पिया बिना पिया बिना / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
मंच पर माइक्रोफ़ोन यों सजे थे, जैसे जीती गई ट्रॉफ़ियाँ हों, और फिर भी सुनहरी जरी के पहलू वाली दूधिया रेशमी साड़ी को सिर तक खींचे उस गायिका के कंठ में क्रंदन के सिवा कुछ और ना था -
‘पिया बिना पिया बिना बांसिया, बाजें ना बाजें ना!'
कि जब पिया ही रूठ गए, तब इस यश का भी क्या करें, जो श्रेष्ठ के भाग्य का मुकुटमणि होता है ? सराहनाएँ उसके सम्मुख शमी वृक्ष के पत्तों -सी झड़ती हैं । संसार सिर नवाता है । प्रशस्तियाँ पंक्तिबद्ध होकर करतलध्वनि करती हैं, और इसके बावजूद हृदय में एक सूनापन ही गूँजता है, कि साथी बनकर जिसने मन का नगर लूटा था, दिनदहाड़े के डाके में जिसके साथ मेरी भी बराबर की हिस्सेदारी थी, वो गौरव के इस मंच पर मुझे अकेला छोड़कर चला गया !
तब अकेले में इस यश का भी क्या करना था ? ईश्वर ने कंठ में जो राग दिया, उस सौभाग्य के फल भी एकांत में किसे भोगना था ? क्या मेरी सफलताएँ भी वो उपहार ना थीं, जिन्हें वेणी की तरह गूँथकर तुम्हें सौंपती ? अभिमान की अपनी विवशताएँ होती हैं, सीमाएँ होती हैं, एक सीमा के बाद उसकी रीढ़ झुकती है तो होने के तमाम संदर्भ हताहत हो जाते हैं, परिप्रेक्ष्य रीत रहते हैं। हर बात कही नहीं जा सकती, किंतु एक मन तो हमेशा ही पढ़ा जा सकता है, जिसे तुम्हें सौंपा था, मेरे पिया?
ये गीत मज़रूह ने लिखा है । यश और प्रेम के द्वंद्व में आपादमस्तक डूबी स्त्री के मन को मथकर इसे वे रच सके, ये कह सके कि 'तुम्हारी सदा बिन नहीं एक सूनी मोरी नगरिया' और 'कभी जब मैं गाऊँ लगे मेरे मन का हर गीत झूठा', तो इसके लिए उन्हें प्रणाम ही किया जा सकता है । लता ने उसी अंतर्भाव के साथ दादा बर्मन के साज़िंदों के साथ क़दमताल करते इसे गाया। जया ने वैसी ही भावप्रवण विकलता से अभिनीत किया।
समस्त सरणियाँ और संगतियाँ जुड़ीं तो मिलकर कृति बनीं | कृति बनी तो कृति का सत्य मंच पर सजीव हो उठा। तब उसके तात्कालिक प्रसंग निष्प्रभ हो गए। कथाक्रम पीछे छूट गया और एक विराट मानवीय शोक उभरकर सामने आया, जिसने मरने से इनकार कर दिया । तब, परिणाम यह रहा है कि साल पचहत्तर को मरे सदियाँ हो गईं, साल पचहत्तर में जीने वाले लोग भी जाने कहाँ खेत रहे, लेकिन ये गाना नहीं मरा, तो नहीं मरा । कभी मरेगा भी नहीं । कि इसने उस एक विषाद को गा दिया, जो प्यार की नश्वरता से भरे इस संसार में इकलौती अमरता थी ।
‘पिया ऐसे रूठे’– ये वो एक टेक थी, जिस पर आकर रुदन को ठिठक जाना था। रूँधे गले से कहना था कि देखो, ये जो मेरा होना है, चाहकर भी इसे अपने से विलग ना कर सकूँगी। जो गीत गाना मेरे भाग्य में बदा है, उसे रोककर अवरुद्ध ही अगर हो जाऊँ तो तुम्हें प्रेम भी कैसे कर सकूँगी । किंतु यह गीत तुमसे बड़ा नहीं है, तुम्हारी प्रतिभा इससे कुंठित क्यों हो? कि तुमने मेरी प्रतिभा के लिए तो प्रेम ना किया था, मुझसे बाँधा था मन को । तब आज ये गीत तुम्हीं को पुकारता है । कंठहार सरीखे इस संगीत का क्या, वो मैंने भी अपने भीतर स्वयं कहाँ रचा ? ईश्वर का शाप था, जिसे संसार ने वरदान समझकर जयघोष किया और मैंने अन्यमनस्क ही सही, किंतु विवश सहमति में सिर हिलाया ।
किंतु तुम इससे आहत ना होओ । गाकर ही पुकार सकती हूँ, सो गा रही हूँ। गाना मत सुनना, मेरी पुकार सुनना । मुझे ना देखना, मेरा मन देखना । कि ये गाना मेरे मन की पाती है, तुम्हारे नाम । तुम्हारे बिना ये बाँसुरी बजती नहीं । दोगाना भी भला कोई अकेले गाता है ? तुम्हारी एक मुस्कराहट ही मेरा कोरस है । तुम एक बार मुझे मेरी नियति के लिए क्षमा करके मुस्करा भर दो, तो यह वीणा तुम्हारे चरणों में रख दूँगी, जो मेरी आत्मा में अहर्निश बजती है, मेरे पिया !
यह सब सुना मैंने इस एक गीत में । पंक्तियों के बीच यह सब पढ़ा । यह मेरे भीतर गूँज गया। सप्ताहांत की संध्याओं में यों भी जाने कैसा आत्महंता अवसाद होता है, जो दैनंदिनी के भ्रमों को निरस्त कर देता है । आपने भी अगर बाँचनी हो वह वर्णमाला, तो कान लगाकर आँख मूँदकर यह क्रंदन सुनिए-
'ऐसे बिछड़े,
ऐसे बिछड़े, मोसे रसिया
पिया बिना, पिया बिना बांसिया
बाजे ना बाजे ना बाजे ना!'