ज़िद्दी / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 4

Gadya Kosh से
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छोटे भैया

बड़ी बुढ़ियाँ कहती हैं तय्या मिर्चें ज़्यादा खा लो तो पेट में जो बच्चा होता है वह बिल्कुल तेज़ मिर्च पैदा होता है। जब पूरन पैदा होने की था तो शायद बड़ी बहूजी ने मिर्चें चाबीं थीं, बस उसे तो किसी कल क़रार ही नहीं था जब तक कॉलेज में रहा ख़ैर। छुट्टियों में तूफ़ान आता था मगर अब तो वह दो साल से घर पर ही किसी मुक़ाबले के इम्तिहान की तैयारी कर रहा था। यह ख़ब्त भले-चंगे को न जाने कहाँ से हो गया था, घर की जायदाद इतनी थी कि बैठ कर सात पीढ़ियाँ मज़े से खातीं मगर कॉलेजों में लड़कों के दिमाग़ गाँव से घबरा जाते हैं दरअसल क़सूर अपने गाँव का है, वहाँ है ही क्या सिवाये मालगुजारी के, जिसमें किसी का दिल लगे। बेवक़ूफ़ गधों से बदतर इंसान, मैले, बदहंगम1 टूटे-टेढ़े झोपड़ें, सड़ांधी पगडंडियाँ गन्दे नाले और उपलों की भयानक क़तारे नीममुर्दा मवेशी और मलगुजे बच्चे, भला क्या दिल लगे ?

हाँ तो पूरन की बोटी-बोटी बेकल थी सारा दिन वह भाभी से उलझता बच्चों को छेड़ता, छोकरियों से मज़ाक़ करता और चुपके-चुपके बड़े भैया पर जुमले कसा करता।

‘‘भाभी ! सुनते हैं कि भाई साहब जब दुनिया में तशरीफ़ ला रहे थे तो काली बिल्ली रास्ता काट गई, बस देख लो।’’

‘‘हू...नहीं तो तुम्हारी तरह...हाथ ही टूटेंगे। मेरी बच्ची का पेट क्या पत्थर का बना है कि सुबह से चुटकियाँ ले रहे हो।

‘‘तुम्हें तो अपने बच्चों की पड़ी रहती है, बच्चों के बाप की नहीं।’’

‘‘भई बच्चे कौन मना करता है हर साल। मगर पति महाराज सुबह से

पड़े खाता टटोल रहे हैं...’

‘‘भाभी मैं कहता हूँ कभी तो हँसते ही होंगे भाई साहब। कभी अकेले में तो...।’’

‘‘ऐसी जूती मारूँगी पाजी....।’’

अकेले में हँसने के ख़याल से ही भाभी लाल पड़ जाती।

बड़े भाई ही नहीं क्या वह नौकरों को छोड़ देता था ? चमकी को तो बाक़ायदा चपतें लगाता। शेव करते में साबुन उसके मुँह पर मल देता, उसकी चुटिया पाये से बाँध देता। वह तो ख़ैर जवान छोकरी थी और खिल भी जाती थी छेड़छाड़ से मगर भोला की ताई का और उसका भला क्या जोड़ था वह ग़रीब टूटे-फूटे काट-कबाड़ की तरह कोने में पड़ी रहती थी ढंग से सूझता भी न था, जाड़ों में तो ख़ैर पुराना स्वेटर या कोट पहन लेती होगी। मगर चिलचिलाती गर्मी में तो उसके कुर्ते ही फांस लगते थे। दालान में धूप भी आ जाती थी और कोठरी में घमस बला की, इसलिए वह टूटा हुआ पंखा लिए दालान में ही ऊँघा करती। पूरन उसके पास जा बैठता।


‘‘ऐ भोला की ताई ये जवानी क्यों खाक़ में मिला रही हो।’’

बुढ़िया सिर्फ घिन्ना कर देखती और मुँह फेर लेती कि शायद बेरुख़ी से बात टल जाए।

‘‘मैं कितना कहता हूँ तुमसे कि...भई अभी उम्र ही क्या है।’’

‘‘अरे हट इधर-मैं क्यों...।’’

‘‘यही तो तुम्हारी निठुराई मुझे पसन्द नहीं, मैं कहता हूँ।’’

‘‘क्या कहता है ?’’ भोला की ताई की आवाज़ बुड्ढे मुरदुवे जैसी थी।

‘‘अरे ! यही कहता हूँ..कि...कि तुम कुर्ता क्यों नहीं पहनती हो’’, वह कोई क़ाबिले-एतिराज़ बात न पाकर ही कहता।

बुढ़िया चटाई से डटी रहती पर जवान छोकरियाँ यह सुनकर शर्म से गड़ जातीं। भाभी भी बात टालने को दूसरी तरफ़ मुतवज्जा हो जाती जैसे उसने सुना ही नहीं।


‘‘अरे क्या पहनूँ’’, अब बुढ़िया फ़लसफ़ा छाँटती।

‘‘क्यों नहीं पहनो कहो तो मैं ला दूँ दो-चार पोलके ?’’

‘‘चल पोलकों के सगे।’’ बुढ़िया की बदमिज़ाजी कम न होती। कितना कहता हूँ, ‘‘भोला की ताई की मेंहदी लगाया करो, सुरमा काजल’’। छोकरियाँ हँसती और भोला की ताई मोटी-मोटी गालियाँ बड़बड़ाती।

‘‘यह तो चुड़ैलें तुमसे जलती हैं भोला की ताई’’ और वह आहिस्ता-आहिस्ता उसके पास खिसकता।

‘‘अरे क्यों मुझ पर चढ़ा चला आए है, उधर हट बेटा।’’

‘‘मुझे बेटा कहती है ?’’ पूरन संजीदगी से बुरा मानता।


‘‘हाँ भैया ज़रा गर्मी है उधर बैठ।’’

‘‘अरे भैया कहती हो मुझे ?’’ पूरन और भी बिगड़ता।

‘‘बेटा न कहूँ, भैया न कहूँ तो क्या ख़सम कहूँ तुझे ?’’ और बुढ़िया मोटी मोठ मुग़ल्ला ज़ात सुनाती।

‘‘मैं तो कहता हूँ फेरे करा लो मुझसे। क्या होगी तुम्हारी उम्र ?’’

‘‘अरे क्यों शामत आई है तेरी, ‘‘हरामी’ ’’, बुढ़िया भर्रायी हुई आवाज़ से गुर्रायी।

‘‘भोला की ताई जब गालियाँ देती हो तो बस जी चाहता है कि मुँह चूम लूँ वाह...वाह।’’

और फिर गालियों को ग़ैर मुआस्सिर पाकर भोला की ताई मारने पर तुल जाती। लौंडियाँ, बांदियाँ लपेट में आ जातीं और वह उन सबको नंगी-नंगी बातें कहतीं। यहाँ तक कि पूरन भी झेंप कर भाग खड़ा होता।


बुढ़िया बड़ी बहूजी के पास फ़रियाद लेकर जाती तो छोटी बहू उल्टा छेड़ने लगती।

‘‘अरे भोला की ताई कर लो न ऐसा क्या बुरा है ये लड़का।’’

मगर भोला की ताई कुछ ऐसी बातें कहती कि छोटी बहू सुनने से पहले ही दूसरे कमरे में चली जाती।


1. कुरुप

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