ज़ख्म / भाग- 9 / जितेंद्र विसारिया
एक गाँव में 'जुगड़ू' नाम कौ एक लरिका रहता था। बाप-महतारी बारे में ही सरग सिधार गए थे। जब छोटा था तब अड़ोस-पड़ोस की माय-बहनियों के यहाँ से रोटी माँग-जाँच कर खा लेता और वहीं सो जाता। जब कुछ सयाना हुआ, तो गाँव भर के ढोर-डाँगर चराकर अपना पेट भरने लगा। जुगड़ू बड़ा ही सूधा मोड़ा, कभी किसी को बिना बात न सताता। किसी की माय-बहन को आँख उठाकर नहीं देखता था। बखत-मौका गाँव के हर जने के काम आने वाले जुगड़ू से, सारा गाँव प्रसन्न था।
जुगड़ू अब जवान हो गया था। गाँव भर के लिए कभी बुरा न चीतने वाले वाले जुगड़ू के लिए, गाँव वाले भी उसकी भलाई, उसकी घर-गिरस्ती बसाने के बारे में सोचने लगे थे। पर जनम से अनाथ जुगड़ू - जिसके हार में हरैया नहीं गाँव में मड़ैया नहीं, भला उससे कोई बाप अपनी बेटी ब्याहने के लिए कैसे राजी होता। दूसरे हर कोई बेटी गौरा-पार्वती तो नहीं होती, जो अपने मैया-बाप से लड़-झगड़ ऐसे शिव-शंकर से ब्याह रचाकर मसानवासी हो जाती।
जुगड़ू का ब्याह टलता रहा। तभी बहुत दिनन बाद गाँव आई उसकी बुआ ने उसे बताया - 'जुगड़ू का ब्याह तो उसके मैया-बाप डला-पला में ही कंचनपुर के गाँव के धनपाल सींग की बिटिया 'रतनिया' से करके मरे हैं। ...जुगड़ू को बस वहाँ अपना 'गौना' कराने जाना है?' सारे गाँव में उछाह। जुगड़ू खुद होंसा-फूला फिरे कि - अब उसके आँगन में भी होरी कैसी झाँक, दिवाली कैसा दिया, घी जैसा लोंदा और बाँस जैसा पीका नोनी दुल्हैया पैंजना छनकाती डोलेगी! और वह भी उसकी मतवारी छवि पर बलि-बलि जाएगा!!
जुगड़ू बगैर कलेवा किए भिनसारे ही घर से ससुराल निकल पड़ता है। एक वन लाँघा, दो वन लाँघा, तीसरे वन के बाद जुगड़ू कंचनपुर पहुँच जाता है। गाँव बाहर कुएँ पर पानी भर रही पनिहारिनों से जुगड़ू ने अपने ससुर का घर पूछा, तो उन्होंने बताया -गाँव में घुसते ही जो ऊँची सी हवेली। हाथी जुझाऊ दरवज्जा। ऊँची बैठक। बैठक पर बड़ी-बड़ी मूँछे, लहरियादार साफा और हुक्का गुड़गुड़ाते जो भलेमानस मिलें, वही धनपाल सिंह हैं। जुगड़ू को पहली बार तो पनिहारिनों की बात पर भरोसा नहीं बैठा। चुहल-परिहास समझा। वह आगे बढ़ा और गाँव के गैलहारों से पूछा, तो उनका भी वही जबाव था। इस तरह जुगड़ू गाँव में घुसा और उसने पनिहारिनों के कहे को ही सच पाया, तो वह वहाँ अपना सच छुपा बैठा। अपने ससुर की भलमुँसई देख, उन पर अपनी कंगाली जाहिर न कर सका। ...अब यह बखत की मार कहो या भाग्य का लेखा कि जो जुगड़ू अपनी ससुराल गौना कराने आया था, वह अपने ससुर का 'चौंपिया' बन जाता है। पसू तो उसे चराने ही थे चाहे यहाँ चराए या अपने गाँव में करम का लिखा कौन मेंट सकता है।
कंचनपुर में उसको एक सहूलियत अवश्य थी कि वहाँ वह अपने राजन जैसे ससुर की कुँवरि जैसी अपनी घरवाली को नगीच से नहीं तो दूर से तो निहारता रहेगा। ...बखत-मौका पड़ने पर उससे बोल-बतिया तो सकेगा, गाँव में ऐसा सुख कहाँ? जुगड़ू अपने ससुर के चौंपे ढीलकर जब डाँग के लिए बंशी बजाता निकलता तो अपनी घरवाली की अटारी के नीचे 'सदावृक्ष-सांरगा' किस्से का यह खास दोहा दोहराता - 'सारंगा तेरे राज में मैंने ढोई गारा-ईंट...!'
समय बीता, समय की चाल बदली। जिसकी जहाँ सिरस्टा-गाँठ बँधी है, वह उससे जुड़ता ही है। जुगड़ू, जिससे उसकी घरवाली के सात जनम के नाते जुड़े हों, भला वह कैसे न बँधती जुगड़ू के नेह में। नेह हुआ तो मन की गाँठें खुल गईं। मन की गाँठें खुलीं तो एक दूसरे का भेद उजागर हो गया। जवान रतना ने जुगड़ू का भेद छुपाते हुए घर में जब अपने गौने की बात मैया से और मैया ने बाप से उन्सारी... तो हाय रे! जमाने, माया के मद में डूबे बाप ने महतारी को दो टूक जबाव दे दिया - 'बे कंगला तो गाँव में आई बाढ़ में कब के मर-खप गए, हम अपनी बिटिया रतना कौ ब्याह अब अमीर और ऊँचे खानदान में करेंगे? कल बाके दिखउआ आ रहे हैं...।' बाप के आगे महतारी-बिटिया सन्न।
दूसरे दिन जुगड़ू की घरवाली रतना के दिखउआ आते हैं। जुगड़ू घर के नौकर की हैसियत से मान-मेहमानों को हुक्का भर-भरकर देता है। उनकी खैर-खुशामद करता है। प्रसन्न मेहमान जुगड़ू के उस घर का सच्चा 'जमाई' होने से अनजान, बार-बार उसे जुगुड़ुआ-जुगुड़ुआ कहकर टेरते हैं। अब तक खुद के होते हुए अपनी घरवाली का दूसरी जगह रिस्ता होने की टीस दबाए रहा जुगड़ू, अंततः यह अपमान सहन नहीं कर पाता और एक दोहे में अपनी पीड़ा व्यक्त करता है -
'जुगड़ू-जुगड़ू जिन कहो, मेरा रामरतन है नाँव, दो रोटी के कारनै, मेरो धरो जुगुड़ुआ नाँव जी...!'
मेहमानों को उसकी बात का बुरा नहीं लगता और वह उसे 'रामरतन' कहकर पुकारने लगते हैं। लेकिन रात में जब वह मेहमानों के पास उनकी टहल के लिए सोता है तो मेहमान जुगड़ू से किस्सा सुनाने की फरमाइस करते हैं। अपमान की आग में धधकता जुगड़ू अपनी आपबीती जगबीती बताकर किस्से के रूप सुनाता है। एक दोहे के माध्यम से उसमें वह अपना आक्रोश भी व्यक्त करता है -
'आए धरूका मद पिए और ब्याहे ओढ़ें टाट जी...!'
जुगड़ू की आपबीती सुनकर मेहमानों के कान खड़े हो जाते है। उन्हें पूरा बहम होता है कि वह जिस लड़की को ब्याह के लिए देखने आए हैं, वह पहले से ही ब्याही-ठ्यायी है। वे रातो ही रात वहाँ से डेरा कूँच कर जाते हैं। सुबह मेहमानों के एकाएक मसकइयाँ घर से चले जाने का सारा संदेह, जुगड़ू पर ही जाता है। उसने ही मेहमानों से ऐसी कोई बात कह दी, जिसके चलते वे आधी रात को ही अपने घर भाग गए हैं। वैसे भी सरते-उसरते अपनी 'रतना' से मीठी-मीठी बातें करत देख्यो है? जरूर ये वई 'जुगुड़ुआ' की चाल है...।'
भोर होते ही जुगड़ू तो गैया-भैंसियों की दुहाऊ-पानी के बाद उन्हें ढील कर वंशी बजाता बेहड़ निकल जाता है, तब उसके पीछे क्रोध में उफनता, करिया नाग की तरह भन्नाता जुगड़ू का ससुर धनपाल अपनी बेटी रतना से घर-भीतर जाकर पूछता है :
हरखा ने उसे बताया था कि वीरासिन अइया गाँव में किस्सा सुननहारियों को यह दोहा रो-रोकर सुनाती हैं -
'कहाँ धरी बेटी पानहीं और कहाँ टँगे हथियार..?'
'पौरि धरी बाबुल पानहीं और खुँटी टँगी तरवारि...' पिता के पूछने पर बेटी रतना अपने धड़कते करेजे और काँपते हाथों अपने बाबुल को तलवार और जूतियाँ तो गहा देती है, पर उसे उसी क्षण अपने बाबुल की नियत पर संदेह हो जाता है। वह सकुचाकर पिता से सवाल करती है :
'ऐसो बैरी कौन है, बड़े भोर बड़ारन जाओ?'
बाप भी अपनी बेटी के सामने भेद न खोलकर अपनी बेटी से आँखें चुराता हुआ बात बनता है :
'हिरनी लपकी खेत में, ताहें बड़े भोर बिड़ारन जाएँ।'
पिता आँखिन में रकत भरे डाँग की गैल नगिन तलवार लिए चला जाता है। बेटी का संदेह दुगना होता है। वह लोगों से कहने-सुनने के लिए हाथ में कलेवा की पुटरिया लिए, मन ही मन थर-थर काँपती आँखों में आँसू भरे, डाँग के लिए चल देती है। बेटी दिन भर डाँग में जुगड़ू को ढ़ूँढ़ती फिरती है। भोर से साँझ होने को आती है। चरवाहे अपने गाय-गोरू लेकर घर को लोटने लगे हैं, पर उसके 'जुगड़ू' का कहीं अता-पता नहीं। हार कर वह डाँग से लौटने वाले चौपियों से रो-रोकर पूछती है :
'मेरे गाँव के चौपिया तोसे भैया कहूँ कै वीर! मेरे बाबुल कौ चौंपिया सो रह गओ कितनी दूर जीऽ..?'
चौंपियाँ बताते हैं :
'लोथ तला की पार पे और शीश करीलन डार जीऽ..!'
बेटी रतना चौंपियों के बताई गैल पर आगे बढ़ती है। ताल के किनारे जाकर वह अपने प्यारे पति को अपने सगे बाबुल द्वारा वध किया देख, पछाड़ खाकर गिर पड़ती है। जब होश आता है तब भी उसके आसपास कोई नहीं होता। ससुरे जाकर करती क्या और अब वहाँ उसका बचा ही कौन था? माया के मद में डूबा हत्यारा बाप जिसने उसे पटा की राँड़ कर दिया, उसके घर अब 'रतना' का लौटना कैसा...। उसने अपने मरे भतार जुगड़ू से नेह की डोर को नीमन करके कसा और उठ बैठी। करील की झाड़ियों के ऊपर से उसने जुगड़ू का रक्तरंजित सिर उठाया और ताल की पार पर गीध-कौओं द्वारा नोचे-खसोटे जा रहे धड़ से एकमिल कर दिया। वहीं टेंटियों की झाड़ी से अलग छिटकी पड़ी जुगड़ू की बंशी को रतना ने औचक ही निहारा तो दौड़कर उसे हिए से लगा लिया; जिसे लेकर वह खूब हिलक-हिलक कर रोई। आज वहाँ दोनों ही मौन थे, वंशी और उसे बजाने वाला!!!
कुछ क्षणों बाद रतना उठ खड़ी हुई 'बड़वानल' की नाईं, जो बीच समुंदर में लगे रहने पर भी उसके बुझाए नहीं बुझती! लगाए नहीं लगती!! ...वह आसपास से सूखी लकड़ियाँ चुनने लगती है। हरखा कहती है कि किस्सा कहते हुए वीरासिन बुआ अपने आँसुओं को पोंछते हुए हूँका देने वाली जनीमाँसों को कुछ रुककर समझाती थीं - अब रतना जुगड़ू के संग जरें-बरें चाहत है। ...यासों नहीं कि वह काऊ परंपरा की लीक पीट रही है, या जासों कि उसे अपने शील-सतीत्व पे एहंकार है... यासो भी नहीं कि इससे उसका परलोक सुधर जाऐगा; बल्कि जासों कि बाने बा भोले और ज्ञानी जुगड़़ू से प्रीति करी थी! उसे अपना हिरदे हारा था!! उसका वह सैंया भी है यह तो बाद की बातें हैं!!!'
संसार में जो नेखी करता है उसके साथ दुनिया भले ही कुनेखी करे, पर परमपिता-परमात्मा उसके संग न्याय अवश्य करता है। अब ईसुर की माया देखो, जिस जगह बेटी रतना रोते हुए जुगड़ू के संग सती होने के लिए चिता सजा रही थी। होन काल की बात उते से हीं शंकर-पारबती नांदिया पर सवार होकर देश की चिंता के लिए निकले। गौरा-पार्वती को वहाँ किसी स्त्री का करुन-रुदन सुनाई दिया। अंतरध्यानी भोला छिन भर में सब जान गए। उन्हें परिहास सूझा और तुरंतई नांदिया दूसरी गैल के लिए मोड़ दिया। गौरा ने वैसे ही झपटकर शिवजी के हाथ से नंदी की डोर खेंच ली ओर बा ओर चलने को कहा, जिस ओर रतना विलाप कर रही थी।
अब यह भोलनाथ की चुहल थी या उनके सनातनी पुरख मन का अहंकार कि वे गौरा पर कुपित हो गए - 'मैं इसीलिए तो स्त्री जात के साथ नहीं चलता, जे सदा ही पुरुख के विपरीत दिशा में चलत है...? लेकिन कहते हैं कि संसार में तीन ही हठ होते हैं-'राज हठ', 'बाल हठ' और 'तिरिया हट'। भला भोलेनाथजी कैसे न मानते अपनी गौरा की हठ! सारे कैलास परवत की शोभा तो उन्ही से है!! तब लीलाधारी शिव मन ही मन मंद मुस्कात और मुख से बनावटी क्रोध झलकाते बोले - 'जाओ चली जाओ तुम्हारी छिनगुनियाँ में अमरित है, बाये चीर कै उस नारी के मृत्त भतार के मुख में चुआ देना -वह जीवित हो उठेगा! ...तुम्हे तो, जगत में बैयरवानियों के दुख के सिवा कोई और दुख सूझता ही नहीं...?' मानिनी गौरा उससे पहले ही नांदिया से कूद गईं और कुछ दूर जाकर उन्होंने अस्सी बरस की डुकरिया का रूप धरा, जिसकी देह कमान, झुर्रियों से भरा मुख, सन से सफेद बार, एक हाथ करिहा पर और एक से लकुटिया टेकतीं रतना के पास जा पहुँचीं। जान बूझकर गौरा ने अपनी कँपकँपाती अवाज में कहा - बेऽटी तोहि काऽ दुख है? तैं काऽहे रोय रही...!'
- 'मैया! मेरे बाबुल ने मेरो मानुस मार डारो...?'
- 'ऐ द-इ-या! हत्यारे ने अपनी बेटी के घर में ही लूकटा लगाय दओ, नासमिटे कैं कीरा परेंगे...।' अब देवी दुरगा की बात पाथर की लकीर। रतना के बाप का सारा राजपाठ धूरि में मिल जाता है। वह कोढ़ी हो गया और द्वार-द्वार पर भीख माँग उठता है। ..इधर जुगड़ू की जीवन जेवड़िया फिर लंबी हो जाती है। वह गौरा-पार्वती की किरपा से जी उठता है।
वृद्धा के भेख में आई भमानी मैया, जुगड़ू और रतना को सुखी और सुभागी होने का वरदान देकर अंतरध्यान हो जाती हैं। वे राजा भए वे रानी।
-'आऽऽऽह...!' खून से लथपथ हरना ने बेहोशी की हालत में ही असहनीय दर्द और कराहट के बीच पहलू बदला। उसके मुखमंडल पर कुँवरि गनेश के अंत की स्मृति उभरने से उठी मर्मान्तक पीड़ा के बीच, एकाएक नींद में मुस्कराने वाली हँसी उसके चेहरे पर तारी हो गई थी। जैसे वह कहना चाह रहा हो - 'वाह! वीरासिन अइया... खूब रचा है अमीर-गरीब का किस्सा, जिसमें न जाति का दुख है न दुख सहने वाले की पीर...। शंकर-पार्वती और उनकी देश की चिंता की बातें तो किस्सा-कहानियों में ही भली लगती हैं, साँची दुनिया में तो न कोई कोढ़ी होता है न किसी का राज-पाठ छिनता है; कोई गौरा-पारबती भी नहीं आतीं किसी जुगड़ू और रतना को बचाने... सब मन भरमाने वाली बातें हैं।'
- 'मा-र दो साले काफिरों कोऽ...!'
- 'ओऽ! मे-रे वि-र-नाऽऽऽ।' अचानक खैरे पर मचे घमासान युद्ध के बीच से उठी एक हृदयविदारक चीख, हारुन के कान के सात पर्दे तोड़ती उसके सारे वजूद को हिला देती है। ...लगभग डूबती साँसें और अस्त होती चेतना शक्ति के बीच, उसे ऐसा लगा कि यह चीख उसके किसी अपने की है! वह आवाज कुँवरि गनेश की थी या बेटीबाई की इसका उसे कुछ भी भान नहीं हुआ, न ही उसे यह समझ पड़ा कि मारने वालों में वह राय बेहंडल है या अली कुली खान; जिसके साथ वह अपने सीने में वर्षो से दबी पड़ी रही बदले की आग बुझाने यहाँ तक आया था। उसके लगभग धड़कना बंद कर चुके सीने में एक जुंबिश हुई। उसने जोर से कराहते हुए बाएँ हाथ से पेट के जख्म को दबाते हुए पलटी खाकर अपना सिर एवं दायाँ हाथ किसी को आवाज देने की मुद्रा में ऊपर उठाया, जमीन से कुछ अंगुल ऊपर उचका और फिर वहीं कटी डगाल सा ढह गया था। शांत। निश्चेष्ट।