जुल्मी संग आँख लड़ी / माया का मालकौंस / सुशोभित

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जुल्मी संग आँख लड़ी
सुशोभित


‘मेरा पागलपना तो कोई देखो / पुकारूँ मैं चंदा को / साजन के नाम से / फिरी मन पे जादू की छड़ी !'

सलिल चौधुरी ने 'मधुमती' में जो किया, वो किसी अचरज से कम नहीं था । मोत्सार्ट के इस मानसपुत्र ने उसमें जैसा पारलौकिक संगीत रचा, वो नश्वरता की कोटियों से परे चला गया था । फिर भी, इतने विलक्षण गीतों की लड़ी में, एक यही गीत मुझे क्यूँ सबसे प्रिय है, मालूम नहीं - 'जुल्मी संग आँख लड़ी।'

यों इसी में ‘दिल तड़प-तड़प के कह रहा है / आ भी जा' भी था, उत्कट प्रतीक्षा के ताप से भरा, रागात्मकता के अलंकार से सजा वैसा दोगाना फिर कहाँ बना। इसी फ़िल्म में लता - स्वर की सबसे विकल पुकार भी थी- 'आ जा रे परदेसी, जिसके अंतरंग में यह आत्ममंथन कि 'मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी / भेद ये गहरा बात ज़रा सी ।' फिर इसी में मन्ना ने लता के साथ वो अमर कोरस गाया था - 'पीपल छैयाँ / बैठी पल भर / धर के गगरिया / हाय रे,' जिसमें समस्त दिशाएँ अनुगूँजें बन गई थीं, स्वयं पर लौटती हुईं। और इसी में, ‘आ जा रे परदेसी' के इंटरल्यूड की धुन से सलिल दा ने एक स्वतंत्र गीत रच दिया था, किसी मायने में किसी और गीत से कमतर नहीं - 'घड़ी घड़ी मोरा दिल धड़के / हाए धड़के क्यूँ धड़के!'

लेकिन 'जुल्मी' में जो दुर्लभ माधुर्य सलिल दा और लता से संभव हो गया, वैजयंती ने जिसे कोमल भावना की गहरी अनुभूति से सजीव कर दिया, वो रुपहले परदे पर हुआ वैसा अचरज था, जिसके लिए व्यंजनाएँ गूँगी हो जावैं ।

कि ये उस देहाती लड़की के प्यार का ज्वार है, जिसे एक दिन छत से गिरकर मर जाना था । इतनी कोमलता सदैव निष्कवच होती है । अनिष्ट उस पर प्रेतबाधा की तरह मँडराता है । यह गीत उस अनिष्ट का पुरोवाक् था, जिसने सन् 1958 में सिनेमाघर में बैठे दर्शकों को अपनी-अपनी कुर्सियों पर स्तब्ध कर देना था। उनके घुटने काँप जाना थे । मन में मावस घिर जानी थी। लेकिन, इस गीत के अथाह माधुर्य में बिसुरते किसको मालूम था कि नियति में क्या लिखा था ?

अगर 'मधु' के साथ वैसा दुर्दैव घटित हो सकता है, तो फिर इस संसार में कोमल हृदय लेकर कोई भला क्यों जीए, यह भावना तब प्रेक्षकों को गहरे तक मथ देती थी।

दूरस्थ और अप्रत्याशित विपद से पूर्व इस गीत का बेमाप अनुराग है । गाँव का मेला है। बैलगाड़ी के पहियों की ओट से वैजयंती दिलीप कुमार की एक छवि देखती हैं । वैसा धीरोदात्त नायक उसके मन को बावरा कर देता है । कि किसी छबीले पर कोई कैसे भरोसा करे ? किसी बड़बोले पर कैसे प्यार आए? वफ़ा की क़सम खाने वाला प्यार तो एक दिलीप कुमार जैसे पुरुष से ही संभव है, जिसकी आत्मा में जाने कौन-सी डूबी धुन बजती थी, उसकी आँखें जिसे छुपा नहीं पातीं?

वो संसार का पहला पुरुष था, ये संसार का पहला प्रेम था । प्यार की ये पहली पुकार थी, जिसने मधु को एक स्त्री के बजाय एक बाढ़ बना दिया था और कूल - किनारे टूट गए थे। ये गाना उस प्लावन का राग था, उस अबोध मन की गीति, जिसे प्यार ने बेध दिया था ।

प्यार संभव हो सकता है, यह प्रतीति किसी को भी वैसे बेख़ुद कर सकती है । धुरी दोल जाती है । आवरण छूट जाते हैं । हम अपने हृदय के अनुराग का उत्तर-कथन बन जाते हैं । असंभवताओं से भरे इस संसार में प्यार संभव हो सकता है, एक यही भावना वैसे गीत को जन्म दे सकती थी । 'वो छुप छुपके बंसरी बजाए

सुनाए मुझे मस्ती में / डूबा हुआ राग रे

मोहे तारों की छाँव में बुलाए

चुराए मेरी निंदिया / मैं रह जाऊँ जाग रे,

लगे दिन छोटा रात बड़ी !'

ये शैलेंद्र की गीत-रचना है । ये लता का स्वर है । ये वैजयंती की चितवन है। ये बिमल रॉय का सम्मोहन है । ये सलिल चौधुरी का यश है, जिससे वह गीत उनसे संभव हो गया, उस देशकाल के भीतर, जो अब पता नहीं कहाँ खेत रहा। और दिलीप कुमार और वैजयंती माला भी तो अब कितने बूढ़े हो चुके, कहीं मिलें तो पहचान भी ना पावैं !

अजातशत्रु ने एक बार कहा था कि लता - स्वर ने जिस स्त्री- छवि को निर्मित किया था, उसे परदे पर अनेक अभिनेत्रियों ने अभिनीत किया, किंतु जैसे कि उस स्वर का एक स्वतंत्र अस्तित्व था । जैसी प्रेयसी की आकांक्षा मन में लिए एक उदात्त हृदय युवा होता है, लता - स्वर ने उसी प्रेयसी को रच दिया था ।

और इसमें आगे जोड़ते हुए मैं कहूँ कि 'मधुमती' की वैजयंती कल्पनाओं की उस सम्पूर्ण प्रेयसी के सबसे निकट पहुँच गई थीं।

पूर्णचंद्र से पूरा और क्या होता है ?

और वैजयंती, जो देवदास की चंद्रमुखी भी थी और आनंद बाबू की मधु भी, वही चंद्रमा थीं, कोमल भावनाओं के जलज्वार को पुकारने वाली प्रेयसी, जिसके लिए ली जाती है पूरे चाँद की शपथ !