रमैया वस्तावैया / माया का मालकौंस / सुशोभित

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रमैया वस्तावैया
सुशोभित

इस गाने पर बात करने चलें, उससे पहले तो यही अचरज जतला दें कि आरके बैनर की फ़िल्म और रफ़ी साहब का गाना ! नहीं साहब, आरके बैनर में रफ़ी साहब से गवाया नहीं जाता था । पुरुष स्वर के लिए वहाँ मुकेश प्रथम - स्मरणीय थे । मुकेश की अनुपस्थिति में मन्ना डे । और बाद के सालों में जब आरके बैनर की फ़िल्मों में राज के बजाय ऋषि कपूर नायक बन गए तो शैलेंद्र सिंह और सुरेश वाडकर |

आरके बैनर में रफ़ी साहब का सबसे बड़ा हिट गाना है - 'ये मेरा प्रेम पत्र पढ़कर।' लेकिन यह राजेंद्र कुमार पर फ़िल्माया गया था और उन दिनों राजेंद्र के लिए रफ़ी साहब ही गाते थे । उस फ़िल्म, यानी 'संगम' में राज कपूर के सभी गीत मुकेश ने ही गाए थे । दुर्भाग्य से यही वह गीत है, जिसको मिले फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार को लेकर शंकर-जयकिशन के बीच लड़ाई हो गई थी । शंकर को लगता था कि उनके द्वारा रचा गया गीत 'दोस्त दोस्त ना रहा' कहीं बेहतर कंपोज़िशन थी।

बहरहाल, ऐसा भी नहीं है कि आरके बैनर की फ़िल्मों में रफ़ी साहब ने कभी कोई गीत नहीं गाया, किंतु ये गीत बहुधा नगण्य कलाकारों पर फ़िल्माए गए होते थे। मैं कहूँगा, फ़िल्म 'श्री 420' का यह आलोच्य गीत भी रफ़ी साहब को इसीलिए दिया गया था, क्योंकि इसे झुग्गीवासियों पर फ़िल्माया जाना था । इसी गीत में बाद की कड़ियों में नायक-स्वर के लिए मुकेश ही गाते हैं । सलिल चौधुरी ने भी 'मधुमती' में दिलीप कुमार के लिए मुकेश से गवाने के बाद जॉनी वॉकर के गाने के लिए रफ़ी साहब को याद किया था । आज के ज़माने में उस क़द का कोई भी कलाकार साफ़ नज़र आने वाली इन चीज़ों के लिए राज़ी नहीं होगा, किंतु रफ़ी साहब जिस मिट्टी से बने थे, उसकी सिफ़त ही अलग थी ।

ग़नीमत है कि यह गाना झुग्गीवासियों के लिए रचा गया था, नहीं तो रफ़ी साहब के खाते में यह नगीना कैसे जुड़ पाता ? सच में ही वह गीत एक जादू है ।

गीत की जो प्रिमाइस है, वह तो राज कपूर का सुपरिचित मेलोड्रामा है। ‘आवारा' के स्वप्न-दृश्य में वे इसे दोहरा चुके थे - एक क्लांत, हताश नायक, सहसा भटके परदेसी की तरह घर लौट आता है, और चीजें, केवल उसके घर लौट आने भर से, ख़ुशगवार हो जाती हैं।

'रमैया वस्तावैया' गीत प्रारंभ होने से पहले एक-दो मिनटों का उसका एक इंट्रो है। दृश्य यह है कि सेठ सोनाचंद धर्मानंद के यहाँ आलीशान पार्टी चल रही है, जहाँ पर राज कपूर असहज महसूस कर रहे हैं । ऐसा जान पड़ता है, जैसे उनका दम घुट रहा है। मछलियों के शल्कों सी मायावी पोशाक पहने नादिरा नाच रही हैं । जाम छलक रहे हैं। सिक्के बरस रहे हैं । राज कपूर तेज़ी से उठते हैं और बाहर निकल आते हैं।

नादिरा ने इस फ़िल्म में जो क़िरदार निभाया, उसका नाम ही 'माया' था । इसके बरअक्स फ़िल्म की नायिका का नाम 'विद्या' था । यह भूमिका नरगिस ( और कौन?) ने निभाई थी। 'माया' के बरअक्स 'विद्या ।' राज कपूर अपनी फ़िल्मों में ऐसी रूपकात्मकता अकसर रचते थे । इसी फ़िल्म में राज कपूर को 'श्री 420' की उपाधि दी गई है, क्योंकि धोखाधड़ी के धंधे में वह लिप्त हो गया है, और यह धोखा अवाम से ही नहीं, ख़ुद अपने आप से भी है। सेठ का नाम 'सोनाचंद धर्मानंद' है और संकेत यह है कि धर्म और अर्थ बहुधा आपस में तालमेल कर ही चलते हैं। एक ज़माना था, जब सेठों के द्वारा बहुत धर्मशालाएँ बनवाई जाती थीं । और यह ज़रूरी नहीं था कि वह धन नैतिक साधनों से ही अर्जित किया गया हो ।

लिहाज़ा, राज कपूर उस मायावी दुनिया से बाहर निकल आते हैं! सेठ के घर के बाहर झुग्गी बस्तियाँ हैं । शाम का समय है, झुग्गी के लोग घर लौटकर आ गए हैं और मिल-जुलकर नाच - गा रहे हैं। राज कपूर ने महंगा सूट-बूट पहन रखा है, लेकिन उन्हें देखकर वे लोग उनका स्वागत करते हैं, उन्हें गले लगा लेते हैं ।

तब नायक यहाँ पर 'डी - क्लास' हो जाता है ।

यह 1955 का साल है और गाँधी का भारत नेहरू के भारत से संघर्ष कर रहा है। गाँव अभी भी प्रधान संस्था है, खेती-किसानी अभी भी मुख्य पेशा है, धनाढ्य होना अभी भी ग्लानि का विषय है, ग़रीब होना अभी भी भली बात है । ग़रीब अच्छा होता है और अमीर बुरा होता है, यह पूर्वग्रह समाज के दिमाग़ में पूरी तरह से बैठा हुआ है। राज कपूर वास्तविक जीवन में स्वयं धनाढ्य है, किंतु यहाँ परदे पर ग़रीब का वेश धरकर उस वर्ग की सहानुभूति जीत रहा है, जिसने उसकी फ़िल्मों पर कलदार की बरखा करना है ।

1955 के भारत और 2019 के भारत में ज़मीन-आसमान का अंतर है !

झुग्गी में रहने वाले लोग कभी इतने प्रसन्न नहीं होते, जितने कि इस गाने में दिखाई दे रहे हैं। वे ऐसे सड़कों पर नाच-गाना नहीं करते । सेठ के घर के बाहर तो हरगिज़ नहीं। और अगर सेठ इन्हें चुप कराने के लिए पुलिस को बुला ले तो यह 1955 में एक पाप माना जा सकता था, आज वह नागरिक अधिकारों की यथास्थिति ही स्वीकारी जाएगी।

और इसके बावजूद, मजाल है जो इसके बावजूद इस गाने का तिलिस्म कम हो जाए। सिनेमा को हम 'मेक बिलीव' की कला इसीलिए कहते हैं कि यह जानने बावजूद कि छवियों का यह संसार मायावी है, हम उसके मोह में ग्रस्त हो सकते हैं, ख़ुद को कुछ समय के लिए 'डी - क्लास' और 'डी - पोलिटिसाइज़ कर सकते हैं । इतिहास के चंगुल से छूटकर घड़ी भर को रूपकों की आरामकुर्सी में सुस्ता सकते हैं ।

'नैनों में थी प्यार की रोशनी

तेरी आँखों में ये दुनियादारी ना थी'

प्यार का इज़हार है! ‘मैंने दिल तुझी को दिया है', यह ज़ोर देकर कहा जा रहा है, किंतु इज़हार के साथ ही मीठी तक़रार भी है। शिक़वों के सिलसिले हैं । उलाहनों के दौर हैं

'तू और था तेरा दिल और था

तेरे मन में ये मीठी कटारी ना थी'

आज तलक किसी को मीठा उलाहना देने के लिए इससे असरदार पंक्तियाँ नहीं लिखी गईं। मजाल है, जो आप किसी ऐसे शख़्स को यह पंक्ति कहें, जिसका दिल और ज़मीर आज भी जिंदा है, और वो यह सुनकर पसीज ना जावै ।

कि अब तू बदल गया है । कि तू पहले जैसा कहाँ रहा? तेरी बातों में पहले ऐसे कटाक्ष कहाँ हुआ करते थे, जैसे आज चले आए हैं | तेरी आँखों में प्यार था, दुनियादारी कहाँ थी?

‘प्यार' और 'दुनियादारी' का यह द्वैत पहले अंतरे में स्थापित करने के बाद फिर गीत 'अमीर-गरीब' के द्वैत पर लौटता है, जिसमें -

'उस देश में तेरे परदेस में

सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल'

के बरअक्स

‘इस गाँव में दर्द की छाँव में प्यार के नाम पर ही तड़पते हैं दिल'

का स्पष्ट द्वैत है ।

दो दुनियाएँ हैं, दोनों के मुख़्तलिफ़ रिवाज़ हैं, एक में सिक्का खनकता है, दूजै में दिल धड़कता है। आपको कौन-सी दुनिया चुनना है, ख़ुद ही तय कर लीजिए ।

यह सवाल उस काल्पनिक झुग्गी बस्ती के लोग ही आपस में नहीं पूछते, यह सवाल इतिहास की उस करवट पर हिंदुस्तान भी ख़ुद से पूछ रहा था । हिंदुस्तान ने जवाब पा लिया है। वो जवाब हमारे सामने मौजूद है । और हिंदुस्तान ने इस फेर में ख़ुद को गँवा भी दिया है, वो एक दूसरी कथा है।

कुछ तो कारण रहा होगा कि ये जो हिंदुस्तान नाम की कहानी है, यह भरोसे, भोलेपन, किफ़ायत, ज़िंदादिली और दिलदारी के आधार पर ही आगे बढ़ती है। ये ना हों, तो जैसे हिंदुस्तान की आत्मा ही खो जाए। कुछ तो कारण रहा होगा ।

शंकर-जयकिशन के मंत्रमुग्ध कर देने वाले ग्रैंड ऑर्केस्ट्रा के साथ किसी 'एंसेबल कास्ट' की तरह इस गाने में चेहरे बदलते रहते हैं। तीसरे अंतरे में नायिका परदे पर आती हैं। चौथे अंतरे में अब स्वयं नायक इस कोरस में सम्मिलित हो गया है । सेठ की कोठी ने जो भेद रचा था, वह ढह गया है । जो व्यक्ति जिस वर्ग से संबद्ध था, वह वहीं जाकर उस धारा से मिल गया है। दुनिया दो क़िस्म की है—दीवार के इधर और उधर । और कौन-सी दुनिया बेहतर है, फ़िल्मकार ने इसको लेकर कोई दुविधा प्रेक्षकों के मन में नहीं रख छोड़ी है।

'रस्ता वही और मुसाफ़िर वही

एक तारा न जाने कहाँ छुप गया

दुनिया वही दुनियावाले वही

कोई क्या जाने किसका जहाँ लुट गया'

यह टिपिकल शैलेंद्र है । एक लौकिक गीत के भीतर उचटे हुए दिल और डूबी हुई आत्मा के वैसे संकेत रच देना । एक तारा है, जो छुप गया है। एक दुनिया है, जो लुट गई है। क्या वो हमें फिर मिल सकेंगे ?

दूर से प्रत्युत्तर आता है- 'मेरी आँखों में रहे, कौन जो तुझसे कहे- मैंने दिल तुझको दिया ।'

और, बाद उसके, फिर वही - 'रमैया वस्तावैया' की जादुई टेक |

यह सिनेमा है। यह लोकरंजन है । यह मायावी संसार है। उसके भीतर संगीत और नाटकीयता के द्वारा रचे गए ये मानुषी बिंब हैं, जीवन-प्रसंग हैं, जो सहृदय को ज़ख़्मी कर देते हैं । यहाँ कुछ भी समझने के जैसा नहीं है और सब कुछ अनुभव करने के योग्य है ।

जो तारा छुप गया, वह भले ना मिले । कोई तो है, जिसने आपको अपना दिल दे दिया है।

शायद, अपनी आत्मा को खोलकर सड़कों पर नाचने के लिए यही बहाना काफ़ी हो।

वो तारा मेरा देश भी है, जिसने ख़ुद को खो दिया है। खोजे से भी नहीं मिलता। जब मैं उन्नीस सौ पचपन में बनाया गया यह गाना बारंबार देखता हूँ, तो मुझे इस बात का पक्का अहसास होता है कि चाँद-तारों के तले रातें जो गाती चलती थीं, उन बातों का सच कहाँ पर छुपा हुआ था ।

'तू न आए तो क्या भूल जाए तो क्या प्यार करके भुलाना ना आया हमें ।' -

हर चीज़ के लिए शुक्रिया - राज कपूर, शंकर-जयकिशन, शैलेंद्र, और हाँ, सबसे बढ़कर, रफ़ी साहब । इस देश के अंतर्मन की आवाज़ - बहुत बहुत शुक्रिया !