ज़िद्दी / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 3
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भाभी आशा के न कोई भाई था न बहन। फिर भाभी का तो सवाल ही क्या था। मगर वह जब कभी घर की चंचल और ख़ुशमिज़ाज बहू को देखती उसका दिल मुहब्बत से लरज़ उठता। भाभी का क़द मुन्ना-सा गुड़िया जैसा था, और वैसे ही छोटे-छोटे कमज़ोर हाथ, मगर वह शरीर कितनी थी और क़हक़हे कैसे गूंजते थे जैसे चाँदी के मोती आपस में टकरा रहे हों। वह किसी तरह भी तो तीन बच्चों की माँ नहीं मालूम होती थी। निर्मल से थोड़ी ही बड़ी तो लगती थी और निर्मल भी जब पैदा हो गया था तभी भाभी को सीधे पल्ले की साड़ी भी पहननी न आई थी, और शीला भैंस की भैंस ! फूल जैसी माँ की कितनी फूली कुप्पा बेटी थी इतना खाती थी कि माँ तो तीन दिन में न खा सकती और सबसे छोटा भैया तो बस ग़ज़ब था, हाँ वह ज़रा भाभी का बेटा लगता था क्योंकि उस पर ही वह फ़िदा थी।
यह बेतुके बच्चे और पति महाराज तो बस बृद्ध का मुजस्समा1 (1. प्रतिमा) थे। जितना बीवी हँसती उतना ही वक़्त वह चुप रहते। किसी बनिए की परछाई पड़ गई थी बस सिवाय गाँव की देखभाल के और कुछ नहीं बस मुस्कुरा देते थे और भाभी ? हर वक़्त तीतरी की तरह उड़ती फिरती। उसके पति महाराज के मिजाज में जमीन और आसमान का फर्क़ था। मगर ऐसे ही सुकून से निभ रही थी जैसे जमीन आसमान की निभ रही है उनकी बला से बीवी छोटी, कम उम्र और ज़िद्दी थी वह सास का कहना बस कुछ ऐसा ही मानती, ज़रा-सी बात पर रूठ जाती, मुँह फुलाकर घंटों रोती, देवर से शिकायत कर देती, यहाँ तक कि ससुर की लाड़ली होने की वजह से सास की शिकायत ससुर से भी हो जाती वह थी भी तो उनसे उम्र में छोटी। हाँ और देवर से तो हर वक़्त उसकी लड़ाई होती, शादी हो कर आई तो पहला प्यार देवर से शुरू हुआ और पहली लड़ाई भी उससे हुई और उसने शर्म करना तो किसी से सीखा ही नहीं।
सुबह ही सुबह यह रंगीन भाभी उठ बैठती और बच्चों पर सफ़ाई का हुक्म सादिर कर देती। हाँ तोपें ही हुईं, सुर्ख़ अंगारा जैसे दहानों की तोपें ! ज़रा बोलो आग उगलने लगें ये गोरे ! लो ये घी के ज़िक्र पर गोरे कहाँ से आन टपके।
हाँ तो पूरन हर इतवार आता था। आज बूढ़ी खिलाई को उसका इंतज़ार था, तो मींह बरसने पर तुल पड़ा।
‘‘वाह तुझे क्या मालूम आएगा वह ज़रूर। ज़रा देख तो कहीं...।’’
‘‘ए है कहीं भी नहीं आया।’’
रंजी की माँ उठने के डर से मारे जल्दी से बात टालने लगी।
‘‘कुछ खाया भी ? क्या हाल हो गया है...।’’
उसने चाहा बुढ़िया को मौत की याद दिला कर धमकाये। इंतजार की चंद घड़ियाँ ही गुजरीं थीं कि राजा साहब के मोटर की आवाज़ आई। बुढ़िया में जैसे थोड़ी देर के लिए दम आ गया, वह मोटर की आवाज़ को ख़ूब पहचानती थी। मोटरे आतीं ही कब थीं गाँव में, और ज़रा-सी देर में पूरन सड़े-भुसे पलंग पर मुहब्बत से बुढ़िया के पास बैठ गया।
‘‘अम्मा यहाँ ठीक इलाज नहीं हो रहा है तुम्हें लेने आया हूँ।’’
बुढ़िया तो जाने को तैयार थी, मगर कोई पूरन से भी ज़बरदस्त उसे तेजी से घसीट रहा था।
‘‘अब तो परमात्मा के चरनों में चली बेटा...।’’
‘‘कैसी बातें करती हो, और तुम तो कहती थी कि पूरन की बहू लाऊँगी, उसका बेटा खिलाऊँगी और फिर अब परमात्मा से छुट्टी लेकर आऊँगी, बस आज ही चलो वहाँ तुम्हारा इलाज यूँ हो जाएगा।’’ पूरन ने चुटकी बजा कर कहा।
‘‘अब मेरा इलाज दुनिया के किसी डाक्टर से न होगा, मेरी बात सुन।’’
‘‘नहीं अम्मा तुम...
‘‘सुन मेरे लाल ! आशा मेरी...मेरी बच्ची, मैंने इसे बड़ा खिलाया है, बड़ी प्यारी बच्ची है, उसे राजा साहब के चरणों में पहुँचा देना, उसे दुःख न देना-...मेरी... और कहीं अच्छा लड़का ढूँढ़ कर उसका ब्याह कर देना, अब उसके दुनिया में तुम्हीं लोग हो।
पूरन मौत के आसार भी न पहचानता था। ‘‘तुम ख़ुद ही चलो।’’
‘‘मैं...मैं तो जाऊँगी, मगर..रंजी ढंग का होता।’’
‘‘रंजी दुकान करने की सोच रहा है, बनिए ने वादा किया है। रंजी की वालिदा बोली, दो दिन में चल निकलेगी।’’
हालांकि रंजी कई दुकानें कर चुके थे मगर जितने दिन माल...
‘‘भाभी आशा अपनी नौकर तो नहीं, वह काम क्यों करती है ?’’
‘‘काम क्या हम नहीं करते।’’
‘‘बड़ा काम करती हो, बच्चों को पीटना और इसके सिवा तुम्हारे लिए क्या काम है मगर आशा कोई नौकर है।’’
‘‘काम करने से कोई नौकर नहीं हो जाता और फिर आशा को ब्याह कर जाना है, वहाँ क्या नौकर लगे होंगे। ग़रीब घर की लड़की।’’
‘‘क्यों ग़रीब घर की लड़की से क्या होता है, वह ग़रीब घर क्यों ब्याह कर जाएगी।’’
‘‘ग़रीब घर नहीं ब्याह कर जाएगी तो पूरन सिंह जी, तुम कहीं से उसके लिए शहज़ादा ढूँढ़ लाना।’’ वह ऐसे ज़ोर से कहती कि सभी तो सुन लें और पूरन डर जाता।
‘‘मैं ये थोड़े ही कहता हूँ भाभी, तुम तो चीख़ने लगती हो, न जाने तुम्हारा गला क्यों इतना चौड़ा है।’’ पूरन नीची आवाज़ से कहता और भाभी का बदला भैया ग़रीब के गालों और शीला की तोंद से लेता।
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