “तुम पैरों तले घास जमने का मौका नहीं देतीं, क्यों न?” सोमा मुस्करा दी। यह अंग्रेजी मुहावरों का अनुवाद कर के बोलने का खेल उसका कॉलेज का शगल था। खेल का खेल, एक वास्तविक असमर्थता को ओट की ओट : क्यों कि सच बात यही थी कि अंग्रेजी मुहावरे का तो सब अभ्यास करते थे, हिंदी बोलते समय स्वतंत्र सोचना किसी को न आता था, न सूझता था, सब लाचार अनुवाद करते थे जिससे प्रायः हँसी की सामग्री मिल जाती थी और असमर्थता की कसक उसमें खो जाती थी। सहेली को खुश करने के ख्याल से सोमा ने वैसे ही हलके स्वर में कहा, “क्यों दूँ? हमेशा दीवार का फूल बन कर थोड़े ही बैठ रहूँगी?”

“अरे तो काम देख कर आयी है, या कि हज्बैंड मिल गया है?”

सोमा कहने को हुई, 'दोनों।' पर उसने अपने को रोक लिया। वह सब बताना अभी जरूरी नहीं है, ठीक भी नहीं। सोये कुत्तों को पड़े रहने दो।

लगभग कॉलेज के दिनों जैसी ही हो गयी थी दिनचर्या, सिवाय इस के कि सहपाठिनों की हँसी-ठिठोली नहीं थी, न कॉलेज के लड़कों के बारे में तीखे रिमार्क। पर इन की कमी सोमा को नहीं खल रही थी, और उसे कुछ अचंभा भी हो रहा था कि स्मृति में उसके कॉलेज के दिन इतने शांत और एक-रस हो गये हैं - एक-रस अच्छे ही अर्थ में, बुरे अर्थ में नहीं; फिर भी एक-रस, समगति से चलनेवाले और शांत। जिन दिनों वह उनमें से गुजर रही थी उन दिनों तो वह शांत या एक-रस नहीं लगते थे - रोज ही कुछ-न-कुछ लगा रहता था, कोई एक्साइटमेंट या कोई मुसीबत, और कुछ नहीं तो चिड़चिड़ाने के लिए घर की ओर से ही कोई हरकत... ऐसे ही हम अतीत को इतनी जल्दी अपनी नयी प्रवृत्तियों की रंगत में रंग लेते हैं - पर क्या अभी से उन दिनों का रोमानीकरण आरंभ हो गया है - क्या वे इतनी दूर चले गये हैं, वह बूढ़ी होने लगी है? दूरी मनसा ही होती है - पर काल भी तो मनसा ही जाना जाता है - जिस अर्थ में शरीर के स्नायु बूढ़े होते हैं, उसका पता तो बीस-पचास साल में लगता है, असल बूढ़ा होना तो मानसिक होता है जो एक दिन में भी हो सकता है। पर ऐसे विचार उसे अधिक गहरे में नहीं व्याकुल करते थे; काम सीखना उसने शुरू कर दिया था; रामकिशोर लेन से हर्र स्टेगर के बँगले तक आने-जाने के बीस-पचीस मिनट एक निर्वैयक्तिक ढंग से ऐसी किसी बात को सोचने में कट जाते थे और इस तरह की अन्यमनस्कता में एक फायदा यह भी था कि रास्ते में मिलनेवाले आते-जाते लोगों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता था - न उनमें से ही कोई उसकी ओर विशेष ध्यान देता था। पर दो-चार दिन बाद उसे लगा कि कोई व्यक्ति उसके पीछे-पीछे आ रहा हैः वह इतनी दूर पर था कि शंकित होने की कोई बात नहीं लगती थी, पर उसके बाद दो-तीन बार ऐसा संदेह होने पर जब उसने पहचान लिया कि दूर रहता और उदासीन दीखता हुआ भी प्रत्येक बार वही व्यक्ति होता है और उतनी ही दूरी पर, तब उसे निश्चय हो गया कि वह उसके पीछे ही है, उसी का अनुसरण कर रहा है - क्यों? उसने सैसी स्टेगर से इस का उल्लेख कर दिया और पूछा, “यह लोकैलिटी तो सुरक्षित है न - कोई चिंता की बात तो नहीं है न?” सैसी ने हँस कर कहा, “चिंता नहीं, सोमा। सुरक्षित तो आजकल क्या है, पर वह फॉलो ही करता होगा - उसी में सुरक्षा मान लेनी चाहिए। हमारे घर पर भी तो निगरानी रहती है - तुमने नोटिस नहीं किया? सभी फॉरेनर आजकल संदिग्ध हैं - आखिर लड़ाई का जमाना है - यह भी तो हो सकता था कि नजरबंद ही कर लिए जाते। जर्मन-इटालियन तो घेर ही लिए गये - हम लोग एक तो चेक हैं, दूसरे बहुत पहले से बसे हैं, हम पर सिर्फ निगरानी है। और तुम रोज यहाँ आती जाती हो - या कि तुम्हारे अपने भी कुछ पॉलिटिक्स हैं, सोमा?” और मानो उसका चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगी।

“नहीं, मिसेज स्टेगर-या कम-से-कम मेरे अपने चुने हुए तो कोई नहीं।”

“हम से अधिकतर ऐसे ही होते हैं, सोमा - अपने पॉलिटिक्स हम नहीं चुनते - सिर्फ उसकी गिरफ्त में आ जाते हैं। तुम्हारी बात से लगता तो है कि - “

“नहीं, कुछ नहीं, मिसेज स्टेगर! मेरे दो-एक परिचित थे - या - “ सोमा ने अपने पर जोर डाल कर कह ही तो डाला, “मेरे दिवंगत पति भी कुछ - “

“आइ सी। तब उधर कुछ ध्यान मत दो - समझ लो कि बिना वेतन का एक बॉडीगार्ड तुम्हें मिला हुआ है। मैं तो कभी-कभी पेंट करने जाती हूँ तो अपना कैनवस और ईजेल भी उससे उठवा लेती हूँ। ही माइट एज वेल फील यूसफुल!” कह कर वह जोर से हँस दी।

सोमा ने तर्कपूर्वक निश्चय कर लिया कि वह आश्वस्त है और रहेगी - पर मन में कहीं एक खुटका बना ही रहा। अच्छा, अब जब सामंत से मुलाकात होगी तो पूछेगी - सामंत जरूर जानता होगा... पर मुलाकात क्या होगी? और - कहीं इस निगरानी का कारण वही हुआ तो? वह यात्रा - वीरेश्वर का घर - अगर वीरेश्वर नाथ का क्रांतिकारियों के साथ जाना हुआ था तो उसके घर पर जरूर निगरानी रहती होगी - रही होगी - पर तब सामंत को पता न होगा? वत सतर्क न रहा होगा? पर वीरेश्वर की मृत्यु तो शिकार की दुर्घटना में हुई थी। सोमा को अचंभा हुआ कि उसे सामंत के शब्द अक्षरशः याद आ गये - 'इस समय का तथ्य यही है कि शिकार पार्टी में अकस्मात् गोलियाँ लग गयीं जिससे मृत्यु हुई। राजा साहब का बयान भी था जिनकी शिकार पार्टी थी, सिविल सर्जन का सर्टिफिकेट भी कि दुर्घटना में मृत्यु हुई।' 'राजा साहब का बयान भी था' - इसका क्या मतलब होता है? 'इस समय का तथ्य यही है' ...यानी कि वास्तविक घटना कुछ और थी, राजा साहब के रसूख से ऐसी व्यवस्था हो गयी... पर यह भी तो हो सकता है कि पुलिस ने ऊपर से बात मान ली हो और - ...तब क्या सामंत पर भी निगरानी होगी? जब वह मिलने आएगा तब क्या ये दोनों गुरगे आपस में सलाह करेंगे? एकाएक सोमा को अपने डैडी का ध्यान आया : यह सब जानकारी जब कभी उन तक पहुँचेगी तब उन्हें कैसा लगेगा! एक कूट विनोद से उसका मन भर गया : डैडी जब अपनी स्टडी में बैठे ये सारे बयान पढ़ रहे हों तब वहाँ अदृश्य खड़े हो कर देखने में कितना मजा आएगा! पर क्या डैडी को पता लग गया होगा कि वह कहाँ है, क्या कर रही है? और किस नाम से रहती है? दैट विल बी द लास्ट स्ट्रॉ... तिनके का बोझ - तिनके के बोझ से डूबने की बात उसे फिर मजेदार लगी। ऐसी लदी हुई नाव कि एक तिनका और लदने से डूब जाय - उसने कल्पना से देखने की कोशिश की कि डैडी नाव की तरह समुद्र में डोल रहे हैं, और उन पर लादा जा रहा है - भूसा... अच्छा, वह ऐसा ही एक स्केच बनाएगी, हाँ, चेहरा पहचान में आनेवाला नहीं, और किसी का कैरिकेचर ही बना देगी - वाइसराय का ही चाहे -

लेकिन 'मिस्टर स्टेगर सिखाने में तो बहुत अच्छे हैं - अगर शागिर्द की जान पहले न ले लें'! काम, काम, काम...

महीना पूरा हो गया था। तीसरे पहर के लिए सोमा ने छुट्टी पहले से माँग रखी थी; फिर भी वह स्टेगर के बँगले में समय से गयी; भीतर थोड़ा देर काम कर के उसने सैसी से पूछा, “क्या मैं आपके मकान के पिछवाड़े जा सकती हूँ?”

सैसी ने कुछ अचरज के स्वर में अनुमति देते हुए कहा, “श्योर!” तो सोमा ने मानो सफाई देते हुए कहा, “वहाँ गिलहरियाँ बहुत आती हैं - मैं उन्हें चारा देना चाहती हूँ। छोटी थी तब मेरी एक पालतू गिलहरी थी।”

सैसी ने कुछ रंजित स्वर से कहा, “यहाँ से सभी पालतू हो गयी हैं। कार्ल उन्हें खिलाते भी रहते हैं।”

बात को निबाहने भर के लिए पिछवाड़े में टहल कर सोमा पिछले गलियारे से ही गुजरती हुई जाली के छोटे किवाड़े से बाहर निकली; दो-एक छोटी सड़क से होती हुई राजपुर रोड पर निकल आयी और वहाँ से दूसरी तरफ से स्विस होटल के सामने टहलती हुई पहुँच गयी। वह निगरानी करनेवाला आदमी उसने स्टेगर के सामने के फाटक से कुछ दूर पर खड़ा देख लिया था; ऐसे कार्यों का कोई अनुभव न रहते भी उसने उसे चकमा दे कर जाने की सावधानी बरतना ही ठीक समझा था। उसने यह भी देखा था कि यह आदमी अकसर उस दूसरे आदमी के साथ बातचीत करने बैठ जाता था जिसकी ड्यूटी स्टेगर के बँगले पर थी - और दोनों करते भी क्या? तब उसे पता तो होगा कि पिछवाड़े भी एक रास्ता है; पर जब तक वह उधर कहीं देख न ली जाए तब तक यही माना जाता रहेगा कि 'साहब लोगों' के बँगले से उसका आना-जाना औपचारिकता के साथ ही होता होगा।

काफी देर तक सोमा स्विस होटल के सामने टहलती रही। सुशिक्षित युवती होने के नाते वह यही जानती थी कि लड़कियों को प्रतीक्षा करते खड़ा नहीं रखा जाता; पहले पहुँच कर राह देखना पुरुषों का काम है और उन्हें इंतजार करा कर देर से आना लड़कियों का सहज अधिकार। देर हो गयी, तो उसने अपने से कहा कि इस शिष्टाचार से सामंत को बरी समझना चाहिए - वह दूसरे संस्कार का है, ये बारीकियाँ नहीं भी जानता होगा! जब और देर हो गयी तब उसने और रियायत दी : जैसे काम में वह है उसमें देर तो हो ही सकती है - उसे भी तो चकमा दे कर आना पड़ सकता है -

पर आखिर और कितने चक्कर वह स्विस होटल के सामने काटेगी? अलीपुर रोड है, सैर की सड़क है, ठीक है; पर सैर करनेवाले इधर कंपनी बाग में जायेंगे, उधर कुदसिया बाग में जायेंगे, जमुना की ओर जायेंगे - अलीपुर रोड का चक्कर कब तक काटेंगे? फिर कमिश्नर के बँगले से वह जगह बहुत दूर नहीं है; निगरानी की बात ही है तो वहाँ भी किसी का ध्यान गया तो?

एक बार उस तरफ को देख कर सोमा कश्मीरी गेट की ओर बढ़ गयी; वहाँ से लौटती बार कुदसिया बाग के भीतर से होती हुई निकली; पर स्विस होटल के आसपास या पार कंपनी बाग के दीखनेवाले हिस्से में कहीं कोई नहीं था। वह बढ़ती हुई चली ही गयी, स्टेगर के साथवाले बँगले में घुस कर वह शंकित आँखों से इधर-उधर देखती हुई बाड़ आधी बेध और आधी फाँद कर स्टेगर के बँगले के अहाते में घुस गयी, तीर्थंकर के चबूतरे के पास खड़े होकर उसने अपनी साड़ी की सलवटें ठीक कीं और फिर सामने के फाटक से निकल आई।

हाँ, आदमी बँगलेवाले आदमी के साथ बात करता इधर-उधर देख रहा था।

रामकिशोर लेन के मोड़ पर मुड़ते हुए सोमा ने देखा, वह वहीं उतनी दूर पर ठिठक गया है। तेज कदमों से वह अपने कमरे में चली गयी; जोर से घसीट कर उसने एक कुर्सी सामने को की, और उस पर धम्म से बैठ गयी। एकाएक उसे लगा कि उसकी आँखें चुनचुना रही हैं - कि वे रोएँगी। रोने को क्या हुआ है? उसने झुक कर साड़ी ऊपर खींच कर अपनी पिंडलियाँ उघाड़ लीं; बँगलों की बाड़ पार करते हुए उसकी पिंडलियाँ छिल गयीं थीं, जरूर उसी की जलन के कारण उसकी आँखों में आँसू आ रहे होंगे। वह धीरे-धीरे सी-सी करती हुई अपनी पिंडलियाँ सहलाने लगी।

थोड़ी देर बाद बुदबुदा कर अपने ही से बोली, “लायर! फेस इट - यू आर फीलिंग डिच्ड! यू वांटेड हिम टु बी देयर”...

बहुत पिंडलियाँ सहला लीं, ऐसी कोई छिली-विली नहीं थीं, मामूली एक-दो खरोंचें... झूठ-मूठ फस मत करो! सोमा ने साड़ी नीचे खिसका कर पिंडलियाँ ढँक लीं और थोड़ी देर निश्चल बैठी रही। फिर झटके से उठते हुए उसने कहा, “डैम!” और थोड़ा रुक कर, “कुछ फिकिर नईं, मिसेज नाथ; अगला टाइम हम उसको डिच करेंगा।” अपने को डिप्रेशन से उबारने के लिए वह जब-तब इस 'खानसामा उर्डू' का आसरा लेती थी; अक्सीर नुस्खा था। पर आज जैसे उसमें कोई तासीर नहीं थी; बहुत ही अँधेरे तूफानी मूड में सोमा छोटी रसोई में जा कर कहवा बनाने लगी - अपने मूड से भी ज्यादा काला, कड़वा कहवा।

एक लंबा महीना जल्दी से निकल गया : उसके लंबा होने और उसके जल्दी निकल जाने दोनों का स्पष्ट बोध सोमा को था, अगर दोनों के विरोध का भी था तो वह उस विरोध को पूरा हल करना जरूरी नहीं समझती थी। कार्ल स्टेगर उसे काम रुचि से सिखा रहे थे इसलिए पूरा परिश्रम भी चाहते थे; दिन-भर वह काम करती थी और शाम को पुस्तकें साथ ले आती थी चित्र देखने और पढ़ने के लिए। दिन छोटे होने लगे थे और जब वह लौटती थी तब नदी की ओर से एक धुएँला कुहरा बढ़ कर बकायन के मुरझाने लगे शिखरों और बबूल की झाड़ियों पर अपनी मैली चादर बिछा रहा होता था - मानो इसी ऊबड़-खाबड़ शय्या पर जाड़ा अपनी कसैल नींद पूरी करेगा... कभी-कभी इसी धुएँ से कसायी आँखें लिये घर लौटती हुई सोमा को एकाएक सामंत की चूक की याद आ जाती थी तब उसकी आँखें और कड़वा आती थीं और उसे लगता था कि सात घंटे के दिन की अपेक्षा यह सत्रह मिनट की साँझ ज्यादा लंबी है - क्यों कि ऐसे दिनों वह साँझ को अधिक लंबा नहीं होने देती थी, घर में नहीं घुसने देती थी-घर तक की वॉक पूरी होते ही वह अपने पीछे दरवाजे बंद कर के बत्तियाँ जला लेती थी और काम में जुट जाती थी -समय की स्थिति से नाता तोड़ लेती थी। यद्यपि समय की स्थिति क्या होती है, गति का ही तो नाम समय है... न, गति का नहीं, गति के बोध का, गति से अपने संबंध के ज्ञान का। गति और स्थिति के बीच की टूट का, बढ़ती हुई टूट का...

पर 'अगला टाइम' भी 'मिसेज नाथ' उसको डच नहीं 'करने सका'। अब की बार उसने पूरे दिन की छुट्टी ले ली थी, और स्टेगर दंपति से कनॉट प्लेस में करने लायक काम भी पूछ लिया था। पूर्वाह्न वहाँ बिता कर वहीं उसने हल्का-सा लंच लिया; फिर वहीं अपने 'साथी' को चकमा दे कर वह निकल आयी और दूसरी तरफ से टैक्सी ले कर स्विस होटल पहुँच गयी। साथी बहुत देर तक वहाँ नहीं रहेगा, जान जाएगा कि उसे चकमा दिया गया है - पर तब घर ही तो लौटेगा पता लेने के लिए? और भविष्य में अधिक सतर्क रहेगा? पर सोमा भी अब अधिक निडर हो गयी है; जब उसे पीछा छुड़ा कर कहीं जाना होगा तो जरूर कोई युक्ति निकाल लेगी!

टैक्सी को विदा कर के उसने होटल में ही चाय पीने की रस्म अदा की और फिर टहलती हुई बाहर निकल आयी। अपने को अधिक प्रतीक्षा या उत्कंठा के मूड में उसने आने नहीं दिया था; उसका निश्चय था कि सामंत नहीं आया तो वह अपने को पिछली बार की तरह निराशा में नहीं डूबने देगी। आखिर उनकी मुलाकात निरे एक्सिडेंट से हुई थी; एक्सिडेंट भी ऐसा-वैसा नहीं, वन-इन-ए-मिलियन, क्यों कि ऐसा तो उसने कभी उपन्यास में भी नहीं पढ़ा था! बल्कि उपन्यास में पढ़ा होता तो विश्वास भी कर पाती या नहीं, पता नहीं! वह दो या तीन चक्कर लगाएगी और फिर घर चल देगी, बस।

पर वह पहली बार ही मुड़ी थी कि उसे सामने से सामंत आता दिखाई दिया। अखरोटी रंग का गर्म सूट, पॉलिशदार जूते, नोकीले कॉलरवाली धारीदार कमीज और मैच करती हुई टाई : यह एक दूसरा ही सामंत था। नयी-नयी नियुक्ति पर आया हुआ अफसर - वह भी जैसे अभी-अभी जिला अफसर के पास अपनी पहली औपचारिक हाजिरी लगा कर आ रहा हो! ऐसे लोग उसके डैडी के यहाँ अक्सर दीखते थे - पर मन ही मन उनसे तुलना कर के सोमा ने निर्णय किया कि नहीं, सामंत उन जैसा दीखता है, पर उनमें से नहीं है - इस के ये कपड़े पहनने में कुछ विशेषता है। सूट ने आदमी नहीं पहना है, आदमी ने सूट पहना है।

पास आते-आते खिले चेहरे से सामंत ने कहा, “हैलो-सोमा जी - “ और फिर निकट से, धीरे से, “अब किस नाम से पुकारूँ, बता दीजिएगा - “

“मिसेज नाथ - यानी वीरेश्वर नाथ, आप तो जानते हैं!” कहती हुई सोमा मुस्करा दी। “बट सोमा टु यू - 'जी' को ड्रॉप कर दीजिए।”

“थैंक यू, सोमा। नाइस नेम, सोमा। सोमा जी कहने से तो लगता है, उधर कहीं बंबई-मद्रास तरफ की होंगी, या बोहरा-पारसिन कुछ सोमा जी, बोमा जी, सोमा जी किरसुनजी, या कि जमसेट जी सोमा जी पोटलीवाला! नहीं, पर्सवाला!”

सामंत की यह नटखट मुद्रा सोमा को अच्छी लगी। पर पर्सवाला के उल्लेख से उसका ध्यान उस रेलगाड़ीवाली घटना की ओर चला गया जिससे कुछ कड़वाहट भी मन में आ गयी; इसलिए उसने जब हँसते हुए कहा, “ओ शटअप!” तो उस में कौतुक-भरी वर्जना के साथ एक सच्ची खीझ भी थी।

“किधर चलें? टहलेंगी, या कि - आप की तरफ चलेंगे - कहाँ रहती हैं यहाँ?” शायद अभी यह सब पूछना कुछ ढिठाई लगे इस ख्याल से कुछ सकुचा कर सामंत ने फिर कुछ नटखट ढंग से जोड़ दिया, “या कि यहाँ भी मिस्टर नाथ के रिश्तेदारों के यहाँ ठहरी हैं - “

क्या फायदा है कुढ़ने से! सोमा ने आयासपूर्वक अपने को वश किया और हँसी का वही स्तर स्वीकार करती हुई बोली, “वह कैसे होता! वैसा कोई खयाल रखनेवाला एस्कॉर्ट मिलता तब न!”

“सो तो है। सो तो है। पर - उधर पार्क की तरफ हो लें? अभी तो थोड़ी देर धूप है, सुहाना मौसम रहेगा - “ सामंत को लगा कि आमंत्रित करने या न करने का फैसला सोमा का है, उसकी पूरी छूट उसे रहनी चाहिए। सोमा से कदम मिलाने के लिए उसने अपने डग थोड़े छोटे कर लिए। यह लिहाज सोमा को अच्छा लगा, इसलिए और भी कि सामंत से इसकी अपेक्षा उसे नहीं थी।

सोमा की तिरछी नजर से अपनी टाँगों की ओर देखता पा कर सामंत ने पूछा, “यह आउट फिट आपको पसंद - आपको ठीक-ठीक लगा? मेरे लिए तो अभी अभ्यस्त नहीं हैं - आई फील ड्रेस्ड अप।”

चिढ़ाने के लिए सोमा ने कहा, “यू आर, मिस्टर सामंत, यू आर!” फिर कुछ पसीज कर, “अच्छा लगता है - मेरे लिए तो प्लेजेंट सरप्राइज था।”

“मैं पिछली बार आ नहीं सका, उसके लिए बहुत-बहुत माफी चाहता हूँ। पर आ सकता ही नहीं था। उधर बंगाल तरफ जाना पड़ा था। और खबर देने का कोई उपाय तो था नहीं -