मीना बाज़ार / अमृता प्रीतम
सारा की नज़्म के कुछ लफ्ज़ हवा में खड़े थे--
इ...ज्...ज...त की ब...हु...त कि...स्...में हैं...
और वह लफ़्ज जिस तरफ़ देख रहे थे,वहां एक बहुत लम्बा बाज़ार दिखाई दे रहा था,सदियों तक लम्बा...
वहां तरह-तरह के लोग नज़र आ रहे थे--मर्द भी,औरतें भी...उनके पैरहन से लगता था-कि हर पैरहन की वजह क़तह,कढ़ाई-सिलाई और रंग अलग-अलग सदियों के हैं...
कुछ दुकानों पर नज़र गई,मैंने देखा...तरह-तरह के जेवरात भी बिक रहे थे,सुनहरी ताबूत भी,रेशम के कफ़न भी.और वहां हाथों की मेंहदी ,मांग का सिंदूर,और किनारी वाले घूंघट भी बिक रहे थे... और पूरे बाज़ार में,सारा की नज़्म के टुकड़े हवा की तरह लहर रहे थे--
इज्ज़त की बहुत किस्में हैं-घूंघट,थप्पर और गंदम...
इज्ज़त का सबसे छोटा और बड़ा--हवाला,औरत है...
घर से लेकर फुटपाथ तक हमारा कुछ भी नहीं
इज्ज़त हमारे गुज़ारे कि बात है...
बाज़ार में कभी-कही एक चीख उभरती थी,लेकिन फिर एक हँसी की कब्र में उतर जाती थी...और कभी-कभी हर आवाज़ पर एक सन्नाटा तारी हो जाता था... यही सन्नाटे का आलम था,कि सारा की नज़्म के कितने ही टुकड़े मेरे कानों से टकराने लगे--
इज्ज़त के नेजे पर हमें दागा जाता है...
और इज्ज़त की कनी हमारी जुबान से शुरू होती है...
........... कोई रात को हमारा नमक चख ले
तो एक उम्र हमें बेज़ायक़ा रोटी कहा जाता है... ........... औरत !तुम डर में बच्चे जनती हो
इसीलिए आज तुम्हारी कोई नस्ल नहीं
इसलिए तुम जिस्म के एक बंद से पुकारी जाती हो...
तुम्हारी हैसियत में एक चाल रख दी गई है
एक खूबसूरत चाल
यह झूठी मुस्कुराहट तुम्हारे लबों पर तराश दी गई है
तुम सदियों से नहीं हँसी,तुम सदियों से नहीं रोई
क्या माँ ऐसी होती है कि मक़बरे की सजावट कहलाये
तुम्हारा नमक क्या हुआ!
.........
और तो कभी शहीद नहीं हुई
तुम कौन सा नमाज़ पढ़ रही हो ? ............. तुम्हारे बच्चे आज तुमसे ज़िद नहीं करते
तुमसे ज़िनाह करते हैं
तुम किस कुनबे की माँ हो ?
ज़िनाह--बिल जब्र की?
क़ैद की?
बेटों के बंटे हुए जिस्म की?
और ईंटों में चुनी हुई बेटियों की?
.............
बाज़ार में तेरी बेटियां...
अपने लहू से भूख गूंधती हैं
और अपना ओष्ट खाती हैं... ................
इस मीना बाज़ार से,जिस एक भोली ल्सकी ने एक दिन इज्ज़त के नाम पर शादी का जोड़ा और एक घूंघट खरीदा था,सारा ने बाद में मुझे उस लड़की की दास्तान लिखी...
दास्तान लिखने तक,वह भोली लड़की कुछ बच्चों की माँ बन चुकी थी--
सारा की मां भी...
मां की रोटी पकाने की आवाज़ से मेरे जिस्म में भूख शामिल होती गई...
मैंने धरती पर दाने भूनने की लय से चलना सीखा...
और आग का रंग मेरे लिबास पर रहने लगा...
मैं जमीन को कुछ यूँ देखती कि शायद चवन्नी या इकन्नी पाऊं तो मैं इमली को चटखारे सिखाउं...
बाप की तरंग एक दूसरी औरत निकली,और बाप की तो बारात निकल गई...
हर्ज़ सिर्फ इतना हुआ कि मैं मां को अक्सर परेशानी में पाने लगी. वह पगली समझती थी,पनघट पे रस्सी जल जाती है,हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ.ज़िदगी तो एक रास्ता है,ऐसा रास्ता कि हर मुसाफिर की थकन जानी जाती है... लेकिन शायद एक बात भूल रही हूँ कि उसी पनघट पर मेरी मां और मेरे बाप ने इकट्ठे चलने का अहद किया था.और मेरी मां घरवालों को बताए बगैर चुपके से अपने रांझे के साथ हो चली थी...
और अब रांझा दूसरी शादी कर चुका था...
इसलिए मां कई बार हमें बारी-बारी से देखती...