जज किया जाना / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
निजी संदेशों में लड़कियां अकसर मुझसे एक वाक्य कहती हैं-- ‘उम्मीद है इसके बाद मुझे जज नहीं किया जाएगा’ या ‘यह सब मैंने इसी भरोसे से कहा कि जानती हूं कम से कम यहां मुझको जज नहीं किया जाएगा!’
ऐसा लगता है कि स्त्रियों में एक गट-फ़ीलिंग होती है, एक सिक्स्थ सेंस होता है, जिसकी मदद से वे किसी पुरुष के बात करने के तरीक़े, उसके हावभाव और उसके आचरण से तुरंत भांप लेती हैं कि हमें इसके साथ संवाद रखना है या नहीं। वे यह निर्णय स्वयं ही लेना पसंद करती हैं, सुनी-सुनाई बात के आधार पर किसी के बारे में फ़ैसला नहीं करतीं।
अलबत्ता ये ‘जज’ करना क्या होता है, इसका मुझे ठीक ठीक पता नहीं, फिर भी मुस्कराकर कह देता हूँ, ‘इसमें जज करने जैसा क्या है, ये तमाम ह्यूमन एक्सप्रेशंस हैं!’ लेकिन देखता हूँ, जो लड़की अभी पलभर पहले तक बड़ी बेलौस थी, वो अचानक संजीदा हो गई है!
ये लड़कियां किस बात से इतना डरती हैं? शायद वो इस बात से डरती हैं कि उन्हें ग़लत समझ लिया जाएगा या उन्हें बुरा मान लिया जाएगा। इससे भी बदतर यह कि उनसे कुछ अपेक्षाएं बांध ली जाएंगी, केवल इस बुनियाद पर, कि वो एक पुरुष से इतनी बेतक़ल्लुफ़ी से बतियाने लगी थीं!
लड़कियों के भीतर यह डर भरने के लिए देश-समाज ने बड़ी मेहनत की है, यह एक-दो दिन में नहीं हो गया।
हमारे यहाँ पौरुष की अनेक परिभाषाएं हैं। पर मेरी निजी परिभाषा यह है कि वास्तविक पुरुष वही है जिसके साथ स्त्री स्वयं को मुक्त अनुभव कर सके। पुरुषों को इतना संवेदनशील, परिपक्व और सहज तो होना ही चाहिए कि उनके साथ अनौपचारिक या अंतरंग हो जाने के बाद लड़कियों को यह अंदेशा ना हो कि उन्हें ‘जज’ किया जाएगा!
‘जज’ करने जैसा कुछ नहीं है। कुछ भी आख़िरकार बुरा नहीं है। जिसे सबने बारम्बार ‘अच्छा’ बतलाया गया है वो केवल सम्बंधों का संस्थानीकरण है, जिसमें समाज की सुविधा है। उसे विवाह कहा जाता है। किंतु मनुष्य का दिल और आत्मा पहरे में रहना नहीं जानते। हमारे हृदय में एक नदी बहती है। वो अवरुद्ध नहीं होना चाहती। हमारे नैतिक दायित्व किसी भी और की तुलना में उसके लिए अधिक हैं!
शायद पुरुष अभी इतने शिक्षित नहीं हुए कि लड़कियां उनकी संगत में सहज हो सकें। सम्बंधों के अनेक स्तर होते हैं, क्योंकि एक मनुष्य के रूप में हमारे भीतर अनेक आयाम हैं। एक सम्बंध को घटित होते देखना सुखद है। उसकी अपनी गति है। हमें स्वयं को उस पर थोपना नहीं चाहिए। दरवाज़ा हमेशा इतना खुला हो कि जब चाहे उठकर बाहर जाया जा सके। तभी तो स्त्री निर्द्वंद्व होकर भीतर प्रवेश करेगी- जैसे किसी अचरजलोक में जाती हो, ऐसे अंदेशे से नहीं कि जैसे वो किसी व्यूह में फंस रही हो!
ईश्वर ने हमें जैसे बनाया है उसमें सच्ची आत्मिक ख़ुशी केवल एक चीज़ से मिलती है-- निजी निर्णय, उस निर्णय की पूरी ज़िम्मेदारी और उससे मिलने वाला निर्बाध आकाश!
आज जैसे हालात हैं, उसमें मुझे दु:ख है कि हम तो उलटी दिशा में जा रहे हैं। स्त्री के साथ हो रहे अपराध उसके भीतर बसे डर को बढ़ाएंगे ही। सम्बंधों में और अवरोध आ जाएंगे। वो और असहज हो जाएगी। बहुतेरे पुरुष इस बात को नहीं समझते कि अंतरंगता के प्रति स्त्री की दृष्टि पुरुष से बहुत भिन्न है। अपनी आकांक्षाओं के प्रति स्त्री का रवैया पुरुष की तुलना में कहीं ग्रंथिपूर्ण और जटिल है। सदियों के नियंत्रण ने उसके भीतर ग्लानि और आत्मचेतना भर दी है। उसकी चेतना में दुराव आ गया है, उसके दो मन बन गए हैं। इसी से वह ‘जज’ किए जाने से डरती है, सहज नहीं होने पाती।
किंतु स्मरण रहे कि घुटकर जीने वाला समाज कभी सभ्य नहीं हो सकता। सभ्यता के मानकों को बदलने की ज़रूरत है। मनुष्य की आत्मा का एक ही संगीत है और वह है-- प्यार! हम प्यार का प्रबंधन नहीं कर सकते, किंतु इतना तो सदैव ही कर सकते हैं कि वह घटित हो सके, इसके लिए अपने भीतर जगह बना सकें!