छाया मेखल / भाग-6 / अज्ञेय

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कांग्रेस के दफ्तर से निकल कर सोमा किशन शर्मा की खोज में निकली। स्कूल पहुँचने पर मालूम हुआ कि राजनीतिक प्रदर्शन और नारेबाजी के कारण स्कूल पर एक दिन लाठी चार्ज हुआ था, उसी दिन से स्कूल बंद करवा दिया गया है और सरकारी रोक अभी जारी है। मास्टर कृष्ण चंद्र शर्मा पर भी मार पड़ी थी, उसी दिन से वह कहीं लापता हैं। ऐसा समझा जाता है कि फरार हैं, पर वारंट वगैरह निकले हों, ऐसी तो कोई बात नहीं है।

अब? शोभा देवी ने कहा था, उसके माँ-बाप का तबादला बरेली हो गया था। बरेली जा कर पड़ताल करे? पर क्या पूछेगी? कि किसी मन्नू के माँ-बाप तबादले से बरेली आये हैं? सामंत-मोहन सामंत-सामंत नाम का कोई सरकारी मुलाजिम बरेली में है या नहीं, इसकी पड़ताल तो शायद हो सकती है - और कोई डॉक्टर हो तो उसका पता और जल्दी लग जाय, हालाँकि सब अपने को रजिस्टर तो नहीं कराते। पर सोमा का यह संदेह किसी तरह दबता नहीं था कि मोहन-मन्नू का नाम सामंत नहीं होगा - मोहन भी होगा या नहीं, पता नहीं... तब डौंडी पिटवाये कि कोई मन्नू के बाबू जी वहाँ सरकारी मुलाजिम हैं? 'बरेली के बाजार में...' लोकगीत की कड़ी के साथ उसे डैडी की याद आयी - क्या मिस्टर कुमार से पूछे? हुँह, वह जरूर ही बता देंगे। और मुफ्त में एक और नाम या छद्म नाम जान कर गाँठ बाँध लेंगे तो और क्या जाने क्या गुल खिलाएँगे... यों जिस आदमी की लाश सौंपी गयी थी उसका कुछ नाम-ब्योरा तो कहीं दर्ज होगा - रेलवे में भी हो सकता है - क्या पता करे कि फलाँ तारीख को कूपे किसने किस नाम से रिजर्व कराया था? सवारी कहाँ से बैठी थी, यह पता लगाना तो मुश्किल नहीं होगा - तारीख तो उसे याद है, घटना का ब्योरा अखबार में छपा ही था... पर वहाँ, क्यों कोई भी सही नाम दिया गया होगा? (जो हो, अनंतर उसने पुछवाया भी, तो पता लगा कि रिजर्वेशन राजा साहब के सेक्रेटरी के नाम से ही था!)

ब्लैंक-ब्लैंक-ब्लैंक... सबक यह कि चुपचाप अपना काम करो : जो सीख रही हो, सीखो; बालिग हो जाने से मिलनेवाली आजादी तो मिल गयी है, पर स्वाधीन आत्मनिर्भर हो जाने से मिलनेवाली वयस्कता भी मिल जाय तब बात है... जैसे-जैसे वह काम सीखती जाती है, भविष्य का एक नक़्शा उसके सामने उभरता आता है; अब इसका वह क्या करे कि जहाँ दूर भविष्य का प्रदेश स्पष्ट हो आया है वहाँ शुरू से ही उसके यात्रा-पथ की रेखा के समांतर एक और रेखा खिंची है जिस पर लिखा है 'एक्सपेडिशन लॉस्ट' - यात्रा नहीं छोड़ दी गयी, यात्री ही लापता हो गया! क्या उसका एक्सपेडिशन उस खोये हुए एक्सपेडिशन की खोज ही होगा - क्या यात्रांत में वह जो पाएगी वह उसी का पाया हुआ नहीं, इस खोये हुए यात्री का पाया हुआ भी होगा?


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तंजौर की एक बाल गोपाल मूर्ति को अपने सामने मेज पर रखे हुए सोमा आरामकुर्सी पर बैठी थी। उसे ध्यान नहीं था कि कितनी देर से वह ऐसे बैठी है; कभी-कभी ध्यान आता था तो इसी बात का कि देखते-देखते बाल गोपाल कुछ धुँधले पड़ गये हैं। तब वह आँख मल लेती थी, कभी थोड़ा उझक कर लैंप का कोण बदल देती थी जिससे मूर्ति पर प्रकाश कुछ दूसरे ढंग का पड़ने लगे, या कभी मूर्ति का ही कोण बदल देती थी - कभी घुटरुअन टिके बाल गोपाल को आगे झुका कर हाथ, कोहनी और एक घुटने पर टिका कर बैठा देती थी जिससे उनकी मुद्रा कुछ और मनोरंजक हो जाती थी - और फिर पूर्ववत् ताकने बैठ जाती थी।

यों विचारों में खोये रहने का आज कोई विशेष कारण नहीं घटित हुआ था, या अगर कुछ हुआ था तो उससे सोमा को स्फूर्ति ही मिलनी चाहिए थी, यों बैठ कर उदासी में रँगे विचारों के कुहासे में डूबते-उतराते रहने की प्रेरणा नहीं। पर जो था सो था - सोमा कभी लौट कर उस 'घटित' का भी मुख्तसर-सा मुआयना कर लेती थी और फिर उन्हीं निरानंद विचारों में खो जाती थी।

यह बाल गोपाल की मूर्ति उसे हर्र स्टेगर ने दी थी। उन दिनों वह विशेष प्रसन्न थे। कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहीं से मिट्टी और मसाले की मूर्तियों और मूर्ति-खंडों का एक खासा ढेर प्राप्त किया था - तीसरी से ले कर दसवीं शती तक की चीजें जो अधिकतर उत्तर प्रदेश के इलाकों से पायी गयी थीं - बरेली, उन्नाव, कानपुर, इलाहाबाद-मिर्जापुर-बनारस जिलों से अधिकतर गंगा-तटवर्ती पुराने डीहों से। उन्हें तो ये चीजें प्रायः 'मिट्टी के मोल' मिल गयी थीं, पर सफाई और पहचान के बाद जब उन्हें करीने से लगा कर रखा गया, और फिर खंडित मूर्तियों के टुकड़े भी एक-एक पहचान कर जोड़े गये और इस प्रकार और भी काफी-सी मूर्तियाँ उपलब्ध हो गयीं, तब यह संग्रह एक अच्छा-खासा, स्वतः संपूर्ण छोटा संग्रहालय जान पड़ने लगा जिस का एक अंग सरकारी संग्रहालय ने और मुख्य भाग किसी विदेशी संग्रहालय के प्रतिनिधि ने खरीद लिया। चित्रों, कांस्य और प्रस्तर मूर्तियों और प्राचीन आभूषणों या अलंकृत पात्रों की बिक्री से तो काफी आय स्टेगर-दंपति को होती रहती थी, पर आवें-पकी मिट्टी की चीजों से इतना बड़ा मुनाफा पहले नहीं हुआ था। मृत-खंडों को जोड़ने का अधिकतर काम सोमा ने किया था, इसलिए उस पर वह विशेष प्रसन्न थे। सोमा ने तो इस काम को अपनी शिक्षा का ही अंग समझा था, और उससे अधिक परिश्रम किया था या समय दिया था तो इसलिए कि अपने विचारों से ही वह बची रहना चाहती थी। पर मिस्टर स्टेगर ने उसके सामने उसी की जोड़ी हुई कई-एक मूर्तियाँ रख कर कहा था, “मिसेज नाथ, यू'व डन ए ब्यूटिफुल जॉब... इन में से कोई आप अपने लिए रखना चाहेंगी? जो आपको पसंद हो, छाँट लीजिए!” सोमा के संकोच प्रकट करने पर उन्होंने एक उज्ज्वल मुस्कान के साथ कहा था, “नहीं, सोमा; इस काम में कोई बिना वजह उदार नहीं होता! मैंने कुछ अच्छी चीजें तो पहले ही अपने लिए छाँट कर रख ली थीं - उसके बाद ही बिक्री के लिए संग्रह दिखाया था! वे चीजें भी तुम देख लेना - बाकी ये चीजें फुटकर बिक्री के लिए भविष्य के लिए रखी हैं जिन में से तुम्हें चायस दे रहा हूँ। जो पसंद हो, ले लो - दो ले लो - चलो, तीन ले लो!” सोमा फिर भी कुछ असमंजस में उन मूर्तियों की ओर देखती रही थी; स्टेगर कहते गये थे, “और अपनी ओर से मैं एक भेंट और देना चाहता हूँ - लेट इट बी ए सरप्राइज!” और साथ के छोटे कमरे में एक बना-बनाया पैकेट उन्होंने ला कर सोमा को दे दिया था - “इसे घर ले जा कर खोलना - तुम्हें पसंद आएगा जरूर!”

अब की सोमा ने नये संकोच से कहा था, “यू आर वेरी काइंड, मिस्टर स्टेगर - “ पर स्टेगर ने फिर बात काट दी थी, “नॉनसेंस, सोमा! इस काम में संकोच नहीं चलता, विनय भी नहीं चलता। और काम सीख रही हो तो यह भी सीखो। हर संग्रह करनेवाला हर दूसरे संग्रह करनेवाले को बेवकूफ बनाता है। और जो ऐसा नहीं करता उस पर दूसरे संग्रह करनेवाले विश्वास नहीं करते - यह इस व्यवसाय की अनोखी नीति है। गाहक को ठग लेना तो इस व्यवसाय में मामूली बात है, उससे प्रतिष्ठा नहीं बनती। जब किसी अच्छे पारखी को, संग्रह करनेवाले को - यानी दूसरे ठग को! - ठग लेते हैं, तभी असल डिप्लोमा मिलता है। तब बिरादरी में शामिल हो जाते हैं, सम्मान मिलता है, दूसरे राय पूछते हैं।” खुशी से दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में मलते हुए स्टेगर ने कहा था, “लोग मेरी राय पूछते हैं - मैं ईमानदारी से सलाह देता भी हूँ - जहाँ ईमानदारी का मौका होता है। ऑनर एमंग थीव्ज! यानी कोई मेरे पास कुछ पुराना माल बेचने आएगा तो उसे मैं नहीं बताने लगूँगा कि वह क्या-क्या चीजें लुटाने जा रहा है और उनके सही दाम क्या होंगे - उसे तो यही कहूँगा कि जंक है! यह भी कह दे सकता हूँ कि मैं तो बेच लूँगा क्यों कि मेरी प्रतिष्ठा है, पर है तो कूड़ा ही - यानी खरीदूँगा कूड़े के दाम।” फिर एकाएक उनका स्वर गंभीर हो गया था, “सोमा, मैं तुमसे पूछना चाहता रहा हूँ - आगे तुम्हारा क्या करने का विचार है? तुम्हारा एंबिशन क्या किसी म्यूजियम में टेक्निकल एसिस्टेंट या छोटा अफसर बन जाने-भर का है, या कि कभी अपना कारोबार शुरू करने का? क्यों कि तुम्हारे देश में अभी तो पुरानी कला-वस्तुओं के व्यवसाय का बहुत बड़ा क्षेत्र है - और बीस बरस में क्या हो जाएगा, पता नहीं! “

असल में सोमा की शाम की उदासी का स्रोत इसी प्रश्न से था। 'तुम्हारा एंबिशन क्या है, सोमा? सचमुच क्या? क्या किसी संग्रहालय में - संग्रहालय के तलघर में! - अनेक टूटी-फूटी (चाहे मूल्यवान) चीजों के बीच में एक और टूटी-फूटी (चाहे एक तरह से जीवित, चाहे एक तरह से मूल्यवान्!) चीज बन जाना, या - '

या क्या? पुराखंडों का सौदागर हो जाने से ही क्या कोई कहीं बहुत ऊपर उठ जाता है? जीने लगता है? जीने के अलावा उसका कोई एंबिशन नहीं है, पर जीना क्या होता है? कैसे जीने को वह जीना कहे! घर पहुँच कर उसने स्टेगर का दिया हुआ पैकेट खोला था; उस में ८वीं-९वीं शती की यह बाल गोपाल की मूर्ति थी और उसके साथ था सोमा के नाम बारह सौ रुपये का एक चेक। एक बार फिर वह संकोच और कृतज्ञता से गड़ गयी थी; और इस बात से कि रुपये की उसे सख्त जरूरत है और यह चेक बड़े समय से आया है, उसका संकोच कुछ कम नहीं हुआ था। फिर चेक उसने अपने बटुए में रख लिया था और तबसे बाल गोपाल को सामने बैठा कर विचारों में डूबी रही थी... बताओ, बाल गोपाल, क्या होता है जीना? क्या होता है? कहीं से सूरदास की एक पंक्ति तैरती हुई उसके मानस में आ गयी थी, 'मैया, कबहुँ बढ़ैगी चोटी?' हाँ, जीने का वह भी एक तरीका तो है, ऐसा सरल कोई प्रश्न पकड़ कर उसकी रट के सहारे जीते रहना - कि अमुक कब होगा, कब, कब... कब बढ़ेगी चोटी! ...पर उसका अभी क्या प्रश्न इससे क्या कम है? 'क्या होता है जीना'! क्या इसी भोले प्रश्न की रट के सहारे जीते रहा जा सकता है - जीते चला जा सकता है कि क्या होता है जीना?

बारह सौ रुपये का चेक। तात्कालिक कई एक प्रश्न बारह सौ रुपये से हल हो जायेंगे। पर चेक का वह करेगी क्या - उसे कैसे भुनाएगी? उसका कोई एकाउंट तो है नहीं - और न वह चेक किसी के नाम कर के रुपया ले सकती है। किसी को जानती ही नहीं! सहेली की याद उसे आयी - पर उसके पास जाएगी तो पहले मिसेज नाथ नाम का ही चक्कर कैसे समझाएगी? सहेली का प्रश्न उसे याद आया - 'अरे तो काम देख कर आयी है, या कि हज्बैंड तुझे मिल गया है?' इस रूँगे में मिले हुए हज्बैंड का वह क्या करेगी? -मिला तो रूँगे में ही; यह भी वह नहीं कह सकती कि उस से कोई फायदा नहीं हुआ - एक आरजी तौर की ओट तो उसे मिली हुई ही है? निस्संदेह उसे यह नाम न मिला होता तो भी वह दिल्ली आती ही और कोई छद्म नाम सोचती ही, पर वह नाम मिसेज वीरेश्वर नाथ होता, यह कल्पनातीत बात थी; मिसेज कोई भी होती, यह भी असंभाव्य। वह मिस ही रहती; न सही मिस जैतली, तो मिस जोशी, मिश्रा, मित्रा, सिन्हा, सिंह, सेठी, गुप्ता, लाट, माहेश्वरी, रुद्रा, कुछ भी चल जाता - या कराँटिन भी बन लेती - चाहे देशी नामोंवाली, चाहे विलायती, चाहे खानसामा हिंदुस्तानी बोलनेवाली, चाहे ची-ची अंग्रेजी-दोनों में ही उसे अच्छी-खासी महारत हासिल है! ...नहीं, चेक उसे स्टेगर के पास ही ले जाना होगा -धन्यवाद देगी तो यह भी कह सकेगी कि वही भुना दें या कोई उपाय बताएँ...

'मिसेज नाथ नाम का चक्कर'...सचमुच चक्कर! कब इससे उबरेगी वह-कब ऐसे किसी भी छद्म की जरूरत से उबरेगी? उसे सहेली की याद आयी : एकाएक उस से मिलने की तीव्र उत्कंठा भी उसमें जागी। अपने पहले, सरलतर जीवन के किसी साथी से मिल कर जैसे वह फिर उस सरलतर जीवन में पहुँच सकेगी, अपने को पा सकेगी, वह हो सकेगी जो वह वास्तव में है... पर वास्तव में वह कौन है, क्या है? सोमा कुमार? कुमार नाम से, उस नाम की परंपरा से जुड़ कर क्या वह अधिक वह हो जाएगी जो वह है? क्या वीरेश्वर नाथ नाम में ही इसकी अधिक संभावना नहीं है, इसीलिए कि उसके लिए वीरेश्वर नाथ का कोई-कोई चेहरा नहीं है, कोई इतिहास नहीं है, किसी घटना, स्मृति में कोई साझा नहीं है, कोई अस्तित्व ही नहीं है? न, यह बात तो ठीक नहीं हुई; अस्तित्व तो है पर वह अनस्तित्व से ही शुरू होता है, इतिहास भी है जो मृत्यु के बाद से आरंभ हुआ; स्मृति भी है जो एक चादर ढँकी देह की, मृत देह की है; हाँ, चेहरा जरूर नहीं है अगर वह शोभा देवी के चेहरे को ले कर ही वीरेश्वर नाथ के लिए स्वयं कोई चेहरा गढ़ न ले? और चेहरा न होना बहुत बड़ी छूट है। उसे इस रूपहीनता के लिए वीरेश्वर नाथ का आभार मानना चाहिए जिसने कोई बंधन उस पर नहीं लादा - उन सुविधाओं के बदले जो अपने नाम के साथ उसने दिया - बंधन के नाम पर एक शोभा देवी जिन्होंने उसे स्नेह ही दिया, मुक्त ही किया, बाँधा तो बिल्कुल नहीं... शोभा देवी के चेहरे को ले कर वह वीरेश्वर नाथ का चेहरा गढ़ सकती है - क्या हम सभी हमेशा ही ऐसा नहीं करते रहते? सात पीढ़ियों तक, ग्यारह पीढ़ियों तक, इक्कीस पीढ़ियों तक अपनी परंपरा अतीत में ले जाने का मोह और फिर उस मोह को 'कुल-परंपरा' नाम दे कर उससे अपने को बाँध लेने, अनुशासित करने, उसके प्रति अपना ऋण चुकाते चलने का दूसरा मोह - यह और क्या है सिवा अपनी और अपने सगे माँ-बाप की परछाईं में गढ़े हुए कल्पित चेहरों का एक पूरा छवि-घर बना लेना, अपनी भावना के जोर पर उसे एक अस्तित्व दे देना? एक छवि-घर माँ-बाप की परछाइयों का, एक दूसरा छवि-घर पति की या सास-ससुर की परछाइयों का; फिर इन परछाइयों की शादियाँ हो जाती हैं, दो 'कुल-परंपराएँ' मिल जाती हैं और एक नयी 'मर्यादा' खड़ी हो जाती है और हम उसकी लादी ढोने में जुट जाते हैं। और यों सिर झुकाये-झुकाये ही बैल या गधा बूढ़ा हो जाता है : तब सहारे के लिए वह पुरखों की परंपरा के बदले संतान की परंपरा गढ़ लेता है - बेटे या बेटी की परछाईं में रचे हुए चेहरों का छवि-घर! संतान-हमीं को तान-खींच कर जो भविष्यत् में ले जाता है, स्थायित्व देता है, बनाये रखता है - उफ कितने गहरे अर्थ में हम बनाये जाते हैं मोह के इस दोहरे शीश-महल में : समांतर शीशों में हम जिधर देखते हैं, छाया-छवियों की अनंत परंपरा पाते हैं - अपनी ही छवि की छायाओं की - उधर अंतहीन भविष्य में को, इधर अंतहीन अतीत में को... जीना क्या होता है, बताओ न, बाल गोपाल? क्या होता है जीना, मिस कुमार?

सोमा को डैडी की चिट्ठी याद आयी। 'मिस कुमार, केयर ऑफ मिसेज नाथ...' बड़ी सफाई से डैडी दोनों को एक मानने से बच गये थे! क्यों? उसकी रक्षा के लिए, या स्वयं अपने बचाव के लिए - कि चिट्ठी कहीं कभी गलत हाथों में पड़ भी जाय तो उन की स्थिति बिल्कुल साफ रहे! एक रूखा, व्यंग्य-भरा भाव सोमा के भीतर उमड़ आया : डैडी ने अवश्य अपना कर्तव्य भी (अपनी नजरों में) पूरा कर लिया होगा, और अपने को बेगाल भी रखा होगा - अपनी नजर में भी, अपने समाज की नजर में भी - यानी शासन की नजर में भी, क्यों कि उन की नजर में जो समाज सरकार नहीं है, वह कुछ नहीं है : वह शासित है जिस की राय पूछी नहीं जाती, जिसे बताया जाता है कि उसकी राय क्या होनी चाहिए... बाल गोपाल की ठोड़ी के नीचे एक उँगली डाल कर सोमा ने उसका चेहरा उठा दिया जिससे मूर्ति का लड्डूवाला हाथ फिर ऊँचा उठ गया, मूर्ति दूसरे हाथ और दोनों घुटनों पर टिकी रह गयी। अरे वाह रे लड्डू गोपाल? सोमा उठी, दराज में से डैडी की चिट्ठी निकाल लायी और फिर पूर्ववत् बैठ गयी। थोड़ी देर बाद चिट्ठी उसने खोली, लिफाफा गोद में डाल कर धीरे-धीरे पढ़ी, उलट कर देखी और एक बार फिर पढ़ी, और फिर वह भी गोद में गिरा दी।

उसका अनुमान ठीक ही था : डैडी के पत्र में बराबर इस बात की गुंजाइश रखी थी कि सोमा कुमार और मिसेज नाथ को दो अलग व्यक्ति मानते रहा जा सके - यानी यह भी माना जा सके कि पत्र लिखनेवाला बराबर दोनों को अलग ही मानता रहा है। सोमा जो घर छोड़ आयी, तो क्या विवाह करने के लिए, या कि विवाह उसने चुपचाप कर लिया? - इसके बारे में भी प्रश्न थे, उसके गुप्त पति के बारे में भी, हल्का-सा यह प्रस्ताव भी था कि सोमा स्वयं घर नहीं आती तो कभी अपने पति को उन से मिलने भेज दे सकती है - वह देख तो लें कि यंग मैन कैसा है, क्या कर सकता है, शायद सोमा को कुछ सलाह ही दे सकें कि उसकी या दोनों की तरक्की का क्या रास्ता हो सकता है - शायद युद्ध के समाप्त होने पर दोनों विदेश भी जा सकें... और यह भी पूछा था कि यह मिसेज वीरेश्वर नाथ है कौन? क्या उनके परिचय में भी कभी आयी हैं? क्या करती हैं? 'नथिंग डिसग्रेसफुल, आई होप'...कि डैडी आशा करते हैं, मिसेज नाथ उनकी चिट्ठी ठीक-ठाक सोमा को पहुँचा देंगी - कि सोमा अगर उनके यहाँ 'पेइंग गेस्ट' बन कर रह रही है तो उसे पैसे की भी तो जरूरत होगी - वह खबर दे तो मिस्टर कुमार भिजवाने का प्रबंध कर देंगे... इस बीच वह स्थानीय प्रशासन से कह भी देंगे कि सोमा का ख्याल रखें, उसे कोई तकलीफ न होने पावे...

कैसा हो अगर वह सचमुच किसी को भेज ही दे डैडी कुमार से मिलने के लिए? अगर क्षण-भर के लिए यह सवाल उसके मन में कौंधा और तुरत हटा दिया गया - कैसा हो अगर वह मोहन को ही भेज दे एक बार मिल आने के लिए? नहीं, नहीं, नहीं - डैडी की दुनिया डैडी को मुबारक हो, उसे वह स्वयं भी तो छोड़ आयी है, उसे, उसके सूट-मढ़े 'ब्लू-आइड बॉयज' को, जो सब जल्दी ही अपने योग्य जार्जेट-मढ़ी बहुएँ ले आयेंगे और उन्हें अपने-अपने ड्राइंगरूमों में सजा कर, क्लब घर में या दूसरों के ड्राइंगरूमों में जा कर दूसरों की जार्जट-मढ़ी बहुओं से फ्लर्ट करेंगे; या कभी-कभी डैडी कुमार की पार्टियों में शामिल हो कर स्वयं किसी बड़े साहबों के श्रीमुख से शासन करने के गुर सुनते रहेंगे, और दूसरे बड़े साहबों को वे अवसर देते रहेंगे जो तरक्कियों का आधार बनते हैं... जरूर ही वह सोमा को 'दोनों को तरक्की का क्या रास्ता हो सकता है,' यह बता सकेंगे - क्या सोमा बार-बार ऐसे तरक्की के रास्ते बताये जाते सुनती नहीं रही? क्या उसके घर छोड़ने का निश्चय करने में असली प्रेरणा विज्ञापन द्वारा तय की गयी शादी की संभावना से नहीं, इसी बात से नहीं मिली थी कि डैडी उसके और उसके भविष्यत् पति के लिए जो तरक्की के रास्ते सुझाएँगे उन्हें वह स्वीकार नहीं कर सकेगी - उन्हें अपनाने को राजी होनेवाली पति को भी स्वीकार नहीं कर सकेगी... वैसे डैडी को उचित से अधिक दोष क्यों दिया जाय - उस समाज के पुरुष तो पुरुष स्त्रियाँ जो मानती थीं, मानती हैं उसे भी क्या सोमा स्वीकार कर सकती? 'लोग न जाने शादी को बंधन क्यों मानते हैं : वह तो एक खास किस्म की आजादी देती है। बल्कि एरेंज्ड मैरेज तो लव मैरेज से ज्यादा आजादी देती है क्योंकि उसमें अपने पार्टनर को प्यार करने का कोई कमिटमेंट नहीं है - सिर्फ समाज में निबाहने का कमिटमेंट है। शादी अपनी जगह है, वह अपनी जगह है : एक-दूसरे की तरक्की और खुशी के लिए जो कोशिशें की जायेंगी वे अपनी जगह हैं। इस समाज में कितनी बार सोमा इस चिंताधारा के उदाहरण भी देख चुकी थी! पत्नी और पति दोनों की तरक्की के जोड़-तोड़ में लीन : पति हर उपाय से अपने को आगे बढ़ाने में जुटा हुआ, उस कोशिश में शादी के बाहर थोड़ा सुख भी मिल जाय तो वह अतिरिक्त लाभ; पत्नी भी हर उपाय से पति को आगे बढ़ाने में जुटी हुई, उस कोशिश में अपने को एक मनपसंद लवर भी मिल जाय तो सोने में सुहागा (या कि सुहाग में सोना? - सोमा ने मन ही मन जोड़ा, और बात की अनेक श्लिष्ट व्यंजनाओं पर मुँह बिचकाते हुए मुस्करा दी)। पति और पत्नी दोनों एक ही लक्ष्य के लिए कृतयत्न हों, इससे बड़ी और क्या सफलता होगी एरेंज्ड मैरेज की!

नहीं, इतनी कड़वी बातें नहीं सोचनी चाहिए : घर से वह भाग आयी है, इस जीवन को पीछे छोड़ आयी है, तब इसको ले कर कड़वाहट का संचय करने वह क्यों चली है? सायास अपने सामने कोई हँसानेवाला चित्र लाने के लिए उसने कल्पना की, मेले में एक बड़ा भारी पहिया घूम रहा है जिस पर लगातार जोड़े सवार होते जाते हैं : पहिये को घुमाते हुए खड़े हैं डैडी कुमार, जो हर बार में अरों को धक्का देने के साथ-साथ एक भोंपू से पुकारते जाते हैं : तरक्की! तरक्की! तरक्की!

सोमा सचमुच हँस आयी। फिर उसे ध्यान आया, यह कल्पना कुछ कम कड़वी नहीं थी। उठे वह, कुछ काम करे - पर उठने में गोद में पड़ा हुआ पत्र नीचे गिर गया तो सोमा चौंक गयी : वह भूल ही गयी थी कि पत्र वहाँ अभी पड़ा है। उसने फर्श से पत्र और लिफाफा उठाया और बाल गोपाल के नीचे दबा दिया। फिर न जाने उसे क्या सूझी कि उसने चेक भी ला कर पत्र के साथ रख कर बाल गोपाल को दोनों पर बैठा दिया। एकाएक उसका मन हल्का हो आया। कल वह चेक का कुछ करेगी - और डैडी की चिट्ठी का भी कुछ जवाब जरूर दे देगी। क्या, यह अभी स्पष्ट नहीं था, पर एकाएक उसे लगने लगा था कि जवाब देने में कोई दिक्कत उसे नहीं होगी, लिखने बैठेगी तो दिमाग पर जोर डाले बिना सही जवाब उसे सूझ जाएगा, सही चिट्ठी लिखी जाएगी।

है न, बाल गोपाल? उसने पलकें जरा-सी उभार कर मानो मूर्ति से यह पूछा, फिर हल्के कदम से रसोई की व्यवस्था में लग गयी।

सोमा के संकोच को मिस्टर स्टेगर ने हँसी में उड़ा दिया। पश्चिम में ऐसी कोई बात न होती - यह अपने परिश्रम का उचित मूल्य समझ कर स्वीकार कर लिया गया होता। निस्संदेह सोमा ने बहुत परिश्रम किया और सिर्फ परिश्रम नहीं, अच्छा काम किया : उन्हें अच्छा-खासा मुनाफा भी हुआ जिससे सोमा को कमीशन भी मिल सकता है या बोनस भी मिल सकता है - पर यह तो केवल मेहनताना है। “देखना चाहोगी कि मैंने अपने हिसाब में क्या लिखा है?” इशारे से सोमा को अपने दफ्तर की आलमारी के पास बुलाते हुए उन्होंने एक खाता खोल कर सोमा की ओर मोड़ दिया : “मिसेज नाथ, फी-फॉर टेकनिकल एसिस्हटैंस इन रेस्टोरेशन...” और सोमा की चकित मुद्रा देख कर बोले, “हिंदुस्तानी लोग प्रायः अपनी मेहनत का सही मूल्य लेना नहीं जानते - या तो बहुत एहसान मानते हैं -कृतज्ञ होना अच्छी बात है पर वजह तो होनी चाहिए, नहीं तो फिजूल एंबैरसमेंट होता है! - या फिर एकदम दूसरे छोर पर पहुँच कर सोचने लगते हैं कि अगर किसी ने बिना मोल-तोल के मेहनताना दिया है जो जरूर बहुत-सा ठग लिया होगा। निस्संदेह लोग ठगते भी होंगे - मेरे जेनरलाइजेशन का बुरा मत मानना - मेरे कहने का मतलब है, अपनी मेहनत का सही मोल आँकना सीखना चाहिए - तभी अच्छा काम भी होता है और काम की इज्जत भी होती है!”

चेक वापस लेने या नकद देने की कोई जरूरत नहीं थी; चेक पर सोमा के हस्ताक्षर करा कर उन्होंने प्रमाणित कर दिये : “बैंक के लिए इतना काफी है - कैश मिल जाएगा। लेकिन सोमा, किसी बैंक में खाता खोल लो जरूर - बैंक और जो हों, आधुनिक सभ्यता की सहूलियतों में से एक तो हैं ही!”

सोमा हँस दी, “इतना तो जानती हूँ, हर्र स्टेगर!”

इसके कुछ ही दिन बाद स्टेगर ने सोमा से पूछा कि क्या वह उनके लिए कुछ पुरानी चीजें देखने बाहर जाना चाहेगी? वह स्वयं इन दिनों नहीं जा सकते हैं, पर सोमा की पहचान पर उन्हें भरोसा है; बंगाल में एक जगह बहुत-सी चीजें बिकाऊ हैं और वह देर नहीं करना चाहते क्यों कि आदमी जरूरतमंद है, ज्यादा दिन माल रोक कर नहीं रखेगा। सोमा जाय तो व्यवस्था वह कर देंगे - सोमा चीजें पसंद कर के सौदा आरजी तौर पर तय कर ले, एकदम फाइनल बात न करे - जरूरी हो तो कुछ पेशगी भी दे आये। सब चीजों के फोटो भी ले ले और अपने लिए अलग से एक सूची भी बना ले - कैमरे का इस्तेमाल तो वह जानती है न? और याद से चीजों की सूची बना लेगी न?

सोमा को थोड़ी झिझक भी हुई - जिम्मेदारी पर भी, लंबी यात्रा की संभावना पर भी; पर अच्छा भी लगा कि ऐसा भरोसे का काम उसे सौंपा जा रहा है और इस तरह एक लीक में पड़ जाने की ऊब से वह बच भी जाएगी। बोली, “थैंक यू, हर्र स्टेगर; मेरे लिए तो ऐसा अनुभव बहुमूल्य होगा - और अपनी पहचान की परख भी मैं करना चाहूँगी।”

“गुड!” तय हो गया कि तीन दिन बाद सोमा कलकत्ते जाएगी, वहाँ से आगे मुफस्सिल में। बिक्री के लिए दिखाये जानेवाले सामान की जो सूची विक्रेता की ओर से आयी थी, उसकी नकल उसने ले ली। विभिन्न चीजों के बारे में जो प्रश्न स्टेगर ने उठाये थे, या जिन बातों की खास पड़ताल करने का सुझाव दिया था, वे भी उसने टीप लीं। कलकत्ते की गड़बड़ी के समाचार उसने सुने थे, युद्ध भारत की पूर्वी सीमा की ओर बढ़ रहा है, और बढ़ेगा तो कलकत्ते में दंगा-फसाद होने की संभावना है, ऐसी चर्चा भी उसने सुनी थी। अखबार में यह चेतावनी देख कर कि दंगा-फसाद की खबरें उड़ानेवाले को सख्त सजा दी जाएगी, और लोगों की तरह उसने भी परिणाम निकाला था कि 'तब जरूर कुछ गड़बड़ हो ही रही होगी!' - पर इन सब बातों से वह विशेष विचलित नहीं थी, बल्कि थोड़ा आकर्षण ही था इसका : वह नया कुछ देखेगी भी, और जब इतने लोग जानबूझ कर इतनी तरह का जोखम उठा रहे हैं, और करोड़ों जनता बिना जाने कि जोखम क्या हो सकता है, उसके बीच दिन काट रही है, तब वही चार दिन जोखम में रह ली तो ऐसा क्या पहाड़ गिर जाएगा! वह जरूर जाएगी। क्या जाने इसी यात्रा के संयोग से उसे कोई रास्ता दीख जाय तो अभी दीखा नहीं है, जो अब दीखना ही चाहिए, दीखना ही चाहिए...

कलकत्ते तक जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। कानपुर से गुजरते हुए एक बार बड़े जोर से एक 'होम-सिकनेस' ने उसे धर दबोचा था जिसका मिस्टर कुमार से कोई खास संबंध नहीं था : ऐसा भी होता है कि होम कोई विशिष्ट सगा न हो कर सगेपन का एक वातावरण ही हो और इसी की माँग सोमा के भीतर उमड़ आयी थी। कॉलेज के दिन, सहेलियाँ, लखनऊ, मोहन, यहाँ तक कि शोभा देवी भी डैडी कुमार के साथ उस माँग की परिधि में घिर आयी थीं। पर फिर इलाहाबाद पार हो जाने पर वह मनोभाव जैसे अपने-आप विलय हो गया था, और मुगलसराय स्टेशन की चहल-पहल ने तो उसे झकझोर कर उस कल्पनालोक से उबार कर अब-यह-यहाँ की ठोस भूमि पर ला खड़ा किया था। कलकत्ते से आगे जाना भी, हावड़ा से सियालदह तक की यात्रा की हाय-तोबा, नोच-खसोट और राह किनारे की दरिद्रता और निष्कारुण्य को साधारण मान लें तो, मामूली बात ही थी। काम पूरा कर के सोमा कलकत्ता लौट आयी थी - और वहाँ अटक गयी थी। जापानी बम के आतंक से कलकत्ता सहमा हुआ था, मारवाड़ी सब जिस गाड़ी से जहाँ का भी टिकट मिल जाय, कटा कर भागे जा रहे थे; रेल टिकट और रिजर्वेशन टिकट की साधारण चोर बाजारी ने एकाएक बृहत् उद्योग का आयतन प्राप्त कर लिया था; पछाँही दरबान लोग जहाँ एक ओर इस चिंता से ग्रस्त थे कि मारवाड़ी लोग सब अपनी कोठियाँ बंद कर के चल देंगे तो उन्हें काम कौन देगा, वहाँ दूसरी ओर इस तात्कालिक सुयोग से प्रसन्न भी थे कि टिकट घर की खिड़कियों पर मारामार करने और बाबुओं के लिए रास्ता बनाने के लिए उन की बड़ी माँग थी और सेवाओं के मुँह-माँगे दाम मिल रहे थे। और कल की चिंता कल-भर दूर थी, जब कि सुयोग तो सामने था! ये सब उपाय न सोमा के बस के थे, न वह करना चाहती थी; फलतः वह अटकी हुई थी और झल्ला रही थी। एक आदमी से उसने पूछा कि कब तक रेलगाड़ी में जगह मिलने की संभावना है, तो वह हँस दिया था, “आप यहाँ कोठी चाहें तो मैं नाम के किराये को दिला सकता हूँ - बल्कि ऐसा भी कोई मिल जाएगा जो आपको उसके घर में रहने के पैसे भी दे दे, अगर आपकी साख का कोई सबूत मिल जाय या जान-पहचान निकल आये। पर टिकट - वह तो मुश्किल काम है! उसके लिए तो विशेष उपाय करना होगा!” क्या विशेष उपाय? इस पर फिर हँसी, “आप तो सब जानती हैं..."

'विशेष उपाय' करने को सोमा तैयार नहीं थी। पैसे की बात उतनी नहीं थी, सिद्धांत की बात थी : रिश्वत के नाम से उसकी आत्मा विद्रोह करती थी। वह पड़ी रहेगी कलकत्ते में - आखिर कभी तो भगदड़ थमेगी! या कि भागनेवाले मारवाड़ी ही चुक जायेंगे - एक-एक गाड़ी में दो-तीन हजार भी निकल जायेंगे तो कितने दिन लगेंगे आखिर!

होटलों में जगह थी। सोमा ने स्टेगर को ब्योरा दे कर चिट्ठी लिख दी, होटल में सामान जमाया और तय किया कि वह अखबार ही पढ़ कर दो-चार दिन काट लेगी -अंग्रेजी-हिंदी-बांग्ला के अखबार और उनके विशेष संस्करण - फिर कई टुटपुँजिया परचे-परचियाँ - दिन-भर में पढ़ने को काफी सामग्री हो जाएगी...।

पर उतना उसे रुकना नहीं पड़ा। तीसरे ही दिन उसने कुछ लोगों को होटल छोड़ते देखा और सुना कि वे लोग पश्चिम को जा रहे हैं, तो उसने मैनेजर से पूछ लिया - भारी रिश्वत के अलावा कोई युक्ति वह बता सकते हैं कलकत्ते से निकल जाने की? कलकत्ते में रहने से वह डरती नहीं है, भाग कर तो कभी न जाती - पर उसे काम से जल्दी वापस पहुँचना है... मैनेजर ने मुस्करा कर कहा, “एक और उपाय तो है : पैसा तो उसमें भी लगेगा, पर कम; और वह रिश्वत भी नहीं है।” वह क्या? कि सोमा दिशाशूल में यात्रा करे : टिकट तो ठीक दामों मिल जाएगा पर टिकट घर पर धक्का-मुक्की करने और फिर ठेल-ठाल कर उसे गाड़ी पर सवार कराने के लिए बिहारी दरबान पचास रुपये लेगा। “यह तो रिश्वत नहीं है, यह तो मेहनताना है - आप खुद देख लीजिएगा! पर आप दिशाशूल में यात्रा कर लेंगी न?”

सोमा ने संक्षेप में कहा, “हाँ। आप टिकट दिला दीजिए।”

“वह तो रिजर्वेशन की बात नहीं है, आप जायेंगी तो वह गाड़ी पर सवार करा देगा।”

...वार। दिशाशूल। तूफान मेल में सोमा सकुशल सवार हो गयी : एक पैर किसी दूसरी सवारी के पैर से कुचला गया, या बैग का हैंडल खींच-तान में उखड़ गया, तो कोई बड़ी बात नहीं थी। दिशाशूल के बावजूद इतनी सख्त भीड़ है, यह देख कर सोमा देश के भविष्य के बारे में आशान्वित होनेवाली ही थी कि उसने देखा, गाड़ी के सीटी देते ही आधे लोग उसी ठेलम-ठेल के साथ उतरने लगे हैं जिससे थोड़ी देर पहले वह सवार हुई थी - ये लोग सिर्फ जगह घेर रखने के लिए सवार हुए थे। सोमा को काफी जगह मिल गयी। दिशाशूल! निषिद्ध दिशाएँ ही उसकी यात्रा के लिए सही दिशाएँ हैं शायद? पर नहीं, यह परिणाम भी उतना ही दूषित है जितना इससे उलटा परिणाम होता : न कोई दिशा निषिद्ध है, न कोई शुभ; आदमी काम करता है और आशा करता चलता है...

काम करता है, पेशबंदी करता है, बस। सोमा को याद आया कि यह वाक्य मोहन ने उसे कहा था। वह भी तो तब 'बंगाल तरफ' से लौटा था। क्या अब भी वह यहीं कहीं होगा? कैसा हो, अगर वह इसी गाड़ी पर सवार हो? या अभी न हो तो - कैसा हो अगर रात में, भोर में कभी किसी स्टेशन पर वह इसी डिब्बे में घुसे और देखे कि वहाँ सोमा बैठी है!

यत्नपूर्वक सोमा ने अपने विचारों को इधर बढ़ने से मोड़ा। आदमी काम करता है, पेशबंदी करता है, बस। आदमी काम करता है। काम करता है...

लोग बनारस की सुबह और अवध की शाम की बात करते हैं। लखनऊ के गोमती-तट की कुछ शामें तो सोमा की स्मृति में भी बड़ी मधुर थीं, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं था कि उसका कितना श्रेय अवध को मिलना चाहिए, कितना गोमती को और वह भी सिर्फ लखनऊ की, या कितना स्वयं सोमा की उन दिनों की रोमानी प्रवृत्ति को। पर बनारस की सुबह! बनारस की सुबह की जिस चीज की याद और सब चीजों पर छा जाती है, वह है वहाँ की धूल : भोर होते-न-होते हर गली-कूचे में न जाने कितनी बुहारियाँ कितनी धूल उड़ाने में संलग्न हो जाती हैं : जो धूल गली से ऊपर को नहीं उड़ाई जाती, वह ऊपर के छज्जों-चौबारों से झाड़े गये पायदानों या उलटायी गयी टोकरियों से उड़ कर आकाश में छा जाती है और वहाँ से दिन-भर बरसा करती है। उसकी याद से भी सोमा के दाँत किरकिरा आते थे।

पर दिल्ली की बरसात - क्या उसकी भी बात कोई करता है? मुहावरे में तो वह नहीं आयी; हाँ, दिल्ली का एक-आध बादशाह जरूर दिल्ली के सावन-भादों का कायल रहा, इस की गवाही, लाल किले की दो बुर्जियाँ देती हैं। सोमा ने उनके नाम ही सुने थे, देखी नहीं थी; बरसात में कभी किले की ओर से निकलती हुई उसे उन की याद आ जाती थी, पर दिल्ली का माहौल जिस तेजी से बदलने लगा था उस में लड़कियों का बेला रोड वगैरह की तरफ अकेले घूमना अनहोनी बात हो चली थी, और बरसात में घूमने का तो कोई सवाल ही नहीं था। अलीपुर रोड और बेला रोड पर जब से फौजी गाड़ियों-ट्रकों की आवाजाही बढ़ने लगी थी, यों तो तभी से वहाँ की हवा बदलने लग गयी थी। दिल्लीवाले अपनी सब से मन-पसंद तफरीह-कश्मीरी गेट से निगमबोध घाट और जमुना बाँध तक की ताँगे की सैर शौक छोड़ कर रामलीला ग्राउंड का ही पैदल चक्कर लगा कर गुजारा करने लगे थे। अगस्त ४२ के बाद धीरे-धीरे उस तरफ सन्नाटा बढ़ने लगा था : साँझ-सवेरे आने-जानेवाले लोग कनखियों से एक-दूसरे को देख लेते थे और फिर शंकित मन अपने-अपने रास्ते बढ़ जाते थे या जो ऐसा नहीं करते थे वे दूसरों की ओर तीखी आशंका का कारण बन जाते थे। साँझ के बाद सिर्फ मोटरें ही उधर से निकलती थीं - बहुधा पुलिस की मोटरें, कभी-कभी दूसरों की और तीखी आशंका का कारण बन जाते थे। साँझ के बाद सिर्फ मोटरें ही उधर से निकलती थीं - बहुधा पुलिस की मोटरें, कभी-कभी दूसरी। सोमा ने सुना था कि उधर रहनेवाले लोग रात को देर में घर लौटते हैं तो मोटर धीरे चला कर लाते हैं कि कहीं उन पर संदेह न हो जाय और पुलिस की मोटर उनके पीछे न लग जाय या गाड़ी की तलाशी न हो जाय। दिल्ली में एकाधिक गुप्त रेडियो प्रसारक काम कर रहे थे और पुलिस की धारणा थी कि ये मोटरों में घूमते फिरते हैं क्यों कि स्थिर रहेंगे तो प्रसारण की दिशा से पता लग जाएगा कि उन की स्थिति कहाँ है। सोमा का ठिकाना हर्र स्टेगर के बँगले से दूर नहीं था; कभी शाम को देर से काम से लौटते हुए उसे डर तो नहीं लगता था पर दूसरे इक्के-दुक्के व्यक्ति की सशंक दृष्टि का अनुभव उसे जरूर हो जाता था। अक्सर वह भाँप जाती थी कि ताकनेवाला व्यक्ति सी.आई.डी. का ही होगा; कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता था।

एक बार एक अनोखा अनुभव भी उसे हुआ था। बरसात बीत चली थी। बादल छाये थे, पर बूँदें नहीं पड़ रही थीं। उमस के कारण झुटपुटा और भी ओझल और सुनसान लग रहा था। सोमा पैदल चली जा रही थी कि एक मोटर उसके पास आ कर रुकी, किसी ने बड़े भद्र स्वर से पूछा, “आपको हम कहीं पहुँचा दें?” और वह जवाब दे, इसके पहले ही दरवाजा खुल गया। दिल्ली में तो माँगने पर कोई लिफ्ट नहीं देता; यह बिन माँगे ऐसा शिष्टाचार! - और कोई संदेह करने की गुंजाइश नहीं थी क्यों कि चालक के बराबर एक स्त्री भी बैठी थी। सोमा फिर भी धन्यवाद दे कर टाल देना चाह रही थी कि स्त्री ने ही आग्रहपूर्वक कहा, “आइए न - हम इधर ही जा रहे हैं - पहले भी एक-आध बार आप को पैदल इधर से जाते देखा है।” सोमा ने कुतूहलवश ही मान लिया : कौन होंगे ये लोग जो इतनी शालीनता दिखा रहे हैं?

गाड़ी चल पड़ी। थोड़ी देर बाद स्त्री ने पूछा, “हम लोग एक-आध जगह रुकते चलें तो आपको आपत्ति तो न होगी - अधिक नहीं, दो-चार मिनट लगेंगे - “

कुछ विस्मय से सोमा ने कह दिया, “नहीं।”

मोटर अलीपुर रोड से मुड़ गयी; थोड़ी दूर जा कर एक बँगले पर रुकी। स्त्री सोमा के साथ बैठी रही, चालक उतर कर एक मिनट को भीतर गया और लौट आया। गाड़ी चल पड़ी। ऐसे ही एक बँगले पर फिर रुकी; सोमा ने लक्ष्य किया कि चालक जाता हुआ एक पैकेट भी ले जा रहा था जो लौटा तब उसके हाथ में नहीं था। एक तीसरी जगह भी ऐसा ही हुआ। उसके बाद स्त्री ने कहा, “चलिए, अब आपको पहुँचा दें। देर के लिए माफ कर दीजिएगा।” रामकिशोर रोड पर सोमा को छोड़ कर गाड़ी आगे निकल गयी। अपने घर की ओर मुड़ने से पहले सोमा ने देखा कि वह और भी एक जगह उसी प्रकार रुकी है; फिर सोमा अपने फाटक के भीतर चली गयी। अनुमान से ही उसने समझ लिया कि यह हो क्या रहा है : मोटर घर-घर परचे बाँटती घूम रही होगी। यह अनुमान अगले दिन और पुष्ट हो गया जब पड़ोस घर से उसे भी एक परचा मिला - 'रात में पता नहीं कौन घर-घर में डाल गया।' इससे यह रहस्य तो नहीं खुला कि उसे लिफ्ट क्यों दी गयी - सोमा ने स्वयं ही अनुमान कर लिया कि गाड़ी में दो महिलाएँ होने से वह कुछ ज्यादा 'रेस्पेक्टेबल' हो जाएगी - 'ड्राइवर कहीं संदेशा पहुँचाने या पता लेने उतरा होगा...'

यों बरसात बीत गयी थी, वर्षा से धुले हुए पेड़ों की पत्तियों को शरद ऋतु चमकाने लगी थी और फिर कातिक के अंधड़ों ने धूल उड़ा कर शरद का सारा परिश्रम व्यर्थ कर दिया था। सोमा को दिल्ली आये एक वर्ष हो गया था : यों तो हमारा समय के बीतने का बोध कई तरह का होता है, ज्ञानजन्य भी और अनुभवजन्य भी; सोमा के जीवन में समय की गति मानो ठिठक गयी थी और जब चलती भी थी तो धारा की तरह सम और प्रवाहमान नहीं, बंदर-कूद की तरह एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक। अखबार वह नियम से पढ़ती थी, बदलती हुई तारीखें या युद्ध के समाचारों का घटना-क्रम ऐतिहासिक काल की उस गति का अंश था जो हमारे अनुभव का नहीं, ज्ञान का ही अंग रह जाती है जैसे अशोक या अकबर का राजत्व, या राणा प्रताप की प्रतिज्ञा या पलाशी का युद्ध; पेड़ों का अंकुरित होना या पत्तियों का पीला पड़ जाना उस अनुभूत काल का अंग जो हठात् एक स्थिति के बदले एक दूसरी स्थिति हमारे सामने उभार लाता है - वसंत और शरद को हम आता हुआ नहीं देखते, आ गया ही पहचानते हैं! - उसी अनुभूत काल का अंग, जिसका अंग अशोक की टूटी हुई लाट है, या अकबर के हस्ताक्षर के बदले हाथ की छाप या चित्तौड़गढ़ का सिंहपौर, या ढाका की मलमल... पर एक और भी स्तर है काल के अनुभव का : जैसे एक दिन एकाएक स्टेगर द्वारा निमंत्रित होना - “सोमा, तुम्हारी ट्रेनिंग तो अब पूरी समझनी चाहिए - तुमने एक वर्ष पूरा कर लिया, एंड आइ मस्ट से आइ एम वेरी इंप्रेस्ड... सैसी, शैल वी हैव ए पार्टी एट डैविकोज?” या और एक दिन स्विस के आगे जा निकलना और अनमने-से हठात् सड़क पार करने लगते ही मोटर से चीख सुन कर ठिठक जाना और याद करना 'जोखम कहाँ नहीं है? सड़क पार करते हैं तो जान खतरे में डालते हैं।' यह न धारा है, न बंदर-कूद; यह एक टेढ़ा सुआ है जो अनवधान में मर्म में बिंध जाता है और फिर भीतर-भीतर घुमाया जाता है; जिसके घाव को हम कराहते हुए दबाते हैं और इस प्रकार सुए को और गहरा चुभाते जाते हैं...

बरसात में तैल रंगों के काम में हवा की नमी के कारण बाधा थी, इसलिए पुराखंडों की सफाई और मरम्मत की दूसरी विधियाँ सीख लेने के बाद सोमा जलरंगों के काम को और रसायन संबंधी अध्ययन को अधिक समय देती रही थी, नहीं तो - ऐसा स्टेगर का अनुमान था। अब तक उसकी ट्रेनिंग पूरी हो गयी होती - यानी जितनी ट्रेनिंग वहाँ हो सकती थी, उस से आगे की शिक्षा तो विदेश में किसी संस्था में ही संभव थी - और बाकी तो अनुभव और अभ्यास ही सिखाता है - आदमी 'काम को नहीं सीखता, काम से सीखता है।' स्टेगर कभी-कभी कहा करते थे। बल्कि सोमा ने पहचान लिया था कि यह उनका एक तरह से तकिया कलाम है। सोमा कुछ अच्छा काम कर दिखाये तब यही प्रशंसा-वाक्य बन जाता था; काम की विधि के बारे में पूछे तो यही समाधान-वाक्य था; और हर्र स्टेगर उसे जब कोई काम सौंपते थे तो यही आदेश का संकेत होता था! जाड़े लगने के साथ फिर तैल रंगों का काम करने का अवसर आया, पर एक कठिनाई और थी कि मरम्मत किये हुए या फिर से रंगे हुए अधिक पुराने तैलचित्र तो मिलते नहीं थे; उन्नीसवीं शती के ही कुछ विदेशी तैलचित्र हर्र स्टेगर कहीं से ले आये थे जो उन्होंने सोमा को सौंप दिये थे। “है तो रबिश-रोबदार दीखता है तो क्या हुआ!” फिर आँखों में विनोद की चमक भर कर बोले थे, “हाउ वुड यू लाइक टु रेस्टोर सम ऑफ योर डेड रूलर्स?” 'रेस्टोर' शब्द के श्लेष पर सोमा हँस पड़ी थी, 'योर डेड रूलर्स' कहने में स्टेगर का कोई आक्षेप भारत पर नहीं था इतना वह उन्हें जान गयी थी।

“श्योर आइ'ल डिग देम अप!” उसने भी उसी स्वर में उत्तर दिया था, “उन्हें कब्र में भी शांति नहीं मिलनी चाहिए-मुर्दा पेंटिंग में भी नहीं!”

और वह बड़ी लगन से चित्रों का चप्पा-चप्पा छाँट कर उस पर मेहनत करने लगी : चटके हुए रंगों को पूरना, पपड़ी उठाना, दफ्ती पर बनाये गये चित्रों में गली हुई दफ्ती से रंग उठा कर नये फलक पर जमाना, अलग-अलग चित्रकारों के कूची चलाने के ढंगों की नकल, रंग की पपड़ी की मोटाई का अध्ययन, तेलों की मिलावट-रंगों के भेद और उनके आधार पर देश-काल निर्णय... आँख और हाथ दोनों के कड़े अनुशासन की जरूरत थी इस काल में-पीठ और गर्दन की जो तपस्या थी वह अलग! वह काम में दिलचस्पी ही नहीं थी जो सोमा को घंटों निरंतराल इस काम में लगाये रहती थी, कोई और भीतर सुलगन भी थी : सोमा भी इस बात को जानती थी और मिस्टर स्टेगर भी समझने लगे थे। पर आग को छेड़ा भी जा सकता हो तो सुलगन को नहीं छेड़ना चाहिए : उसमें आग ललक उठे तो मुश्किल, और कहीं बुझ जाय तो भी - क्या जाने क्या अनर्थ हो...

वह सन् १९४४ का वसंत था जब एक दिन हर्र स्टेगर ने सोमा से फिर एक लंबी यात्रा का प्रस्ताव...