किशोरी लड़की / पवित्र पाप / सुशोभित

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किशोरी लड़की
सुशोभित


चौदह से अधिक की नहीं होगी।

भोपाल की उस भोर चेतक पुल के नीचे खड़ी थी, कंधे पर दुपट्‌टे को आलपिन से पिरोये। पतली-दुबली किशोरी काया। बहुत सम्भव कि स्कूल बस का करती इंतज़ार।

मैं होशंगाबाद वाले रास्ते की ओर से आया। पुल के नीचे घुमावदार मोड़ था, यातायात की बाध्यताओं से विवश होकर बारम्बार बजाया हॉर्न। ये हॉर्न उस नन्ही लड़की के लिए नहीं था।

फिर भी वो बेतरह झेंप गई। पलभर को सहमी आंख से मुझे देखा, फिर फेर लिया मुंह। वो सहमी हुई दृष्टि मेरे भीतर गड़ गई। एक अनिच्छुक भूल ने ग्लानि से भर दिया मन।

दिन में जाने कितने यों ही हॉर्न बजाकर निकलते होंगे निकट से। कितने कसते होंगे फब्तियां। कितने अवसर देखकर कर लेते होंगे अनधिकार स्पर्श। मन पर ऐसे कितने अंदेशों की होंगी गिरहें? एक किशोर काया पर वैसे कितने घाव?

पुल के नीचे मोड़ पर एक अन्यथा हॉर्न से सहम जाए, वैसी चौदह साल की चेतना किस जगत ने रची होगी, यही सोचता रहा फिर देर तक।

दोष था नहीं, किंतु उसने दोष की कल्पना की, इसी से क्लान्त हो गया मन।

मन हुआ कि लौटकर मांगू क्षमा। विनयपूर्वक झुककर कि सुनो, मेरा वैसा आशय न था।

फिर रुक गया यह सोचकर कि सार्वजनिक क्षमायाचना का वो यत्न भी कहीं एक नई लज्जा और दुश्चिंता का प्रयोजन ना बन जावे!