जो सफल हैं / रमेश बक्शी

Gadya Kosh से
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मुझे खासा आश्चर्य हो रहा था कि बस स्टाप पर मिसेज अशोक खड़ी थी और बड़ी बेसब्री से हर आती हुई बस की ओर दौड़ती थीं। मैंने दूर से देखा हैं कि एक बस में वे चढ़ गईं। मेरे देखते-देखते ही वे वापिस से उतर आईं। शायद बस का नंबर इन्हें याद नहीं है। मैंने इन्हें कभी बस में आते-जाते नहीं देखा। अभी जब घर से निकला तो इनकी कार गेट पर खड़ी हुई थी। शायद गाड़ी खराब हो और इन्हें कहीं जाना हो-लेकिन जिसकी गाड़ी खराब होती है तो वह टैक्सी में जाता है। पता नहीं क्यों ये बस से जाना चाह रही हैं। मुझे उसी स्टाप पर जाना है और पाँच-छह या सात में से कोई बस पकड़नी है कि मद्रास होटल उतर सकूँ। मुझे देख कर उनके चेहरे पर जैसे रौनक आ गईं। ये हमेशा साड़ी पहनी रहती हैं। लेकिन उस समय फँसी हुई सिलई का कुरता पहने थीं, खींच कर लिपस्टिक लगाई थी और मैं सोचता ही रह गया कि इनमें हमेशा जो एक एरिस्टोकेसी और सोबरनेस दिखाई देती है, वह आज गायब है। रास्ते से दूर ही था मैं कि मिसेज अशोक ने हाथ उठाकर मुझे हैलो कहा है। मैं मुस्करा कर उनके पास जा खड़ा हुआ हूँ। इनसे मेरी एक बार ही बात हुई है - इनकी पूसी मेरे घर में घुस आई थी और उसे लेने आयी थीं। पूसी को ले जाते मुझे बिस्तर पर बैठकर शेब करते देख ये बोली थी - बेचलर? मैं हाँ में हँस दिया था। वे भी मुस्कराकर चली गई थीं। तबसे जब जब मौका मिलता है मैं मिसेज अशोक की तरफ देखे बिना नहीं रहता। इतना साफ है उनका रंग कि सफेद साड़ी उनके शरीर पर सफेद नहीं किसी और ही रंग की लगती है। मुस्कराते गाल पर एक गड्ढा बनता है और साड़ी कुछ इस तरह बाँधती है कि उनको चलते समय पीछे से देखने की तबियत होती है। वे कई बार अपने लान में जब मेरी तरफ मुँह किये खड़ी रहती है तो मैं उनकी तरफ नही देखता लेकिन जैसे ही वे अंदर जाने के लिए घूमती हैं मेरी आँखें उनपर टिक जाती हैं। वे ब्लाउज में पीछे की तरफ गठान लगाये रहती हैं और साड़ी खूब नीचे बाँधती है। साड़ी का एक हिस्सा ही वे कमर पर कहीं खोंस लेती हैं और उससे पीछे की तरफ कसाब आ जाता है। उस समय वे बातिक का कुरता पहने थीं। अंदर से ब्रा दिख रही थी, यहाँ तक कि सलवार के नीचे के अण्डरवियर की लकीरें साफ त्रिभुज बना रही थीं। मुझे बड़ा अटपटा लगा। इनके पति किसी मिनिस्ट्री में है और मैंने उस खल्वाठ आदमी के साथ इन्हें हमेशा प्रसन्न ही देखा है। उस आदमी से यानी इनके पति से मेरी आज तक पहचान नहीं हुई। कारण साफ है उस वर्ग से मेरा कोई संबंध नहीं। न बैसे मैंने ही चाहा कि उनसे पहचान हो, न इनकी और से ही कभी पहल हुई।

- आप? और बस स्टाप पर? - मैं उनके पास खड़ा होते बोला।

- क्यों बस से केवल आपही जा सकते हैं - वे तपाक से बोली - लेकिन मेरी मुश्किल यह है कि मैं बस नंबर नहीं जानती...

-जाना कहाँ है आपको? - पूछा मैंने, वैसे पूछना चाहता था उनकी गाड़ी के बारे में।

-वैसे ही जरा घूमना चाहती थी। घर बैठे-बैठे बोर हो गई मैं...।

- क्यों? बोर होने का कोई खास कारण।...

- खास तो नहीं पर वे शिमला चले गये हैं एक सप्ताह के लिए। हमेशा जब भी वे बाहर जाते हैं, मैं भी उनके साथ ही चली जाती हूँ।

- फिर इस बार आप दिल्ली में क्यों बोर हो रही हैं?

- मेरा तो चलता है, लेकिन वे हो रहे थे बोर। बात-बात में चिड़चिड़ाने लगे थे। लगातार साथ रहने से एक तरह की मोनोटोनी तो आती है…।

एकदम सामने बस आ अई। मैं यह कहने को था कि चलूँ कि वे भी आगे बढ़ गई। बस झटके से चली तो वे गिरते-गिरते बचीं और उनके मुँह से एक सुऊ-ह निकला। फिर एक खाली सीट पर करीब-करीब गिरते हुए बोलीं - आइयें आप भी यहाँ आ जाइये।...

मैं बैठा और कण्डक्टर से टिकट लेते बोला - मद्रास होटल। तो वे भी बोल दी कि मैं भी वहीं तक जाऊँगी।...

- मैं कह रही थी कि उसी मोनोटोनी को तोड़ने के लिए वे अकेले गये हैं। जरा चेंज हो जाएगा उनका। जी भर कर पीयेंगे और शिमला की सड़कों पर लड़कियों के पीछे घूमेंगे। पता नहीं क्यों लगता है कि मेरे कारण जरा भी फ्री नहीं लग रहे हैं। ...मैं हँस दिया - आप मजाक अच्छा कर लेती हैं। वे आफिस में लगातार व्यस्त रहने से परेशान रहे होंगे और हो सकता है चेंज उनके लिए जरूरी हो...।

- मैं उन्हें खूब जानती हूँ। इस बार हुआ भी अजीब कि लगातार आठ साल से एक साथ है, एक दिन को भी अलग नहीं रहे। वही चाय वाली सुबह, वही बेजिटेबिल, सूपवाली दुपहर, वह चिल्ड बीयर या स्काच वाली शाम, हजार बार बैडरूम को बदल चुकी हूँ। चादरों के रंग बदल दिये, दीवारों का डिस्टेम्पर बदलवा दिया, रोशनी के रंग तक बदल दिये लेकिन हमेशा ऐसा लगता है कि सारा कमरा जैसे मुँह फाड़कर जमुहाइयाँ ले रहा है।...

- मैं तो यह सब कुछ नहीं जानता लेकिन हम लोग दाल की जगह तरकारी खा लेते हैं या एकाध सप्ताह शेव नहीं करते हैं तो उससे भी चेंज आ जाता है। मैं अक्सर चेंज के लिए गाजियाबाद चला जाता हूँ।...

वे खुलकर हँस दीं। बोलीं तो यह-शादी के बाद दाल और तरकारी का स्वाद और नहीं रह जाता है, एक जैसा हो जाता है।...

- मैं सोचता हूँ कि आप आज कार से इसलिए ही नहीं आई हैं कि जरा चेंज हो जाये...

- जी, यही बात है। मैंने ये कपड़े भी चेंज के लिए पहने हैं। वैसे ये कपड़े मेरी उम्र को शोभा नहीं देते लेकिन सोचा शायद इससे ही कुछ आराम महसूस करूँ।

हम स्टाप पर उतरे।

- इधर? इधर कहाँ जायेंगे?

- यहाँ एक छोटा-सा होटल है, वहाँ मैं रोज एक एक डोसा खाया करता हूँ। सालिड होता है और सस्ता भी।

- यानी आप सचमुच मद्रास होटल ही उतरते हैं।

वे खिलखिलाई। उन्‍होंने बड़े चाव से डोसा खाया और सांबर की तारीफ करने लगीं। बोली-आज मैं सात साल बाद बस में बैठी हूँ। एक बार बहुत पहले गाड़ी खराब हो गई थी तो करौलबाग से घर तक बस में आई थी। और ऐसा होटल तो मैंने पहली बार देखा है।...

उन सबके बीच एक बार मेरा हाथ उनसे छू गया था। उनका गोश्त खूब सख्त और चिकना है। उसे छूने से झुरझुरी नहीं होती, एक इच्छा जगती है, उसे और छू लेने के लिए।

- आइये पान खाया जाये-वे पान लेने लगीं। पूछा-पहले जब कालेज में पढ़ती थी तो मेरी सिगरेट पीने का आदत थी। मुझे धुँआ फूँकने में बड़ा मजा आता है।

- तो क्या अब नहीं पीती?

- उसका सवाल ही नहीं उठता। वे जरा दकियानूस विचारों के हैं। शराब पी लेंगे और कभी मुझसे भी आग्रह कर लेंगे लेकिन सिगरेट की बात वे नहीं सोच सकते।

मैंने कुछ सोचा और बोला-लेकिन आज तो आप फ्री हैं। आज जैसे चाहें जी सकती है।...

- हाँ, यह लग जरूर रहा है बल्कि वैसा लगने की मैं कोशिश भी कर रही हूँ। वैसे हम लोगों में कभी किसी बात को लेकर न कभी झगड़ा हुआ, न किसी तरह की कहा-सुनी हुई कभी। मैं जब दूसरों के बारे में सुनती हूँ कि वे एडजस्ट नहीं कर पाये और पति-पत्नी साथ नहीं रह पाते तो आश्चर्य होता है।...

मैं उनके साथ जनपथ की तरफ चलते कुछ कहीं डूबने लगा। मेरे जीवन की सारी ट्रेजेडी एडजस्ट नहीं कर पाने की है। खाने-पीने, उठने, बैठने, सोने और यहाँ तक कि थूकने-छींकने जैसी बातों में भी कोई ऐसी बात आ जाती है कि व्‍यवस्‍था बिखर जाती है। यह बार-बार हुआ है कि सामने वाले को नीला रंग पसंद है तो मुझे पीला रंग ही अच्छा लगेगा। यह भी कि सामने वाला चाय पीना चाहता है तो मैं कोल्ड ड्रिकं चाहूँगा। अब तो बात बीत गई लेकिन जब पत्नी से अलग हुआ था तो एक वाक्य अक्सर बोला करता था कि हम लोग बेमेल एडजस्टेड दम्पत्ति हैं... लोग जब कारण पूछते तो मैं तर्क करता था कि हम लोग किसी भी बात में सहमत नहीं होते और हमारे आपसी तनावों का कारण यही है।

- आप क्या सोचते हैं - मिसेज अशोक बोली हैं - मान लीजिए कि पति-पत्नी की किसी कारण से पटती न हो तो उसमें संतुलन बिगाड़ने की कोई जरूरत नहीं है।

- कैसे। दो अलग विचारों के लोग आखिर कब तक एक-दूसरे को ढो सकते हैं।

- क्यों इसमें क्या रखा। दोनों आजाद रह सकते हैं।

मैं धीरे-से बोला-मान लीजिए आप सिगरेट पीने पर ही उतारू हो जायें तो आपके पति कैसा लगेगा।...

- कुछ नहीं लगेगा। वे उसे न चाहते हुए भी सहन करेंगे और कभी एक शब्द भी नहीं कहेंगे। यह मैं हूँ जो उनका आदर करती हूँ...।

- फिर भी मनमुटाव की स्थिति तो आ ही सकती है।

- तो वह कितनी देर चलेगा। दुपहर में अगर नाराज हुए हैं तो बिस्तर तक जाते ठीक हो जायेंगे। भई, यह तो टेकनिक है।...

मैं गम्भीर बना रहा। कारण यह है कि मेरी समझ में उनकी बात आ ही नहीं रही थी।

- मेरी ही सुनिये। कुछ दिनों से हम लोग झगड़ रहे हैं। यानी किसी बात में सहमति नहीं होती है। सुबह वे नाराज हैं तो शाम को मैं। कभी उन्हें यह पसंद नहीं होती है, कभी मुझे बात नापसंद है। यहाँ तक कि पूरे एक महीने से एक बिस्तर में सोते भी हम एक-दूसरे से गुडनाइट नहीं बोले हैं...।

लेकिन अभी आप कह रही थीं कि नाराजगी ज्यादा देर चल नहीं सकती।

- उसी बात पर आ रही हूँ। मैंने ही रास्ता खोज कर बताया कि वे शिमला चले जाएँ और जैसे जी चाहे रहें...। मैं यही तो कह रही थी कि जब भी एडजस्टमेंट बिगड़े किसी न किसी टैकनिक का प्रयोग कर लेना चाहिए।...

- लेकिन मान लीजिए। आपके पति किसी से प्रेम करने लगें या किसी की पत्नी उस तरह का काम करे तो उसका असर पड़ेगा या नहीं...।

- मैं इसको नेचुरल बात मानती हूँ। लंबे समय तक साथ रहने के कारण यह सब होता है...।

मैं चुप हो गया और चुप ही रहा। जब लौटने की बात आई तो मैं बस स्टाप की तरफ बढ़ा लेकिन उन्होंने रोक दिया - आइये अब टैक्सी से चलेंगे। बस से उतरे में ही जी भर गया।...

मैं टैक्सी से उतर कर अपने घर की तरफ बढ़ा तो उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे रोक लिया अरे, चले कहाँ? आपने मुझे आज इतना घुमाया तो थोड़ी देर के लिए मेरा आतिथ्य भी हो जाये।...

मैं रुक गया। वे अपने साथ अंदर ले गईं। मैं ड्राइंग रूम को देखता रह गया। खूब नकाशीदार सोफा और भारी जरी के परदे। जगह-जगह पर खूबसूरत खिलौने। कोने में टेलीविजन सेट। मैं बैठ गया और पास के टेबिल से एक पात्रिका उठा ली। वे जब लौटीं तो कमरे का बल्ब बुझा कर उन्होंने मरकरी जला दी। वे इतनी देर में कपड़े बदल आईं मैंने यह देखा कि उस लिबास में मिसेज अशोक दुबली लग रही थीं लेकिन वे दुबली हैं नहीं। सहसा उनके हाथ पर मेरी नजर गई ओर तभी मैंने अपनी कलाई देखी। उनका शरीर मेरे शरीर से तिगुना था, वजन में भी और फैलाव में भी। मुझे बड़ा अजीब लगा कि अब तक इस बात पर मेरी नजर क्यों नहीं गई। शायद इस कारण कि वे अब तक साथ-साथ चल रही थीं और उनकी ऊँचाई मुझसे कम है इसी कारण मैं उन्हें अपने से छोटा समझता रहा हूँ। वैसा उनको पीछे की तरफ से देख कर यह कभी नहीं लगा कि वे मुझसे तिगुनी हैं, कारण यह है कि इससे पहले या तो मैं यह जानता था कि वे बहुत साफ रंग की हैं या फिर यह कि वे पीछे से 'गजब' हैं।

- यहाँ से चलो, अंदर स्टडी में बैठेंगी। ...वे बाहर के सारे बल्ब ऑफ करके मुझे अंदर ले गईं। नौकर को दो बार हिदायतें दे दी कि कोई आए तो बाहर बैठने को कहना और फोन आए तो कह देना साहब शिमला गये हैं, एक सप्ताह से।...

वह छोटा-सा कमरा था और वहाँ बेंत की कुर्सियाँ थीं। दीवारों पर रैक्स लगी थीं। और वहाँ किताबों के ढेर थे। मेरे बैठते ही वे दो लंबे-लंबे गिलास ले आईं कहने लगीं-बीयर खूब ठंडी है, मजा आ जाएगा... या और कुछ लेना चाहोगे? मैं झेंप कर रहा गया। अब तक मैंने ठर्रा पिया हे या मिलिटरी की घोड़ा छाप रम। बाकी शराबें या तो चखी भर हैं या देखी है...। मैं संभल कर बैठ गया और ठंडी बीयर छू कर आज की दोपहर याद करने लगा जब करीब-करीब रो रहा था अपने नसीब पर, मैंने सोचा ही नहीं था कि मेरे जीवन में आज कोई मोड़ आ जाएगा।

पीते-पीते वे तमाम बातें करती रहीं। अपने एक-दो अफेअर के बारे में भी बतलाया यह भी बताया कि उनको सब मालूम है।

- फिर भी आप एडजस्ट हैं?

- बेशक - वे बोलीं - मैंने खुद उन्हें सब बतला दिया था।

- वे क्या बोले?

- बोलते क्या? बदले में उन्होंने भी अपने एक-दो किस्से बतलाये...।

मैं जोर से हँस दिया। पहला किक मिलते ही मेरी जबान से साफ हिंदी निकलने लगी। मैं घूर कर मिसेज अशोक की तरफ देखने लगा। बैंत की कुर्सी पर गद्दी नहीं थी और मैं बार-बार फिसल रहा था। मुझे लगा मैं वहीं ऊपर उड़ रहा हूँ-बादल सुतरंगे हो गये। मिसेज को मैं दुबला कर दिया और उनके सफेद साफ रंग में मैं तैरने लगा। जैसे ही नशे का झौंका कम होता मैं सोचने लगा सोने के अंडे देने वाली मुरगी है ये। ऐसा सोचना मुझे भद्दा भी लगा लेकिन मेरी वर्ग की औकात है यह और नहीं सोचना भी सम्भव नहीं था। मैं यहाँ तक सोच गया कि इनका पति अगर, शिमला से नहीं लौटे या वहीं उनका चेंज हो जाए तो मेरी शाम परमानेट हो जाएगी। पूछा मैंने - 'क्या वे वहाँ खुश होंगे...।'

- होंगे ही, उनके ऑफिस की एक ब्रांच वहाँ भी है और एक रिसेप्शनिस्ट इनकी आँख में चढ़ी है। उसे तरक्की चाहिए और इन्हें चेंज देख लेना कभी दो रात वह साथ दे दे तो तीसरी रात वे भागे हुए यहाँ आ जायेंगे...।

मैं और जोर से हँसा। फिर संभल कर बोला - आपको बुरा नहीं लगता।

- इसमें बुरा लगने की क्या बात है। यह तो दाल तरकारी वाली बात है। और बुरा लगाकर मैं उनकी खुशी क्यों खराब करूँ। - वे अब स्काच उठा लाईं और मुझे बड़ा पैग देकर बोलीं - ये दो साल मुझ पर बहुत चिढ़े रहते थे। कारण थी हमारे घर की महरी। उसकी जवानी फूटी पड़ रही थी। मैं जब बात समझ गई तो मैंने खुद एनकरेज किया इन्हें और दो-चार दिन के चेंज से बिलकुल ठीक हो गये। मैं विवाहित जीवन की बोरडम को कम करने के सारे गुर जानती हूँ...।

उनकी बात सुनते-सुनते और बैंत की कुर्सी पर फिसलते-फिसलते मैंने अपनी सारी जेबें खोज डालीं।

- क्या चाहिए?

- सिंगरेट!

- सॉरी! सिगरेट है नहीं, मँगवा दूँ।...

- मैं तो आपको पिलाना चाहता था। मैं अपने घर तक छोड़ देती हूँ।…

वे आखिरी घूँट पीकर उठ गईं - आइये न, आपको घर तक छोड़ देती हूँ। वे सधे हुए कदमों से चल रह थीं। लेकिन मैं लड़खड़ा रहा था क्योंकि मैंने बहुत पी ली थी। कभी-कभी पीने को मिलती है सो जब भी मिले मैं हबशी की तरह पीता हूँ। वे रास्ते में मुझे सँभालती भी जा रही थीं। चाबी मेरे हाथ से लेकर ताला खोला। कमरे में वे चारपाई पर बैठ गईं और पूछा कहाँ है आपका सिगरेट। मैंने किसी औरत को इतने सही तरीके से सिगरेट पीते नहीं देखा था। वे खूब लंबा कश खींचकर धुँए को गले में घोंट लेती थीं और इतने आहिस्ता से मुँह खोलती थीं कि मैं उन्हें देखकर मुग्ध हो गया।

मैं बोला - आपकी बाँहें इतनी खूबसूरत हैं कि इन्हें छू लेने की तबियत होती है।

- तो छू क्यों नहीं लेते...। मैं उनके पास जा बैठा और बच्चे की तरह उनकी बाँह के सख्त गोश्त को छूने लगा।...

बस?

मैंने आगे बढ़ उनकी बाँह को चूम लिया।

- बस्स? कहते उन्होंने अपनी वजनदार बाँह मेरे कंधे पर रख दी।

मैंने उनके पास सट कर उनकी गोद में सिर रख लिया।

बस्स?

मैं उनकी गरदन में झूलकर ऊपर उठा और ओंठों के नीचे हो गया। वे खुद झुकीं और मुझे चूमकर बोलीं - बस्स।

मैं उठा और उनके ऊपर हो गया। सच वे मुझसे तिगुने अकार की थीं सो मेरी चारपाई भर गई। मैं उन्हें छू रहा था और जहाँ-जहाँ जी चाह रहा था उन्हें चूमता जा रहा था। वे फिर बोलीं-बस्स?

उनके कहने में व्यंग्य था और एक चुनौती थी कि मैं आगे ही आगे बढ़ता गया। उनका मैं नहीं जानता लेकिन मैं जब उन्हें नोच-खसोट कर ढेर हो गया तो एक बार फिर-बस्स? बोलीं और उठ कर खड़ी हो गईं, मैं चारपाई पर पड़ा ही रहा। जाते-जाते एक सिगरेट मेरी डिबिया में से निकालकर उन्होंने अपने ब्लाउज में खोस ली और मेरी गाल पर हल्की-सी चपत लगाकर चल दीं। जाते हुए बोलीं - बाई....। बाई में मेरा हाथ उठा तो रात भर उठा ही रहा। मेरी हालत उस भिखारी वाली ही थी जिसे सवेरे जगने पर राजपाट मिल जाए...।

सवेरे मैं प्रसन्न मन टहल रहा था। रह-रह कर याद कर रहा था रात क्या-क्या कैसे-कैसे हुआ? उनका बार-बार बस्स? कह कर खिलखिलाना मुझे याद आता रहा। मैंने कई बार उनके बंगले की तरफ देखा लेकिन वे दिखाई नहीं दीं। थोड़ी देर बाद ही देखा कि उनके पति आ गए हैं सवेरे की ट्रेन से। मिसेज अशोक थोड़ी देर बाद अपने पति के साथ लान में चाय पी रही थीं - वे बोल रही थीं - जब इतना अच्‍छा लग रहा था तो पाँच दिन में ही कैसे लौट आये।

- इतना ही चेंज काफी है...।

- वह तो मुझे मालूम था - यह कहकर वे हँस दीं और मेरी तरफ देखा।

- तुम तो ठीक रहीं ना...।

- तुम नहीं थे तो मेरा भी चेंज हो ही गया। दिख नहीं रही हूँ फ्रैश।

मैं सहसा झेंप गया लगा कि वे मेरे बारे में कुछ कहेंगी। कुछ अधिक उत्साह से मैं उनकी तरफ देखने लगा। यहाँ तक लगा कि वे चाय पीने के लिए बुलायेंगी।

- तुम बार-बार उस आदमी की तरफ क्यों देख रही हो।

- कोई खास बात नहीं है लेकिन इस तरफ बहुत अधिक खुला हुआ है।

- तो मेंहदी की ऊँची हैज लगवा दो उधर या दीवार ऊँची करवा दो...।

मैं उनकी तरफ देख रहा था। मिसेज अशोक बोलीं - हाँ यही करना ठीक होगा। लेकिन तुम्हारी स्टेनो के क्या हाल हैं?

वे हँसे और बोले - वह एक दम चालू निकली...।

मिसेज अशोक बहुत जो से हँसी। मैं तिलमिाकर अंदर आया। चारपाई पर बैठते यह लगा कि सारी रस्सियाँ ढीली हो गई हैं। मेरे सामने दो ही काम थे या तो मिसेज अशोक को जलील करने की तरकीब ढूँढूँ या रस्सियाँ खींच कर चारपाई ठीक करूँ। सोचते-सोचते मैंने सिगरेट जला ली और धुँआ उगलते मुझे अपने आप हल्का-हल्का लगा। शायद चेंज के कारण या और किसी कारण...।