ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-4

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ज्ञानरंजन के बहाने - ५


कालिया के आने का असर जल्दी ही दिखायी देने लगा। सतीश जमाली अगर देसी विम्टो की बोतल था जिसके मुँह पर एक कंचा पँ सा होता था और जिसे अँगूठे या और किसी साधन से अन्दर ठेल कर लेमनसोडा पिया जाता था तो कालिया ख़ालिस कोकाकोला की बोतल जिसमें झाग भी ज़्यादा होता है और जिसका मेल शराब के साथ भी बैठता है और शबाब के साथ भी। बाज़ारवाद का प्रभाव भारतीय अर्थनीति पर पड़ने में अभी कई दशक बाक़ी थे, क्योंकि अभी तो नेहरूवियन मॉडेल के विफल होने का मातम मनाया जा रहा था। इसके बाद राजीव गाँधी, चिदम्बरम, मनमोहन सिंह, मोनटेक सिंह अहलूवालिया और नरसिम्हाराव के गिरोह के आने से पहले देश को राष्ट्रीयकरण, ग़रीबी हटाओ, हरित क्रान्ति, आपातकाल, जनता पार्टी की आराजकता और ’84 के दंगों, आदि से गुज़रना था। मगर बज़रिये कालिया साहित्य में उसके संकेत मिलने लगे थे और लूकरगंज को उसकी चपेट में आना ही था। हम चूँकि रानी मण्डी और लूकरगंज के दरम्यान ख़ुसरो बाग रोड के ‘नो मैन्स लैण्ड’ के बाशिन्दे थे, हमारा हश्र तो टोबा टेकसिंह जैसा ही हो सकता था, जो कि हुआ और एक तरह से आज तक जारी है। जल्दी ही ज्ञान और कालिया में छनने लगी। कालिया का प्रेस रानी मण्डी में था और यह उस जगह के नाम की तासीर थी या माहौल की या फिर वाणिज्य-व्यापार की नगरी बम्बई में प्राप्त प्रशिक्षण की, कालिया ने साहित्य को भी मण्डी की-सी मानसिकता से लेना शुरू कर दिया। बल अब पैकेजिंग और मार्केटिंग पर आ गया। अक्सर कालिया सातवें दशक के कथाकारों के ख़िलाफ़ कमलेश्वर के तथाकथित षडयन्त्र का ज़िक्र करता और फिर उसकी काट ढूँढने का जुगाड़ बैठाता। चूँकि ‘नयी कहानी’ का आन्दोलन मन्द पड़ गया था, राकेश नाटकों की तरफ़ मुड़ गये थे, राजेन्द्र यादव ने ‘मन्त्र विद्ध’ जैसा फ्लॉप उपन्यास लिखने के बाद कहानी से भी हाथ खींच लिया था, इसलिए ‘नयी कहानी’ के तीसरे शहसवार कमलेश्वर ने ‘सचेतन कहानी’ का झण्डा बुलन्द कर रखा था, जो ले दे कर मधुकर सिंह, महीप सिंह और विश्वेश्वर या इब्राहिम शरीफ़ जैसे कथाकारों को ही आकर्षित कर पाया था। चूँकि धूम साठोत्तरी कथाकारों की थी, ‘अणिमा’ का ‘सातवें दशक का कथा विशेषांक’ प्रकाशित हो चुका था, इसलिए कमलेश्वर को जगह-जगह ‘सचेतन कहानी’ की गोष्ठियाँ करनी पड़ रही थीं। कभी पलामू में तो कभी हाथरस में, कभी झुंझुनू में तो कभी बक्सर में। चूँकि कालिया साहित्यिक आन्दोलनों के सिलसिले में पत्रिकाओं के महत्व को जानता था, यह बख़ूबी देख आया था कि धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ के बल पर क्या-क्या मारके फ़तह किये थे, सो उसने भी एक खिचड़ी पकानी शुरू कर दी। कालिया ने ‘हिन्दी भवन’ के नारंग जी से जिस प्रेस को ख़रीदा था, उससे किसी ज़माने में एक पत्रिका छपा करती थी - ‘आधार,’ जिसके सम्पादक रामावतार चेतन थे जो ‘धर्मयुग’ में कालिया के सह-पीड़ित कन्हैयालाल नन्दन के सम्बन्धी थे - शायद साले या बहनोई। प्रेस के साथ इस पत्रिका को छापने का ज़िम्मा भी कालिया के कन्धों पर आया। ‘आधार’ पुरानी पत्रिका थी, शायद पचास के दशक के मध्य से प्रकाशित होना शुरू हुई थी। कला और साहित्य पर केन्द्रित थी। रामावतार चेतन ख़ुद भी चित्रकार थे और आरम्भिक जोश के ख़त्म हो जाने के बाद उसे अनियमित रूप से प्रकाशित किया करते थे। उनमें कुछ साहित्यिक विवेक अवश्य रहा होगा क्योंकि निकट का सम्बन्धी होने के बावजूद उन्होंने कन्हैया लाल नन्दन को, जो औसत से भी कम प्रतिभा और/या अपील के गीतकार थे, प्रश्रय नहीं दिया था। इधर ‘आधार’ के थकने के संकेत मिलने लगे थे। कालिया को चूँकि नारंग जी ने यह सुविधा दे रखी थी कि वह उनका पैसा उनकी किताबों की छपाई करके चुका दे, इसलिए वह उन दिनों निस्बतन निश्चिन्त था। उसकी पत्नी ममता, जो बम्बई के एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी, अभी इलाहाबाद नहीं आयी थी, इसलिए 1969 की उन गर्मियों में कालिया को ख़रमस्तियों के लिए भी खुली छूट मिली हुई थी। 370, रानी मण्डी पर तरह-तरह के लोग जुटते - ‘दिनमान’ के मेधावी, लेकिन तबाहो-बरबाद पत्रकार रामधनी, सतीश जमाली, प्रभात, ज्ञान, मैं - लेकिन सब-के-सब साहित्य से जुड़े लोग। वह सन्दिग्ध क्राउड, जो बाद में कालिया की महफ़िलों में दिखने लगा, अभी नेपथ्य में था। प्रेस ख़रीदने के महीने-दो महीने बाद ही कालिया ने ‘आधार’ को पुनर्जीवित करने की योजना बनायी, नन्दन और चेतन जी से बातचीत करके उसका एक विशेष अंक प्रकाशित करने की सबील बैठायी और ज्ञान को उस विशेष अंक के सम्पादन के लिए राज़ी कर लिया। अब ज्ञान के लिए इलाहाबाद का मतलब ‘इलाहाबाद प्रेस’ हो गया और कालिया के प्रेस में सुबह से शाम तक बैठकी होने लगी। कालिया को यूँ भी कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह धर्मवीर भारती का ‘दरबार’ देख आया था और वैसा ही दरबार रानी मण्डी में, जो भारती के मुहल्ले अतरसुइया से सटा हुआ था, लगाने का इच्छुक था। यह कोई छिपी हुई बात नहीं थी कि प्रभात और मैं ज्ञान ही की वजह से वहाँ जाते थे। अगर ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ को अपना नया पेट्रोला न बनाया होता तो मुझे यकीन है, बहुत-से लोग कालिया के यहाँ न जाते - ख़ास तौर पर इलाहाबाद में जिनकी कुछ पूछ थी। कालिया को मालूम था कि पत्रिका, प्रेस और प्रकाशन में कितनी शक्ति है। इसलिए उसने पत्रिका के साथ-साथ कुछ और भी योजनाएँ बनायीं। मसलन ‘वर्ष-1’ के नाम से अमरकान्त पर केन्द्रित भारी-भरकम विशेषांक जिसका सम्पादन उसने ममता को सौंप दिया जो बम्बई से इस्तीफ़ा दे कर इलाहाबाद आ गयी थी। इसी के साथ उसने मेरे मामा को, जिन्होंने ‘रचना प्रकाशन’ नाम से नया-नया प्रकाशन खोला था और लोगों से पैसे ले कर उनके शोध-ग्रन्थ छापते थे, तैयार किया कि वे कुछ ‘पुण्य’ का काम भी करें और साठोत्तरी कहानीकारों की रचनाएँ छापें। सों, विजयमोहन सिंह की ‘टट्टू सवार’ के साथ-साथ ज्ञान, काशीनाथ सिंह, महेन्द्र भल्ला, दूधनाथ सिंह, गोविन्द मिश्र, आदि की एक कतार खड़ी हो गयी जिनका लायज़निंग अधिकारी कालिया था। वही काम जो बाद में ‘आधार प्रकाशन’ के सिलसिले में असद ज़ैदी और मंगलेश वग़ैरा ने किया या फिर ‘वाणी प्रकाशन’ के लिए विष्णु खरे ने। इस सारे काम के साथ-साथ ‘आधार’ की तैयारी भी चलती रही। रचनाएँ मेरे ख़याल से ‘इलाहाबाद प्रेस’ के पते पर ही आती रहीं, क्योंकि ज्ञान ने मुझे सितम्बर 1969 के एक पत्र में लिखा था कि उसे तब तक ‘पूरी जानकारी’ नहीं थी। बहरहाल, अंक कोई हफ़्ते भर में तो तैयार न होता। विशेषांक था। सो, गर्मियों की कुल छुट्टियाँ ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ ही में बितायीं। कालिया, ममता और ज्ञान मिल कर कमलेश्वर की साज़िश को नाकाम करने और सातवें दशक के कथाकारों को जमाने की मुहिम में जुट गये। कालिया और ममता को तो मैं बहुत जानता नहीं था, लेकिन ज्ञान का यह रूप मेरे लिए एकदम नया था। (यह भी सम्भव है कि इसके कुछ और भी कारण थे। सम्भव है, अचेतन रूप से ज्ञान को यह एहसास रहा हो कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुका है। वह ‘घण्टा’ लिख कर ‘कथा’ के प्रवेशांक के लिए मार्कण्डेय को दे चुका था। उसके बाद उसने सिर्फ़ दो कहानियाँ लिखीं - ‘बहिर्गमन’ और ‘अनुभव।’ ‘बहिर्गमन’ हालाँकि ‘घण्टा’ के स्तर की नहीं है, लेकिन फिर भी वह ज्ञान के सामथ्र्य का पता देती है। ‘अनुभव’ तो बिलकुल फ्लॉप हुई। उपन्यास ज्ञान लिख नहीं पाया। इसलिए हो सकता है, मन की अनेक परतों के नीचे छिपे किसी अज्ञात भय का कोई हाथ रहा हो।) बहरहाल, मुझको इस सबसे बड़ी उलझन होती थी। मुझे लगता, ये कैसे साहित्यकार हैं। जम कर लिख रहे हैं, चर्चित हो रहे हैं, प्रकाशन की इन्हें कोई समस्या नहीं है, आर्थिक कठिनाइयाँ भी इनके सामने पिछली पीढ़ी के अनेक लेखकों जैसी नहीं हैं। फिर क्यों ये इतने आशंकित-आतंकित रहते हैं ? यह बात मैं कई बार ज्ञान और कालिया से कह भी देता था। उन्हें नागवार भी गुज़रती थी। दिलचस्प बात यह थी कि दूधनाथ इस बात से बिलकुल अलग-थलग बना हुआ था। उसे मैंने कभी अनाश्वस्त नहीं देखा। दरअस्ल, कालिया पर मोहन राकेश और धर्मवीर भारती का बहुत असर था। उसने इन दोनों से कहानी-कला का गुण कम सीखा था, गुट्टीबाज़ी और ताल-तिकड़म की कला ज़्यादा ग्रहण की थी। नतीजे के तौर पर कालिया के लिए साहित्य सामाजिक सरोकार की नहीं, वरन कैरियर की सीढ़ी थी। इसीलिए जैसे ही ‘आधार’ के विशेषांक का सम्पादन शुरू हुआ तो कालिया ने अपनी चोर चालें शुरू कर दीं। उन दिनों अशोक वाजपेयी कलेक्टर हो कर सीधी आ गये थे और गाहे-बगाहे इलाहाबाद आया करते थे। धूमिल को उन्होंने उन्हीं दिनों डिस्कवर किया था, कविता में सपाट बयानी के गुण गाते थे, एक ‘मुक्तिबोध पुरस्कार’ की भी योजना उन्होंने बना रखी थी, जिसमें नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल से ले कर नामवर सिंह आदि तक, निर्णायकों की पचमेल खिचड़ी थी, और पहला पुरस्कार वे धूमिल को देना चाहते थे। ‘आधार’ का सम्पादन चूँकि अब ‘सामुदायिक विकास योजना’ था इसलिए उनके और कालिया के कहने पर ज्ञान ने धूमिल की एक कविता अशोक वाजपेयी के वक़्तव्य के साथ प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत की। दिलचस्प बात यह थी कि उसी अंक में ज्ञान ने विनोदकुमार शुक्ल की एक लम्बी कविता ‘लगभग जयहिन्द’ भी स्वीकृत की थी, और हालाँकि बाद में विनोद कुमार शुक्ल अशोक वाजपेयी के ख़ासमख़ास बने और अशोक उन्हें दसियों तरह लिये-लिये रहे, यहाँ तक कि अभी कुछ वर्ष पहले पोलिश कवि तादेउष रोज़ेविच के सिलसिले में अनेक हकदार लोगों को नज़रन्दाज़ करके शुक्ल जी को पोलैण्ड भी ले गये, पर ‘आधार’ के उस अंक में वक्तव्य अशोक ने धूमिल पर ही लिखा। यह भी रोचक है कि अकवियों को उनकी विचारशून्यता के लिए लताड़ने वाले अशोक वाजपेयी को धूमिल की कविता के वैचारिक अन्तर्विरोध नज़र नहीं आये। और यह भी कि कुछ ही साल बाद अशोक जी सपाट बयानी की लानत-मलामत करने लगे और पेड़-पौधा-फूल-बच्चा अन्वेषक मण्डल के रहबर बन गये। ख़ैर, उन दिनों मैंने भी एक लम्बी कविता लिखी थी जो कई हादसों का शिकार हो गयी थी। दरअस्ल, कविता तो मैं 1967 के दिसम्बर में अपने संग्रह के प्रकाशित होने के बाद ही से लिखने लगा था और वह धीरे-धीरे रुक-रुक कर बढ़ती रही थी। जब कालिया नवम्बर में इलाहाबाद आया तो मैं कविता को मुकम्मल करने का इरादा बाँध रहा था। कालिया ने उसके कई अंश सुने थे और कहा था कि मैं उसे पूरा करूँ, वह ‘आधार’ का कुछ डौल बैठा रहा है, बैठ गया तो कविता छाप देगा। मैंने कविता पूरी करके उसका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया। लेकिन ‘आधार’ का कुछ अता-पता ही नहीं था। तभी कानपुर से हृषीकेश आये और उन्होंने बताया कि वे ‘शतपथ’ के नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करने जा रहे हैं, मैं यह कविता उन्हें प्रवेशांक के लिए दे दूँ। उन दिनों एक नये कवि के लिए यह प्रस्ताव कितना आकर्षक था, इसे आज के नये कवि जो छोटी-छोटी कविताएँ लिखते हैं, नहीं समझ सकते। कविता लगभग तीसेक पृष्ठ की थी और चूँकि हम लोगों ने सिर्फ़ छोटी पत्रिकाओं में ही लिखने का व्रत ले रखा था (मेरी कोई रचना ‘धर्मयुग’ या ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नहीं छपी), इसलिए उसका छपना वैसे भी मुश्किल था क्योंकि बहुत-सी छोटी पत्रिकाएँ तो इतने ही पृष्ठों की होती थीं। आज तो ख़ैर सेठों की रंगीन, चिकनी, व्यावसायिक पत्रिकाओं का विरोध करने वाली लघु पत्रिकाएँ ख़ुद चिकनी, रंगीन और व्यावसायिक ही नहीं, स्थूलोदर भी हो गयी हैं, मगर वह ज़माना दूसरा था। यही नहीं, बल्कि अभी वह प्रथा भी शुरू नहीं हुई थी जब लघु पत्रिकाएँ लम्बी कविताओं को अलग से छोटी पुस्तिकाओं के रूप में छापने लगीं। लिहाज़ा, मैंने कविता हृषीकेश को दे दी। इसके कुछ ही दिन बाद मुझे नामवर जी का एक पत्र मिला कि उन्हें किसी ने बताया है कि मैंने एक लम्बी कविता लिखी है। अगर मैं चाहूँ तो उन्हें भेज दूँ, वे उसे ‘आलोचना’ में प्रकाशित करने की सोच सकते हैं। मैंने नामवर जी को सारी स्थिति से अवगत करा दिया। नामवर जी को शायद यह बात नागवार गुज़री कि हिन्दी के एक अदना-से कवि ने उनका आग्रह नहीं माना, क्योंकि दो-एक महीने बाद जब यह साफ़ हो गया कि हृषीकेश ‘शतपथ’ नहीं निकाल पायेंगे और मैंने कविता नामवर जी को भेजनी चाही और उन्हें पत्र लिखा तो नामवर जी ने उस पर विचार करने से भी मना कर दिया। इस बीच ‘आधार’ की योजना बन चुकी थी। कालिया ने एक तीर से कई निशाने साधने के लिए उसका सम्पादन मूल योजना के अनुसार ख़ुद करने बजाय ज्ञान को सौंप दिया था। अब वह छाया-सम्पादन भी कर सकता था और ज्ञान को अपने साथ मिलाये भी रख सकता था। चूँकि ज्ञान और कालिया, दोनों मेरी कविता सुन चुके थे, सराह चुके थे, इसलिए जब ‘आधार’ के निकलने की बात पक्की हुई तो मुझे बड़ी आशा बँधी कि इसमें कविता छप जायेगी। ज्ञान ने एक अस्पष्ट-सी हामी भी भर दी थी। लेकिन जैसे-जैसे विशेषांक का काम बढ़ा, कालिया ने अपनी पैंतरेबाज़ी तेज़ कर दी। सबसे पहले तो उसने धूमिल और विनोदकुमार शुक्ल पर कसीदे कहने शुरू किये। इसमें किसी को क्या एतराज़ होता, पर उद्देश्य कुछ और ही था। यह चाल थी ज्ञान को प्रसन्न किये रखने की। फिर कालिया, ने बड़ी चाबुकदस्ती से इस बात का प्रबन्ध किया कि उसकी भी कहानी विशेषांक में शामिल हो और सिर्फ़ शामिल ही न हो, बल्कि उस पर भी, विशिष्ट रचना के नाते, वैसी ही टिप्पणी जाये जैसी धूमिल की कविता पर जा रही थी। (विडम्बना यह है कि धूमिल की कविता पर टिप्पणी अशोक लिख रहे थे, कालिया को कहानी पर टिप्पणी लिखने के लिए कौन मिला - कोई नया या सहकर्मी लेखक नहीं, बल्कि आबाल वृद्ध डॉ. बच्चन सिंह!) कालिया की यह फ़ितरत थी। उसके यहाँ अगर कोई लेख छपने के लिए आया होता, वह कहानी पर होता, तो कालिया उसमें अपना नाम जोड़ देता, या किसी विरोधी का नाम काट देता। इसे मैं ज्ञान की दोस्तनवाज़ी ही कहूँगा कि उसने विशेषांक के सम्पादन में कालिया की दस्तन्दाज़ी को चलने दिया। बाद में जब कालिया ने भैरव जी के साथ ऐसा करने की कोशिश की थी तो भैरव जी ने उसे बुरी तरह डपट दिया था। मगर ज्ञान यार-बाश था और कालिया के इन हस्तक्षेपों को सहयोगी स्पिरिट में लेता था। लेकिन इस सब का नतीजा यह हुआ कि ‘आधार’ की सामग्री का जब अन्तिम चयन होने लगा तो अंक छपने से ठीक पहले ज्ञान ने मेरी कविता यह कह कर वापस कर दी कि रचनाएँ बहुत आ गयी हैं, सब लम्बी हैं, पृष्ठ संख्या कम पड़ गयी है, मैं कोई छोटी रचना दे दूँ। इसमें ऑपरेटिव क्लॉज़ पृष्ठ संख्या का था, क्योंकि वही एक चीज़ थी जिस पर कालिया का पूरा नियन्त्रण था और जिसे वह अपनी-सी करवाने के लिए इस्तेमाल कर सकता था और बेदाग़ भी बना रह सकता था। मुझे बुरा इस बात का भी लगा कि ज्ञान एक दिन अचानक बिना बताये जबलपुर चला गया था और वहाँ से उसने मुझे पत्र लिख कर कविता के लिए मना कर दिया था। अगर सचमुच यह उसका अपना निर्णय होता तो भी शायद मुझे बुरा न लगता। लेकिन मैं तब तक कालिया की हिट लिस्ट में आ गया था और कालिया ने तय कर लिया था कि वह अगर ख़ुद मुझे धूल नहीं चटा सकता तो यह काम ज्ञान से कराके दोहरा प्रतिहिंसक आनन्द ले। उसने सामग्री और अंक की पृष्ठ संख्या के बारे में अन्त तक अलसेठ डाले रखी थी। मुझे इस बात का भी बहुत बुरा लगा था कि ज्ञान ने आमने-सामने बात करने की बजाय चिट्ठी-पत्री का सहारा लिया था। मैंने ज्ञान को पत्र लिख कर समझाया कि मित्र, तुम इस कविता के साथ गुज़रे हादसों से परिचित हो, इस कविता को सराह चुके हो, अगर तुम गुंजाइश न निकालोगे तो और कौन निकालेगा। ऐसे मरहलों पर दोस्त ही मददगार साबित होते हैं। यूँ भी ‘आधार’ में दस-बीस पृष्ठ बढ़ जाने से कोई कहर नहीं टूटने वाला था। रामावतार चेतन कालिया पर नालिश न करते। लेकिन कालिया ने ज्ञान के गिर्द ऐसी फ़ोर्स फ़ील्ड रच दी थी कि उस पर मेरे किसी तर्क का असर नहीं हुआ। मैं बहुत विक्षुब्ध हुआ और मैंने फ़ैसला किया कि ज्ञान को कोई रचना न दूँ। लेकिन तब मेरे पिता ने कहा कि ऐसा करना कालिया की साज़िश को पूरी तरह सफल होने देना होगा। मुझे ज्ञान पर क्रोध करने की बजाय उसे कोई और रचना दे देनी चाहिए। मैंने ज्ञान को दूसरी कविता दे दी जो ‘आधार’ के उस अंक में छपी। लेकिन मेरे दिल में खटक रह गयी। ज्ञान के साथ दोस्ती के दौरान यह दूसरा झटका था।

ज्ञानरंजन के बहाने - ६


आज लगभग चालीस साल बाद जब मैं उस प्रसंग पर सोचता हूँ तो मुझे ऐसे तमाम संयोगों पर हैरत भी होती है और दुख भी। क्या कारण है कि अक्सर हमें उन्हीं लोगों से आघात पहुँचते हैं, जिनसे हम गहरे भावनात्मक रेशों से जुड़े होते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमीं अपने निकटस्थ व्यक्तियों से कुछ अधिक अपेक्षाएँ रखने लगते हैं ? यहाँ इस प्रकरण के सम्बन्ध में एक छोटा-सा विषयान्तर करते हुए इतना और जोड़ना है कि मुझे उस समय भी और आज लगभग चालीस वर्ष बाद भी उस सब को याद करते हुए आश्चर्य कालिया पर नहीं, ज्ञान पर था। कारण यह था कि कालिया का स्वभाव ‘आधार’ वाले प्रसंग के बाद बहुत जल्द ही मेरे सामने साफ़ हो गया था। व्यावसायिक पत्रिकाओं के अपने तमाम विरोध के बावजूद उसने उधर की तरफ़ एक चोर दरवाज़ा हमेशा खुला रखा था। ममता को कभी उसने व्यावसायिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित करने से नहीं बरजा। चलिए, मान लेते हैं कि ममता का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व था, लेकिन बाद में कालिया ने ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ छापने वाले मित्र-बन्धुओं में से एक के साथ गठबन्धन करके कैंची-गोद मार्का पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकाली जो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के बुरे-से-बुरे रूपों से भी गयी-बीती थी और अब कालिया बरास्ता ‘वागर्थ’ जैनियों के उसी संस्थान में जा पहुँचा है जिसे वह चालीस साल पहले छोड़ आया था। जालन्धर की ज़बान में कहें तो ‘जित्थों दी खोत्ती, ओत्थे जा खलोत्ती,’ यानी ‘पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था।’ इलाहाबाद में दरबार लगाने की परम्परा कभी नहीं रही। लेकिन कालिया दरबार लगाने का कायल था। उसे कॉफ़ी हाउस के लोकतान्त्रिक माहौल की बजाय 370, रानी मण्डी में बैठना पसन्द था। उसे पसन्द था कि प्रेस के बाहर वाले कमरे में लोग उसे घेरे बैठे रहें। शुरू-शुरू में तो पालियाँ बँधी हुई थीं। कौन-सी पाली में साहित्यकार होंगे, कौन-सी पाली में उसके ग़ैर-साहित्यिक पिट्ठू। फिर धीरे-धीरे साहित्यकार छँटते चले गये और यही दूसरे क़िस्म के लोग रह गये। कभी पी.डब्ल्यू.डी. या ऐसे ही किसी सरकारी विभाग का कोई इंजीनियर होता, कभी कोई चालू क़िस्म का डॉक्टर, कभी दिलीप कुमार के फ़िल्मी लिबास बनाने वाला नाई-उपन्यासकार, कभी कोई उपरफट्टू क़िस्म का नेता तो कभी पुलिस का कोई अधिकारी। कुछ समय तक हरनाम दास सहराई ने भी इस दश्त की सैयाही की थी जब कालिया ने उसके उपन्यास को पंजाबी से हिन्दी करके छापा था, शायद ‘रचना प्रकाशन’ के लिए। इलाहाबाद दंग हो कर कालिया के करतब देख रहा था। कालिया ने भी सत्ता का ख़ूब आनन्द लिया। लेकिन दरबारों का एक तर्क होता है। जो लोग दरबार लगाते हैं, वे कई बार किसी और जगह दरबारीलाल बने मुसाहिबगीरी करते रहते हैं। चूँकि इलाहाबाद में ऐसा न कोई व्यक्तित्व था, न माहौल, सो कालिया ने अमेठी का रास्ता लिया।

सारे ब्योरे तो मुझे मालूम नहीं हैं, क्योंकि ‘आधार’ प्रसंग के बाद मैं धीरे-धीरे कालिया से दूर हटता चला गया और 1972 के बाद तो पन्द्रह साल उसके घर नहीं गया, और यूँ भी वह पुरानी गर्मजोशी दोनों तरफ़ से ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन इतना मुझे ज़रूर पता है कि कालिया अमेठी के डॉ. जगदीश पीयूष के ज़रिये अमेठी के राजा संजय सिंह के दरबार में पहुँचा और उनकी मार्फ़त संजय गाँधी के दरबार में। अपनी पुरानी प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं को ताक में रख कर वह कांग्रेस के साथ हो लिया। उसके यहाँ सन्दिग्ध क़िस्म के लोगों का जमावड़ा लगने लगा। दिलचस्प बात यह थी कि जब 1981 में संजय गाँधी की मृत्यु हुई तो कालिया ने पलटी मार कर राजीव गान्धी का साथ कर लिया, यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गान्धी का चरित्र हनन करते हुए - कि कैसे वह शराब पीती है, सिगरेट पीती है, उच्छृंखल है, आदि, आदि - एक पुस्तिका भी बँटवायी। यह तब जब ममता बराबर नारी-अधिकारों की हिमायत करती थी। बहरहाल, यह सब कालिया के देखने की चीज़ें हैं - उसकी अन्तरात्मा, उसके ज़मीर और उसके आदर्शों की। शराब पी कर भी वह कैसी-कैसी अभद्रताएँ करता रहा है, इसके कुछ प्रसंग तो मेरे भी देखे हुए हैं, हालाँकि अपने रणछोड़दास स्वभाव के चलते उसने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में ऐसे प्रसंगों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। लेकिन मुझे ज्ञान पर ज़रूर आश्चर्य होता रहा है कि उसकी नज़र से यह सब कैसे छिपा रहा और अगर छिपा नहीं रहा तो उसने इस सब के साथ निभाया कैसे।

ज्ञान की यादें ताज़ा करते हुए मैंने एक बार फिर ‘कबाड़ख़ाना’ वह पत्र पढ़ा है जो उसने ‘हंस’ में काशीनाथ सिंह का संस्मरण छपने के बाद उसे लिखा था - कालिया की हिमायत में। मुझे फिर एक बार हैरत हुई। मित्र तो वह जो ग़ालिब के शब्दों में ‘रोक लो गर ग़लत करे कोई’ पर चलने वाला हो। मुझे ऐसे भी मित्र मिले हैं।

हाल के दिनों तक तो ख़ैर, मेरे जीवन के एक व्यक्तिगत प्रसंग की वजह से आनन्दस्वरूप वर्मा के साथ लगभग दस साल से मेरा अबोला चल रहा था, लेकिन लगभग बीस-बाईस बरस पहले 1989 की बात है, मैंने ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के निर्देशक रमेश शर्मा के लिए वृत्तचित्रों के एक धारावाहिक ‘कसौटी’ पर काम किया था। इस धारावाहिक के ख़त्म होने के कुछ महीने बाद मैं पाकिस्तान चला गया। वहाँ से लौटा तो रमेश ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके लिए दो वृत्तचित्रों के लिए आलेख लिख दूँ और स्वर भी दे दूँ। विषय था इन्दिरा गाँधी और धर्म निरपेक्षता। रमेश की कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ थीं, वह कई कारणों से कांग्रेस से जुड़ गया था, और ये फ़िल्में उसके लिए एक सी़ढ़ी का काम कर सकती थीं।

मैं डॉक्यूमेंट्री बना कर अण्डमान चला गया। वहाँ से लौटा तो आनन्द स्वरूप वर्मा से मुलाकात हुई। उसने छूटते ही कहा कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया; हम लोग बराबर इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता का, आपात काल का, इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते रहे; ऐसे में फ़िल्म चाहे किसी दृष्टि से इन्दिरा गाँधी को ले कर बनायी गयी हो, हमें और हमारी प्रतिबद्धता को सन्दिग्ध बना देगी। शब्द तो ठीक-ठीक ये नहीं थे, पर आशय यही था। मुझे भी तत्काल अपनी चूक का एहसास हुआ। मैंने आनन्द का शुक्रिया अदा किया कि उसने सचमुच दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया है। ग़लती तो मुझसे हो गयी थी और तीर वापस न आ सकता था, लेकिन मैंने उससे वादा किया कि अब दोबारा ऐसी ग़लती मैं नहीं करूँगा।

मैं आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा का कृतज्ञ हूँ कि उसने बेकार का लिहाज़ न बरत कर मुझे टोक दिया था। ‘कबा़ड़ख़ाना’ वाले पत्र के सिलसिले में इतना ही कि ज्ञान ने काशीनाथ सिंह को तो बरजा, लेकिन जब कन्हैयालाल नन्दन ‘सण्डे मेल’ का सम्पादक बना और सैयाँ के कोतवाल बनने पर कालिया ने हमेशा की तरह दोस्ती का लाभ उठा कर पीत पत्रिका मार्का संस्मरण लिखे-छपाये तब ज्ञान ने उसे नहीं बरजा। अलबत्ता, जब काशी ने प्रतिक्रिया में दो-चार बनारसी घिस्से दिये तो कालिया के बिलबिलाने पर ज्ञान द्रवित हो गया! ख़ैर।

0 बहरहाल, ‘आधार’ का यह प्रसंग भी बीत गया। मैत्री और दूसरे तमाम सामाजिक सम्बन्ध जो हम ख़ुद बनाते-रचते हैं, कहीं-न-कहीं हमारे वयस्क होते जाने, परिपक्व होते जाने में भी चाहे-अनचाहे, जाने-अजाने अपनी भूमिका अदा करते हैं। मेरे ज़ख़्मों पर खुरण्ड चढ़ने में हालाँकि थोड़ा वक़्त लगा, मगर वह कहा है न कि वक़्त सब कुछ...