छाया मेखल / भाग-5 / अज्ञेय
बंगाल तरफ। यह कहाँ का मुहावरा बीच-बीच में यह आदमी बोलता है? या कि यह भी एक विशिष्ट निजी ढंग है? सोमा ने एकाएक पूछा, “डॉक्टर सामंत, यह सामंत नाम कहाँ का है - बंगाली सामंत या मराठी? या कि पश्चिम के सामंत गुजराती होते हैं? मुझे नहीं मालूम।”
सामंत खुली-खुली आँखों से उसकी तरफ देखता रहा, कुछ बोला नहीं।
थोड़ी देर बाद सोमा ने कहा, “अच्छा, मैं समझ गयी। ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते। पर डॉक्टर सामंत, आपके सर्कल में क्या किया जाता है और क्या नहीं किया जाता, वह मैं न जानूँ या मानूँ तो कोई दोष है? आप जानते हैं कि मैं आपके सर्कल में नहीं हूँ - न मुझे उससे कोई सिंपैथी है।”
सामंत ने क्षण-भर चुप रह कर कहा, “न सही सिंपैथी। सिंपैथी चाहिए भी नहीं।” स्वर में थोड़ी रुखाई थी। उसे दबा कर बदले स्वर में वह फिर बोला, “और इस 'डॉक्टर' को छुट्टी दी जाय तो कैसा रहे? कॉल मी मोहन।”
“मोहन या कि मन्नू!” सोमा ने चिढ़ाते हुए कहा, “पर सिंपैथी क्यों नहीं चाहिए? मैं तो समझती थी, आप लोगों को दो तरह के लोग चाहिए - एक तो... साथी, दूसरे... सिंपैथाइजर। ऐसा ही तो मैंने पढ़ा भी है आप लोगों के - “
“जरूर पढ़ा होगा।” सामंत ने कुछ जोश में कहा, “पर हमें दोनों नहीं चाहिए। हमें सिर्फ इनसान चाहिए!” थोड़ा और भी उत्तेजित स्वर में उसने पूछा, “तुम कभी अखबार-वखबार भी पढ़ती हो, सोमा?”
'आप' से 'तुम' तक का परिवर्तन अलक्ष्य नहीं रह सकता था। और कारण सिर्फ बात की उत्तेजना तक ही सीमित हो, ऐसा भी नहीं जान पड़ता था। सोमा को हल्की-सी सिहरन हुई; वह सिहरन अच्छी भी लगी।
“पढ़ती तो हूँ, डॉ. मोहन, पढ़ती हूँ, पर आप कहना क्या चाहते हैं?”
“अखबार पढ़ कर कोई कैसे उदासीन रह सकता है - यह सोच भी कैसे सकता है कि सिंपैथाइजर हमें चाहिए? यहाँ पर 'हम' और गैर-हम का फर्क कुछ मतलब रखता है? सभी भारतीयों की एक-सी प्रतिक्रिया होनी चाहिए - “
“किस बारे में? लेकिन मान लीजिए कि बात आजादी की है और उस बारे में सबको एक साथ सोचना चाहिए। हालाँकि वह भी होता नहीं है - आजादी की परिभाषाएँ भी कई हैं, पर वह हो भी तो सवाल प्रतिक्रिया का नहीं, प्रक्रिया का है। सभी को क्यों एक ही प्रोसेस ठीक दीखना चाहिए? क्या दूसरा रास्ता नहीं होता और जो दूसरे रास्ते अपनाते हैं, आपकी राय में सब बेवकूफ हैं? या उससे भी बदतर-बेईमान हैं?”
“बड़े-बड़े आदमी हमें मिसगाइडेड कह सकते हैं, तो हम भी उन्हें गलती पर मान ही सकते हैं, सोमा जी। पर उसे छोड़िए। मैं एक मन की बात नहीं कहता। आप ही की दलील से चलें - अगर आजादी की बात सभी के सामने है, तो हमारे सिंपैथाइजर होने की बात कहाँ से उठती है? सब अपने-अपने सिंपैथाइजर ही रहें; चलिए, अपने-अपने सर्कल का शिष्टाचार बरतें!”
“अच्छी बात है, अच्छी बात है, इतना सेंसिटिव होने की कोई जरूरत नहीं है। बल्कि आपके काम में तो खासी मोटी चमड़ी का होना चाहिए - नहीं?”
उचित डाँट खाये हुए भाव से मोहन बोला, “आप ठीक कहती हैं। मुझे बुरा नहीं मानना चाहिए था। पर...” और अब फिर सोमा ने 'आप' से 'तुम' का परिवर्तन लक्ष्य किया, “पर सच मानो सोमा, और कभी ऐसी चूक मुझसे होती नहीं है, तुम्हीं पता नहीं क्यों चिढ़ा देती हो!”
चिढ़ा देने की ही सही, शक्ति तो शक्ति है। सोमा को मजा आ रहा था। इसीलिए वह कुछ उदार होने को भी तैयार थी। “मैं मानती हूँ कि वैसा लीडिंग सवाल मुझे नहीं पूछना चाहिए था। 'आस्क नो क्वेश्चन्स, बी टोल्ड नो लाइज'। लेकिन चिंता भी तो हो सकती है? बंगाल तरफ क्या वैसे ही किसी काम से गये थे - जोखम के काम से?”
अब की बार मोहन को अच्छा लगने की बारी थी। बोला, “जोखम तो - कहाँ नहीं है। सड़क पार करते हैं तो जान खतरे में डालते हैं। यहाँ बिजली के तार के नीचे चल रहे हैं, टूट जाय तो - ! आदमी काम करता है, पेशबंदी करता है, बस।”
दोनों थोड़ी देर चुपचाप चलते रहे। पार्क का दूसरा छोर आ रहा था, मोहन की चाल में ही निहित प्रेरणा के साथ मुड़ते हुए सोमा को अच्छा लगा : यह अनायास मिलाये हुए कदमों से टहलने में एक अपूर्व स्फूर्ति थी... उसमें जैसे पंख थे, उन पर उड़ते हुए कुछ बोलना भी जरूरी नहीं था, न यह जानना ही कि दोनों के विचार समांतर हैं या दूर-दूर...
मोहन ने पूछा, “सोमा, जब घर से - भाग आयी थीं तब कोई पेशबंदी की थी?”
“पूरी। क्यों?”
“तब क्या मालूम था कि उस सब के बावजूद जिस गाड़ी में बैठोगी उसमें-क्या होगा?”
सोमा एक विरस-सी मुस्कान मुस्का दी; कुछ कहना जरूरी नहीं था।
थोड़ी देर बाद सोमा ने कहा, “हाँ, मैं जो भी प्रिकॉशन ले रही थी, डैडी के खिलाफ; रेलगाड़ी के खिलाफ नहीं - “
“देट्स इट।” जोखम इसमें उतना नहीं होता कि हम करते क्या हैं, इसमें होता है कि प्रिकॉशन हम एक तरफ को लेते हैं और शॉक दूसरी तरफ से आता है।
“क्या सब तरफ से प्रिकॉशन नहीं लिया जा सकता?”
“अपनी तरफ से तो सब वही करते हैं। पर सब तरफ का मतलब क्या होता है? वैसी टोटल पेशबंदी करने की कोशिश तो कर के देखो! पागलखाने का शॉर्टकट है।”
“बरेलीवाले, कि आगरेवाले?”
मोहन ने एक तीखी दृष्टि से उसकी ओर देखा। थोड़ी देर जैसे कुछ तौलता हुआ देखता रहा। फिर बोला, “आइ टेक इट, यह फिर वही पागलखानेवाला घिसा-पिटा मजाक है? ए लिटल टू आब्वियस दिस टाइम।”
सोमा को लगा कि बात ठीक ही है। इतना आब्वियस होने की जरूरत नहीं थी। अपने गलत कदम पर कुछ कुढ़न उसे हुई। टालती हुई बोली, “ओह, लेट अस नॉट स्पायल इट ऑल! अच्छा सुंदर दिन है, बढ़िया सैर है : आई एम डिटर्मिंड टु एंजॉय इट!”
मोहन चुप रहा। क्यों? इतना ग्रेस तो उस में होना चाहिए था कि मान जाय? उसने कुछ तकलीफ पहुँचाने को तो कहा नहीं था; अगर कुतूहल था ही तो क्या हुआ - खास कर जब मोहन ने उसे शांत करने लायक कुछ फिर भी नहीं बताया?
थोड़ी देर बाद मोहन को भी लगा होगा कि बात यहाँ अटकी नहीं रहनी चाहिए। बोला, “हाँ, बहुत बढ़िया सैर थी। पिछली बार आ न सकने का मेरा अफसोस फिर ताजा हो आया।”
बढ़िया सैर - थी। यानी समाप्त हो गयी। शह स्वीकार करते हुए सोमा ने कहा, “अच्छा, अब लौट चलें?”
“चलिए। आप को घर तक पहुँचा दूँ -”
सोमा ने हँस कर कहा, “घर तक तो झूठे को पहुँचाना होता है। नहीं, मैं चली जाऊँगी। अच्छा ही है कि जहाँ रहती हूँ वहाँ पुरुष न आयें-जायें।”
मोहन ने एक बार उसकी ओर देख कर स्वीकार कर लिया कि हाँ, यही वास्तविक कारण होगा। बोला, “फिर कब भेंट होगी?”
सोमा का मन हुआ कि शरारतन वह कह दे, “फिर डिट्टो”- यानी एक महीने बाद उसी दिन, उसी समय; पर इसके अलावा कि इतना लंबा अंतराल वह नहीं चाहती थी, यह ज्यादती होगी कि वह मोहन से फिर कहीं से दिल्ली की यात्रा की जहमत उठवाये। बोली, “आप अभी कब तक यहाँ हैं?” और जल्दी से उसने जोड़ दिया, “यह सवाल कुछ इनफर्मेशन निकलवाने के लिए नहीं है, मतलब यही कि इस वीक-एंड तक की बात हो तो तब तक आप यहाँ हैं न - असुविधा तो नहीं होगी? तब शायद मुझे कुछ अधिक समय मिल जाय, या कहीं - “
“ठीक है। किस समय कहाँ आ जाऊँ?” कह कर मोहन ने भी जोड़ा, “यह भी आपका घर का पता जानने का हीला नहीं है, सोमा जी; आइ मीन, कहाँ मिलना आपको सुविधाजनक होगा?”
तो मोहन के मन में कहीं अभी गाँठ रह गयी है। क्यों? ऐसा तो उसने कुछ कहा या पूछा नहीं। क्या अनदेखा कर जाए? नहीं, तब वह और कड़ी पड़ जाएगी। साफ-साफ पूछने में भी जोखम है, पर - 'जोखम तो - कहाँ नहीं है।' उसने एकाएक रुक कर मोहन की ओर मुड़ते हुए थोड़ा घुड़क कर पूछा, “क्या बात है, मोहन? किस बात का गुस्सा तुम पोस रहे हो?”
मोहन भी रुक गया। थोड़ी देर उसके चेहरे को एकटक देखता रहा। फिर कुछ इस भाव से कि यों खड़े रहना जरूरत से ज्यादा लक्ष्य होगा, चलने को मुड़ते हुए बोला, “यहाँ आने से पहले लखनऊ गया था।”
सोमा ने बराबर आते हुए पूछा, “तो?”
“पता लगा कि मिस्टर जैतली के तबादले के ऑर्डर जारी होनेवाले हैं!”
“ऐसा? कहाँ को?”
“यह तो नहीं पता लगा। पर यह पता लगा कि मिस्टर जैतली के दो लड़के हैं, दोनों सनावर में पब्लिक स्कूल में हैं।”
“ओ - आपने पड़ताल की? इतना कष्ट क्यों?”
“और लड़की उनकी कोई नहीं है।”
सोमा झिझकी नहीं, वैसे ही चलती रही। थोड़ी देर में सम स्वर में उसने कहा, “होती भी तो अब क्या? अब तो नहीं है।”
मोहन देर तक उसकी ओर देखता चलता रहा। सोमा इससे आगे भी कुछ कहेगी या नहीं? पर सोमा जैसे बात समाप्त कर चुकी थी; आगे जोड़ने को कुछ था नहीं।
देर बाद उसने कहा, “स्विस के सामने से - आइ सपोज - मुझे लौट जाना चाहिए।”
सोमा ने खंडन नहीं किया। बोली, “अगले इतवार को दस बजे आइ'ल बी फ्री। कनॉट प्लेस में मिलूँगी - डैविकोज में। वहाँ से कहीं और जाना चाहेंगे तो उठ जायेंगे -डैविकोज ठीक है न?”
“ठीक है - “ मोहन के स्वर में कुछ ऐसा भाव था कि वह कुछ और भी कहना चाहता है, पर सोमा ने उसकी बात काट कर कहा, “और एक बात और भी आपको कह दूँ : मेरे घर पर निगरानी रहती है - और एक आदमी पीछे-पीछे भी रहता है।”
मोहन ने हठात् मुड़ कर देख कर कहा, “यहाँ तो नहीं आया था?”
“नहीं, नहीं, आइ गेव हिम द स्लिप।”
“ओह! ...थैंक यू फॉर टेलिंग मी। कनॉट प्लेस में दूसरे भी हो सकते हैं।”
“मैं सावधान रहूँगी।”
“अच्छा, सोमा।” कह कर मोहन चलने को हुआ।
सोमा ने एकाएक दीप्त हो कर पूछा, “मन चंगा?”
मोहन को क्षण ही भर अर्थ ग्रहण करने की देर हुई। फिर उसने कहा, “हाँ, सोमा।” थोड़ा रुक कर, “कांट एफोर्ड अदरवाइज।”
सोमा ठीक तै नहीं कर पायी कि इसमें कहीं बचा हुआ अवसाद है, या कारुण्य। फिर उसने प्रत्युत्पन्न निश्चय से कहा, “मैं यहाँ स्टेगर के यहाँ काम सीख रही हूँ। पर वहाँ भी निगरानी है। अच्छा, डोंट डिच!” उसका नमस्कार बहुत संक्षिप्त था, पर चेहरे का दीप्त भाव उसकी कमी पूरी करता था। मोहन थोड़ी देर ठिठका रहा, फिर उसने एक बार चारों ओर नजर डाली : अगर यह विदाई पार्क के लिए नितांत साधारण न भी रही हो तो भी किसी ने उसे देखा नहीं था। फिर वह मुड़ा और लंबे कदम भरता हुआ क्लब की तरफ को निकल गया।
बाकी सप्ताह फिर काम में निकल गया। शनिवार को काम समाप्त कर के सोमा घर आयी तो थोड़ी देर बाहर टहलती रही। मोहन से पिछली भेंट का असर अभी बाकी था : कुछ डोरे उजले रंगों के तो दो-एक गहरे मैले रंगों के भी; वह रोज ही थोड़ी देर इन्हें सुलझा कर अलग कर लेने का प्रयत्न करती रही थी पर सफल नहीं हुई थी। आज भी वह यही कर रही थी। कल मोहन से फिर मिलना होगा, उससे पहले बात को कुछ समझ लेना चाहिए, इस भावना ने उसकी उधेड़-बुन को कुछ तीक्ष्णता भी दे दी थी। उसने चलते-चलते जो अंतिम बात कही थी, उसका उद्देश्य यही था कि जैतली परिवारवाली बात से मोहन के मन में बसा हुआ संदेह या शिकायत दूर हो जाय, उसे लगे कि भरोसा कर के उसे एक रहस्य की बात बता दी गयी है। हो सकता है कि उसे उसने कॉनफिडेंस माना भी हो - पर अगर उसकी पड़ताल यही है कि पुलिस कप्तान जैतली की कोई लड़की नहीं है, तो इस जानकारी का वह करेगी तो क्या करेगी? 'मिस सोमा जैतली - और जैतली साहब के दो लड़के हैं, लड़की कोई नहीं है।' और उसने सिर्फ नाम नहीं बताया था, यह कर कर बताया था कि विश्वास करने में पहल वह करेगी। कहने में पहल का दावा - और पहली ही बात झूठ साबित! पिछली भेंट में तो खैर बात जैसे-तैसे निभ गयी - या टल गयी - उसी भेंट में तो सामने आयी भर थी - पर आगे कहाँ तक चलेगी?
पर झूठ की आखिर जरूरत क्या है? रेलगाड़ी में - खैर, एक तो कॉनफिडेंस की बात तो यह थी कि घर से भाग कर आयी है, इससे क्या कि जिस अफसर की बेटी है उसका ठीक नाम क्या है? दूसरे-दूसरे भाग कर आने के बाद उसका पहला ही तो साक्षात्कार था बाहर की परिस्थिति के साथ - क्या हुआ अगर उसने तुरत सही नाम नहीं बता दिया? बिल्कुल भी न बताया होता तो भी क्या झूठ होता? पर पुलिस कप्तान का नाम - जो पहला नाम जबान पर आ गया, उसने ले दिया था - और परिस्थिति के देखते शायद पुलिस के अफसर का नाम जबाँ पर आना अनपेक्षित भी नहीं था - अगर थोड़ा ड्रामा उसमें था, तो क्या हुआ! वह क्या जानती थी कि जिसके आगे यह नाम लेगी वह जैतली साहब को जाननेवाला ही निकलेगा!
जो हो, झूठ पर जमे रहने की जरूरत नहीं है। उसने तय कर लिया कि कल जब मोहन से मुलाकात होगी तो उससे अपना झूठ स्वीकार कर लेगी, उसे ठीक-ठीक परिचय दे देगी और इस बात की क्षमा भी माँग लेगी कि पहली ही बार उसने भरोसा करने की बात कर के झूठ बोला... यह सब भी ठीक जरूरी हो ऐसा नहीं है, पर इससे अगर निकटतर आने का रास्ता साफ होता है तो उसे यह करने में जरा भी संकोच नहीं होगा। दोस्त उसके कोई अधिक नहीं हैं - कोई भी बचा है या नहीं, क्या पता! - और मोहन सर्वथा इस योग्य है कि -
कि क्या? इसका जवाब स्पष्ट न देने में कोई बुराई सोमा को नहीं दीखी। कि यही कि ऐसी साफ बयानी के बाद शायद मोहन भी कुछ और बताये, कुछ निकटतर आये,
एक दोस्त की गुंजाइश तो उसे है, जरूर है...
इतवार को डेविकोज में सोमा को फिर काफी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। फिर मोहन आता हुआ दीखा, पर उसकी नजर मिलते-न-मिलते छिटक कर दूर चली गयी, मोहन उसकी ओर बढ़ने की बजाय कुछ दूर की मेजों के पास से बढ़ता चला गया और मुड़ कर ओझल हो गया। सोमा को उसने देखा जरूर, यह तो माना नहीं जा सकता था कि सोमा उसे मिली नहीं; तब न मिलने का कोई कारण ही रहा होगा - सोमा को निगरानीवाली बात याद आयी - कनॉट प्लेस में 'दूसरे भी हो सकते हैं' ...क्या किसी जोखम के कारण मोहन ने रुकना ठीक नहीं समझा -
दो-तीन कहवे पी कर सोमा ने उठ जाना ही ठीक समझा। मोहन लौट कर आता होता तो अब तक आ गया होता। बाहर निकल कर भी वह इधर-उधर देखती निकल गयी; मोहन कहीं नहीं दीखा। लौटने की कोई जल्दी उसे नहीं थी; लाल किले तक सवारियाँ ले जानेवाले एक ताँगे में वह बैठ गयी; वहाँ थोड़ा सा टहल कर उस ने कश्मीरी गेट तक का दूसरा ताँगा लिया, वहाँ से पैदल चलती हुई घर गयी। हताश तो थी ही, इस तरह उसने अपने को थका भी लिया। घर पहुँची तो पड़ोसिन बाहर टहलती मिली - उसे थोड़ी कोफ्त हुई क्यों कि वह उस समय किसी के सामने पड़ना नहीं चाहती थी और उसने सोचा था कि अपने कमरे का रास्ता साफ मिलेगा। पर पड़ोसिन टहल ही नहीं रही थी, उसकी राह देख रही थी; उसे देखते ही भीतर गयी और लौट कर बोली, “मिसेज नाथ, आपके लिए चिट्ठी है। एक अर्दली आ कर दे कर गया था, ताकीद कर गया कि आप ही को दूँ।”
सोमा ने चौंक कर चिट्ठी ले ली। मोहरबंद सरकरी लिफाफा था। ऊपर एक कोने में टाइप के मोटे अक्षरों में लिखा था 'बाई हैंड'; नीचे पते की जगह केवल नाम टंकित था : 'मिसेज नाथ'। और भी चकित हो कर सोमा भीतर चली गयी। दरवाजा बंद कर के उसने लिफाफा खोला। भीतर एक और लिफाफा था, यह भी मोहरबंद। इसमें ऊपर कोने में टंकित था 'कॉनफिडेंश्यल'; उसके नीचे पता हाथ से लिखा था : 'फॉर मिस सोमा कुमार, केयर ऑफ मिसेज नाथ'। क्षण भर सोमा एक-टक इस पते को देखती रही, फिर उसने चिट्ठी पलंग पर गिरा दी और स्वयं भी लेट गयी। एक बार फिर उसने लिफाफा उठाया और थोड़ी देर पते की लिखावट की ओर देखती रही। फिर लिफाफा ढीली उँगलियों से सरक कर उसके तकिये पर आ गिरा; सोमा ने एक बाँह की कोहनी के मोड़ से दोनों आँखें ढक लीं और पड़ी रही। थोड़ी देर बाद दूसरे हाथ की उँगलियाँ पलंग की बाँही पर घोड़ा दौड़ाने लगीं - कभी तेज, कभी धीरे...
चिट्ठी खोले कि न खोले? पढ़े कि ऐसे ही जला दे? या कि फिलहाल पड़ी रहने दे? हफ्ते-दो-हफ्ते-दो महीने... पर पढ़ तो लेनी चाहिए, जवाब चाहे दे या न दे, या देर से दे। तो पता उसका मिल गया - इतनी जल्दी! पर जल्दी कहाँ, दो-ढाई महीने कुछ कम लंबा अर्सा नहीं होता। पर चिट्ठी ही क्यों, कोई आ भी तो सकता था। क्या पता कोई ले कर ही आया हो - या कि चिट्ठी पहला कदम हो, इसके बाद और कुछ कार्यवाही होनेवाली हो?
लिखावट डैडी की थी : जिले के पुलिस कप्तान मिस्टर जैतली की नहीं, जिला मैजिस्ट्रेट मिस्टर कुमार की। जिनके कोई लड़के सनावर में नहीं पढ़ते; जिनकी एम.ए. पास लड़की -
हुँह! स्टॉप इट!
महीने दिन का डिट्टो सकता था, तो क्या सप्ताह दिन का भी समझ लिया जाएगा? सोमा ने स्टेगर से काम सीख रही होने की बात तो मोहन को बता दी थी, पर इस की संभावना कम थी कि वह वहाँ पता लेने या मिलने आएगा। तब दो संभावनाएँ उसके आगे बचती थीं : अगले इतवार को उसी समय डैविको के चायघर में (या फिर उस से अगले इतवार को?)-या महीने के दिन तीसरे पहर के समय स्विस होटल के सामने... इस बीच मिस्टर कुमार उसे लेने आ गये तो? पर नहीं, वह ना हो जाने की संभावना रहते खुद नहीं आयेंगे, पूछने किसी को भेजेंगे भी नहीं... अफसर की प्रेस्टीज उसकी लड़की से बड़ी होती है - फिर यह भी उन्होंने स्वीकार कर लिया है कि अगर वह मिस्टर स्टेगर के साथ काम कर रही है तो कुछ बिगड़ा भी नहीं है - ऐसे बिना पूछे जाने की कोई जरूरत भी नहीं थी। और हाँ, गाड़ी में चाभी लगी रहते उसे वैसे छोड़ जाना बड़ा इर्रेस्पांसिबल काम था - कोई ले कर चल देता तो? किसी क्राइम में इन्वॉल्व हो जाती तो? वह भी पोलिटिकल क्राइम में? जिला मैजिस्ट्रेट की गाड़ी - पोलिटिकल क्राइम में पहचानी गयी! एक व्यंग्य-भरी मुस्कान से सोमा के ओठ टेढ़े हो आये थे। हाँ, गाड़ी का इन्वॉल्व हो जाना बड़ी जहमत की बात होती, बेटी इन्वॉल्व हो गयी तो वह उसकी जिम्मेदारी है! और एक महीने बाद तो उसकी जिम्मेदारी हो ही जाएगी, सोमा को याद आया; महीने-भर के अंदर ही वह इक्कीस की हो जाएगी और तब - शी विल बी ऑन हर ओन... तभी डैडी की चिट्ठी का जवाब देगी।
अगर इतवार को सोमा डैविको गयी - व्यर्थ; उससे अगले इतवार भी : तीसरी असफलता का जोखम उठाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। 'तीसरी बार' में न जाने क्यों एक आखिरीपन का, विधाता के अटूट विधान का-सा भाव होता है! उसके डर की काट करने के लिए कहते तो हैं, 'थर्ड टाइम लकी'; पर वह तभी जब तीसरे प्रयत्न की लाचारी ही हो, उससे बचने का कोई रास्ता न हो। जैसे जब जाड़ों में नदी में नहाना ही पड़ जाय तो अपने को दम दिलासा देने के लिए कोई कह ले कि 'नहीं, पानी उतना ठंडा तो नहीं है'। महीने के दिन तीसरे पहर वह स्विस होटल के सामने भी राह देखती रही; भीतर जा कर बैठी और फिर बाहर सड़क और कंपनी बाग का चक्कर काट आयी - मोहन नहीं दीखा।
सोमा यह नहीं मान सकी कि जानबूझ कर नहीं आया - या कि यह विचार उसके मन में नहीं उठा होगा कि महीने-दिन की मुलाकात की बात पक्की नहीं तो कम से कम काफी संभाव्य तो मानी जा सकती है - उसका चांस तो लेना ही चाहिए। क्या फिर 'बंगाल तरफ' चला गया होगा - या और किसी तरफ भेज दिया गया होगा? हो तो सकता है... पर एकाएक सोमा को लगा कि उसके लिए निश्चित कुछ जानना निहायत जरूरी है; कहीं यह भी प्रत्यय हो आया कि वैसा कुछ हुआ होता तो उसे पता देने की कोई तरकीब मोहन ने जरूर निकाल ली होती। अपने इस प्रत्यय पर उसे कुछ अचंभा भी हुआ। किस आधार पर वह ऐसा मानती है कि मोहन उसके प्रति ऐसे किसी दायित्व का अनुभव करेगा? और 'विशफुल थिंकिंग' भी है तो वैसा भी क्यों - वही क्यों विश कर रही है - क्या विश कर रही है? नहीं, वह सब कुछ वह कुछ नहीं जानती - शी मस्ट नो... कहाँ है मोहन, क्यों नहीं आया, क्या कर रहा है, कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया, पकड़ा तो नहीं गया, या - पर नहीं, नहीं, नहीं, वैसा वह नहीं सोचेगी, वैसा सोचने से भी अहित होता है... सोमा ने तय किया कि जल्दी ही वह शोभा देवी के पास जाएगी - शायद उन्हें कुछ खबर हो।
जब से मोहन से ऐसी बात हुई थी तबसे सोमा नियम से अखबार पढ़ने लगी थी। कभी-कभी अवकाश के कुछ मिनटों में मिस्टर स्टेगर से भी खबरों की चर्चा हो जाती थी। युद्ध के समाचार तो होते ही थे, देश में भी अगस्त के बाद से जो कुछ घटित हो रहा था वह एक तरफ चिंता बढ़ानेवाला था तो दूसरी ओर बड़ी उत्तेजना देनेवाला भी; कार्ल स्टेगर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं थे, पर खबरों पर टिप्पणी के रूप में कभी-कभी कहते थे, 'युद्ध का परिणाम जो हो, उसके अंत में मुझे भारत की आजादी तो दीखती है - अंग्रेजों को क्यों नहीं दीखती वह? वह कम खून-खराबे के साथ होगी, कि बहुत ज्यादा, यह तो कुछ इस पर निर्भर है कि युद्ध किधर को झुकता है। पर अंग्रेज जीतेंगे तो कम खून-खराबे से भी अच्छा नतीजा निकल सकता है - पर अंग्रेज खुद ही क्या कर रहे हैं, पता नहीं! हिंदुस्तान को लड़ाई में शामिल उससे पूछ कर नहीं किया गया, इसलिए वह अनिच्छुक साथी है, पर यह क्या जरूरी है कि युद्ध के अंत में वह एक एंबिटर्ड एलाई भी हो - इतना बड़ा 'एंबिटर्ड एलाई?” स्टेगर जैसा तटस्थ व्यक्ति अंग्रेज सरकार की हरकतों में कटुता की इतनी संभावना देखता है, तो वह तो हिंदुस्तानी है : उत्तर प्रदेश और बिहार में जो कुछ हो रहा है, उसकी खबरें पढ़ कर उसका खून नहीं खौलेगा? 'हमारे सिंपैथाइजर होने की बात कहाँ से उठती है, सब अपने-अपने सिंपैथाइजर ही रहें - ' ठीक तो है, कोई किसी राजनीति में हो, हिंदुस्तान की ब्रितानवी सरकार जो कर रही है वह किसी को सह्य नहीं हो सकता! विश्व युद्ध में मार खा कर बौखलाये होने की बात भी एक हद तक ही मतलब रखती है -हिंदुस्तान में उन्हें बौखलाने का भी हक क्या है? अपने घर में बौखलाएँ जा कर! उसे याद आया कि पिछले महायुद्ध के अंतिम दिनों में भी ऐसे ही दमन और पाशविक दुर्व्यवहार की घटनाएँ घटी थीं - उसे ध्यान ही नहीं था कि जलियाँवाला बाग वगैरह की बरसों पहले पढ़ी हुई बातें उसकी स्मृति में ऐसी साफ-साफ टँकी हुई होंगी, उसे स्वयं अचंभा हुआ। पर उस समय के डायर-ओड्वायर को हम जितना कोस लें, इस समय तो यही सच था कि दो-चार अंग्रेज जिला अधिकारियों को छोड़ कर बाकी तो हिंदुस्तानी ही थे, जिनके आदेशों से हिंदुस्तानी पुलिस अफसर और सिपाही ये सारे अत्याचार कर रहे थे... पर उस से क्या? थोड़ी-बहुत पाशविकता हर इनसान में दबी रहती है - आखिर पशु से मानव बने होने का मनुष्य का इतिहास कोई बहुत लंबा नहीं है। यह तो शासन की कसौटी होती है कि वह इन पशुवृत्तियों को वश कर के रखता है, या बढ़ावा देता है और फिर खुल खेलने की पूरी छूट देता है... नैतिक दृष्टि से तो अंग्रेज सरकार के यहाँ होने का कोई कारण कभी नहीं था - अब तो प्रशासन की दृष्टि से भी वह निकम्मी साबित हो गयी है - लेट इट क्विट! हिंदुस्तानी अफसर भी अगर उसकी सेवा में बने रहना चाहते हैं तो - वे भी जायें, सारे जैतली भी जायें, सारे डैडी भी चले जायें! 'क्विट इंडिया - क्विट! गेट आऊट!' कांग्रेस आंदोलन के नारे के साथ सोमा ने पूरी एकात्मता अनुभव की : पहले और खास तौर से डैडी के ड्राइंगरूम की चर्चाओं में उसे इस नारे की व्यावहारिकता के बारे में काफी संदेह था और अंग्रेज क्विट कर ही जायें तो उसके बाद की संपूर्ण अराजकता के काफी सजीव चित्र उसके पिता ने कई बार खींचे थे, पर खबरों की इस प्रतिक्रिया में वे सब बातें पीछे छूट गयीं और सारा आक्रोश, सारी तिलमिलाहट इस दो शब्द के सूत्र में ग्रथित हो गया - बल्कि दो भी नहीं, केवल एक शब्द, जिसकी ध्वनि में भी एक 'खट्!' से हो जानेवाली क्रिया का सारूप्य था - 'क्विट !'
शोभा देवी से मिलने सोमा उनके घर नहीं गयी। कांग्रेस के दफ्तर में गयी। इस बीच वह सी.आई.डी. वालों के मामले में काफी सतर्क भी हो गयी थी, और आसानी से पहचानने भी लगी थी कि कहाँ, कौन निगरानी के लिए तैनात है या किसी के पीछे लगा है। मिस्टर कुमार का पत्र पाने के बाद से वह इधर और भी ध्यान देने लगी थी। पत्र के तीसरे दिन एक बावर्दी अर्दली सवेरे ही फिर आया था; 'मेम साहब' को उसने सिटी मैजिस्ट्रेट साहब का सलाम दिया था और पूछा था कि कोई जवाब हो तो एक सरकारी हरकारा शाम को गाड़ी से जानेवाला है; सोमा ने सलाम लौटा दिया था और कह दिया था कि कुमार साहब को चिट्ठी उसने पहले ही भिजवा दी है। अर्दली फिर सलाम बजा कर चला गया था। सिटी मैजिस्ट्रेट साहब जो समझें। मिस्टर कुमार को वह यही खबर तो भिजवाएँगे न कि कहा गया है कि जवाब चला गया है? वह उस जवाब की प्रतीक्षा करते रहें तो करते रहें, अच्छा ही है; बात पर विश्वास न करें तो न करें, वह भी ठीक ही है। महीने-छः हफ्ते में फिर कोई हरकत करेंगे तो देखा जाएगा - तब तक तो वह खुद कुछ लिख ही देगी। तब तक उसे खूब सतर्क रहना है : सी.आई.डी. वाले उसे कहीं न देखें, ऐसी कोशिश तो जरूरी नहीं है; देखें तो कहाँ देखें, कहाँ न देखें, इसी का ध्यान उसे रखना है। कांग्रेस के दफ्तर पर भी कड़ी निगरानी थी, पर वहाँ कई लोग आते-जाते थे; और फिर निगरानी यही तो पहचानती कि कौन भीतर गया - भीतर किससे मिला, इसका पता वहाँ थोड़े ही लगता था। भीतर भी कोई भेदिया हो सकता है, होगा ही; पर वीरेश्वर नाथ की माँ से उसके घर मिलने की बात तो दूसरी बात थी।
शोभा देवी उससे मिलकर प्रसन्न हुईं : स्पष्ट ही उन्हें आशा नहीं थी कि बहू से इतनी जल्दी फिर मिलना होगा। वह रुकेगी नहीं, इस सूचना से उन्हें बहुत अचंभा भी नहीं हुआ; हालात पहले से भी बदतर ही थे और कब क्या हो, इसका ठिकाना नहीं था। पर शोभा देवी को कुछ मालूम नहीं था : मन्नू न उनसे मिलने आया था, न उसकी कोई खबर उन्हें मिली थी। आया तो संदेशा वह जरूर दे देंगी; बहू कहती है तो शायद उसके आने का कुछ इम्कान भी होगा - नहीं तो शोभा देवी को तो भरोसा नहीं है कि मन्नू इधर जल्दी ही घर आनेवाला है।