ज़ख्म / भाग- 8 / जितेंद्र विसारिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खाड़ें का गहरा घाव देकर रामबख्स हारुन को लगभग अदेखा करता खार के ऊपर चढ़ गया था, लेकिन हारुन उर्फ हरना के प्राण अभी नहीं निकले थे। खार की कँकड़ीली धरती पर बहते रक्त से लथपथ सीने के घाव को दोनों हाथों से पकड़े मरणासन्न हारुन, अपने अंतिम समय में डूबती साँसों के बीच मस्तिष्क के दर्पण पर दामिनी की भाँति आकर कौंधती, जीवन की प्रारंभिक स्मृतियों में खो गया था।


1.

- 'तुम, सुमेरा चाची और बिरखे कक्का के मोड़ा हो...?'

- 'हुँ...!'

- 'बे अबै अटारी पे भौजी हीरा कुँवरि कौ पेट देख रही हैं, संग में और हू जनीमान्सें हैं...।' लगभग उसी के वयः की एक लड़की धानी घघरिया पर पीली चुनरिया ओढ़े एकाएक उसके पास आ खड़ी हुई थी। उसे ऐसा लगा जैसे वसंत में कोई पीले फूलों से लदा सरसों का पौधा, खेत से उखड़कर साक्षात उसके सामने प्रकट हो गया है। वह अपनी भूख-प्यास भूलकर उसका गोरा मुखड़ा, लंबी नाक और उसमें हीरा जढ़ी सोने की कील, बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें, माथे पर रोली की बिंदी और बड़ी सफाई से बालों में पटिया पारी हुईं दो छोटी-छोटी चोटियाँ और उनमें गुथे कनेर के पीले फूल, देखता ही रह गया था।

- 'ले..., चाची ने तोहि गुड़धानी पठवाई है - खाय ले...!'

- 'पर मोहि तो प्यास लगी है...!' उसने लगभग रुँआसा सा होते हुए कहा था। उसकी अम्मा सुमेरा गाँव की प्रसिद्ध दाई थी और इसीलिए दक्खिन टोला से उसका आना जाना गाँव और गढ़ी की हर छोटी-बड़ी जाति के घर में लगा ही रहता था। माँ अक्सर भीतर चली जाती थी और वह घरों की डयौढ़ियों के बाहर खेलने वाले मोड़ा-मोड़ियों और आवारा कुत्ते-पिल्लियों के साथ खेलता-बतियाता रहता था। आज वह हट पकड़ कर गढ़ी चला आया था। जहाँ उसे बैठे-बैठे बहुत देर हो गई थी, मारे प्यास के उसका गला सूख जाता और जीभ तालू से चिपक रही थी।

- 'पानी हू लाई हों, ले पियो...।' लड़की ने हरना को लोटा गहा दिया और फिर उसका साँवला गोल मुख, सुआ-सारो नाक, कजरारी आँखें। माथे पर काजल का ढिटौना और उस पर बलखाती घुँघराली अलकों को वह भी देखती ही रह गई थी। ...फिर जाने क्या कुछ सोचते एकाएक उसे याद आया और झपट कर हरना को दिया लोटा हाथ से छीन लिया था - 'मंगलिया काकी (बाँदी) ने कही थी; पानी दूर ओक से पिवाइयो - छोत लग जेहे...!' लड़की ने बड़े गौर से लोटे को उलट-पलट कर देखा, तो अनजाने ही सारा पानी धरती पर फैल गया था। उसे आश्चर्य हुआ - 'पर... जामें तो कहूँ छोत लगी ई नइया? ले-पानी पियो...!' लड़की ने अपनी हथेली पर लोटा रखकर जैसे ही हरना की ओर बढ़ाया, तो वह बड़े ही निरीह भाव से लड़की की ओर देखता रह गया था। ...अगले ही पल लड़की को अपनी भूल का अहसास हुआ - 'ओ! मैया, हम अभिहाल आए...।' वह खाली लोटा लेकर दौड़ती हुई गढ़ी में चली गई थी।


2.

- 'होरी है भई-होरी है...?'

- 'नहीं कुँवरि जू, मोपे रंग मत डारो; बेहंडल भैया ने देखि लओ तौ मेरे हाड़ भुस हो जाएँगे...!' गढ़ी के भीतर अपनी भौजाइयों पर होली खेलती कुँवरि गनेश ने गढ़ी की डयौढ़ी पर अन्य बेगारियों की तरह लेकिन सबसे पीछे अपना 'सिरोपाव' लेने आए अकेले खड़े हरना पर, अपनी पिचकारी का केसरिया रंग उड़ेल दिया था।

- 'काहे को हाड़ भुस कर देंगे? होरी तो सब मिल-जुल कैं खेलत हैं, जामें ऊँच-नीच कैसी? हमने अबै अटारी पे चढ़ि कैं देखो तो कि अथायी पे गढ़े लंबे बाँस पे बँधी गुर की भेली उतारवें के काजैं, भैया खुद बापे चढ़ि रए थे और तिहारे टोला की जनीमाँसें उनमें लट्ठ घाल रहीं थीं...।'

- 'ऐसो बेई कर सकत हैं हमारी माई-भौजाइयन के संगैं, हम नईं...!' उसने एक गहरी उसाँस भरते हुए कुछ खीजकर कहा था।

- 'तौ तुम खेल ले हमाय संगैं, बराबर हो जाएँगे - ले...!' कुँवरि ने इधर उधर किसी को न देख अपनी नीली फरिया की झोली से अबीर की मूठ भरकर निकाली और दूसरे हाथ से हरना की बाँह पकड़ते हुए गुलाल, जबरदस्ती उसकी अँजुरी में उड़ेल दिया था।


3.

- 'हः हः कौऽऽ है...?' गढ़ी के पिछवाड़ें घुड़साल के बगल खरिक में गाय बेलों के बीच अपनी टूटी मचिया पर पड़े हरना ने गहरी ओंघ में लेटे किसी गाय या बछिया के छूटकर उससे अरसा करने के ख्याल में पड़े-पड़े जैसे ही उनींदी आँखों उसे ललकारने चला, वैसे ही उसके ऊपर झुकी एक काली परछाईं ने हौले से उसके मुँह पर हाथ रख दिया था - 'मैंऽ हों कुँवरि गनेश...!'

- 'इत्ती रात कौं?' वह भड़भड़ाकर उठ बैठा था। क्वार की शीतल उजिरिया रात में भी उसकी देह से पसीने छूट गए। अपनी सखियों के संग गढ़ी के द्वार पर 'तरैयाँ' देने आईं कुँवरि सखियों का साथ छोड़कर अँधेरी रात, चुपके से खरिक में उससे मिलने चली आईं थीं। अपने मैया-बाबा के तीर्थ-यात्रा के समय नदी में नाव पलटने से हुई असमय मृत्यु बाद हरना, गढ़ी के प्रमुख हलवाहों में शामिल कर लिया गया था। अनाथ होने के कारण उसकी रातें भी अक्सर गढ़ी में हर घड़ी बने रहने वाले नाई, कहार, ग्वाले लठैत और साईसों के बीच ही गुजरती थीं; एक तरह से वह गढ़ी का बँधुआ बन गया था। उसका साँवला गठीला बदन, मासूम चेहरा और भोली दृष्टि कुँवरि को बचपन से ही अपनी ओर आकर्षित करती आई थी। लेकिन गढ़ी की तमाम बंदिशें और हरना के नीच जाति का होने से, अक्सर वह उससे बोलने से भी महरूम रहीं थीं। यह उसी लगन का परिणाम था कि वह इस उत्सव का लाभ उठाकर चुपके से हरना से मिलने खरिक में चली आईं थीं।

हरना कुँवरि का मंतव्य भाँपकर बड़ी गरीबी और अधीनता के साथ कुँवरि गनेश से हाथ जोड़कर बोला था - '...तुम लौटि जाओ कुँवरि, काहे कौं मेरी ख्वारी करवाए चाहती हों? ...हमने जनम तें जा गढ़ी कौ नोन खाओ है, मोसे छल नहीं होगा...!'

- 'काहू से नेह लगाना छल कैसे हो गया रे-हरना! मैंने तोहि मन से चाहा है!! मेरी प्रीति कौं यों न निरदरो!!!' कुँवरि का गला भर्रा गया और उसकी आँख की तलैयाँ भर आईं थीं। यह देखकर कुछ देर तक अपनी बात पर यों ही दृढ़ और भय से थर-थर काँपता हरना, एकदम सचेत हो गया था। उसने खटिया के पँयताने जमीन की ओर पाँव लटकाकर पाटी पर हाथ रखे कुँवरि के कोमल हाथ पर अपना हाथ रखकर फुसफुसाया था - 'नहीं कुँवरि हम तुम्हारी प्रीति कौं निरदर नईं रहे! पर मोसे प्रीति करके तुम्हें क्या मिलेगौ? ...काहू राजकुँअर से नेह लगाओ जो तुम्हे सातौ सुख देगा, तिहारी सब मंशा पूरी करेगो; मेरे संग फजीहत के सिवाय कछु नईं मिलोगो तुम्हें - तुम लौट जाओ...! (समतुल्य : तहाँ जाहु जहाँ पाट पटंबर, अगर चंदन घसि लीना। आय हमारै कहा करौगी, हम तो जाति कमीना।। - कबीर ग्रंथावली पदं सं. 270।)'

अपनी बात पूरी करते-करते हरना का गला रुँध गया और कुँवरि के सामने उसके हाथ जुड़ गए थे।

कुँवरि गनेश सन्न रह गई। इस बार वह प्रेम-शर-बद्ध घायल हरिणी नहीं, प्यार में ठुकराई घयाल क्रुद्ध सिंहनी बन बैठी थी। एकाएक उसका राजसी अहंकार जाग्रत हो आया और तड़िता की भाँति तड़फती कुँवरि मचिया से उठ खड़ी हुई थी - 'आखिर तुम ढेढ़ के ढेढ़ ई रहेऽऽ... वह हरना कोऊ और था जो गाँव में 'जजिया' वसूलन आने वाले तुरकियों कौं अपनी 'बर्छी' के बल पे अकेले ईं तदेर देता था... हरे-हरे बाँसों की मार खाकर भी गाँव के व्यभिचारी ठाकुर, ब्राह्मन और गूजरन सैं, अपनी बिरादरी की बयैरों के शील की रच्छा करता था - तूँ वह नहीं है-रेऽ...!' कुँवरि अपनी नीली फरिया का पल्लू मुँह में ठूँसकर टसका रोती, तीर की भाँति 'सार' से निकलकर, अँधेरे-अँधेरे गढ़ी में चली गई थी। अचानक खरिक में हुई अवाजाही और बातचीत सुनकर उस बथान में बँधे बरदों के रँभाने और अँड़ुआ बैलों के डींक उठने के बीच; कुँवरि के जाने के बाद मचिया पर स्तब्ध बैठे रह गए हरना की तड़फ, उसके आँसू और आहें, उस रात उसके सिवाय किसी ने नहीं देखी थीं..!

4.

- 'मन कौ हू तो कोऊ धरम होत है - हरना!'

गढ़ी आज अपने लोगों से शून्य थी। कुछ एक वृद्ध-बालकों को छोड़कर सब के सब, कुँवर रायबेहंडल की बरात में गए हुए थे। उस रात गढ़ी की सुरक्षा का भार उसके अपने विश्वस्त सैनिक, पहरेदार, हलवाहे और लठैतों पर था। अटारी पर गढ़ी, गाँव और बड़ी बाखर की जनी-मानुसें; ढोलक की थाप, झींका और काँसी से संयोजित उच्च स्वरों में 'खोइया' करने में मगन थीं - 'हलवइया से नैन मिलाय बेटी वामन की...!' हरना भी आज उसी सुरक्षा-व्यवस्था में शामिल था। उसे रनिवास के पीछे कुँवरि गनेश की अटारी के नीचे पहरा देने का अवसर मिला था।

कुँवरि गनेश जिस दिन से अपने बड़े भाई महाराज हरीसिंह पवैया के साथ, अपने ससुरे लहार गढ़ से सदैव के लिए गुहीसर आईं हैं, हरना तब से ही उनकी एक झलक पाने को व्याकुल है। ब्याह के लाल जोड़े में मोतियों भरी माँग और हरी-हरी चुरियाँ पहने जिस कुँवरि को उसने डोले में चढ़ते देखा था, और जिसके वियोग में दूर कदम के पेड़ की आड़ में रोते हुए बहुत दूर तक कुँवरि के डोले को जाते हुए देखता रहा था! क्या आज वह उसके वैधव्य रूप को निहार सकेगा? उसका मन हाहाकार कर उठा था। ...पहरा देते हुए ही उसने फिर अपने मन को समझाया कि यह समय रोने का नहीं, किसी को धीरज बँधाने का है; तब तो उसने अपना मन कड़ा किया और अपने एक साथी हरचन्ना को कुँवरि की अटारी के पीछे के पहरे का दायित्व सौंप, स्वयं पौर का पहरा देने द्वार पर आ डटा था।

...दिन-भर लपट चलने के कारण धूल के गुबारों से नीला आकाश और उसमें विजड़ित धवल जुनैया का रंग, पांडुर हो रहा था। ठीक वैसी ही देहयष्टि और धौरी साड़ी में लिपटी कुँवरि गनेश भी मारे धमका के अटारी से निकलकर अचानक छज्जे पर आ खड़ी हुई थीं। अटारी के नीचे पौरिया के रूप में जब उन्होंने धारिया लिए खड़े हरना को पहचाना, तो अनचाहे ही अटारी से उतरकर जोही-मोही सीं पौर के द्वार पर आकर उसके कोरे से लगकर खड़ी हो गई थीं।

गढ़ी में अपने भाई के विवाह के इस उत्सव और राग-रंग भरे क्षणों से दूर, अपने वैधव्य का श्राप झेलती कुँवरि को देख; हरना का मन एक बार फिर हाहाकार कर उठा। कलेजे को सालती एक ऐसी हूँक उसके मन से ऐसी उठी कि वह फिर अपने स्थान पर खड़ा न रह सका। अपने हाथ में लिया 'धारिया' उसने धरती पर डाला और कुँवरि से कुछ ही दूरी बनाता वहीं भीत के सहारे नार नवाकर बैठ गया था। हरना को यों कटे वृक्ष की तरह भरभराकर अपने पास गिरता/बैठता देख कुँवरि भी उसके पास वहीं किवाड़ से टिककर बैठ गईं थीं। कुछ देर तक दोनों ही एक दूसरे में खोए मौन बैठे रहे, किसी के मुख से कोई बक्कुर नहीं फूटा। आकाश में शुक्र तारा उदित हो गया था। ...बहुत देर तक मौन रहकर मन ही मन रो लेने के बाद अपनी हथेली की गद्दियों से आँसू पोंछने और सूनी निगाह से एक बार आकाश निहारने के बाद, अपनी गर्दन नीचे झुकाए-झुकाए ही हरना ने कुँवरि गनेश से प्रश्न किया था - 'कुँवरि जू, तुम सती काहे नईं भईं? एक रजपूतिन कौ धरम तो जई कहत है...!' तब कुँवरि ने बगैर भावुक हुए एक गहरी उसाँस भरते हरना से 'वह' प्रतिप्रश्न कर डाला था - 'मन कौ हू तो कोई धरम होत है - हरना...?'

हरना अवाक् रह गया, उसे कुँवरि के मुख से ऐसे उत्तर की कतई आशा नहीं थी। पति के मृत्योपरांत भी लड़की इतनी दबंग बनकर रह सकती है, यह उसने सपने में भी नहीं सोचा था। ...वह कुछ देर मौन रहा, फिर धरती पर अनायास ही अपने धारिया की धार से खेंकें करते हुए; मन में कुछ और साहस लेकर कुँवरि को प्रबोधा था :

- 'मन तौ बौरा होत है कुँवरि...! मन के फेर में तौ हजारन-हजार रिसी-मुनी और शूर-तपसी रसातल कौं चले गए; जो अपने धरम पे डटो रहे - वही साँचो सती-सूरमा है...।'

- '...मन की बातें तुम का जानो हरना...? जा दिन तुम अपने मन की सुनन लगोगे, बा दिन तुम तुम न रहोगे; तुम्हें अपने ऊपर ही घिन आवन लगेगी...! अपना मन मारकर मरजाना साँचा धरम नहीं है - मीत...!! मरा तो उनके संग जाता है, जिनसे कबहूँ अपने मन मिले होंय... जाके रूप की एक झलक पावत ई तन कौ सूज्जमुखी, अनचाहे ई मरोरा लै वई कौं निरखवे धाय परै - हम कुँवर के संग सती न हौ सके -हरना!!!' कुँवरि अपनी बात के अंत तक आते-आते सिसक उठी थीं। हरना अवाक रह गया। उसकी आँखों के सामने अँधेरा और मन के भीतर हजारों दिए जल उठे थे! अंततः उसने अपनी संतुष्टि के लिए कुँवरि से आखिर में एक और प्रश्न पूछ ही लिया था - 'तौ क्या कुँवर रायसिंह जू ने, तुमसे कबहूँ नेह नहीं लगाया - गनेशि...?' उसके आश्चर्य की सीमा न थी।

- 'नहीं रे! कुँवर कौं तो मोसे बड़ी गाढ़ी प्रीति थी; पर मैं ही नईं निभा पाई उनसे नेह के नाते...। जा दिन ब्याह कौ लाल पटोरा पहरकैं डोला में बैठी थी, बा दिना मोहि साँचेहू ऐसो लगो तो कि दुनिया में सारे नेह के नाते झूठे हैं; और जो कछु साँचो है वह है - संसार की रीति... पर जे भरमाए-भरम की हम बहोत दिनन तक बनाए न रख सके -हरना... जाने कब और कैसे ये बैरिन अखियाँ कुँवर में तेरी साँवरी सुरति खोजतीं, बा कुबेर की नगरी कौं मसान और वहाँ के वासिन कौं जमदूत मान बैठीं थीं; मेरे सारे सुख धूरि में मिलि गए!! कुँवर जब कबहूँ मेरे नियरें आवन का जतन करते, तो मेरा मुख मलीन हो जाता; मोहि ऐसा लगता जैसे कुँवर कुँवर नहीं बा जागीरदार के लठैत है - जाने जाति-पाँति, छुआ-छोत और ऊँच-नीच बनाई है/जाने हमें और तुमें कबहूँ एक नईं होन दए/जो अब एक नए भेष में कबहूँ हँस-बोल कैं, तो कबहूँ अपने पति-परमेसुर हौवे की लाठी कौ भय दिखाय; मोहि एक अदेखी अजानी डगर पे हाँकें लए जाय रहो है!!!' कुँवरि ने भरे मन अपनी सारी व्यथा हरना को कह सुनाई, जिसे सुनकर वह मन ही मन पसीज उठा था। दासता के नीचे बहुत गहरे दबे प्रेमांकुर, कुँवरि के त्यागपूर्ण प्रेम से पुनर्सिंचित हो अँखुआ आए थे। पर तभी - 'ठक! ...ठाक!! ठाक!!!' गढ़ी के पीछे लगी बड़ी बाखर से भिनसारे की आहट पाकर, किसी पिसनहारी ने, तीन बार चाकी का डड़ाँ ठोंककर जाँत गाना आरंभ कर दिया था - 'चंदा मुँदि जा मेरी सौति जुनैया रे...?' जैसे नदी के किनारे जल पीने आए किन्हीं हरिण युगलों को एकाएक अपने आसपास किसी हिंसक सिंह की दहाड़ सुनाई दे और वे ठीक वैसे ही तृषित सभीत अपने-अपने गंतव्य को लौट जाएँ, ठीक वैसी दशा हरना और कुँवरि गनेश की हुई थी...।

5.

- 'गनेशि, तुम जोगिन बनकैं वृंदावन जाय रहीं हौ?' गउसार से गाय को चँदिया खिलाकर लौट रही कुँवरि को हरना ने एकांत पाकर सूनी सार में रोककर अपनी जिज्ञासा प्रकट कर दी थी।

- 'हाँ रे! जब तैं अपने मालिक से नोन हरामी नईं कर सकत, तब हम अपने मन कौं काहे भरम में राखें...? अब तौ वई एक आसरौ है।' कुँवरि लगभग सामने आ खड़े हरना की गैल काटकर जब आगे बढ़ने लगीं, तब हरना ने भावावेश में लमक कर उनका पोंहचा पकड़ लिया था - 'नईं कुँवरि! तुम ऐसो नईं कर सकतीं, हम तिहारे काजैं सब से बैर ले सकत हैं... तुम कहो तौ अगिन की नदिया पैर जाएँ, तुम कहो तो तरवारि की धार पै धाय परैं... पर तुम्हारा बिछोह नईं सह सकत!!! हरना की आँखें भर आईं और कुँवरि को सार के एकांत में बाढ़ के पीछे ले-जाकर अपने वक्ष से लगा लिया था। कुँवरि भी इस स्थिति में अपने को न बरज, बहुत देर तक हरना के बलिष्ट बाहुपाश में सिमट रोती रहीं। फिर प्रेम और स्नेह की असीम आनंदानुभूति के एकांत क्षणों में, अंततः वर्षों से चला आ रहा द्वैत भाव मिट गया था।

जब कुछ घड़ी बाद उत्तेजना का ज्वार शांत हुआ और भावनाओं की वेगवती नदी उफनती पछाड़ें खाती सम पर आई, तब कुँवरि ने अपने को हरना की बाँहों से स्वतंत्र कर लिया था। किंतु जैसे तप्त तवे पर गिरकर जल की बूँद छन्न हो जाती है, जैसे पहले-पहल बरसे आषाढ़ी मेघ धरती की प्यास और दुगना कर देते हैं, जैसे बहुत भोजन करने पर भी भस्मीव्याधि का रोगी लंघन करता है। ठीक वैसे ही संयोग में भी वियोग भय से आक्रांत युगों-युगों से स्नेह और प्रेम का भूखा हरना; कुँवरि से अलग न होकर पुनः कुँवरि की गोद में सिर रख वहीं तिरछा लेट गया था। ...यद्यपि भय की तलवार फिर शीश पर थी और नैतिकता की अगिन-नदिया पुनः आसपास झहरा उठी, किंतु वर्षों से साँचे नेह की भूखी कुँवरि भी उसे अपने से अलग न कर सकीं। उन्होंने झुककर हरना का माथा चूम लिया और उसकी घुँघराली अलकों में प्यार से अपनी अँगुलियों के पोर फिरा उठी थीं -'जोगिन बनकैं हू हमें कल कहाँ परती - हरना! जब-जब हम वहाँ पथरा की मूरतियन कौं ढोक देते; तब-तब मोहि उनमें तेरी ही साँवरी सुरति दिखाई देती!! मेरे मन की इकतारा और तन की खड़ताल तौ तेरे ही सुर से सजीं हैं - वे तेरे ही गुन की रागिनी गातीं, तेरे ही दरस की प्यासी रहतीं!!! ...जोग तौ निराशा कौ दूसरौ नाँउ है-रे? तूँ तौ मेरी जीवित आशा है! जाके लएँ मैं सारी लोक-लाज तजि, राँड़ के बाना में हू मन ही मन मुस्क्याति भई गुहीसर चली आई थी।

...तू नहीं जानता-रे, बा दिन कुँवर की लाश सरवर के तीर धरी थी; भोर ते साँझ हौ गई बाँदियन कौं कुँवर की लाश पै तें कौआ और मखियाँ बिढ़ारत-बिढ़ारत... गढ़ी की बड़ी-बूढ़ीं हार गईं मोहि समझाउनी देत-देत... कुल-मरजाद और लोकरीति की दुहाई सुनत-सुनत कछू देर कौं तो मेरे पाँय डिगे हू थे, (तुलनीय : डगमग छाँड़ि दै मन बौरा। अब तौ जरें-बरें बनि आवै, लीन्हों हाथ सिंधोरा।। होई निसंक मगन ह्नै नाचौ, लोग मोह भ्रम छाड़ौ। सूरौ कहा मरन थैं डरपैं, संतों न संचैं भाड़ौ।। लोक वेद कुल की मरजादा, यहै गलै मैं फाँसी।। आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्वै है जग में हाँसी।। - कबीर ग्रंथावली/पदावली / 98) पर जाने कौन सी दुराशा के चलते, न तो हाथ में सिंधोरा गहा और ना ही कुँवर के संग सती होने के लएँ राजी भई... दबे सुर में गढ़ी के लोग जब मोहि लच्छिन लगाते, धोखे से भंगिया पिवाकर सती करने की चाल पै उतरि आए; तौ मैं उनपे हू सतरा गई थी - 'हौं जियत ना जरौंगींऽ भलेईं मोहि जोगिन बनाकर गढ़ी से कासी-वृंदावन पवार देउ?' ...सभी सन्न रह गए, सबके म्यानों से तेगा-तलवारें खिचकैं बाहिर आ गए; तब मेरे हर नीके-बुरे में संग देने वाले भैया हरीसिंग जू, मोहि वहाँ से तरवारि की नोक पे गुहीसर यह कहते लिवा लाए - स्त्री कौं जबरईं सती करना सास्त्र विरुद्ध है?'

- 'सास्तर विरुद्ध तो जे भी है - कुँवरि...? हम जहाँ कहूँ अपने मन का करने चलैं... तौ वह कहूँ सास्तर विरुद्ध है, तो कहूँ लोक विरुद्ध; हम अपनी इच्छा तें तौ कहूँ जीकैं नहीं रह सकत...! हमें जे गढ़ी छोड़ने परैगी कुँवरि...?' हरना ने एक निश्वास खींचा और उठने को हुआ तब कुँवरि ने कुछ अगंभीर होकर मुस्कराते हुए एक हाथ से हरना का कंधा दबाकर उसे वहीं लिटाए रखा - 'गढ़ी का; हौं तो तेरे लएँ सारी दुनी छोड़ सकत हों... मैं जनम सुहागिल राँड़ के बाना में कब तक रहौं...?' अपने अंतिम वाक्य तक आते-आते कुँवरि के चेहरे पर तनाव की आड़ी-टेढ़ी चिंता रेखाएँ उभर आई थीं, जिन्हें देख हरना अंततः उठ ही बैठा - 'कुँवरि हम यहाँ तें कहूँ दूर दक्खिन में भाज चलत हैं, जहाँ तिहारे भैया के शासन कौ कठोर डंड न चलत होय... काहू मुगिल-पठान की रिहासत में, जहाँ हमसे कोऊ हमारी जाति नहीं पूछेगौ; और पूछेगो तौ कह देंगे 'छत्तरी' हैं...!'

- 'मेरे नेह में पर कैं तें तो बड़ौ सयानो हो गयो है रे-हरना?' कुँवरि उसकी समझदारी पर मुस्कराए बगैर नहीं रह सकी। फिर अपनी व्यग्रता दिखाते हुए हरना से उसने अगला प्रश्न जड़ दिया था - 'पर कबै...?'

- 'आजु रात तीसरे पहर। मैं भुरहारे ही हल लैकें 'चौबीसा' पै निकल जाउगों और तुम... तुम कतिकी नहान जाने वाली मौंड़ियन के पीछे कोऊ रंगित फरिया पहरि, गढ़ी से निकर, खेत पे आइ जइयो... वहीं से चलेंगे...।'

- 'हुँ...!' कुँवरि मन ही मन हर्षित सिर पर अपनी सफेद फरिया का अचरा और ऊँचा खींच उसकी कोर दाँत से दबाये मुख से मोतियों सी हँसी बिखराती, किसी ब्याहुली की भाँति विहँसतीं-सकुचाती गढ़ी में चली गई थी।

हरना की आँखों में यही आखिरी छवि बसी हुई है, जिसे दुबारा निहारने के लिए उसने प्रतीक्षा में हजारों क्षण गँवाए हैं। कितनी बार विश्वास को अविश्वास में बदल कर आस्थाओं को लहूलुहान किया है। कितनी बार इस अमानवीय संसार को क्षार करने की जिद पर आकर उचित-अनुचित का भेद मेटा। पर आज वह खुद मिट रहा है। काल की कराल बाहों में निरंतर कसता-सिमटता बार-बार पीछे की ओर लौटता है। पर अब सब ओर धुँआ-धुँआ सा प्रतीत हो रहा है। ...वह खार की कँकड़ीली जमीन को और कसकर पकड़ने की चेष्टा करता है, जिस पर चलकर कुँवरि गनेश कभी खेरे पर माता पूजने तो कभी अखती मनाने आया-जाया करती थीं। वह अपनी डूबती साँसों को ओर तेजी से उस हवा में एकमिल करने की चेष्टा कर रहा है, जिस बयार में कुँवरि गनेशि की साँसों की गंध अब भी मौजूद है। वह अपने हृदय से बहने वाले रक्त को उस मिट्टी में ज्यादा, और ज्यादा मिला देना चाहता है; जिसे उसने कई साल पहले छोड़ दिया था।

लेकिन तभी उसकी स्मृति एकाएक पलटा खाती है और वह पहुँच जाता है उस स्थान पर जहाँ वह एक तकिया के भेष में गुप्तचरी करने गढ़ी आया था और वहाँ उसने नाईन बिटिया 'हरखा' से कुँवरि गनेशि की हत्या का मर्म जाना था - 'हरखा साँची बताओ, कुँवरि कैसे मरी थीं? तुम और तुम्हारी मैयो तो गढ़ी में आवत-जात रहीं हो...!'

- 'वीरन तुम जानतई हो गढ़ी में हमारा निधारा तब तक ही हैं, जब तक हम वहाँ आँख होत भए अंधे, कान होत भए बहरे और जीभ होत भए गूँगे बने रहें... इन्हें खोलने का अखत्यार न हमें है न तुम्हें था? ...पर हम मानुष की जाति साँची कहवे सें कबै चूके हैं? कछू दिनन तें तुम्हारी... कुँवरि गनेश के बहुतई नगीच रहीं मेरी वीरासिन अइया, गाँव की लुगाइयन के बीच 'जुगड़ू' कौ किस्सा लेकर उतरी हैं; जाय सुनावत वे खुद तो रोवती ई है संग-संग सुननहारी गाँव की बहुएँ-बिटियाँ हू बगैर रोए नईं रह पातीं... झूठी-साँची राम जाने पर मोहि लगत वह तिहारो ई किस्सा है...।