उड़ें जब जब ज़ुल्फ़े तेरी / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
ओ.पी. नैयर खाँटी पंजाबी थे ।
बी.आर. चोपड़ा पंजाबी थे । साहिर साहब तो ख़ैर लुधियाने की शान थे ही दिलीप कुमार यों तो पंजाबी नहीं थे, लेकिन उस पेशावर के पठान ज़रूर थे, जो पंजाब के पड़ोस में साँसों की गिरहें बुनता था ।
और रफ़ी साहब का पिंड तो पंजाब के कोटला सुल्तान सिंह में ही था। आशा भोसले मराठन थीं तो क्या हुआ ? उन दिनों पंजाबी ओ.पी. नैयर के प्रेम में डूबी नहीं थीं क्या ? नैयर के तमाम गाने आशा ही गाती थीं।
वैजयंती मद्रासी थीं, लेकिन मजाल है वैसी बड़ी-बड़ी निर्दोष आँखें, देह में ग्रामबालिकाओं-सी स्वाभाविक उत्फुल्लता और चंद्रमा जैसा गोल चेहरा देखकर कोई कह दे कि उनके नाम में 'कौर' नहीं जुड़ा होगा ।
ये तमाम लोग सन् सत्तावन के उस जादुई साल में मिल गए, तो 'नया दौर' का ये गाना रचा गया । साहिर ने पंजाबी बोलचाल के आमफ़हम मुहावरेदार लफ़्ज़ लेकर आपसदारी का समाँ बाँध दिया। गीतों में वैसे प्राणवंत बोल अब ढूंढे से नहीं मिलेंगे ।
जैसा कि कहा है, ये 'आपसदारी' का गाना है। यानी, गाँव के मेले-ठेले के दौरान नाच-गाने में लड़का और लड़की सवाल-जवाब की तर्ज़ पर गा रहे हैं, नाच रहे हैं, और इसी बहाने दुनिया की नज़र बचाकर अपने प्यार का इज़हार कर रहे हैं ।
नैयर ने पंजाबी लोकधुनों में इस्तेमाल की जाने वाली ढोलक, चिमटी, दिलरुबा और घुँघरूओं के बोल से इस गीत को भर दिया था, उसमें वैसी भास्वर गीतिमयता उत्पन्न कर दी थी कि आज भी सुनो तो दिल खुश कर देती है ।
तिस पर ‘ज़िंद मेरिये की वो जानलेवा टेक ।
दिलीप कुमार और वैयजंती माला तब प्रेम में थे। दिलीप इससे पहले कामिनी कौशल और मधुबाला से इश्क़ फ़रमा चुके थे और वैजयंती को आगे जाकर राज कपूर से मोहब्बत करना थी, लेकिन पचास के दशक के उत्तरार्ध में, ‘देवदास’, ‘पैग़ाम’, ‘नया दौर' और 'मधुमती' के उस कालखंड में, दिलीप और वैजयंती से ज़्यादा सजीला जोड़ा पूरे हिंदुस्तान में कोई दूसरा ना था !
दिलीप बहुत अच्छे से नाचना नहीं जानते थे, लेकिन ठेठ क़िस्म के ठुमके ख़ूब लगा लेते थे । वही उन्होंने इस गीत में लगाए हैं । वैजयंती तो ख़ैर निष्णात नृत्यांगना थीं और इस गीत में उनका नाच एक दूसरी ही कोटि का सम्मोहन बन गया है। दिलीप और वैजयंती : इसी जवाँ छबीले जोड़े के प्रणय के उत्कर्ष का यह गीत है-
'उड़े जब-जब ज़ुल्फ़े तेरी कँवारियों का दिल मचले'
लड़की फ़िदा है। लड़के को बतलाने की कोशिश करती है कि एक वो ही नहीं है, जो उस पर मर मिटी है । ये कहानी तो गाँव की हर लड़की की है, क्योंकि तेरी ज़ुल्फ़ों का जलवा ही कुछ ऐसा है ।
लड़का फ़ौरन ताव में आकर बोल पड़ता है- 'जब ऐसे चिकने चेहरे तो कैसे ना नज़र फिसले ।'
ग़रज़ ये कि माना कि गाँव में मैं ही सबसे छबीला जवान हूँ, लेकिन सच मान मेरी जान, यहाँ तेरे जैसी रुपहली गोरियों की कमी नहीं है
यहाँ से लड़का और लड़की के बीच परस्पर छेड़खानी और इज़हारे - मोहब्बत का सिलसिला जम जाता है
लड़की गीत को आगे लेकर जाती है-
'रुत प्यार करन की आई।'
ये लफ़्ज़ ‘रुत’ कितना हसीन है । संस्कृत के 'ऋतु' शब्द से 'रुत' बना है उसी का तद्भव। दोनों का मतलब मौसम होता है । इस गीत की प्रसंग - योजना में यह एक लफ़्ज़ गौहर की तरह दमकता है, जैसे उसे लिखा नहीं गया हो, गाने में मोती की तरह टाँक दिया गया हो । लिहाज़ा, मौसमे बहार है, प्यार करने के दिन अब धान की तरह पक गए हैं।
‘रुत प्यार करन की आई, के बेरियों के बेर पक गए ।'
अब यहाँ पर श्लेष की छटा ।
'बेरी' और 'बैरी' |
‘रुत बहार' में ज़ाहिर है, बेरियों के बेर तो पक ही जाएँगे, लेकिन चूँकि ये प्यार का मौसम है, इसलिए 'बैरियों' के 'बैर' भी पक गए हैं कि अचानक दुनिया दुश्मन बन गई है। प्यार करने वालों से जलने वाले कम नहीं होते । और, जब एक
सजीला जोड़ा एक-दूसरे के प्यार में खोया हुआ होता है, तो बैरियों के बैर पक ही जाते हैं, डाह से उपजी शत्रुताएँ हरी हो जाती हैं । लेकिन, लड़के को इससे भला क्यों सरोकार हो? वो नौजवाँ है, अपनी बाज़ुओं पर उसको भरोसा है और गाँव की सबसे दिलक़श दोशीज़ा उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार है । देखने वाले अगर गौर से देखें तो उसके सिर पर एक अदृश्य कलगी भी देख सकते हैं, अपनी तक़दीर पर वो इतना इतराया हुआ है I लिहाज़ा अपनी ही धुन में जवाब देता है-
'कभी डाल इधर भी फेरा के तक-तक नैन थक गए, ज़िंद मेरिये ।' लड़की बेर की बात कर रही है, लड़का फेरे के फेर में पड़ा है, जोड़ा हो तो ऐसा हो। तिस पर ‘तक-तक नैन थक' की आवृत्ति में अनुगूँजों का संगीत ।
‘उस गाँव पे स्वर्ग भी सदक़ के जहाँ मेरा यार बसता', लड़की दिल हथेली पर रखकर कहती है कि फ़ौरन लड़के की जानिब से जवाब आता है- तुझे मालूम है, इस गाँव पर स्वर्ग भी क्यों निछावर है ? क्योंकि इस गाँव में हमारे रास्ते एक-दूसरे की राहों से उलझ गए हैं, मेरे प्यार की हमराह ।
‘पानी लेने के बहाने आ जा के तेरा-मेरा एक रस्ता, ज़िंद मेरिये ।' पानी लेने के बहाने रास्ते में मिला जा सकता है, तो चाँद देखने के बहाने तुम छत पर क्यों नहीं आ सकतीं, अगली पंक्ति में लड़का अब यही इसरार करता है- 'तू छत पर आ जा गोरिये ।'
तिस पर लड़की का मासूमियत से भरा इनकार है- 'अभी छेड़ेंगे गली के सब लड़के के चाँद बैरी छिप जाने दे, जिंद मेरिये ।'
यहाँ पर साहिर ने 'गोरिये' से 'मेरिये' की तुक मिलाकर सन् सत्तावन में लगने वाले तमाम मेलों को जीत लिया था । मैदान ख़ाली हो गया था, सूपड़ा साफ़ कर दिया गया था, एक यही गीत हर गली-कूचे में बज रहा था । ‘तेरी चाल है नागन जैसी' – सराहना ।
‘री जोगी तुझे ले जाएँगे।' –उलाहना ।
ये वो दौर था, जब हिंदुस्तान को संपेरों का देश कहा जाता था। नागों और नागिनों के क़िस्सों का सम्मोहन वैजयंती की ही पूर्ववर्ती फ़िल्म 'नागिन' के बाद से लोकमानस को ग्रस चुका था, जिसमें कल्याणजी वीरजी शाह अपनी जादुई बीन ईजाद कर चुके थे । 'ये जो तुम इतने लहराकर चलती हो ना, मेरी जान, होशियार रहना कहीं जोगी तुझको नागन समझकर अपने साथ ना ले जाएँ ।'
तिस पर तुरुप के इक्के जैसा हाज़िरजवाब यह कि-
'जाएँ कहीं भी मगर हम सजना, ये दिल तुझे दे जाएँगे, ज़िंद मेरिये ।'
कि जोगी ले भी जाएँगे तो क्या कर पाएँगे, दिल तो तेरे पास ही छोड़ जाऊँगी। ज़िंद तेरे पास रह जाएगी। उसके बाद तो ये बुत बेजान ही है, मेरी जान।
या रब, क्या गाना है! क़सम ख़ुदा की, कलेजा चीर दिया है।
नई उमर के नौजवानो, दम हो तो वैसा कोई दूसरा गाना बनाकर दिखला दो। नहीं बना पाओगे, रहने दो।
क्यों नहीं बना पाआगे?
क्योंकि नैयर मर गया, साहिर मर गया, रफ़ी मर गया, और दिलीप कुमार बुड्ढा हो गया, पके फल की तरह, अब गिरा तब गिरा । कमबख़्त एक ये गीत ही है, जो बूढ़ा होने नहीं पाता। गाना बनाने वाले मर-खप गए, गाना अभी तक जवाँ है, और आने वाले हज़ार साल तक बना रहेगा । सच बोलूँ तो वैसी अमरबेल भी प्यार के ही पास हो सकती है, क़सम खाकर कहता हूँ, ज़िंद मेरिये !