जलते बुझते लोग / अमृता प्रीतम / पृष्ठ 3

Gadya Kosh से
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मैंने सिगरेट सुलगा लिया था पर मेरे गले ने इस नई और अजनबी महक को कबूल नहीं किया था। जावेद ने देख लिया था, और मेरे पास होकर कहा था, ‘‘यही आसार होते हैं किसी आशिक की आयी मरने के। मैंने तुम्हें आज बताया था कि एक ब्रैंड की अकीदत आशिक होने की निशानी है...’’ और फिर जावेद ने जाने क्यों एक बार तरीज़ा की ओर देखकर दोबारा मेरी ओर देखा था-ऐसे जैसे अपनी पलकों से उसके चेहरे की कुछ नरमाई उठाकर उसने मेरी आंखों में डाल देनी चाही थी। मुझे जावेद पर एक गुस्सा आ गया था और तरीज़ा से एक शर्मिन्दगी। रिकार्ड बज रहा था, ‘‘डार्क मून ओ अप इन द स्काई, टेल मी वाईटेल मी वाई-आई हेव लॉस्ट माई लव...’’ मिस क्रिटिसिज्म ने तरीज़ा का हाथ मेरे हाथ में देकर हम दोनों को अपने नाच में शामिल करना चाहा था। मैंने तरीज़ा का हाथ पकड़ लिया था, पर गीत की लय के साथ लचकती तरीज़ा के कान में धीरे से कहा था, ‘‘मून इज़ द सिम्बल आफ नान बीइंग।’’ [चांद अनस्तित्व का प्रतीक है।] तरीज़ा हंस दी थी, ‘‘अच्छा फिलासफर साहब !’’ और मैंने जावेद की डाली हुई खामखाह की झिझक को उतारने के लिए तरीज़ा के सिर पर एक हल्की सी चपत लगाई, ‘‘तुझे यह सिली सांग्ज़ अच्छे लगते हैं ? तू अभी बिल्कुल छोटी-सी बच्ची है..’’

कुएं से बाहर आने की अभी मेरी बारी नहीं थी, पर रम का और जावेद के दिए हुए सिगरेट का जायका मेरी छाती में नहीं उतर रहा था। मैं बाहर आ गया। तरीज़ा ने भी बाहर आना चाहा, मैंने इन्कार नहीं किया। बाहर कुएं की मेंड पर खड़ा केवल मेरे पैकेट का आखिरी सिगरेट पी रहा था। मैंने दूर तक नजर दौड़ाई सिगरेट की कोई दुकान नजर नहीं आ रही थी-कोई छोटी-सी दुकान होती भी तो वहाँ से रीजेंट नहीं मिल सकता था। तरीज़ा होस्टल की लड़की नहीं थी, डे-स्कालर थी। बाकी लड़कियों से वह इकरार लेकर आई थी कि अंधेरा होने से पहले उसे घर पहुँचा देंगी। मैं सिगरेट की तलाश में जाने लगा, तो मिस स्टेटमैंट ने मुझे कहा कि मैं तरीज़ा को रास्ते में घर छोड़ता जाऊं। सिगरेट की कोई बड़ी दुकान नजदीक नहीं थी, पर तरीज़ा का घर दूर नहीं था। तरीजा़ से रास्ता पूछकर मैं उसे उसके घर ले गया। ‘‘मिस्टर मलिक, आप दो मिनट मेरे साथ अन्दर आ जाइए-हमारी कोठी की ऊपरी मंजिल में जो हमारे किरायेदार रहते हैं मिस्टर पटेल, मेरा ख्याल है वह रीजेंट पीते हैं-आप एक मिनट बैठना, मैं उनसे एक सिगरेट मांग लाऊंगी।’’ तरीज़ा ने कहा था। और मैंने जवाब में कहा था। और मैंने जवाब में कहा था ‘‘नानसेन्स !’’ पर तरीज़ा के चेहरे पर एक छाया सी आ गई तो मैं खड़ा रह गया। कोई पल जाने कैसे होते हैं, ठंडे चाकू की तरह इन्सान की जिन्दगी को काट-कर दो टुकड़ों में कर देते हैं।... तरीज़ा ने अपने घर के ड्राइंगरूम का पर्दा सरकाया, मुझे अन्दर जाने का इशारा किया, और खुद पीछे चली गई-शायद ऊपरी मंजिल में रहने वाले मिस्टर पटेल से मेरे लिए एक सिगरेट मांगने। कमरे में हरे रंग की हल्की-सी रोशनी थी, खिड़कियों के आगे मोटे पर्दे लटके हुए थे, इसलिए कमरा बाहरी रोशनी से नहीं भीतरी रोशनी से जग रहा था-जग रहा नहीं, सुलग रहा था। कमरे के जिस कोने में हरे शेड वाला लैम्प था, वहां रोशनी गाढ़ी-सी थी, बाकी कमरे की सब दीवारों पर रोशनी सिर्फ पुती हुई लगती थी-हल्की-सी जैसे किसी ने दीवारों पर रोशनी की एक कूंची फेरी हो। कमरे में दो बुत थे-एक मर्द का, एक औरत का। मर्द बुत की उपमा के लिए मुझे जल्दी से एक लफ्ज़ सूझ आया था-‘रोमन फिगर’ पर दूसरे बुत के लिए कुछ नहीं सूझ रहा था... बहुत छोटा था जब मां से कोई कहानी सुनते हुए कोहकाफ की परी की बात सुनी थी, पर परी लफ्ज़ के साथ मेरी बाल-यादों में पंख लफ्ज़ भी जुड़ा हुआ था, क्योंकि कहानी की परी अपने पंखों से उड़ती थी, कमरे में बुत की तरह बैठती नहीं थी। इसलिए मेरा ख्याल है मैं दूसरे बुत को देखकर उस वक्त उसके साथ ‘कोहकाफ की परी’ लफ्ज़ नहीं जोड़ सकता था। और कोई इसके अलावा और बड़ा लफ्ज़ मेरी यादों के साथ जुड़ा नहीं था... सुना हुआ था कि तरीज़ा किसी रईस बाप की बेटी थी-उसके मरहूम बाप की शोहरत अमीरी के लिहाज़ से सुनी हुई थी, पर उसके किसी हुनरी शौक के लिहाज़ से नहीं। हैरान था-ऐसे बुत बनवाने के लिए उसने कोई बुत-तराश कहां से पाया होगा। दोनों बुत एक से हसीन थे, सिर्फ एक फर्क था-मर्द का बुत सफेद सिल्की मिट्टी से बना दिख रहा था, और औरत का टसरी रंग की मिट्टी का बना हुआ-इन्सान के कुदरती मांस जैसे रंग का। कुछ हिला-मेरी आंखों के सामने कमरे में। पर मुझे लगा कि यह मेरी आंखों का अचम्भा था, जो आंखों से बाहर नहीं, आंखों के भीतर हिल रहा था, बाहर सिर्फ उसका साया था। अजीब बात थी कि साया सिर्फ एक बुत पर इकट्ठा हो गया था-औरत के बुत पर क्योंकि सिर्फ औरत का बुत हिल रहा था। मर्द का बुत उसी तरह अडोल था...

मेरे हाथों को कुछ छुअन-सी महसूस हुई-मैं शायद कुछ चौंक गया था-देखा, मेरे पास खड़ी तरीज़ा हंस दी थी। वह एक सिगरेट मेरे हाथ में पकड़ा रही थी।

और फिर तरीजा़ की आवाज आई ‘‘ममी ! यह मेरे कालेज में पढ़ते हैं, मिस्टर मलिक....हम एक पिकनिक पर गए थे...’’ तरीज़ा उस तरफ देखकर कह रही थी, जो अभी मेरी आंखों के सामने मेरे ख्याल से एक बुत था... मैंने शायद हाथ जोड़े थे या सिर्फ सिर झुकाया था, मुझे याद नहीं। शायद मैंने कुछ भी नहीं किया था-पर जो कुछ भी नहीं कर सका था, जो इस ना कर सकने में, जुड़े हुए हाथ भी शामिल थे, और झुका हुआ सिर भी।... किसी बुत के अचानक किसी घड़ी होंठ मुस्करा पड़े हों, किसी ने नहीं देखे होंगे, मैंने देखे थे... होंठ हिलते भी देखे। कमरे में धीमे से सरकते हवा के झोंके की तरह आवाज आई, ‘‘मिस्टर मलिक ! आओ बैठो...’’ नहीं, आवाज हवा के झोंके की तरह नहीं थी, एक ठोस चीज की तरह मेरी तरफ आई थी, क्योंकि मुझे लगा कि मेरे सारे बदन को कुछ छू गया था।–छू गया नहीं, टकरा-सा गया। इतना कि मैंने पास पड़ी एक कुर्सी पर अपनी बांह रख दी... ‘‘प्लीज मलिक, दो मिनट बैठो !’’ यह तारीज़ा की आवाज थी और वह कह रही थी, ‘‘मैं सिगरेट ले आई, पर माचिस लाना भूल गई, ‘‘और फिर वह मेरी तरफ नहीं दूसरी तरफ देखकर कह रही थी, ‘‘ममी सिगरेट पीने का बुरा नहीं मानतीं, मैं माचिस, लाती हूँ।’’ माचिस मेरी जेब में थी, मैंने निकालकर हाथ में पकड़ ली। तरीज़ा रुक गई। पर मैंने सिगरेट जलाया नहीं-सिर्फ उस बुत की तरफ देखता रहा, जो अभी तक हिला नहीं था, शायद मैं उसके हिलने का भी इन्तजार कर रहा था... पर यह दूसरा बुत हिला नहीं, सिर्फ मेरी आंखें उस पर हिलती रहीं-शायद उसे हिलाकर देखती रहीं...

‘‘यह बुत आपको कैसा लगा है ? तरीज़ा की आवाज आई। जवाब में कुछ कहने लगा था-शायद वह बात जो अभी-अभी गुजरी थी-पर मेरे होंठ जरा-से हिलकर रह गए ? ‘‘वह बुत आपको पता है किसने बनाया है ?’’ तरीज़ा की आवाज आई। जवाब में मैंने तरीज़ा की तरफ देखा-कहने लगी, ‘‘ममी ने...बहुत साल हो गए हैं। मैं तब छोटी-सी थी, जब ममी ने यह बुत बनाया था-ममी ने स्कल्पचरिंग सीखा था, पर सिर्फ एक बुत बनाया, और फिर सब छोड़ दिया-’’ मैंने उस तरफ देखा, जिधर तरीज़ा देख रही थी-वहां ना गरूर था ना पछतावा। कुछ था जरूर, पर मैं उसे कोई नाम नहीं दे सकता-समथिंग नेमलेस’...[कोई चीज-अनाम]

मैं चुप था, पर चुप भी, शायद एक जबान होती है...और वह जबान, मैंने पहली बार सुनी-सिर्फ सुनी, समझी नहीं... समझने की कोशिश कर रहा था, कि मेरी जबान पर ‘आठ’ लफ्ज़ आने लगा-कुछ तालू से लगा हुआ, कुछ जबान पर सरकता-सा- और फिर लगा कि मैं-सामने उसके गले में पहने हुए डेसिंग गाऊन जैसी चीज पर उभरे हुए फूल गिन रहा था, एक...दो...तीन...चार...पांच..छै...सात...आठ....

एक बार गिनती खत्म होती थी दूसरी बार शुरू कर देता था-आंखों को और सोच को शायद जल्दी से कोई सहारा चाहिए था...यह ड्रेसिंग गाऊन जैसा जो भी कुछ था। टसरी रंग का था, इन्सानी जिस्म की जिल्द के रंग का। जिस्म के साथ जिस्म का हिस्सा सा...इसीको मैंने थोड़ी देर पहले, उस मिट्टी के रंग में सोचा था जिससे मुझे यह बुत गढ़ा हुआ लगा था...और अब शायद जिस्मानी हकीकत पर यकीन करने के लिए मैं उसके गले में पड़े कपड़े पर के फूल गिन रहा था....

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