ज़ख्म / भाग- 3 / जितेंद्र विसारिया
गढ़ी से डाँग की दूरी कुछ ज्यादा नहीं है। पूर्व में कोई कोस सवा कोस दूरी पर उझाइल तथा मखोरि की गढ़ियों से नीचे और गढ़रौली से पहले; दक्षिण से उत्तर को बहने वाली झिलमिल नदी का कछार डाँग कहलाता है। रामबख्स कुँवर जोरावर को ढूँढ़ता उझाइल और मखोरि की गढ़ियों से होकर घनी डाँग में उस जगह पर जा पहुँचा था, जहाँ झिलमिल के किनारे, करार पर खड़े एक पुराँतमी पीपल के नीचे गौर वर्ण कुँवर जोरावर -सिर पर लड़ियोंदार केशरिया पाग, देह पर सफेद चोंगा और चूड़ीदार पायजामा तथा कमर में फेंटा-कटारी कसे अपने संगी-साथियों के साथ आसन जमाए बैठे हैं। पास ही करील की एक कुंज से उनका लील-बछेड़ा बँधा हुआ है।
जिस समय रामबख्स कुँवर जोरावर के पास पहुँचा उस समय वे साहलगो में न्यौतहारों से लौटे अपने सखाओं पर गुजरी, नीकी-बुरी आपबीतियों का बतरस ले रहे थे। जिन्हें देख-सुनकर रामबख्स को कतई नहीं लगा कि कुँवर घर से रिसा कर आए हैं। ...उसने दूर से ही कंधे की बर्छी उतारकर हाथों में लेते हुए कुँवर को जुहार किया और वहीं कुछ दूरी पर पाग छोरकर जमीन पर बैठ गया था। उस समय कुँवर जोरावर अपने लठैत 'ज्वाली' की आपबीती सुन रहे थे, जो अपनी भानजे के ब्याह में बहन को 'भात' देकर लौटा था। रास्ते में पड़ने वाले एक गाँव में उसने एक भागवती पंडित को उसी के द्वारा सुनाए जा रहे प्रसंग पर टोककर; उसके मिथ्या ज्ञान की पोल खोलने और कथा आयोजकों द्वारा पुरोहित को पीटे जाने का हाल, बड़े उत्साह के साथ रस ले-लेकर सुना रहा था। रामबख्स के पहुँचते ही उसकी इस व्यथा-कथा में विराम लग गया था। किंतु कुँवर द्वारा मुस्कारते हुए वरदहस्त की मुद्रा में हाथ हिलाकर रामबख्स के बैठ जाने के मौन इशारे के साथ ही, सभी ज्वाली की आपबीती में ध्यान मग्न हो गए थे। ...यह नजर अंदाज किए बगैर कि बेचैन रामबख्स भी उनसे कुछ कहना चाहता है। ...उधर ज्वाली थोड़ा खाँस-खकार कर फिर अपनी रौ में आगे बढ़ा :
- 'तौ कुँवर जू, वहाँ तौ हम बटोही थे। ना हमाये माथे पर लिखो तौ कि हम नैहनियाँ जाति हैं...? पर बा त्रिपुंडधारी वामन ने व्यास-गद्दी से बैठे ईं बैठे अंदाज लगाकर, हमें अपनी गेहदू भमकी दिखाई - 'देखो-देखोऽ हमारे रोकत यह कोऊ संस्कार-विहीन अत्यंज यहाँ आ ही गयोऽऽ? जाहि हटाओ यहाँ तेंऽऽऽ!' पुरहेत के उकसावे पर अपनी ओर लाठी लए आवत कई गूजर देख, तुम्हारी सौं कुँवरजू बा समै तो हमारी पीड़ुरी काँप गई थीं। ...पर ठीक वई घड़ी मेरे आगे कथा सुन रहौ मूँड़ से छींट को साफा बाँधे, एक बड़-मुच्छा भलौ मानस अपनी लुहाँगी लैकें मेरे आगे भीत बनकैं ठाड़ो हौ गओ - 'काहे होऽ ऐसी बाने का गैया काट डारी, जो तुम लट्ठ लेकें मारन धाइ परे? जे साँची तो कह रहौ है कि जब सिया जू को हरन करके लंका जायवे वाले रावन के रथ के पहिया ई 'बादर' छू रहे थे, तौ बा रथ के छत्र-धुझा का पुरहेत की लिंग में घुस गए थे? ...जो सबसे ऊपर लगे रहत हैं।' ...बस्स! फिर का; फिर तो मोहि सै मिल गई, हम और हू ततारोष में आइ गए - 'पुरिखाऽ, तुम मेरे सामुँहे ते हटि जओ... आज हमें देखने है कि भरी सभा में चार पंच के आगे सत्त कहवे पे दंड कबसे मिलने लगो? ...सारे ग्यान-ध्यान से दूर हमें गाँव-गढ़ियन के बाहर राखौ ...छोत मानो, छींछा लेऊ और सब तरीकन से दबाओ... जो फिरहूँ न दबें तो संस्कार हीन बताय के मरबाइ डारो, जई लिखो है वेदन में...?'
- 'वेदन में जो यही लिखौ होय तो...?'
- 'तौ...।'
- 'तौ 'तुरक' तो नहीं बने चाहत...?'
- 'नहीं कुँअर जू, जूँअन के भय कथरी नहीं बदली जातीं...। अपने धरम में रहकैं अबै तौ हम इन वामन-भट्टनि के करम-कांड और ढोंग-धतूरिन को विरोध कर सकत हैं, जो कहूँ तुरक बन गए तो या जुम्मा, हुसैनी और बसारत के मैया-अब्बा की नाईं, बस्स जई संतोष करके रह जावेंगे कि - चलो जा देश के सबसे बड़े राजा को धरम और मेरो धरम एक है; हम उनके संग एक पाँत में ठाड़े होकैं 'नवाज' तो पढ़ सकत हैं... और सारी विवस्था वहीं की वहीं?' कुछ कम बढ़ के साथ ज्वाली के इस मंतव्य पर सभी सहमत थे। स्वयं कुँवर जोरावर को भी ऐसा लगा जैसे ज्वाली ने उनके मन-मुख की बात कह दी है...।
ज्वाली की आपबीती सुनकर कुँवर जोरावर भी उत्साह में आकर अपने गढ़ी से डाँग में रिसाकर आने की बात सबको सुनाने बैठ गए थे। उन्होंने बताया कि कल साँझ जब वे गढ़ गोपांचल गुलाम गौस की दरगाह से लौटकर गाँव में घुसते ही रमईं निरगुनिया के द्वार पर बाहर घोड़ा खड़ा करके उससे बतियाने लगे थे, तब उसी बेला गढ़ी से बड़ी बाखर आई मंगलिया बांदी ने उन्हें देख लिया और गढ़ी जाकर उनकी मैया और काका के कान भर दिए - 'कुँवर अपनी आन-वान छोड़कैं, भंगी-चमारन तें मेल बढ़ावन लगे हैं?' 'बस्स इसी बात पर झगड़ा हो गया। हर दिन की भाँति अपनी लापरवाही दिखाते कुँवर कल साँझ भी जब बिना छीछा लिए रसोई में घुसे, तो आँख बंद करके मंगलिया बाँदी की हर बात का विश्वास करने वाले उनके मैया-काका उन पर टूट पड़े थे - 'कुँअर जू, तुम नीच-मलेच्छन की संगत में रहकैं अपनो धरम-करम बिसार रहे हो?'
- 'नीच-म्लेक्षों में रहकर पता करौ, नीच कौन है?' ...गंगा स्नान करैं, शंख बजाने, माला फरने और धूनी रमाने से ही कोई ऊँच और उन्हें न करने वाला नीच कैसे हो जाता है? ...मछरी गंगा में रहने पर भी बास देती है, गधा संख से ऊँचे सुर में रेंकने पर भी लदता है, वरद का कंठ माला की भाँति काठ के जुए पड़े रहने पर भी जुतता है!
तुलनीय :-
कौन नर तर गए जे गंग के नहाए तें? मछरी काए नईं तर गई जाको पानी में ही घर है।
कौन नर तर गए जे धूनी के रमाए तें? लोहा काए नईं तर गओ जाको धूनी में ही घर है।।
कौन नर तर गए जे माला के फिराए तें? बरदा काए नईं तर गओ जाको काठ में ही नर है।
कौन नर तर गए जे शंख के बजाए तें? गधा काए नईं तर गओ जाको शंख से भरी नर है... - अज्ञात
...इतना ही नहीं, वामन से बड़ी चोटी रखने पर भी नारी नरक की खान है। जन्म भर सूत कातकर वसन-जनेऊ बुनने वाला जुलहा, अंत तक शूद्र ही बना रहता है - क्यों? ...योगियों की धूनी में गढ़ा रहने वाला चिमटा और यज्ञ के हव्य पात्र जब हवन कुंड की अग्नि में तपकर स्वर्ण के नहीं हो जाते, फिर वही सब करने पर हम सवर्ण कैसे?'
...बस इसी बात पर बखेड़ा खड़ा हो गया, जो आधी रात तक चलता रहा।' कुँवर की आपबीती सुनकर सभी आह्लादित हो उठे थे। कुँवर की रैयत के प्रति प्रतिबद्धता पर तो उन्हें पहले से ज्ञात थी, परंतु अभी का उनका वक्तव्य सुनकर कुँवर में उनकी आस्था और अटल हो गई थी। ...और कुँवर तब तक अपनी बात समाप्त कर उसी तारतम्य में रामबख्स की ओर उन्मुख हो गए थे।
- 'रामबख्स, तैं तो बेहट तन्नाजू से मिलने गयो थो?' ...अंगुल भर की लकड़ी से सिर झुकाए बड़े ही असमंजस में धरती कुरेदता रामबख्स जब कुँवर की आपबीती सुनकर इस निष्कर्ष पर पहुँच रहा था, कि गढ़ी में कुँअर जोरावर को मिली यह ताड़ना और अंत्यजों के प्रति दिनों दिन तीव्र होती इस घृणा के पीछे कहीं न कहीं कुँवरि गनेश और हरना के अंतरसंबंधों के कारण दबे स्वर में ही सही, राज-परिवार को मिली लोक निंदा भी काम कर रही है। वरना लोक-व्यवहार में शास्त्र धरे रहते हैं और लोग सुभीते के अनुसार अपना चलन-चलाते हैं...। तभी कुँवर द्वारा पीपल की जड़ से कंकड़ी उठाकर हौले से उसे मारते हुए यह पूछना, उसे नागवार गुजरा। रामबख्स बारहसिंगे की तरह भड़भड़ाकर चौकन्ना हुआ, मानो उसे किसी ने भड़ियायी करते हुए पकड़ लिया है। पर अगले ही क्षण सबकी विचित्र मुस्कराहट के साथ कुँवर की बात का आशय जानकर, वह भी एक की फीकी हँसी हँस दिया था - 'हाँ, गए तो थे...।'