प्रस्तावना / माया का मालकौंस / सुशोभित
सुशोभित
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किसी गीत को सोचना उसे देर तक सुनने का दूसरा उपाय है !
एक मुखड़ा, दो अंतरे। अधिक हुआ तो तीन । अंतरालों में संगीत के टुकड़े । कभी-कभी कोरस का आर्तनाद । कुलजमा तीन या चार मिनट ! तब भी, कभी किसी गीत की मोहिनी आत्मा को ग्रस लेती । वह एक धुन पूरे दिन मन में दुहराती | उस पर से हमारा नियंत्रण छूट जाता ।
बहुतेरे गीत सुनकर भुला दिए जाते हैं । कुछेक ऐसे भी होते हैं, जिन्हें विस्मृत कर पाना सम्भव नहीं रह जाता । जो लोग स्मृति - देवता के उपासक हैं, जीवन को उसकी प्रतिलिपियां संजोकर विलम्बित में जीते हैं, और जिनकी चेतना का गतिरथ तंद्रिल चाल से चलता है, वे उन गीतों को अपने पास संजोकर रख लेते। वे कहीं रीत न जाएं, इस सतर्कता के साथ । चेतना का एक आत्मीय प्रसंग उनसे जुड़ जाता।
भांति-भांति के लोग भिन्न-भिन्न उपायों से संगीत के साथ बरताव करते हैं। बहुतेरे ऐसे हैं, जो एक ही गीत को पूरे दिन सुन सकते हैं । फिर कुछ ऐसे हैं, जो चाहेंगे कि एक गीत आजीवन समाप्त न हो । एक ही गीत को दुहराव के क्रम में अनवरत सुनने वाले वे हैं, जो सुखों को निःशंक जी लेना चाहते हैं । एक गीत पूरा जीवन अंतःकरण के पार्श्वसंगीत की तरह गूंजता रहे, वैसा मनोरथ संजोने वाले वे होते हैं, जो दुःखों को भी सहेज लेना चाहते हैं रत्न - मंजूषा में - क्योंकि जो गीत इतना सुंदर हो, यह कैसे सम्भव है वह दुःखों का प्रयोजन न बन जाए ।
किसी गीत को सुनने के बजाय उसे सोचना तब सरल हो जाता है, जब उसे पढ़ा जा सकता हो । अमूमन गीतों पर लिखा नहीं जाता, फ़िल्म - गीतों पर तो नहीं, उस तरह तो निश्चय ही नहीं, जैसे कविता पर लिखा जाता है । किंतु यह ज़रूर है कि किसी गीत पर उम्दा लिखे को पढ़ना भी उसे देर तक सुनने का दीर्घजीवी उपाय है।
मैंने मार्च 2015 में फ़िल्म- गीतों पर लिखना आरम्भ किया था। सघन
अनुभूति के उन दिनों में मुझे लगा कि फ़िल्म - गीतों में रागात्मकता की जो त्वरा है, वह मेरी चेतना के अनुकूल होगी । तब वह कइयों के लिए चकित करने वाला था, क्योंकि पांच वर्षों का मेरा तब तक का लेखन - व्यवहार किसी को यह कल्पना करने की अनुमति नहीं देता था कि रूमानी फ़िल्म - गीतों पर लिखने का प्रयास करूंगा।
मेरा बचपन और किशोरावस्था नई दुनिया - स्कूल के यशस्वी लेखक और फ़िल्म-संगीत के आचार्य अजातशत्रु को पढ़ते - गुनते बीता था। माया का मालकौंस भी उन्हीं को समर्पित की है । उन्हीं की प्रेरणा से मार्च 2015 में लिखना आरम्भ किया, उन्हीं का अनुसरण करते हुए । अपने उस्ताद को एल्यूड करने का एक तरीक़ा उसकी शैली को आदरांजलि देना भी होता है । माया का मालकौंस में सम्मिलित पचास गीतों में से कोई एक दर्जन उसी कालखंड के हैं । संतोष यह कि बाद के सालों में गीतों पर लिखने की एक निजी शैली विकसित हुई, जिसने इन लघु-लेखों को उस सधे हुए विश्वास से भर दिया, जो एक रियाज़ी लेखक के कृतित्व में चला आता है । उसकी रूपरेखाएं पुष्ट हो जाती हैं, आशय स्पष्ट हो जाते हैं, एक निजी स्वर उसमें झलकने लगता है।
तकनीकी रूप से आप कह सकते हैं कि यह पुस्तक चार वर्षों में लिखी गई, यों बीच में बहुतेरे दूसरे भी कार्य सम्पन्न होते रहे। मैं किसी न किसी गीत पर रह- रहकर लौटकर आता रहा । कुछ गीतों का सम्मोहन इतना विषण्ण और अगाध था कि उससे मुक्त हो पाना सम्भव नहीं था । मुझे आविष्ट कर देने वाले हर गीत पर मैंने नहीं लिखा है, लिखने का अवसर नहीं मिला, किंतु जितनों पर भी लिखा, वे किसी एक तात्कालिक प्रसंग में मेरे लिए अनिवार्य अवश्य बन गए थे।
इन गीतों पर यह सोचकर नहीं लिखा था कि इन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित करवाया जाएगा, किंतु जब देखा कि अब यह मनोरथ एक संकलन के योग्य हो गया है तो प्रकाशन का उद्यम करवाया है। फ़िल्म - गीतों का भारत के सामूहिक अवचेतन पर जो प्रभाव है, उस पर तो पृथक से किसी को शोध करना होगा ! इसकी कोई थाह नहीं। बात यहां केवल सुरीली धुनों, अर्थपूर्ण बोलों, फ़िल्म में निर्मित नाटकीय परिस्थितियों और उन पर अभिनय करने वाले प्रिय कलाकारों की छवियों की ही नहीं है, हममें से हरेक ने अपने जीवन की घटनाओं को किन्हीं गीतों से कभी ना कभी जोड़ा है और वे हमारे लिए एक निजी प्रसंग बन गए हैं।
वास्तव में, लोकप्रिय फ़िल्म - गीतों ने जैसे भारत के सामूहिक अवचेतन को सम्मोहित किया है, वैसे कम ही परिघटनाओं ने किया होगा । फ़ेसबुक पर स्वतंत्र पोस्ट के रूप में समय - समय पर प्रकाशित किए गए इन गीतों का संकलन अपने समग्र में व्यापक वर्ग को रुचिकर मालूम होगा, यह विश्वास भी इसी से पुष्ट हुआ ।
एक लोकप्रिय पुस्तक किसी लेखक के कृतित्व के दूसरे आयामों के लिए एक सदाशय स्पेस तैयार करती है और एक विफल प्रयास उसके संचित पुण्यों की क्षति का निमित्त भी बन जाता है, इन लौकिक संदर्भों को स्मरण रखना भी आपदधर्म है।
अतैव, अब यह पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। इसका शीर्षक रचते समय यह सोचा नहीं था कि यह अगम्य सिद्ध होगा । अनेक मित्रों ने इसका आशय पूछा है। तब मैं बतलाऊं कि यहां माया का अर्थ है मायानगरी मुम्बई यानी बॉलीवुड फ़िल्म उद्योग और एक व्यापक पद के रूप में मालकौंस का अर्थ है संगीत। मालकौंस शास्त्रीय संगीत का एक अत्यंत लोकप्रिय राग है। माया का मालकौंस का अर्थ तब आप मायानगरी के लोकप्रिय संगीत से लगा सकते हैं । यह शीर्षक एक दिन सूझा और रुच गया तो इसी को तय कर लिया । जैसे-जैसे यह लोकवृत्त में पढ़ी जाएगी, इसकी उत्तरजीविता निश्चित होगी। इसमें न तो मैं अपनी ओर से कोई योग दे सकता हूं, न ही इस प्रक्रिया को प्रभावित कर सकता हूं । उसका जो भाग्य होगा, जैसी पात्रता होगी, वैसा ही यश उसे मिलेगा। मेरा कार्य इस पुस्तक को लेकर यहीं समाप्त होता है । अब यह सादर लोकार्पित है ।
सविनय!
- सुशोभित