ज़ख्म / भाग- 10 / जितेंद्र विसारिया
...पौ फट चुकी थीं। खेरे पर फिर भी भयावह सन्नाटा था। क्षत विक्षत लाशों और साँसती जिंदगियों के बीच से किसी घायल मनुष्य की कराहट, आसपास के वातावरण को और भी पीड़ामय बना रहीं थी। सारा मैदान घायल/मृतक-मनुष्य, घोड़ों और अस्त्र-शस्त्रों से अटा पड़ा था। कुछ पहर और कई घड़ियाँ बीत जाने के बाद भी उन लाशों से रक्तश्राव; ग्रीष्म कालीन झरनों में शेष बचे मेघ-जल की भाँति, बूँद-बूँद होकर अभी भी टपक रहा था।
जो खेरे पर घोड़ों के खुरों से निर्मित चहबच्चों में भरने के साथ-साथ आसपास भी बह चला था। जीवित ओर जानदार मनुष्यों की अनुपस्थिति का लाभ लेकर आसपास की नालियों-खेंजड़ियों से निकलकर वहाँ गीदड़ और सियार भी आ लगे थे, जिनकी गाँव के कुत्तों से जड्ड मची हुई थी। ...धीरे-धीरे भुकभुका और हुआ। पूर्व दिशा में अँधेरे की भित्तियों को पार करती सूरज लालिमा ने जब वहाँ प्रकाश होने का अंदेशा पैदा किया, तब खेरे पर अपनी नील-लोहित जीभों से मानव और अश्वों का रक्त एवं मांस भक्षण करते वे सियार-गीदड़, गाँव के कुत्तों के प्रतिरोध के आगे ढीले पड़कर डाँग की ओर लौट चले थे। ...उनकी जगह अब अपने घोसलों से जाग-जागकर पंजों से चोंच खुजलाते गीध-कौवे ने आकर ले ली थी। वे वहाँ पर पड़ी हुई उन लाशों के सिर और छातियों पर बैठकर निर्द्वंद्व भाव से उनके आँख और तालू खोंट-खोंट कर खाने लगे थे! ...जिन सिरों और माथों पर कभी ढिटोने, रोली-चंदन और अक्षत लगते, कुल्हा-टोप (मुस्लिम सामंतों और शासकों द्वारा पहने जाने वाला गुंबदाकार टोप।) पहने जाते, सेहरा-मुड़ासे, केसरिया और बेंजनी पागे बँधी रहती थीं - आज वहाँ सब कुछ शांत और निश्चेष्ट था!!!
लगभग एक तिहाई गढ़ी इस आक्रमण में वीरगति को प्राप्त हुई। 'हतोत्वा वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा मोक्ष्यसे महीम (युद्ध में मरने पर स्वर्ग प्राप्त होता है और जीवित बच जाने पर धरती पर ही मोक्ष मिल जाता है - गीता।) का केवल औरों को उपदेश देने वाले बोधन पुजारी, 'कोऊ नृप होय हमें का हानी' के सहारे मर-मर कर जीने वाले भीरु जन सामान्य और मरघट में भी सत्ता सुख भोगने की लालसा बनाए रखने वाले राय बेहंडल एवं कुँवर के कुछेक साथी ही इस विभीषिका में बच पाए थे। ...अपने आधे से ज्यादा सैनिक गँवाकर हताश अलीकुली खान; हरना उर्फ हारुन के बाप-दादों को कोसता, खाली हाथ मालवा लौट गया था।
सूरज निकलने में अभी कुछ देर और थी। मारे भय के कोई खैरे की ओर देखने का साहस भी नहीं कर रहा था। 'जब अपने पर ही बन आई हो तो सारा संसार छोड़ दो' वाली उक्तियों के सहारे जीने वालों में जब पूरी आश्वस्ति के बाद कुछ मोह-माया जागी; तब वे गाँव बाहर की खोहों झुरमुटों और खाई-भरकों से निकलकर, रोते-कलपते खेरे की ओर बढ़े चले आ रहे थे। उन सब में राय बेहंड और बोधन पुजारी का हीक फाड़कर सभिनय-रुदन ही सबसे उच्च स्वर में था। ...कुँवर जोरावर की मंडली में से बच तो ज्वाली, हुसैनी चूरामन भी गए थे, पर वे पूरी तरह घायल हो चुके थे और जैसे-तैसे गिरते पड़ते अपने मृत राजकुँवर को देखने के लिए चले आ रहे थे।
खेरे पर अब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। एक दूसरे के ऊपर अटी पड़ी लाशों के बीच एक स्थान पर, कुँवरि बेटीबाई का डोला एक करवट पड़ा हुआ था। डोले के ऊपर अपने दोनों हाथ पसारे चित्ताकाश रामबख्स कई नेजों और तलवारों से जख्म खाया अर्धमृतावस्था में पड़ा है। एक बर्छी तो उसकी बाईं पसली को फोड़कर डोले की खिड़की पर पड़े उघार को पार करती बेटीबाई के कोमल हृदय में भी जा समाई है। वहीं दाईं ओर नीचे कई जानी पहचानी और अपरिचित लाशों के बीच, कुँवर जोरावर डोले की बल्ली पकड़ने के प्रयास में दायाँ हाथ बढ़ाए औंधे मुँह पड़े हैं। उनकी पीठ भी गोली और कई बर्छी-भालों से चोट खाई हुई है।
खून से सना उनका गेहुँआ मुख, सफेद चोंगा और चूड़ीदार पायजामा ऐसे लग रहे थे; जैसे कुछ देर पहले कोई फगुआ टेसू के रंग से होली खेलता उन्हें सराबोर करके चला गया है। ...पुजारी और राय बेहंडल के पहुँचने से पूर्व ही वहाँ आ पहुँचे घायल ज्वाली और चूरामन ने; पहले नीचे पड़े कुँवर और फिर रामबख्स को उठाकर वहीं खड़े पीपल की जड़ों के पास साफ-सुथरी जगह में, अपना मुड़ासा बिछाकर लिटा दिया था। फिर ज्वाली की सहायता से अकेले चूरामन ने डोला सीधा करके, उसमें मृत पड़ी बेटीबाई को भी उठाकर कुँवर के पास वहीं लिटा दिया था। ...कुँवरि के तेजोदीप्त मुख मंडल और हृदय पर लगे गहरे घाव को को देखकर ऐसा लग रहा था - जैसे कुँवरि ने अपने अंतिम समय में सब कुछ स्वाह होता देख; स्वयं ही विष-बुझी कटार सीने में भोंककर, जीवन लीला समाप्त कर ली हो?
...अब तक वहाँ बोधन और राय बेहंडल भी आ पहुँचे थे। बोधन चंडी मंदिर का पुजारी होने के साथ-साथ वैद्यक का भी अच्छा ज्ञाता था। उसने वहाँ आकर सबसे पहले जब कुँवर और रामबख्स की नब्ज टटोली; तब वहाँ पर सब कुछ नष्ट हो चुकने के बाद भी कुछ ही शेष बच जाने की आशा में, हतप्रभ आँसू बहाते जन समुदाय की साँसें थम गई थीं। थोड़ी उलट-पलट और देखा-परखी के बाद पुजारी ने अपने त्रिपुंड युक्त मलिन ललाट पर चिंता की आड़ी-तिरछी रेखाओं को कुछ कम करते हुए, बड़े उत्साहपूर्वक आसपास खड़े सभी जनसमुदाय को बताया कि कुँवर जोरावर की अभी साँस चल रही है और रामबख्स की नाड़ी में भी अभी गति शेष है!!! ऐसा सुनते ही वहाँ केवल एक व्यक्ति? को छोड़ कर बाकी सबके म्लान मुख खिल उठे थे। उन्हें अपने पहाड़ से दुख कुछ कम लगे और दौड़-दौड़ कर पुजारी के कहे अनुसार औषधियाँ और उपचार की अन्य सामग्री ला उठे थे। ...वहाँ तब न किसी को किसी से छूने या छाया पड़ जाने का डर था, ना ही छींछा लेने की फुर्सत? सभी गाँववासी अपने इस भावी राजा की परिचर्या में जुट गए थे...।
अब तक दिन चढ़ आया था। घायलों का उपचार और ज्यादा गहरी चोट खाकर बेहोश हुए लोगों को होश में लाने के लिए, आसपास की गढ़ियों और गाँवों से भी खबर पाकर अन्य वैद्य और हकीम अपनी सेवा देने आ गए थे। ...बेटीबाई की मृत देह के पास गढ़ी में शेष रहीं कुछ वृद्धाएँ, रानी और लौंड़ी-बाँदियाँ वहाँ आकर, बड़े ही कहनूना कर-करके रोते हुए, उस दिन को कोसने लगी थीं जिस दिन की कुघरी में इस सारे संकट की जड़-कुँवरि गनेश पैदा हुई थीं।
औषधियों के प्रभाववश कुँवर जोरावर में कुछ चेतना लौट आई थी; वहीं बगल में पड़े रामबख्स की दर्द भरी कराहट सुनकर, अपना सब कुछ गँवाकर भी बच गए हुसैनी और ज्वाली के मुख भी प्रसन्नता से भर उठे थे। ...कुँवर ने सप्रयत्न अचेतन अवस्था में ही बड़े करुणार्द स्वर में बेटीबाई को पुकारते हुए अपनी आँखें खोलीं, तो अपने चारों ओर हाथ बाँधकर नत-ग्रीवा अश्रु बहाते लोगों को देखकर, वह और भी अत्यंत विकल हो उठे थे। परिस्थितियों को सँभालने में पटु और उपदेश देने में कुशल बोधन ने कुँवर को जैसे ही धीरज बँधाना चाहा; तो उन्होंने बड़े उपेक्षापूर्ण तरीके से, दूसरी ओर मूर्छित पड़े रामबख्स की ओर अपनी गर्दन मोड़ ली थी। ...दर्द इतना कि मुट्ठियाँ कसती, माथे पर सलवटें पड़ जाती और आँखें बंद करनी पड़ती। जख्मों से अधिक मात्रा में बह गए रक्त के कारण उनके ओंठ बार-बार सूख जाते, किंतु जल के स्थान पर मुख से बाईजूऽऽ! बाईजूऽ!! की रट लगी हुई थी। ...ठीक यही हालत रामबख्स की हो रही थी। उसको लगातार बेहोशी के दौरे पड़ रहे थे। ज्वाली और हुसैनी उसे कसकर पकड़े थे फिर भी जब उसमें चेतना आती तो वह पागलों की भाँति चिल्ला उठता - 'बाई जूऽऽ तुम चिंता मत करियो? जब तक हम हैं - तब तक तुम्हें कोऊ मुगिल छू नहीं सकऽऽत...!' और फिर बेहोश हो जाता। उसकी यह दशा देखकर सबकी आँखों में बेटीबाई की मृत्यु का कल्पना दृश्य प्रत्यक्ष हो उठता, सब बड़े ही कहनूना कर-करके रो उठते।
कुँवर से उपेक्षा का भाव पाकर दयार्द पुजारी कुँवर के सिरहाने से उठकर रामबख्स के पास आ बैठा था। आँखों में आँसू और रुँधे कंठ बोधन रामबख्स के मुँड़ासे विहीन साँवले माथे पर हाथ फेरता हुआ बोधन, कुछ गूँढ़ से बचन बुदबुदाया - 'आचार्य चाणक्य ने ठीक ई कहा है - जितना उपद्रव हजारों चांडाल मिलकर नहीं कर सकते - उतना एक यवन करता है? (चंडालानं सहस्रे च सूरभिस्तत्त्वदशिर्भिः। एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात परः।। - चाणक्यनीति) ...आज तो एक चांडाल ने अपने शौर्य और साहस से यह भी सिद्ध कर दियो कि वे भी अपनी इस सनातन संस्कृति के रक्षऽऽ!'
- 'पुजारी जूऽऽ..., सब कछू लिख्यो और कह्यो है तुम्हारे ऋषि-मुनि आचार्यों ने -भेद बढ़ाने वाला...? पर कहूँ वे इतनो नहीं लिख सके कि सारी सृष्टि एक 'वैमाता' (लोकविश्वास के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित समस्त सृष्टि की निर्मात्री - संभवतः हड़प्पा संस्कृति की मातृदेवी।) ने रची है, न कोऊ ऊँच-नीच, न पृश्य न अस्पृश्य, सब उसी विधाता की संतान है?' ...इस हादसे में अपनी गर्भवती बीवी से लेकर बूढ़े अम्मा-अब्बा तक को गँवाने के बाद भी पुजारी के वचन सुनकर रामबख्स को पकड़कर बैठे हुसैनी का एकाएक अपराधी की तरह सिर झुका लेना अपनी अधखुली आँखों से देख; कुँवर जोरावर अपनी संपूर्ण ताकत के साथ, बड़े उत्पीड़ित स्वर में पुजारी पर बरस पड़े थे।
कुँवर की इस तीक्ष्ण आवाज में जो एक सुझाव था; उसकी कुछेक पंक्तियाँ अबकी कुछ सचेत हो आए रामबख्स के कानों में भी जा पड़ी थीं। ...अपने सखावत राजकुँवर के मुख से ऐसे प्रिय वचन सुनकर रामबख्स ने बड़े कष्ट से अपना पहलू बदला और बड़े ही मार्मिक ढंग से अपने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए; आँखें खोलकर सिरहाने बैठे पुजारी और उसी की ओर करवट दिए कुँवर से बोला था - 'कुँ-वर-जूऽ... क्या ऐसो अब कोऊ नहीं कर सकत?' सामाजिक समरसता के प्रति इतनी उत्कट जिजीविषा और अपने धर्म के प्रति रामबख्स की इतनी गहन आस्था देख; पुजारी के साथ-साथ वहाँ खड़ा सारा जन समुदाय, हक्का-बक्का रह गया था...। धार्मिक मान्यताओं और रूढ़ियों की कठोर भित्ति के पार बोधन के मन में भी एकाएक कुँवर और रामबख्स के प्रति गहरी श्रद्धा जाग उठी।
संस्कार वश मन में जमे पड़े पाखंड-पंक के पार - 'एकम् सद् विप्रा बहुदा बदंति' (सत्य एक है, विद्वानों ने जिसे बहु प्रकार व्याख्यायित किया है - ऋग्वेद।) का सूत्रवाक्य रूपी कमल, उसके अंतर में एक नवीन रूप धरकर खिल उठा था। ठेठ मानवीय धरातल पर वह कुँवर और रामबख्स के विचारों का कायल हुआ। ...अपने जीवन में प्रथमवार रूढ़ि और परंपराओं के प्रभाव से मुक्त होकर, बड़े ही निस्वार्थ भाव से रामबख्स के सिर पर हाथ फेरते हुए, उसने अपना मत व्यक्त किया था :
- 'बेटा, यहाँ सनातनता के नाए पे जड़ता पैदा हो गई है... परिवर्तनीय क्या नहीं है? परिवर्तन और प्राणियों के उद्धार के काजै ही तौ हम सब अपने प्रभू से नयो औतार धरने की प्रार्थना करत हैं! जा व्यवस्था में जगत का अहित और प्रानियों को कष्ट पहुँचे; बा व्यवस्था में हम जो कछू स्वयं परिवर्तन कर डारें, तो परमात्मा हमें रसातल थोड़ेईं पहुँचाय देंगे?' पुजारी की यह तर्कपूर्ण बातें सुनकर रामबख्स की बाँछें खिल उठी थीं। वह आज अपने ऊपर सदैव तनी रहने वाली उन त्रिपुंड युक्त भवों को ढीला देख, पुजारी के प्रति श्रद्धावनत हो उठा था। उसकी घायल देह अपनी सारी पीड़ा भूल सामाजिक परिवर्तन के लिए, दुगने उत्साह में आ गई थी।
लेकिन एकाएक मन में पैदा हुए उत्साह और घायल शरीर में फैली उत्तेजना से उत्पन्न हुई गहन पीड़ा के चलते, रामबख्स को फिर मूर्छा आ गई थी। धरती पर पड़े-पड़े अपनी अवचेतन अवस्था में ही वह एक स्वप्न देख उठा था - कि 'पुजारी और कुँवर की भाँति गाँव के सारे ठाकुर-ब्राह्मणों ने उसे अपने बराबर का मान लिया है। ...उसका भी अपना एक अच्छा सा घर और बहुत सारे खेत हैं। गढ़ी से जुड़े घाट, तालाब और मंदिरों के द्वार सातों जात के लिए खोल दिए गए हैं। ...गाँव की एक मात्र 'चटसार' (मध्यकालीन हिंदू पाठशालाएँ।) में उसके टोला के मौड़ी-मौड़ा, ठाकुर-ब्राह्मनों के लड़िका-बिटियन के संग हिल-मिलकर पढ़ उठे हैं।
...तन्ना मिसिर ने शाही दरबार में जाकर स्वयं उसकी वंशी की प्रशंसा की है; जिससे प्रभावित होकर बादशाह अकब्बर ने बतौर 'संगतिया' उसे अपने दरबार में रखने लिए; एक शाही हरकारा गाँव भेजा है। किंतु वह उस संदेश को नकार कर छत्री के बाने में सिर पर केसरिया पाग बाँधे, पाँचों हथियार कसे, घोड़े पर सवार; अपने ही जैसे हजारों मनुष्यों के साथ कुँवर के संग एक नए अभियान पर जाने के लिए उद्धत खड़ा हुआ है - अब उसका लक्ष्य दुनी-देश-देशन से राजा-रैयत का भेद मिटाकर, सबको सुखी और समान करना है...!
...उसने देखा उसकी भौजाई रामदेई-हार-हमेल और साड़ी-जरतारी पहनकर सातों जाति की स्त्रियों के साथ गरुवाती, (तुलनीय :- सुखिया पिरजा गढ़ महुबे की, कोहू का लीन दीन ना खाय। पिरजा जन के हर द्वारे पर माँ, दुइ-दुइ कलश सोबरन क्यार।। सातउ जाति कै बहू औ बिटिया ठाँड़ीं भूषन माँ गरुवायँ। हर अंगनइया माँ घन किवड़ा, औ गलियन माँ चुयै अनार।। - आल्हखंड) हाथ में चौमुख दियला, रोली-चंदन केशर और अक्षत से सजा थाल लिए उसका तिलक-आरती कर रही है...!
खेरे की उस कँकड़ीली धरती पर पड़े-पड़े रामबख्स ने आगे देखा कि गाँव में जाति-पाँत का बंधन टूट जाने के कारण, वर्षों से गुणवान होने पर भी निरगुनियाँ कहे जाने का दंश झेलता वृद्ध रमईं; बोधन पुजारी की भाँति सबके सम्मान और श्रद्धा का पात्र बन गया है!! ...फिर से जीवित हो गई कुँवरि गनेश और हरना भी राय बेहंडल की छत्र-छाया में सुखमय दांपत्य जीवन बिता उठे हैं!!! जिसे देख मनुष्य को मनुष्य के रूप में पहचान दिलाने के प्रयास में सदैव असफल और आक्रोशित रहने वाले, उसके साथी 'ज्वाली' की ज्वाला भी शांत हो गई है।'
लेकिन रामबख्स का यह आस्थापूर्ण स्वप्न क्षणिक सिद्ध हुआ। अधिकारों का त्याग और कुसंस्कारों का छूटना इतने शीघ्र संभव न था। बोधन न भी चाहता किंतु राज्यरूपी माया पर अपनी लोलुप दृष्टि गढ़ाए राय बेहंडल रूपी-यक्ष, कुँवर और उनके संगी साथियों का पुनर्जीवन कैसे सह सकता था। उसने जरा सा चित्त चूकते उन औषधियों को विषमय कर दिया, जो कुछ ही देर में अपना असर दिखाने लगी थीं! ...देखते ही देखते रामबख्स और कुँवर जोरावर के जख्मी शरीर नीले पड़ गए। मुँह से फसूकर निकलने लगा। आँखें ऊपर चढ़ गईं। जिसे देखकर पहले से निश्चित रायबेहंडल और पुजारी का अभिनयात्मक रुदन, आरोही क्रम में तेज और तेज होता गया। ...एक स्थान पर बड़ी हाय-दई और लोगों की चीख पुकार के बीच; कुँवर जोरावर और रामबख्स की गर्दनें निढाल होकर बाईं ओर लुढ़क गईं, जिधर ज्वाली और हुसैनी खड़े थे!!!
उसके बाद तो जैसा कि हमारे देश में होता आया है कि किसी महान व्यक्ति के स्वप्न, आदर्श, और संघर्षों से सीख लेकर आम जनता कुछ करे धरे, उसके पहले ही धूर्त जनों द्वारा उसकी पूजा प्रारंभ करवा दी जाती है? ...सो यही कुँवरि बेटीबाई, कुँवर जोरावर और रामबख्स के साथ हुआ। कुँवरि बेटीबाई के आत्मबलिदान और कुँवर जोरावर एवं रामबख्स के पुनर्जीवित होने की घटना को चमत्कार बताकर उस हत्यारे रायबेहंडल ने, गगनभेदी जय-जयकार के साथ उन्हें समाधिस्थ कर वहीं पर उनका थान बँधवा, पूजा आरंभ करवा दी थी। इस तरह मनुष्यता की लड़ाई में देवता बनाकर मार दिए गए वे तीनों पुण्यात्मा; गुहीसर हाईस्कूल के बगल और पीछे स्थापित तीन कलई पुते सफेद चबूतरों पर, तब से लेकर आज तक अपने दैवीय रूप में पुजते चले आ रहे हैं...!
(खेरा (खेड़ा): गाँव या गाँव का ऊपरी भाग जिस पर गाँव की खेह (राख) मिट्टी पड़ी होती है।