ज़ख्म / भाग- 4 / जितेंद्र विसारिया
कोई इक्यावन-बावन साल पहले गढ़ी गुहीसर से दक्षिण में दो-ढाई कोस दूर झिलमिल नदी के उद्गम पर बसे 'बेहट' गाँव से; 'कलावंत' (ग्वालियर निवासी ध्रुपद-गायक तानसेन 'कलावंत' (गैर ब्राह्मण) जाति के थे - अबुल फजल : आइना अकबरी।) मकरंद के छेरी चराने वाले सिर्री से बालक रामतनु उर्फ तन्ना को, एक बैष्णव साधु-हरिदास उसकी सिंह सी दहाड़ती आवाज पर मोहित होकर अपने संग वृंदावन ले गए थे।
श्री हरिदास का सान्निध्य और फिर ग्वालियर के महाराजा मानसिंह तोमर द्वारा स्थापित गांधर्व विद्यालय में रहकर संगीत साधना करने के बाद; वह बालक रामतनु उर्फ तन्ना, अब एक प्रसिद्ध दरबारी गवैया हो गया है - तानसेन। ...महाराजा मानसिंह के बाद उनके उत्तराधिकारी विक्रमादित्य से 'तानसेन' की उपाधि प्राप्त कर रामतनु उर्फ तन्ना; मुहम्मद आदिलशाह के दरबार से होते हुए बांधवगढ़ के राजा रामचंद्र बघेला के दरबार रीवाँ गया है और वहाँ उसने अपनी गायकी के बल पर संगीत रसिक राजा रामचंद्र से, उपहार में एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त की हैं - तब से उसकी दुहाई देश-देश में फिरने लगी है...।
ऐसे में तानसेन की मातृभूमि का अंचल इससे अछूता कैसे रह सकता था? तब बेहट ही नहीं आस-पड़ोस गाँवों के बहुत सारे युवा और किशोर-किशोरियाँ उनसे प्रभावित होकर, कुछ उनका संग-साथ पाने के लिए-हार-खेत, जोड़-कुश्ती, शिकार और घर बाहर के अन्य काम भूल - बीना, वंशी, मृंदंग, पखावज, ओघटी और अरगनों पर अपने हाथ साफ करने लगे हैं।
रामबख्स भी इसका अपवाद न था; अपनी सामाजिक स्थिति पहचानते हुए भी वह न जाने किस आशा और आकांक्षा के चलते, अपनों से कटकर दूसरों के ओंठों पर बने रहने के लिए छाती में छेद तक करवाने वाले वाद्य - 'वंशी' में अपने सुर भर उठा था। जिस दिन उसने अपने सखाओं से यह सुना कि 'तन्ना' बांधवगढ़ से अपने इष्ट शिव और परिजनों के दर्शनार्थ 'बेहट' आए हुए है, वह उसी दिन अपने मामा से मिलने के बहाने 'बेहट' ननिहाल जा डटा था।
...कुँवर के प्रश्न का आशय जानकर रामबख्स ने अपने फैले हुए घुटनों पर दबे-बँधे हाथ और गर्दन में कुछ अकड़ पैदाकर, जम्हुआई लेते हुए स्वीकार किया कि - 'हाँ वह 'बेहट' से लौटा है, तन्ना जू से मिलकर। ...केवल मिलकर ही नहीं वह उन्हें अपनी वंशी भी सुनाकर आया है।' तब कुँवर ने लगे हाथ रामबख्स से उसकी प्रतिक्रिया भी पूछ डाली थी - 'कैसौ प्रतिसाद मिलौ तन्ना जू सैं?' अचानक इस प्रश्न पर रामबख्स का मुख तुषार खाए कुमुद सा मुरझा गया था। जैसे कोई गहरे सूखे कुएँ में गिरकर घायल हो अपने बचाव में टेर लगाता है; ठीक वैसे ही आवाज में रामबख्स ने बड़े उदास होकर स्वीकार किया :
- 'मेरी वंशी सुनत तौ वे बड़े ही मोहमंत हो गए थे - कुँवर जू! और मोहि साधुवाद भी दिया था, पर ज्यों ही हमसे कछु दूर ठाड़े मेरे मामा से अपनी बूढ़ी नार हिलावत जे पूछा - 'काहे दंगलिया, जे छोरा कौन कौ है?' तब मेरे मामा ने हाथ जोड़कैं जब उनसे जौं कही - 'तन्ना जू! जे हमारौ भानजा है। रामबिटुलिया को मौड़ा... जो गुहीसर में ब्याही थी...।' तब तौ कुँवर जू मोहि उनके हाव-भाव देखिकैं ऐसो लगौ - जैसे उनकौ पाँव कहूँ लीद पै पड़ गयो होय; मुँह में जैसे करेला घुर गओ होय। ...बड़ी देर बाद उनके मुँह से बक्कुर फूटा - 'रामबख्सू! तुम वंशी तो आछी बजावन लगे हो, पर...।' कहते-कहते वे अपनौ मौन साध गए थे...!'
- '...कहें चाहत होंगे कि तुम डोम हो, यासे तिहारी सारी सुरसुती अकारथ जाएगी; रामबख्स तैं बाबरौ है, तैंने अपने मन में सोची होयगी कि वे तेरी कला पे मोहित होके तोहि वृंदावन के वा वैष्नव साधू की नाईं अपने संग बाँधौंगढ़ ले जावेंगे - जे तेरी भूल है - रामबख्स! ...सुन्यौ है वामन-भाटों में रहकर तन्ना; अब तन्ना मिसुर हो गए हैं!!'
रामबख्स की व्यथा-कथा सुनकर कुँवर जोरावर उस स्थिति में जब तक कुछ अपना मत प्रकट करते; उससे पहले अपने कटु अनुभवों के आधार पर उसके साथी ज्वाली ने अपनी तीखी वाणी से, रामबख्स की भोली आस्थाओं पर पानी फेर दिया था। ज्वाली के इस मर्मभेदी मंतव्य ने रामबख्स के मन में बहुत गहरे तक जमे पड़े आशावाद की जड़ें हिलाकर रख दीं थी, लेकिन वह ज्वाली की बात से पूर्ण सहमत न हुआ। ...क्या मनोवांछित से पलायन या उसका बहिष्कार इसीलिए हो, कि वह उसकी पहुँच से दूर है? वह इसके लिए आगे फिर प्रयास करेगा। वह टूटने से रहा। ...परंतु उसकी आँखों में उमड़ आए शुरुआती नैराश्य को सहृदय कुँवर जोरावर ने भाँप लिया था; उन्होंने हँसते हुए रामबख्स को भविष्य में अपने आश्रय में रख लेने की दिलाशा देकर, उससे कुछ सुनने की इच्छा प्रकट कर डाली थी...।
उस समय कुँवर की आज्ञा और घर पर भौजी से सुनी खबर के बीच कसमसाते रामबख्स की हालत - 'काहे को फागुन फागु कहाँ की' वाली हो रही थी; क्योंकि वह कुँवर को एकांत में ले जाकर जो बात कहने आया था, वह यहाँ रंग में भंग डालने जैसी होती। कुँवर का मन रखने के लिए उसने अपनी उस बात को कुछ और पीछे धकेला और खड़े होकर दाहिने हाथ को कान पर रखा और आँखों को कुछ झपकी सी देता, ऊँचे सुर लेकर गा उठा था -
- रोई हो, कहूँ गिद्धिन रोई हो...।
अपने घोंसुआ, गिद्धिन रोई हो...।
राज, जरियो-बरियो ऊदल तेरो राज
तेरे राज में भूखिन मरि गई
ऐ..., नहिं खाए माँस अघाय
लागन दे कहूँ अदमा-भदमा रे,
गिद्धिन लागन दे...।
मास, लगन दे अगहन मास-2
माघ मास में रे घुड़िला पुजिहें,
ऐ - तोहि माँसन देहु अघाय...।
नहिं खाँहि छेरी-बोकरा
रे..., ऊदल हम नहिं खाँहि
मुगल माँस नहिं खाँहि
माँस तो खेहों प्रथीराज को-
ये..., चाहे कुढ़रि-कुढ़रि
मरि जाहुँ ...।'
सावन भादों में गरज घुमड़कर बरसते मेघों के बीच चौपियों द्वारा गाए जाने वाला इस 'ओंहर' को, जेठ-बैसाख की तपती दोपहरी में भी सुनकर भी सब ओज से भर उठे थे। किंतु कुँवर जोरावर को रामबख्स द्वारा 'ओंहर' गाते समय उसकी बोली में ओज के साथ-साथ पीड़ा के मिले-जुले स्वर की अनुभूति हुई, तो उन्हें कुछ संदेह हुआ। वह रामबख्स को अपने समीप बुलाकर उससे उसके मन की बात पूछना ही चाह रहे थे कि कुँवर के संग आज पहली-पहल बार आया उनका ममेरा भाई 'चूरामन'; कुँवर की यह 'खेलत में को काको गुसैंया' वाली स्थिति नकार कर आपे से बाहर हो उठा था। उसकी दृष्टि में चाहे जितनी कन्याओं का अपहरण, अत्याचार और भोग-विलास करने पर भी पृथ्वीराज चौहान, अग्निवंश का महान प्रतापी सम्राट था। वहीं सबके प्रति समदर्शी भाव रखने वाले न्याय और समानता के पक्षधर आल्हा-ऊदल, वीर योद्धा होने पर भी - ओछी जाति के - गुलाम!!! वह कुछ ज्यादा ही बढ़-चढ़ कर बोल गए ज्वाली से वाग्युद्ध में भिड़ने ही जा रहा था। तभी उसने कुँवर जोरावर की भंग-भृकुटियाँ अपने ऊपर तनी देखीं, तो सकपका कर रहा गया। फिर भी वह अपने अंतर की कटुता समेटते-समेटते, इतना विष तो वमन कर ही गया-'अब बीते कौ बखान करैं से अपनौ कौन हित सधे, आज तो अपने सब ते बड़े बैरी-यवन ई हैं...।'
कुँवर यदि कुछ देर और मौन रहते तो चूरामन आगे कुछ और कहता, परंतु सूफियों और निगुर्णियों की संगत पाकर एक नवीन दृष्टि पाए कुँवर उसके इसी वाक्य पर आहत; मन में एक टीस सी भरकर उस पर खीज पड़े थे - 'दूर वध का भय देख कोऊ नगीच के कष्ट क्षण भर कौं भले ईं बिसार दे, पर वे सदा सर्वदा कौं नहीं भुलाए जा सकत - चूरामन! ...इनकों, हम तुम किन्हीं तुरक-मुगलन से क्या कम हैं? ...कौन मुसलमान तुम्हारे बैरी हैं? ये - हुसैनी, जुम्मा, बसारत या शबराती... या तुम्हारे मोड़ा-मौड़ियों के छीकनें पे हू गंडा-ताबीज और न जाने का-का करवे को व्याकुल रहवे वाले करुना की मूरत - बाबा फरीद...? जो तुम्हारे ही परोस में गरीबन के बीच खानकाह में रहत हैं... नहींऽ ये मुसलमान हो सकत हैं... पर अपने बैरी नईं...। अपने साँचे शत्रु तो वे मठाधीश और शासक हैं, जो शस्त्र और शास्त्र को भय दिखा-दिखाकर; हर घड़ी-हर पहर हम पर अत्याचार कर रहे हैं... फिर वे चाहे मुगल हो या राजपूत, मुल्ला हो या पाँड़ें, सब रैयत में फूट चाहत है...।'
- '...हमें राय कक्का जू और बोधन पुजारी की गोट हू, कछु वैसी ही लगत है...!' कुँवर जोरावर जब कनिष्ठा अँगुली उठा-उठाकर चूरामन को प्रबोधते समय कुछ-कुछ सार्वभौमिक हो उठे, तो ज्वाली ने जोरावर के वक्तव्य पर सहमति जताते हुए, अपना यह पक्ष भी उदाहरण स्वरूप रख दिया था। परंतु सदियों से अपने आसपास रहने वाले अन्नदाताओं और पुरोहितों की इस रूप में पहचान वहाँ सभी को सहज स्वीकार्य नहीं थी। कुछेक को छोड़कर पीपल के नीचे बैठी उन अस्तित्व विहीन धर्म और राजनीति के शारीरिक व मानसिक दासों की मंडली, कुँवर और ज्वाली को बड़ी विचित्र दृष्टि से घूर उठी थी।
तब मनस्वी कुँवर जोरावर ने उन्हें पूर्ण संतुष्ट करने के लिए, एक तात्कालिक उदाहरण देकर समझाया - 'इस्लाम के पीछे अपने देश में सूफी संत आए, जिनने बहुत दिनन तक संग-संग रह लेने पर भी हिंदू-तुरकन की आपसी रक्त पिपासा बुझत न देखी; तब उन्होंने हमारे बीच प्रेम की पवित्र धार बहाई... प्रीति के गीत गाए, जो आज जन-जन के कंठहार हैं। ...परंतु राजा से भिखारी तक में लोकप्रिय होने के कारन जब मंदिरन पे टांकी चलवाने वाले सुल्तान और झूठे फतवा और आदेश जारी करवाने वाले मुल्ला-मौलवी जनता की दृष्टि में अपराधी सिद्ध होने लगे थे, तब इन ढोंगियन की मिली भगत से सूफियन कौं बदनाम करने; राजधानी में वैसे ही रंग रूप ओर बोली बानी के छली तकियों की सैना ठाड़ी कर सब जगह ढील दई गई। ...अब आज हमें यह पता नहीं लगत कि हमारे द्वार पे ईश्वर-अल्लाह की एकता को कलाम दोहराने वाले पवित्रात्मा सूफी हैं, या हमारी बहू-बिटियन के डोला उठवाने वाले - नराधम तकिया...।' कुँवर के इस अकाट्य उदाहरण ने सबको शांत कर दिया था, किंतु इस उद्धर्णांत आए 'तकिया' शब्द ने एकबारगी रामबख्स को फिर विचलित कर दिया था। वह बिना आगे-पीछे देख, घर पर सुनी बात को कहने के लिए उठ खड़ा हुआ था और एक ही साँस में अखतीज के दिन गढ़ी से पछाँह गाँव बाहर खार में एक 'तकिया' के होने और रमदीना नाऊ की मौड़ी के द्वारा उसे हरना के रूप में पहचानने एवं उससे गढ़ी का भेद ले जाने की बात कह दी थी।
'तकिया'...! उस पर घर का भेदी...!! यानी सैकड़ों यमराजों के आगमन का सूचक...!!! कुँवर के साथ-साथ पीपल के नीचे बैठी सारी मंडली रामबख्स की बात सुनकर सिहर गई थी। मानो अभी-अभी कुँलाचे भरना सीखते मृग-छौनों को हिंसक बाघों के आगमन की सूचना मिली हो, या अनंत नभ को छूने के लिए पंख फड़फड़ाते विंहग-वृंद को शिकारी बाज के आना का अंदेशा हुआ हो। ...अक्समात मनुष्य को मनुष्य के रूप में ही पहचानने वाली बात में खलल पड़ गया था। फिर भी कुँवर ने किसी धीर गंभीर दार्शनिक की भाँति सहज होकर इसका दोष अपने अविवेकी पूर्वजों को दिया, जिनकी त्रुटिपूर्ण श्रेणीबद्ध वर्ण-व्यवस्था एकता में बाधक बनकर ऐसे संकटों को हमेशा से न्यौतती रही है।
धीरे-धीरे साँझ ढलने लगी थी पहाड़ी उपत्यकाओं में अँधेरा एक दम पसर जाता है। बातों ही बातों में पता ही नहीं लगा कि कब गोधूलि निकल गई और कब पश्चिम से लौट-लौट कर पखेरू अपने घोंसलो में आ-आकर खुशी से चहचहाने लगे थे। यह देखकर सबको अपने-अपने घरों की पड़ने लगी थी। पर अभी शिकार हुई ही थी नहीं और ना ही कुँवर की ओर से ऐसा कोई संकेत मिला था कि वापस गढ़ी को लौटा जाए। हुसैनी को अपनी हमिला बीबी के लिए 'शाही' का शिकार ले जाना था। ज्वाली को एक हिरन इस लिए मारना था क्योंकि गाँव के चंडी मंदिर के पुजारी बोधन की मृगछाला उसके कुत्ते ने मंदिर में घुसकर चीथ डाली थी। रामबख्स जो निरामिष था पर उसे भी अपनी भौजी के लिए कोई अच्छी शिकार ले जानी थी। पर यह बात आज शिकार न करने पर खुद शिकार हो जाने की सच्चाई जानते हुए भी शिकार न करने वाले कुँवर पर निर्भर थी, कि वह शिकार करवाते हैं अथवा नहीं। उनसे गढ़ी में होकर आया मुँहबाद और इस बात से पड़े मानसिक आघात के चलते, उनसे कुछ कहने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी।
अँधेरा धीरे-धीरे और गहराने लगा था, सियारों ने कानो के पास आ-आकर हुआ-हुआ का राग अलापना शुरू कर दिया था। दूर नदी की धार के किनारे-किनारे किसी भूखे नाहर की डींक, आसपास भय और आंतक का माहौल पैदा कर उठी थी; और इससे बेखबर कुँवर दोनों आँखें बंद किए पीपल की जड़ों से टिके चिंतामग्न बैठे थे। गढ़ी में अपने वृद्ध पिता की वर्जनाओं के बीच उनके विलासी काका की निरंतर बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ और इस संभावित आक्रमण की आशंका ने उनके मस्तिष्क में एक बहुत बड़ा भूचाल ला खड़ा किया था। अचानक लेटे-लेटे ही उन्हें याद हो आया कि वह आज अपनी रानी मैया से भी झगड़ कर आए है, जो आचार-विचारों से कड़ी होने पर भी उन्हें प्राणों से भी प्रिय मानती हैं। उन्होंने उसके बिना अब तक भोजन ग्रहण नहीं किया होगा। कुँवर एका-एक विचलित होकर उठ बैठे थे, सबकी निगाहें जैसे उन्हीं पर टिकी थीं। उन्होंने एक अँगड़ाई लेकर रामबख्स को टेरा - 'रामबख्स पीपर पे चढ़ के निहारो तो, गढ़ी की दक्खिनी बुर्ज पे कितनी मशालें जल रही हैं...?' शायद ऐसा ही कुछ सुनने के लिए सभी उत्सुक बैठे थे।
रामबख्स ने जल्दी-जल्दी अपनी लँगोटी की काँछ कसकर बाँधी और बड़ी तत्परता से पीपल की सरारी डालों से होता उसकी चोटी पर जा चढ़ा था। (जब भी किसी कार्यवश गढ़ी का कोई गणमान्य सदस्य, गढ़ी के समीपवर्ती क्षेत्रों में शिकार या किसी अन्य प्रयोजनवश अँधेरा होने पर भी गढ़ी में दाखिल नहीं हो पाता था। तब उसके आगमन की प्रतीक्षा में उसी दिशा में कोई सांकेतिक मशाल लेकर इस आशय से खड़ा हो जाता था, कि तुम जहाँ कहीं भी हो गढ़ी में शीघ्र लौट आओ।) कोई और दिन होता तो शायद कुँवर को इतना सोचने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। पर आज कारण दूसरा ही था, वे अनायास ही अपनी पूज्यनीय माँ की ममता की परीक्षा ले बैठे थे। एकाएक मन में ग्लानि आने पर वे रामबख्स को पीपल से उतार कर गढ़ी के लिए प्रस्थान करने को कहना ही चाह रहे थे, कि तभी पीपल पर चढ़े रामबख्स की चीख निकल कर रह गई। पीपल की डाल उसके हाथ से छूट पड़ी थी। वह डालियों को छोड़ता-पकड़ता नीचे आ गया था। जब सबने उसकी घबराहट का कारण पूछा, तो वह हाँफते हुए चिल्लाया - 'गढ़ी पे मुगल चढ़ि आए हैंऽ! वहाँ दो नईं सैकड़ों मशालें आपस में जुगनुअन की नाईं आपस में गुत्थम-गुत्था हो रई हैऽऽ!! बेगि चलोऽऽऽ!!!
- 'नहीऽऽऽ!...!!...!!!।' एकाएक सभी के चेहरों पर एक साथ विश्वास और अविश्वास के साँप फन पटकने लगे थे।
- 'गंगा की सौं... भइअई सौंऽऽऽ...!' वह एक साथ कई प्रश्नों से भिड़ गया था। तब तक अविश्वास को विश्वास में पूर्ण प्रतिष्ठित करने के लिए ज्वाली भी पीपल पर चढ़ गया था। पर जबाब उसका भी वही था। ...लेकिन कुँवर जोरावर अभी तक निश्च्छल भाव से वही अडिग खड़े थे। ज्वाली के उतर आने पर भी जब सबने कुँवर को इस विचित्र स्थिति में पाया, तो वे कुँवर से साथ चलने का संकेत पाने के लिए ठिठक गए थे। कुँवर ने जब सारे मुख-चकोर अपने चेहरे पर लगे देखे, तो वह एक दार्शनिक की भाँति बोले -'आज विपत्ति के समय गढ़ी पर संकट देखकर हमे हूँ दोहराने पड़ रहो है कि तुम हमारे नौकर-चाकर नहीं, बराबर के भइया-वीर हो..., संकट टल जाने पर हम पुनः सवार हो जाते है उसी धरम के खूनी हाथी पे, जो तुम्हें सदियों से रौंदत आयो है... रणखेत में मारे जाने पर भी इतिहास में तुम्हारी गाथाएँ नहीं लिखी जाएँगी...!'
- 'कुँवर जूऽऽऽ..., तुम सिर्री हो गए हो? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो... हम कछू नहीं जानत; तुम हमारे राजा हो, हम तुम पे अपने प्राण होम देंगे। ...चलोऽऽऽ।' जब सबने सुर में सुर मिलाते चीखते हुए कहा, तो कुँवर ने भी हामी भर मन ही मन सोचते हुए एक लंबी साँस खींची - 'वह उदार दिन कब आएगा, जब ऐसे ही हम हू तुमपे अपने प्राण होमन लगेगें...!' और बिना कुछ कहे ही कुँवर ने सबको गढ़ी की ओर दौड़ने का संकेत दे दिया, फिर पहले से अपने पास रोक रखे रामबख्स को अपने पीछे लील बछेड़े पर बैठाकर, घोड़े में ऐड़ लगा दी थी। जो उस गहराते अँधेरे में भी सबकी-फटी-फटी आँखों में समाकर कर रह गया था? एक सुलझे रास्ते की उलझन भरी मोड़ पर...।