जलते बुझते लोग / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 2

Gadya Kosh से
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पहला पहर सुबह का पहला पहर रोज मेरे हाथ में एक कुदाल-सी पकड़ा देता है, और मैं इस कुदाल से अपने-आपकी खुदाई करने लग जाता हूं... इस वक्त भी मेरे हाथ मिट्टी से सने हुए हैं, रोज सन जाते हैं...

सने हुए हाथों से लोग इस धरती में से बीती हुई सभ्यता के निशान खोजते हैं, पत्थरों के बर्तन चाँदी के सिक्के, मिट्टी की मूर्तियां...और या आने वाली सभ्यता के यानी सोने की खानें या तेल के सोते...। पर मैं अपने-आपकी खुदाई में से सिर्फ अपना वर्तमान ढूंढ़ रहा हूं-जो बाहर होता हुआ भी बाहर नहीं है। सोचता हूं शायद यह मेरे अन्दर होगा... पिछले साल तक सब कुछ बाहर लगता था-मुझे भी, पापा को भी। जब एम.एस-सी. करने लगा था, पापा ने अपना भविष्य भी मेरे साथ जोड़कर बहुत कुछ सोचना शुरू कर दिया था... उनका सोचना अब भी जारी है...सिर्फ मेरा रुक गया है...

शायद वर्तमान एक खाई बन गया है, मैं किसी ख्याल को परे तक ले जाने भी लगता हूं तो यह इधर इस खाई में गिर पड़ता है... शायद वर्तमान खाई नहीं है, खाई कोई और चीज है और वर्तमान उसमें गिर गया है... एम.एस-सी. तकरीबन कर चुका हूं, कल आखरी पेपर था। थोड़े-से दिनों में उसकी सनद मिल जाएगी, पर इस सनद को अगर मैं दीये की तरह जला लूं तो यह मेरा वर्तमान ढूंढ़कर नहीं दे सकती.... यह कब खो गया था, कहां खो गया था, कुछ पता नहीं...

गये साल उस दिन तक याद है, जब मेरे होस्टल के चार दोस्तों ने मेरे कमरे में आकर मेरे हाथ से किताब छीन ली थी... ‘‘मैं केवल उर्फ कालीदास आज किसी मेघ का नहीं, रम का दूत बनकर आया हूं, उठो दोस्त ! आज ड्राई वेल पार्टी होगी।’’ केवल ने कहा था, और मेरी मेज पर पड़ा हुआ सिगरेट का पैकेट उठाकर अपनी जेब में डाल लिया था। नलिन ने मुस्कराकर कहा, ‘‘लड़का है या हुक्के का पानी ? तुझे यह भी पता नहीं ड्राई वेल पार्टी क्या होती है ?’’ इस नलिन को सब दोस्त ‘हेयर ऑफ हेनरी मिलर’ [हेनरी मिलर का वारिस] कहते हैं। जावेद, जिसे सब शैले लखनवी कहते हैं, वह मेरे हाथ में पकड़े हुए सिगरेट को पीता और उसकी राख मेरे ऊपर झाड़-कर शेर पढ़ने लगा था, ‘‘एक सिगरेट से लेकर एक इश्क तक हर चीज अमल है, यह बात अलग है कि कइयों को एक ही ब्रैंड चाहिए...’’ मैं अपने बालों में से सिगरेट की राख झाड़ने लगा था, और जावेद ने शेर पूरा करते हुए कहा था, ‘‘एक ही ब्रैंड की अकीदत आशिक होने की निशानी है।’’

चौथा, रावल न होस्टल में रहता है न कालेज में पढ़ता है, पर अपने घरवालों के लिए वह कालेज में भी पढ़ता है और होस्टल में भी रहता है-अपने आपको ‘रोज स्कालर’ कहता है, वह मेरे कान को धीरे से पकड़कर कहने लगा था, ‘‘मिस्टर आउट आफ डेट ! उठो, जल्दी करो। रम को बोतल की कैद से जल्दी छुड़ाना चाहिए...’’ ‘ड्राई वेल पार्टी’ का रहस्य मुझे होस्टल से एक मील एक वीरान जगह पर एक सूखे हुए कुएं पर जाकर पता लगा था। कुएं की चरखी से रस्सी बांधकर, रस्सी के एक सिरे से एक बड़ी भारी बाल्टी बांध दी थी। इस बाल्टी में बारी-बारी एक कोई बैठ जाता था और कुएं में उतर जाता था।

लड़कियों के होस्टल में से पांच लड़कियां भी आई हुई थीं, सबके नाम याद नहीं-एक जो बहुत बातें करती थी उसे सब ‘मिस स्टेटमैंट’ कहते थे। एक जो बहुत चुप थी, उसे ‘मिस मिस्ट्री’ कहते थे। एक का कद छोटा था, उसे ‘मिस शार्ट स्टोरी’ कह रहे थे। और एक जो हर बात में दखल दे रही थी, उसका नाम ‘मिस क्रिटिसिज्म’ था। पांचवी तरीज़ा थी। उसके लिए उन्होंने मुझसे पूछा कि उसका क्या नाम होना चाहिए ? मैंने उस वक्त कुछ कहना था कह दिया था, ‘पोएम इन मेकिंग !’’ हम सब एक ही बार कुएं में नहीं जा सकते थे, दो जनों को बारी-बारी बाहर ठहरना पड़ता था-चरखी की रस्सी खींचकर अन्दर जाने वालों को बाहर निकालने के लिए।

पहली बार मैं और तरीज़ा बाहर रहे थे। बाकी सबको रम पीने की जल्दी थी। जावेद उर्फ शैले लखनवी ने कुएं में उतरते हुए रम की बन्द बोतल को सूंघकर और झूमकर कहा था, ‘‘गंगाजल से लेकर वोडका तक, यह सफरनामा है मेरी प्यास का...’’ नलिन, जो हेनरी मिलर का वारिस था, उसने जावेद की कमीज का कालर खींचकर कहा था, ‘‘शैले लखनवी के बच्चे ! रम को हाथ में पकड़कर वोडका का शेर पढ़ता है ? यह सरासर रम की इन्सल्ट है। शेर जोड़ना है तो रम का जोड़-’’ शैले लखनवी को कहने के लिए कुछ न सूझा तो केवल कालीदास ने उसके कालर को छुड़ाते हुए कहा था-‘‘अरे रम क्या और वोडका क्या-अंडर द क्लाथ्स वी आर मेड इन इण्डिया !’’

और फिर कुएं में उतरकर वह गाने लगा था, ‘‘अंडर द क्लाथ्स...’’ बाकी सब उसके साथ गा रहे थे, ‘‘वी आर मेड इन इण्डिया...’’ आवाजों से कुआं भरा-सा लग रहा था। फिर कुएं में रिकार्ड प्लेअर बजने लगा था। सारे डांस कर रहे थे। मैं कुएं की मेंड के पास खड़ा सिगरेट पी रहा था..रिकार्ड प्लेअर में से उस वक्त आवाज आ रही थी, ‘‘आई हेव कन्फीडेन्स इन सन-शाइन।’’ मेरे पास खड़ी तरीज़ा ने पता नहीं क्यों पूछा था, ‘‘मिस्टर मलिक ! आप एम.एस-सी के बाद क्या करोगे ?’’ यह मेरा एम.एस-सी का फाइनल साल शुरू हुआ था, पर जो कुछ सोचना था, अगले साल सोचना था, मुझे उस वक्त तक यह पता जरूर था कि यह मेरी उम्र, मेरे सपने, मेरे पास हैं, मेरे सामने...मैं कुछ भी कर सकता हूं...मुस्कराकर कहा था, ‘‘कुछ भी कर लूँगा...’’

पर यह पिछले साल की बात है....सूरज अब भी उगता है, पर सूरज की धूप में यकीन करने वाला-मेरे भीतर का कुछ-अब सूरज की धूप में यकीन कर सकता है, न बादलों की छांव में... इस ‘कुछ’ को मैं एक पात्र की गीली और गर्म आंख से नहीं, एक दर्शक की सूखी और ठंडी आंख से देखना चाहता हूं-पर अभी तक नहीं पता चलता है कि इस ‘कुछ’ ने किस वक्त मेरी आंख बचाकर अपना जन्म बदल लिया था-यह तो कुछ इसने बदला है, यह चोले की तरह नहीं, सचमुच एक जन्म की तरह है... मुझे याद है-उस दिन मैं कुएं की मेंड के पास चुप खड़ा था, पर मेरे और तरीज़ा के दरम्यान यह चुप किसी तरह भी भारी नहीं थी-यह धीमे से हवा की तरह सरक रही थी...

तीराज़ा की जगह होकर मैं कुछ नहीं कह सकता, पर अपनी जगह यह जरूर कह सकता हूं कि खामोशी की सरकती हवा में से मैं उस तरह की ताजा सांस ले रहा था-जिस तरह कोई भी एक बेलगाव आदमी ले सकता है। केवल, कालीदास और मिस स्टेटमैंट कुएं से बाहर आ गए, और अपनी जगह उन्होंने मुझे और तरीज़ा को कुएं में भेज दिया। कुआं पानी की जगह आवाजों से भरा था-मुझे अपना आप, जाने क्यों, वहां डूबता-सा लगा-जेब में हाथ डाला, एक सिगरेट खोजने लगा-उस वक्त एक सिगरेट की जरूरत कुएं में लटकती उस रस्सी की तरह थी जिसे डूबते समय कोई थाम ले। जेब में कोई सिगरेट नहीं था। केवल मेरे कमरे से मेरा पैकेट उठा लाया था, और शायद कोई सिगरेट अब भी उसमें बचा हुआ था, पर वह पैकेट केवल की जेब में था, और केवल उस वक्त कुएं से बाहर मेंड पर खड़ा था।...जावेद ने मेरी सिगरेट टटोलती उंगलियों में एक सिगरेट थमा दिया और अपने लखनवी अन्दाज में कहने लगा, ‘‘इस समय रीजेंट नहीं हुजूर, जो सामने आया है पी लो !’’