जंगली कबूतर / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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‘‘लोग ख़ातिर-मदारन की आड़ में तर-माल उड़ा रहे हैं।’’ ‘‘अच्छा आप अंदर की बात भी जानते हैं या ऐनक में एक्स-रे लगी है जो पेट के अंदर का हाल मालूम कर सकती है।’’ उसने खट्टेपन से जवाब दिया, खुदा समझें, दिल फिर कुलांचें भर रहा था। ‘‘पेट का एक्स-रे करने की ज़रूरत नहीं, होठ जुर्म की गवाही में खुद बोल रहे हैं।’’ तब चुड़ैल शबाना खिलखिलाने लगी थी। पोंछने के बाद भी होठों पर चाँदी के वर्क़ का असर बाकी था। लेकिन जब उसकी नज़र भाई माज़िद के सामने रखे खीर के प्याले पर पड़ी तो दम निकल गया। ‘‘आबिदा-माज़िद’’। पिस्ते की हवाइयों से लिखा हुआ था। उसने चाहा प्याला बदल दे। मगर हाथ बढ़ाया तो माज़िद ने रोक दिया। ‘‘जी ये मेरे हिस्से का है।’’ ‘‘मैं...मैं...वह...मैं दूसरा ला देती हूँ’’ वह बौखला गई। ‘‘अगर अम्मी ने प्याला देख लिया, या किसी बूढ़े-बुढ़िया की नज़र पड़ गई तो क़यामत टूट पड़ेगी।’’

‘‘क्यों, इसमें क्या बुराई है ?’’ ‘‘कुछ नहीं....नहीं’’, उसने जल्दी से पाँचों उँगलियों से प्याला ढक लिया। ‘‘तो फिर...छोड़िए मेरा प्याला,’’ माज़िद की पाँचों उँगलियाँ ऊपर सवार हो गईं। आबिदा ने झिझककर हाथ खींच लिया। ‘‘ओह !’’ भाई माज़िद ने प्याला का राज़ मालूम करके लाल होना शुरू किया, आबिदा को काटो तो ख़ून नहीं। वह तेज़ी से गिलासों में पानी उँड़ेलने लगी। बाद में उसे हँसी आया करती थी मगर उस रोज़ उसने शबाना की वह टाँग ली थी कि रोते-रोते निगोड़ी का मुँह सूज गया। साथ में माज़िद भाई का भी वह धोबी-पाट किया कि याद ही करते होंगे। क्योंकि शबाना ने सब रो-रो के अपने भैया से जड़ दिया। ‘‘शबाना को रुलाकर क्या मिला, मुझसे नफ़रत के इज़हार के और भी तरीक़े हो सकते थे। वैसे इज़हार की, आपको ज़्यादा ज़हमत की जरूरत नहीं, मैं ऐसा कुंद-ज़हन नहीं हूँ।’’ उन्होंने उसे दूसरी किसी दावत में घेर लिया। ‘‘वह...मैंने ग़ुस्सा में...’’ उसे गुस्सा आ रहा था कि उसे शबाना पर ऐसा शदीद गुस्सा क्यों आया ?

‘‘वह बच्ची है। समझती है जैसे वह अपने भैया पर जान छिड़कती है और भी सब लड़कियाँ वैसे ही महसूस करती होंगी। आप उसे पसंद हैं। बेइंतिहा पसंद हैं। अपनी समझ में वह निहायत दिलचस्प हरकत कर रही थी। उस बेचारी के फ़रिश्तों को भी नहीं मालूम था कि आपको उसने इतनी बड़ी गाली दे दी।’’ ‘‘मैं..मुझे बड़ा अफ़सोस है। न जाने क्यों मेरी ज़बान को आग लग गई और मैंने बेचारी को डाँट दिया,’’ आबिदा का जी चाहा, डूब मरे। ये सब क्या हो रहा था। ‘‘सुनिए !’’ वह जाने लगी तो भाई माज़िद ने उसे रोककर पूछा। ‘‘क्या आपसे जो कुछ किसी के बारे में कहा जाए, वह बग़ैर पूछे-गुछे यक़ीन कर लिया करती हैं।’’ ‘‘नहीं तो।’’ ‘‘फिर आपने उसे ताने क्यों दिये ?’’ ‘‘मैंने..पता नहीं मुझे उस वक्त क्या हो गया था..मैं उससे माफ़ी माँग लूँगी।’’ ‘‘और ज़रा मुझसे माफ़ी माँगने के बारे में भी ग़ौर कीजिएगा। अगर कोई आपके बारे में ऐसी वाहियात बातें कहता तो बख़ुदा मैं कभी यक़ीन न करता।’’

‘‘क्यों यकीन न करते, आपको क्या पता कि...’’ ‘‘मैं जानता हूँ।’’ ‘‘क्या जानते हैं ?’’ ‘‘आपको जानता हूँ...मेरी बहनें मुझे हर ख़त में आपकी एक-एक बात लिखती हैं। यहाँ तक कि किस दिन आपने कौन से कपड़े पहने थे।’’ ‘‘ओह...’’ आबिदा को फिर गुस्सा आने लगा। लेकिन सिर्फ़ खुद पर। ‘‘अच्छा ये बताइए, आवारा, बदमाश और लफंगा होने के इलावा मुझमें और क्या-क्या कमियाँ हैं ?’’ ‘‘कुछ नहीं,’’ उसने मरी हुई आवाज़ में कहा। भाई माज़िद तेज़ी से मुड़कर और लोगों से बातें करने लगे। भाई माज़िद चले गए। उससे मिले भी नहीं, अम्मी को सलाम करने आये। वह अंदर दुबकी बैठी रही। उन्होंने उसके बारे में पूछा तक नहीं।

मगर एक सप्ताह के अंदर उसका पैग़ाम आ गया। बजिया ने बताया कि आबिदा की मर्जी़ पुछवायी गई है। वैसे अम्मी ने तो हामी भर ली है। ‘‘यों ही।’’ ‘‘और जो मैं इनकार कर दूँ तो...’’ ‘‘ए हे दीवानी हुई हो, इतना अच्छा लड़का।’’ ‘‘दुआ करें, अगर मुझे पसंद न हो तो ?’’ ‘‘ए चलो बनो मत, हमसे उड़ती हो, मुँह से बड़-बड़ बकती हो, ज़रा आईना उठाकर सूरत तो देखो।’’ और लाजवाब होकर आबिदा फूट-फूटकर रोने लगी। ‘‘ए बी दीवानी हुई है, उसमें क्या ऐब है, दिल ही तो दिया है कोई खुदा न करे इज्जत तो नहीं दे दी।’’ ‘‘बजिया...मुझे डर लगता है।’’ ‘‘काहे से ?’’ ‘‘पता नहीं।’’