ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-3(1)
ज्ञानरंजन के बहाने - ४
दरअसल, यह मध्यवर्गीय सामाजिक परिवेश की एक विडम्बना ही है कि जैसे-जैसे हम बचपन से किशोरावस्था और किशोरावस्था से यौवन और परिपक्वता की तरफ़ बढ़ते हैं, हम अपनी सहज अबोधता खोते चले जाते हैं। हमारी नैसर्गिक निश्छलता पर अनेक तरह की परतें चढ़ती चली जाती हैं और सम्बन्धों में भी जो पारदर्शिता रहनी चाहिए, वह नहीं रह पाती। मैं तब इस तथ्य से वाकिफ़ नहीं था और एक तरह से लगभग उसी मनोलोक में विचरण कर रहा था जिसका ख़ाका बच्चन जी ने ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में अपने और कर्कल और श्रीकृष्ण के सिलसिले में पेश किया है, या फिर जिसे अमरकान्त ने अपने अद्भुत लघु उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में चित्रित किया है। शायद यह भी इस सामाजिक अप्रेण्टिसशिप ही का तकाज़ा है कि हम ठोकरें खा कर ही सीखते हैं। ज्ञान के सिलसिले में मैं इतना निष्कवच, इतना वल्नरेबल था कि उसके साथ सम्बन्धों का यह जटिल शंक्वाकार चक्कर कई सोपानों से हो कर गुज़रा।
पहला झटका भूकम्प के संकेत जैसा बेहद हलका था। एक दिन ज्ञान के घर पहुँचने पर पता चला कि वह फ़रार है। कहाँ गया है, कब आयेगा, इसकी कोई सुन-गुन वह नहीं छोड़ गया था। दो-तीन तक ज्ञान का कुछ सही अता-पता नहीं चला। फिर धीरे-धीरे राज़ खुला कि ज्ञान ने सुनयना से शादी कर ली है। वह गुपचुप सुनयना से मिलता रहता था, यह बात मुझे मालूम थी। कई बार मैं उसके यहाँ जा रहा होता तो सुनयना उसके घर से लौटती हुई दिखाई देती। वह भी लूकरगंज ही में रहती थी। उसके पिता सूर्यनाथ नागर वैद्य थे और नरेश जी (कवि-कथाकार नरेश मेहता) की गली के सिरे पर उनका बड़ा-सा मकान था, हमारे घर और ज्ञान के घर के लगभग बीचों-बीच। लेकिन ज्ञान कायस्थ था और नागर जी को अपने गुजराती ब्राह्मण होने का गर्व। ऊपर से मुहल्ले का मामला और तमाम तरह के प्रवादों और हंगामों की आशंका। साठ के दशक का लूकरगंज अभी इतना आधुनिक नहीं हुआ था। वह प्रेम को तो बरदाश्त कर सकता था, बशर्ते कि वह गुपचुप हो। लेकिन उसकी स्वाभाविक परिणति यही होती थी कि प्रेमी-प्रेमिका परम चूतियाये से ‘एक प्राण दो शरीर’ और ‘अलग हो कर भी सदा सर्वदा तुम्हारा (या तुम्हारी)’ होने की क़समें खाते या ‘तुम मुझे भुला देना’ जैसे वाक्य दोहराते हुए, माता-पिता द्वारा तय किये गये रिश्तों को स्वीकार कर ‘सुखी जीवन’ बिताते हुए अन्त को प्राप्त होते। भागने-भगाने, प्राणों की आहुति देने या बंगालियों की प्रबल उपस्थिति के बावजूद देवदास बनने का कोई प्रकरण इस योजना में फ़िट नहीं बैठता था। इसीलिए हम सब उसके इस साहसिक प्रेम से रोमांचित होते रहते थे। मेरे मन में चूँकि शुरू ही से घर और स्कूल में यह बैठा दिया गया था कि दूसरों की निजी ज़िन्दगी में बहुत खोदा-खादी नहीं करनी चाहिए, इसलिए इस विषय में जितना कुछ ज्ञान बताता, मैं उससे ज़्यादा अपनी तरफ़ से उत्खनन करने का प्रयत्न न करता। लेकिन मुझे झटका इसलिए लगा क्योंकि इस राज़दारी की एक सीमा अचानक ही निर्धारित कर दी गयी थी और सीमा ज्ञान ने ‘बोल्ट फ़्रॉम द ब्लू’ की तरह आयद की थी। हो सकता है, जैसा कि मैंने कहा, मैं ख़ुद को ज्ञान के इतना क़रीब मानने लगा थ कि मुझे उम्मीद थी कि मैं अन्त तक उसके विश्वास का पात्र बना रहूँगा। मैं ख़ुद ज्ञान को बहुत-सी बातें बता देता था, जिन्हें मैंने सबसे छिपा कर मन में रखा होता। बहरहाल, ज्ञान और सुनयना का विवाह जल्द ही दोनों परिवारों को इतना भर स्वीकृत हो गया कि उन्हें छिपे रहने की ज़रूरत न पड़ी। बनारस और कुछ अन्य नगर घूम-घाम कर वे कुछ ही दिनों में वापस आ गये और खुल कर सबसे मिलने लगे। मगर मेरे सामाजिक प्रशिक्षण में यह एक इबरतनाक वाकया था।
चूँकि ज्ञान मुख्य रूप से इस कोर्टशिप की वजह से इलाहाबाद में डटा हुआ था, इसलिए विवाह के बाद उसने जबलपुर जा कर फिर से अध्यापन शुरू कर दिया। लेकिन इसके बावजूद उन तमाम वर्षों के दौरान - ग़ालिबन जब तक उसने ‘पहल’ का सम्पादन नहीं शुरू किया - वह अक्सर इलाहाबाद आता और दिनों-दिन बना रहता। जैसे पक्षी नये नीड़ बनाते वक़्त भी कुछ समय तक अपने पुराने घोंसलों की ओर पलट-पलट आते हैं, ज्ञान भी दौड़-दौड़ इलाहाबाद चला आता था। उसने मुझे एक पत्र में लिखा भी था कि इलाहाबाद से जबलपुर जाना वह भावनात्मक स्तर पर सह नहीं पा रहा था। इसलिए बीच-बीच में तरोताज़ा होने के लिए वह जबलपुर से इलाहाबाद चला आता। और उन दिनों, जब भी ज्ञान इलाहाबाद रहता, उसका वही पुराना मस्त रंग उभर आता।
1960 के दशक का इलाहाबाद था भी बहुत जीवन्त। यह शहर का उत्कर्ष काल था - हर लिहाज़ से। लेकिन यह जीवन्तता बहुत दिनों तक कायम नहीं रहने वाली थी। कुछ तो सत्तर का दशक शुरू होने के बाद बदलती हुई सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों ने इसका ‘राम नाम सत्त’ कर दिया, रही-सही कसर बाहर से आने वाले कुछ ऐसे लोगों ने पूरी कर दी, जिन्हें यह अन्दाज़ा ही नहीं था कि वे किस चीज़ को नष्ट किये दे रहे हैं। बाहर से आने वालों में पहला नाम सतीश जमाली का था और दूसरा रवीन्द्र कालिया का। ताराशंकर बन्द्योपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ में तरह-तरह की बीमारियों की चर्चा की है। कुछ बीमारियाँ तो अन्दर ही से पैदा होती हैं, पूर्वजों की देन हैं वे या फिर स्वयं अपने अमिताचार की। लेकिन कुछ बीमारियाँ वैशाख की आँधी की तरह बाहर से आती हैं। तारा बाबू ने इन्हें ‘आगन्तुक व्याधियों’ का नाम दिया है। इलाहाबाद के बहुत-से लोग सतीश जमाली और रवीन्द्र कालिया को उनके पीठ पीछे आगन्तुक व्याधियाँ ही कहा करते थे। 0 पठानकोट का सतीश स्याल उर्फ़ प्रिंस सतीश प्रेमी किन रासायनिक प्रक्रियाओं से होता हुआ सतीश जमाली बना, इसे उसके अलावा शायद और कोई नहीं जानता। लेकिन जनवरी 1968 में इलाहाबाद आने से ठीक पहले वह सोनीपत में ऐटलस साइकिल में काम करता था, अकवितावादियों की जमात में शामिल था और अकविता के झण्डाबरदारों से भी ज़्यादा वीभत्स, कुत्सित, अनास्था-भरी और विचारशून्य कविताएँ लिखता था। जगदीश चतुर्वेदी, नरेन्द्र धीर और सौमित्र मोहन, वग़ैरह ने तो ख़ैर एक ख़ास किस्म की सोच के तहत अकविता का आन्दोलन खड़ा किया था, जो नेहरू युग से मोहभंग का कृष्ण पक्ष था। मगर सतीश जमाली के सामने इस सोच-वोच का कुछ मतलब नहीं था। वह तो किसी तरह चर्चा में आना चाहता था, इसलिए उतनी ही झूठी और फ़े क ‘अकविताएँ’ लिखता था, जितनी फ़ेक और झूठी जनोन्मुख रचनाएँ उसने बाद में अचानक रातों-रात चोला बदल कर भैरव-मार्कण्डेय-अमरकान्त-शेखर जोशी के वामपन्थी ख़ेमे का पाँचवाँ सवार बनने के बाद लिखनी शुरू कीं। सतीश के इलाहाबाद आने से पहले ही यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी थी कि श्रीपत जी रामनारायण शुक्ल की ख़ाली की हुई जगह को भरने के लिए ‘कहानी’ में सहायक सम्पादक के तौर पर उसे ला रहे हैं। उन्हीं दिनों दिसम्बर 1967 में जब मैं दिल्ली गया हुआ था और मेरे चाचा नरेन्द्र शर्मा ‘मेनस्ट्रीम’ के हिन्दी संस्करण ‘मुक्तधारा’ को निकालने की तैयारियाँ कर रहे थे जिसमें न केवल अश्क जी और मैंने दिल्ली आ कर हाथ बँटाने का वादा कर रखा था, बल्कि इलाहाबाद से अवध प्रताप सिंह और त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव जैसे युवा पत्रकारों को भी उसके सम्पादकीय विभाग में नियुक्त करवाने का बीड़ा ले रखा था, एक शाम कनाट प्लेस के टी हाउस के बाहर मुझे मझोले कद का एक पतला-छरहरा, गोरा युवक मिला, जिसके प्रेत-सरीखे निर्वर्ण चेहरे पर गहरी लाइनें पड़ी हुई थी। वह ड्रैकुला का हिन्दुस्तानी संस्करण जान पड़ता था। उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए बताया कि वह सतीश जमाली है और जल्द ही इलाहाबाद आ रहा है। मैंने उससे कहा कि वह चिन्ता न करे, यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी है। ‘मुक्तधारा’ के सिलसिले में अश्क जी को तीन-चार महीने दिल्ली रहना पड़ा, मैं भी दो-तीन बार गया-आया। आख़िरी बार मार्च में जब मैं अपनी सगाई कराके लौटा तो इस बीच सतीश जमाली इलाहाबाद आ कर जम चुका था और शुरू-शुरू में विश्वविद्यालय के पास ग़ालिबन कर्नलगंज के सामने ‘प्रभात होटल’ में रहता था। चूँकि ‘कहानी’ का कार्यालय सिविल लाइंस के चौराहे पर ‘सरस्वती प्रेस’ में था इसलिए उसका दफ़्तर भी हमारी यायावरी का एक पड़ाव हो गया। प्रभात का क़ारूरा तो ख़ैर, सतीश से बहुत नहीं मिला, लेकिन ज्ञान और मैं अक्सर ‘सरस्वती प्रेस’ की सीढ़ियाँ चढ़ कर ‘कहानी’ के दफ़्तर चले जाते जहाँ उस गोल कमरे में जिसकी खिड़कियाँ चौराहे की तरफ़ खुलती थीं सतीश बैठा ‘कहानी’ का काम कर रहा होता। उसी की बग़ल में उसके सहायक डॉ. धनंजय पाण्डे बैठे होते, जो ईश्वर शरण कॉलेज के हिन्दी विभाग में बतौर अध्यापक नियुक्त होने से पहले ‘कहानी’ में काम करते थे और डॉ. धनंजय के नाम से धड़ाधड़ समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख लिख कर अपना सिक्का जमाने की कोशिशें कर रहे थे। कॉलेज में नियुक्त होने के बाद वे भी उन हज़ारों-हज़ार साहित्याकांक्षी युवकों की तरह हिन्दी विभाग द्वारा उदरस्थ कर लिये गये जो बड़े मंसूबे बाँध कर दुनिया फ़तह करने चलते हैं, मगर किसी कॉलेज या दफ़्तर या व्यापारिक संस्थान या बैंक में गुम हो जाते हैं। कभी-कभी सतीश काम ख़त्म करके पाँच-साढ़े पाँच बजे हमें कॉफ़ी हाउस या मुरारी’ज़ में आ मिलता।
मैंने तब तक प्रकाशन का काम देखना शुरू कर दिया था, लेकिन अभी मैं उसमें रमा नहीं था, इसलिए थोड़ा-सा बहाना मिलते ही भाग निकलता। कॉफ़ी हाउस उसी दरबारी बिल्डिंग में था जिसमें हमारा प्रकाशन। हमारे साथ ही ‘लोकभारती प्रकाशन’ था। दौ सौ क़दम के फ़ासले पर ‘सरस्वती प्रेस’ और उसी इमारत में नीचे मुरारी’ज़। लिहाज़ा दोपहर बाद से ही लोगों का जुटना शुरू हो जाता। प्रभात कल्याणी देवी पर रहता था। फ़ुलवक़्ती कवि था। (ज्ञानेन्द्रपति ने तो अपनी स्वाभाविक चतुराई से कारा कल्याण अधिकारी के पद पर दस साल काम करके और कुछ अन्य अनुल्लेखनीय तरीकों से ‘कविता का कार्यकर्ता’ बनने के लिए पेंशन आदि का जुगाड़ कर लिया और यूँ भी वह अत्यन्त सम्पन्न परिवार से है), लेकिन प्रभात हिन्दी कवियों की पुरानी परम्परा को भी एक क़दम आगे बढ़ाने के फेर में था। उसने निराला या शमशेर की तरह भी जीविकोपार्जन का कोई डौल कभी नहीं बिठाया था। मानव जी स्थानीय कॉलेज में अध्यापक थे और अध्यापन के अलावा भी किताबें वग़ैरा लिख कर आमदनी के साधन जुटाते थे। प्रभात के अलावा उनके और भी बच्चे थे। लेकिन प्रभात की कविताई में उन्हें जाने कैसी घातक आस्था थी कि न तो कभी उसके पढ़ाई छोड़ने पर उन्होंने कुछ कहा, न काम न करने पर। ऊपर से वे उसे रोज़ के ख़र्च के लिए कुछ पैसे भी देते थे। सस्ती का ज़माना था। चाय का कप दस पैसे में और कॉफ़ी चवन्नी में मिलती थी। प्रभात कल्याणी देवी से रोज़ पैदल कॉफ़ी हाउस आता।
सतीश उन दिनों इलाहाबाद के गणित को समझने की कोशिश कर रहा था और इलाहाबादी उसे परम ज़ायका तत्व मान कर उसका ‘भक्षण’ करते रहते। एक दिन ज्ञान और मैंने मिल कर उसे विश्वास दिला दिया कि दुर्दिन में बड़े-बड़े साहित्यकारों का स्खलन हुआ है और यह जो ‘भाँग की पकौड़ी’ के नाम से अश्लील साहित्य फ़ुटपाथों पर या सन्दिग्ध क़िस्म की किताबों की दुकानों पर मिलता है, उसकी बहुत-सी किताबें दरअस्ल कमलेश्वर ने लिखी हैं। कुछ दिन बाद दूधनाथ ने उससे कहा कि इलाहाबाद में हाल-चाल पूछने पर जवाब देने का एक ख़ास तरीका है। जब वह लोगों से मिले और लोग उसका हाल-चाल पूछें तो उसे कहना चाहिए - जी, मैं तो मउगड़ा हूँ।
उधर, सतीश ने अपना चर्ख़ा शुरू कर दिया। इलाहाबाद में थोड़े-बहुत पैर जमते ही उसने, दिल्ली के उसके दोस्तों की भाषा में कहें तो, गन्द फैलाना शुरू कर दिया। वह कई बार बड़े सीधेपन से दूसरे के मुँह पर बड़ी आपत्तिजनक बात कह जाता और कोई-न-कोई टुच्ची बात कह कर अगले आदमी को अप्रतिभ करने की कोशिश करता। इस चक्कर में वह कई बार पिटते-पिटते बचा। जब वह देखता कि ख़ुद कुछ नहीं कर पायेगा तो वह किसी और मूर्ख को बन्दूक की तरह इस्तेमाल करता। इसी तरह उसने एक बार डॉ. धनंजय से मेरे बारे में एक झूठा पत्र पटना से डॉ. गोपाल राय के सम्पादन में निकलने वाली ‘समीक्षा’ पत्रिका में छपवा दिया था, जिसके लिए डॉ. धनंजय को लिखित माफ़ी माँगनी पड़ी थी। दिल्ली में अगर सतीश ने अकविता का दामन थामा हुआ था तो इलाहाबाद में उसने कम्यूनिस्टों का दामन पकड़ लिया। वैसे, उसकी असलियत क्या थी, यह कोई नहीं जानता था। लोग उसे सी.आई.ए. के एजेंट से ले कर पाकिस्तान में भारत का जासूस तक मानते थे और वह भी इन अफ़वाहों को अपनी बातों और हरकतों से हवा देता रहता। एक तरफ़ उसकी बैठकी हम लोगों के साथ थी, दूसरी तरफ़ उसने भैरवप्रसाद गुप्त और उनकी मण्डली की सदस्यता ली हुई थी और तीसरी तरफ़ वह जालन्धर के मोटर पार्ट्स विक्रेता हरनाम दास सहराई के इलाहाबाद आने पर उसके साथ घूमता-फिरता पाया जाता। सहराई ने पंजाबी में बड़े मोटे-मोटे ऐतिहासिक उपन्यास लिख रखे थे और वृन्दावन लाल वर्मा को भी अपने सामने हेच समझता था। वह धन्धे के सिलसिले में तो इलाहाबाद आता ही था, लगे हाथ अपना कोई उपन्यास अनुवाद या प्रकाशन के लिए भी लिये रहता। बम्बई की प्रकाशन संस्था ‘वोरा एण्ड कम्पनी’ ने, जिसकी शाखा इलाहाबाद में थी, शायद उसके कुछ उपन्यास छापे थे, कुछ ‘लोकभारती’ ने। सतीश ने भी शायद उसके किसी उपन्यास का अनुवाद किया था। लेकिन सतीश की असली दिलचस्पी सहराई की मुफ़्त की दारू पीना था। सहराई अक्सर ज़्यादा पी लेता और टुन्न हो जाता। ऐसे में ही एक बार वह स्टेशन की सीढ़ियों से गिर गया और चोट खा गया तो अगले दिन उसने भयंकर गालियाँ हवा में फेंकते हुए लोगों को बताया कि सतीश उसे चोटिल हालत में ही छोड़ कर भाग गया था।
बहरहाल, वक़्त ने लकड़बग्घे की वह नकली खाल घिस डाली जो सतीश ने ओढ़ रखी थी और अन्दर से वह एक मरकहा मेढ़ा निकल आया। लोगों को सींग मारने की आदत तो उसकी नहीं गयी, पर धीरे-धीरे इलाहाबाद ने उसे एक क्रॉनिक बीमारी की तरह स्वीकार कर लिया। सतीश ने भी इसी शरण्य में डेरा जमा लिया। एक स्थानीय भटनागर परिवार में शादी की, ‘कहानी’ छोड़ कर हिन्दी की गौरवशाली लेखक-प्रकाशक परम्परा में अपना ‘चित्रलेखा प्रकाशन’ खोला, पत्रिका निकाली और दसियों तरह के पापड़ बेले। कहानियाँ वह अब भी यदा-कदा लिखता है, लेकिन गठिये ने उसे काफ़ी मन्द कर दिया है। पठानकोट का प्रिंस सतीश ‘प्रेमी’ और दिल्ली-इलाहाबाद का सतीश जमाली अब अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार ‘रिवर्सल टू टाइप’ की प्रक्रिया से सतीश कुमार स्याल बन गया है, जैसा कि उसके बेटे की शादी के कार्ड पर छपा था। हाल में, जब से हिन्दुस्तान में मीडिया ने आतंकवाद का भूत जगाना शुरू किया है, सतीश अब ‘जमाली’ से भी घबराने लगा है। पिछले दिनों यह सोच कर कि स्याल का उसका कुल नाम भी इधर के लोग समझें या न समझें, या कहीं रॉ के लोग यह न समझ लें कि उसने ’सतीश’ को तख़ल्लुस की तरह असली नाम के पहले जोड़ रखा है, उसने सतीश कुमार खत्री का नाम अपनाने की भी सोची। अपनी अकवितावादी रचनाओं को वह अब तस्लीम नहीं करता और बेटे की शादी में एक परम्परागत पंजाबी बना हुआ था। पिछले कई वर्षों से वह अपने संस्मरण लिख रहा है।
एक विफल रचनाकार कितना कटखना और द्वेषग्रस्त हो सकता है, इसका सबूत यह है कि वर्षों से सतीश ने नये लेखकों को निरुत्साहित करने का बीड़ा उठा रखा है। अपने ठेठ पठानकोटी लहजे में वह पूछता है, ‘लिखने से क्या होगा जी ? क्या मिलेगा ? देखो यशपाल को। मुक्तिबोध को देखो। क्या बना लिखने से ?’ वह एक के बाद दूसरा नाम गिनाता है और यह निष्कर्ष निकालता है कि साहित्य-वाहित्य सब बेकार का मशग़ला है। उसके साथ ऐसी ही एक मुलाक़ात के बाद युवा कवि अनिल सिंह मेरे पास काफ़ी त्रस्त-ध्वस्त आया था। और उसे नॉर्मल करने में मुझे दो घण्टे लग गये थे। 0 सतीश जमाली का आना अगर इलाहाबाद में आने वाली तब्दीलियों का संकेत था तो रवीन्द्र कालिया का आना उन तब्दीलियों का पहला चरण।
यूँ तो मैं चार साल पहले 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन के दौरान कालिया से मिल चुका था, लेकिन वह मिलना, बस मिलना ही था। अलबत्ता, अश्क जी से उसकी ख़तो-किताबत थी। कालिया भी जालन्धर ही का रहने वाला था, इस नाते ख़ुद को हमारा हमवतनी मानता था। चूँकि वह मोहन राकेश का शिष्य रह चुका था जिनसे हमारे गहरे पारिवारिक ताल्लुक़ात थे, इसलिए भी वह हमारे लिए क़ुरबत महसूस करता था। रहा हमारा परिवार, तो वह वैसे ही बहुत खुला था, ऊपर से अगर कोई जालन्धर का हुआ तो नैकट्य की अनुभूति और सघन हो जाती थी। लेकिन इस सबके बावजूद कालिया एक ‘आउटसाइडर’ ही था। जालन्धर से निकलने के बाद उसने कई तरह के पापड़ बेले थे। हिसार में अध्यापन, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में नौकरी और ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती के मातहत अपने जैसे दूसरे कई लोगों के साथ उप-सम्पादकी। कालिया ने कुछ चर्चित कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें ‘नौ साल छोटी पत्नी’ की चर्चा कहानी की ख़ूबियों के कारण नहीं, बल्कि इसलिए रही थी कि कुमार विकल को शक गुज़रा था कि यह कहानी कालिया ने उस पर लिखी है और उसने कालिया की पिटाई कर दी थी। कालिया की शुरू की कहानियों पर एक ही साथ राकेश और हैमिंग्वे का असर था। उसकी कहानियों में अक्सर जुमलेबाज़ी के पैंतरे भी होते, मगर जिस जुमलेबाज़ी को ज्ञान अन्त तक शमशीर की तरह इस्तेमाल करता रहा, वह कालिया के हाथों में आ कर धीरे-धीरे कपड़े पीटने वाली मुँगरी बनती चली गयी और सामाजिक ताने-बाने के फूसड़े उड़ाने लगी। आगे चल कर यह ‘ए बी सी डी,’ और ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ जैसी कहानियों के लद्धड़ गद्य में और ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के अन्तर्दृष्टिविहीन छिछलेपन को प्राप्त होने वाली थी, जिसमें पिछले चालीस वर्षों के दौरान कालिया के उत्तरोत्तर स्खलन का भी हाथ है। लेकिन 1968 में इलाहाबाद आने से पहले कालिया अपने उस्ताद मोहन राकेश की साज़िश और इस साज़िश के चलते धर्मवीर भारती के परपीड़न का शिकार हो कर ‘धर्मयुग’ छोड़ चुका था और बम्बई ही में अपने किसी साथी की साझेदारी में ‘स्वाधीनता’ के नाम से एक प्रेस चला रहा था। दिल्ली और बम्बई की चेलागीरी ने उसे और कुछ सिखाया हो या नहीं, चाबुकदस्ती ज़रूर सिखा दी थी। दिल्ली से चलने से पहले उसने भारत भूषण अग्रवाल की भतीजी ममता से विवाह कर लिया था जो ख़ुद हिन्दी में कहानियाँ और अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखती थी। हिन्दी साहित्य के स्थायी सिंहस्थ समधियाने को फलक पर आने में अभी वर्षों बाक़ी थे, लेकिन कालिया पहले ‘लूज़ निट’ समधियाने में शामिल हो गया था जिसके एक छोर पर नेमिचन्द्र जैन थे जिनकी बेटी रश्मि से अशोक वाजपेयी का विवाह हुआ था, दूसरे छोर पर रश्मि के मौसा भारत जी थे जिनकी भतीजी से कालिया का विवाह हुआ था। इसी दौर में कालिया ने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के अपने अकवितावादी मित्रों के प्रभाव में ‘अकहानी’ का नारा बुलन्द करने की कोशिश की थी जिसका हश्र उड़ान से पहले ही रनवे पर ठप्प हो जाने वाले विमान-सरीखा हुआ था। अलबत्ता, ‘धर्मयुग’ से निकाले जाने या निकलने के लिए विवश होने के बाद, बात एक ही है, कालिया ने सभी कमज़ोर लोगों की तरह अपनी व्यक्तिगत लड़ाई को सामूहिक लड़ाई बनाते हुए, हिन्दी की रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ एक आन्दोलन छेड़ दिया था और ‘धर्मयुग’ के प्रकाशक बेनेट कोलमैन एण्ड कं. के ख़िलाफ़ ‘बोरीबन्दर की बुढ़िया’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। उन्हीं दिनों वह ‘धर्मयुग’ और धर्मवीर भारती पर ‘काला रजिस्टर’ के नाम से एक कहानी पर काम कर रहा था। चूँकि हिन्दी में फ़ण्टूश किस्म के लोगों की कभी कमी नहीं रही, लिहाज़ा कालिया के आह्नान पर बनारस में बैठे कंचन कुमार ने फ़ौरन अमल किया। कंचन किसी ज़माने में ‘सरिता’ में काम करता था, बनारस में कुछ दिन उसने महिलाओं के अन्तःवस्त्र बेचने वाली दुकान भी चलायी, बड़े सन्दिग्ध ढंग से वह एक नक्सलवादी धड़े से जुड़ा भी रहा और ‘आमुख’ नाम की पत्रिका निकालता था। उसने कालिया के आन्दोलन में कुछ पिपहरियाँ और जोड़ दीं और यों लघु पत्रिका आन्दोलन चल निकला। इस बीच अपने साझीदार से कालिया की खट गयी थी और उसने दो-चार बार पत्र लिख कर यह प्रस्ताव रखा था कि मैं बम्बई जा कर उसके प्रेस में पार्टनर बन जाऊँ। यह प्रस्ताव न तो मुझे मंज़ूर था, न मेरे घर वालों को। तभी अचानक एक दिन कालिया का एक अन्तर्देशीय मिला कि उसने प्रेस बेच दिया है और वह स्थायी रूप से बसने के लिए इलाहाबाद आ रहा है। अश्क जी के नाम जब रवि का यह अन्तर्देशीय पहुँचा तब घर में सिर्फ़ मैं था और हमारे परिवार में एक सदस्य की तरह रहने वाली अंगे्रेज़ महिला - आण्टी डेविस। घर के सब लोग बाहर थे, क्योंकि महीने भर बाद ही मेरी शादी थी; मेरी माँ और अश्क जी उसकी तैयारियों के लिए दिल्ली गये हुए थे, भाभी अपने मायके और भाई दौरे पर। मैं स्टेशन जा कर कालिया को घर ले आया और वह दो-तीन महीने हमारे घर ही रहा, जिस बीच वह ‘हिन्दी भवन’ के इन्द्रचन्द्र नारंग से उनका प्रेस खरीदने के नीरस ब्योरे तय करने और मेरे साथ प्रेस और रिहाइश के लिए मकान खोजने की मुहिम पर इलाहाबाद की ख़ाक छानने के साथ-साथ, मेरी शादी के हंगामे और इलाहाबाद के साहित्यिक जगत में पैर जमाने की विविध-रूपी गतिविधियों में सरगर्मी से जुटा रहा। अन्त में, अश्कजी के कहने पर नारंग जी इस बात पर राज़ी हो गये कि रवि उनका प्रेस ख़रीदने के साथ-साथ उनके मकान को भी किराये पर ले ले, वे तो दूर टैगोर टाउन में रहते हैं, रवि प्रेस के ऊपर रहने के लिए आ जायेगा तो सब को सुविधा होगी।
इस बीच मेरी शादी और कालिया के आने की ख़बर पा कर ज्ञान भी दिसम्बर ’68 के आरम्भ में इलाहाबाद आ गया और मेरी शादी से पहले दिसम्बर का पूरा महीना बड़ी गहमा-गहमी रही। मेरे पास आज भी आर्चीबॉल्ड मैक्लीश की किताब ‘पोएट्री ऐण्ड एक्सपीरिएन्स’ मौजूद है जो मैंने ठीक शादी के दिन ज्ञान और रवि के साथ सिविल लाइन्स में मटरगश्ती करते हुए पैलेस सिनेमा के साथ लगी ह्नीलर बुक शॉप में पसन्द की थी और जिस पर कालिया के हाथ से लिखा है - ‘नीलाभ के लिए शादी के दिवस पर विषयान्तर ज्ञान और रवि की ओर से।’ इससे भी ज़्यादा ऐतिहासिक वह चित्र है जिसमें शादी की अगली सुबह डोली के समय एक रिक्शे पर सुलक्षणा और मुझे और दूसरे पर सतवन्त आण्टी (श्रीमती राजेन्द्र सिंह बेदी) और मेरी माँ को बैठा कर ज्ञान और कालिया रिक्शे चलाते नज़र आते हैं।