जलते हुए अक्षर / अमृता प्रीतम
मैंने आसमान से एक तारा टूटते हुए देखा है...
बहुत तेजी से,आसमान के ज़िहन में एक जलती हुई लकीर खींचता हुआ...
लोग कहते हैं तो सच ही कहते होंगे कि उन्होंने कई बार टूटते तारे की गरम राख जमीन पर गिरते देखी है...
मैंने भी उस तारे की गर्म राख अपने दिल के आंगन में बरसती हुई देखी है...
जिस तरह और तारों के नाम होते हैं,उसी तरह,जो तारा मैंने टूटता देखा,उसका भी एक नाम था -- सारा शगुफ़्ता.
उस तारे के टूटते समय,आसमान के ज़िहन में जो एक लम्बी और जलती हुई लकीर खींच गई थी,वह लकीर सारा शगुफ़्ता की नज्म थी...
नज्म जमीन पर गिरी, तो खुदा जाने,उसके कितने टुकड़े हवा में खो गए.लेकिन जो राख मैंने हाथ से छूकर देखी थी,उसमे कितने ही जलते हुए अक्षर थे,जो मैंने उठ-उठाकर काग़ज़ों पर रख लिए...
नहीं जानती,खुदा ने इन काग़ज़ों को ऐसा शाप क्यों दिया है कि आप उन पर कितने ही जलते हुए अक्षर रख दे,वह काग़ज़ नहीं जलते...
जिन लोगों के पास अहसास है,जलते हुए अक्षरों को पढते हुए,उनके अहसास सुलगने लगते हैं,पर कोई काग़ज़ नहीं जलता... शायद यह शाप नहीं है...है भी,तो इसे शाप नहीं कहना चाहिए.अगर ऐसा नहीं होता,तो खुदा जाने दुनिया कि कितनी किताबें अपने अक्षरों की आग से जल गई होतीं...