जुगाड़ु पंखा-बत्ती / रवि
घर मे दाखिल होते ही सामने की स्लैब पर नज़र ठहर गई। गाड़ियों की बड़ी-बड़ी बैट्रियां स्लैब पर इकट्ठे रखी हुई थी। हमें देखते ही वेदप्रकाश जी ने आवाज़ दी, “आओ-आओ, बड़े दिनों बाद आना हुआ!” हमें अंदर के कमरे में उन्होंने बुला लिया और बिजली के बटन को दबा दिए। कमरे में उजाला हो गया और पंखा भी घूमने लगा। कमरे के अंदर एक सुकून-सा मिला, मैं बिलकुल भी हैरान नहीं था। मोहल्ले के बाकी लोगों की तरह मुझे भी यही लग रहा था कि वेदप्रकाश जी ने घर में इन्वर्टर लगवा रखा है, क्योंकि इस समय इलाके की बिजली गुल थी।
वेद प्रकाश जी ठंडे पानी की बोतल और एक गिलास लेकर जैसे ही आये तो मैंने उनसे कह ही दिया,“क्या बात है, आपने तो इन्वर्टर लगवा लिया।” मेरी बात पर वे मुस्कुरा दिये और पानी का गिलास मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोले, “अरे हम जैसे लोग कहाँ से इन्वर्टर लगवाएंगे…” मैंने फिर पूछा, “तो ये बल्ब और पंखा कैसे?”
वेदप्रकाश जी मुस्कुराते हुए स्लैब पर रखी बैट्रियों की तरफ इशारा करते हुए बोले, “बस इसी से लाइट का इंतजाम कर रखा है।” मैंने पूछा, “इससे कैसे?” फिर वे अपनी इलेक्ट्रिशियन वाली भाषा में मुझे समझाने लगे। यह उनका अपना हुनर भी है, लेकिन काम किसी लेदर की जैकेट बनाने वाली फैक्ट्री में करते हैं। उन्होंने गाड़ियों की कुछ बैट्रियों को आपस में जोड़कर उसे बिजली के मेन बोर्ड से जोड़ दिया है। इसी से कुछ घंटे तक एक बल्ब और एक पंखा चल जाता है।
एक तार को उसी बोर्ड में जोड़ते हुए उन्होंने एफ़एम से पुराने गाने की धीमी आवाज़ को बिखेर दिया। मैंने उनसे कहा, “इससे आपको डर नहीं लगता कि कहीं बैट्री खराब हो जाये या फट जाये!” रेडियो की आवाज़ को थोड़ी धीमी करते हुए वे बोले, “अभी तक तो ऐसा हुआ नहीं है। कितने साल हो गए, इसी तरह अपने लिए बिजली की पूर्ति खुद करता हूँ। बीच-बीच में सफाई कर देता हूँ, तार चेक करते रहता हूँ। इसके अलावा और क्या कर सकता हूँ? जब जो होना होगा वह तो होगा ही।” यह कहकर वो खामोश हो गए।
मेरा अगला सवाल था, “जब पावर खत्म हो जाती होगी तो बैट्री को चार्ज भी तो करवानी होती होगी!” उनका जवाब आया, “हाँ, बिल्कुल लेकिन इतनी भारी बैट्री बार-बार बाहर कौन ले जाएगा! एक बार पूरी तरह चार्ज होने के बाद ज़्यादा से ज़्यादा दो दिन चल पाती है। इसलिए चार्ज करने का भी जुगाड़ मैंने कर रखा है। बिजली आने पर घर पर ही चार्ज में लगा देता हूँ।” मैंने पूछा, “और, अगर कुछ दिनों तक बिजली ही नहीं आए तब फिर क्या करते हैं?” उन्होंने बताया, “फिर… फिर तो बाहर से ही चार्ज करवानी पड़ती है। वैसे इतनी बड़ी और जुगाड़ वाली बैट्री बाहर कोई चार्ज भी नहीं करता! सब खोल-खोल कर, अलग-अलग चार्ज करवानी पड़ती है। इसमें बहुत झंझट होता है, बार-बार हर बैट्री को अलग करो, चार्ज करवाओ और फिर घर में लाकर जोड़ो और फिर से कनेक्शन करो। साथ ही साथ मेहनत और खर्च अलग से। एक बैट्री चार्ज करने के पैंतीस रुपये देने पड़ते हैं। मैंने तो चार बैट्री जोड़ कर एक की हुई है। यानि एक बार में डेढ़ सौ रुपये तो लगते ही हैं।”
मैंने पूछा, “आपको यह आईडिया आया कैसे और आप इसे औरों के लिए क्यों नहीं बनाते?” वेदप्रकाश जी बोले, “बिजली का काम तो काफी समय से जानता हूँ तो तिकड़म लगाते-लगाते बन ही गई। मैंने बाज़ार में कुछ लोगों को इसी तरह बैट्री की मदद से लाइट जलाते कई बार देखा था। पहले एक बैट्री से घर में एक बल्ब जोड़ा, फिर उसे दो कर दिया और अब चार बैट्री एक साथ। सच मानो तो इस पर मुझे खुद ही विश्वास नहीं हुआ। यह मैंने यहाँ के लोगों को सोचकर नहीं बनाई थी, यह तो अपनी परेशानी के चलते, घर में एक बल्ब की रोशनी हो इसके लिए बनाई थी। बच्चे लाइट न होने की वजह से पढ़ाई में पीछे न रह जायें। उनका भविष्य भी तो देखना है ना! शादी होने से पहले पिताजी के साथ संगम विहार के शुरूआती हिस्से में रहता था, वहाँ भी बिजली-पानी की परेशानी थी, मगर इतनी नहीं जितनी यहाँ है। वहाँ बिजली की सुविधाओं के बीच रहने की ऐसी आदत पड़ी कि यहाँ उसकी कमी खलती है। यहाँ तो बिजली न के बराबर ही होती है। अब जाकर कहीं ठीक-ठाक लाइट आने लगी है।”
“आपका यहाँ आना कैसे हुआ? और जब आप यहाँ आए थे तो यह मालूम नहीं था कि यहाँ इन परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है!” वह हँसते हुए बोले, “जगह खरीदी तो यह तो मालूम था कि बिजली-पानी की सुविधा यहाँ कम है। कहने को दिल्ली शहर में घर तो है, जिसे सीना ठोंक कर कह सकते हैं। हमने तीन लाख में यह जमीन खरीदी थी और बचे हुए पैसों से एक कमरा बनवा लिया। बीबी-बच्चों के साथ यहाँ आ बसे।”
“संगम विहार में पिताजी का घर है, कई साल तक वहीं उनके साथ रहा। शादी होने के बाद माँ ने पास में ही एक अलग कमरा दिलवा दिया था। इससे साफ ज़ाहिर था कि अब सब जिम्मेदारी अपने ही सर ढोकर चलनी होगी और पिताजी का घर इतना बड़ा भी नहीं था कि उसमें एक और शख़्स जुड़ सके।
वहीं संकरी-सिमटी गलियां और गलियों में घरों के सामने खड़ी बाइके, गली के एक कोने से दूसरे कोने तक बस-बाइकों की कतार ही दिखती थीं। एक बाईक तो हर कोई आसानी से खरीद सकता था। घरों की खिड़कियों पर गली से घर में झाँकते कूलर, जिनको लोगों ने अलग-अलग तरीके से जुगाड़ करके फिट किया हुआ था। कुछ ने लकड़ियों के फट्टों को खिड़कियों में अटकाकर तो कुछ ने लोहे के सरियों व एंगलों को खिड़की वाली दीवार में फिट करवाकर तो किसी ने खिड़की से सटी पानी की टंकी के ऊपर। इससे गलियां और सिकुड़ गई थी। घर के नाम पर बारह-बारह गज के दो कमरों के साथ गुज़ारा किया। घर के आयत को बढ़ाने के लिए लोगों ने छज्जों का जुगाड़ कर लिया। हर घर का छज्जा कुछ फुट बाहर जरूर निकला होता, जिससे ऊपर बने घरो के कमरो का आकार बढ़ गया। इससे छतें मिलने लगी थी। खुली हवा का कोई ज़रिया नहीं बचा था। दो बच्चे भी घर में जुड़ गए थे। घर का दायरा और छोटा नज़र आता। इस तरह से वहां रहने का बिल्कुल भी मन नहीं था। इसलिए हमने वहाँ के किराए का कमरा छोड़ यहाँ अपना घर बनवा लिए। आज के समय में यहाँ बिजली-पानी की इतनी मशक्कत नहीं करनी होती, दोनों चीजें ठीक-ठाक मिल जाती है। बिजली न भी आए तो ये बैट्रियां काम आ जाती हैं।”
यहीं पर हमने बातचीत को ख़त्म किया और धन्यवाद बोल वापस आ गए।