ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-5

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ज्ञानरंजन के बहाने - ६

उन दिनों पटना से नन्द किशोर नवल ‘सिर्फ़’ नाम की एक लघु पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे। ‘आधार’ के द्वार से धकियाये जाने पर जब मैंने अपनी लम्बी कविता ‘अपने आप से बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ एक पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित की तो उसे नवल जी को भेज दिया। पुस्तिका मैंने अशोक वाजपेयी और रवीन्द्र कालिया को समर्पित की थी। अशोक के नाम इसलिए कि उन्होंने हिन्दी के आम वतीरे से हलग हट कर, यानी अश्क जी के साथ अपने और अपने निकट के अन्य लोगों के सम्बन्धों को ख़ातिर में न लाते हुए, मेरे पहले कविता-संग्रह ‘संस्मरणारम्भ’ की अच्छी समीक्षा की थी - शायद ‘धर्मयुग’ में। अच्छी इस मानी में कि वह आज की ‘अच्छी’ समीक्षाओं की तरह न तो अहो-अहोवादी थी, न पंजीरी-बाँटू। उसमें सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा करने और उत्साह दिलाने की भावना थी। रवीन्द्र कालिया को मैंने कविता इसलिए समर्पित की, क्योंकि जिन दिनों वह लिखी जा रही थी, कालिया हमारे ही घर पर मुकीम था, कविता के पहले दो-तीन प्रारूप उसने सुने थे, सराहे थे, कुछ ज़रूरी सुझाव दिये थे। फिर, तब तक उसका वह रूप सामने नहीं आया था जिससे मुझे वितृष्णा हुई थी। ‘आधार’ वाले प्रसंग में भी मुझे ज्ञान से ज़्यादा शिकायत थी। (‘आधार’ की पृष्ठ संख्या पर कालिया के नियन्त्रण के कारण ज्ञान के हाथ बँधे हुए थे, यह बात बाद में साफ़ हुई जब ज्ञान ने मेरी ही नहीं, अन्य लेखकों की भी लम्बी रचनाएँ ‘पहल’ में छापीं जहाँ सब कुछ उसके हाथ में था। यही नहीं, बल्कि जिन्हें विशेष रूप से प्रस्तुत करना था, उन रचनाओं को पुस्तिकाओं की शक्ल में ‘पहल’ की ओर से प्रकाशित किया। जब कि ‘आधार’ से अपना काम सध जाने के बाद कालिया ने ‘आधार’ को डम्प कर दिया और वह अंक एक तरह से ‘आधार’ का समाधि-लेख साबित हुआ। हालाँकि उसके बाद ‘आधार’ के दो-एक अंक निकले, पर वे मृत्यु के बाद मांस के फड़कने की मानिन्द थे।)

मेरी कविता-पुस्तिका के ब्लर्ब पर पन्त जी की एक भूमिका थी। यह भी उन दिनों के साहित्यिक माहौल का आम चलन था कि हम जैसे नौसिखुए कवि, पन्त जी जैसे तपे हुए वरिष्ठ कवियों के साथ अदब से, मगर बराबरी की भावना से, संगत करते थे। मैं उन दिनों अक्सर पन्त जी के यहाँ जाता था। एक दिन उन्होंने कहलवाया कि उन्हें पता चला है मैंने नयी कविता लिखी है, वे सुनना चाहते हैं। पन्त जी के आग्रह पर जब मैंने उन्हें कविता सुनायी और ‘आधार’ वाला प्रकरण बताते हुए यह कहा कि अब मैं इसे पुस्तिका के रूप में छापने की सोच रहा हूँ तो उन्होंने बड़े सहज भाव से प्रस्ताव रखा कि वे उसकी भूमिका लिखना चाहेंगे। मैं थोड़ा हिचकिचाया था। हालाँकि लीलाधर जगूड़ी की तरह मैंने पन्त जी की कविताओं के अकवितावादी ‘अनुवाद’ करके ख़ुद को क्रान्तिकारी साबित करने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन मैं पन्त जी को महत्वपूर्ण कवि मानते हुए भी, उनकी अपेक्षा निराला-शमशेर-मुक्तिबोध को अपने ज़्यादा करीब पाता था। लेकिन जब मुझसे कहा गया कि इतने वरिष्ठ कवि का यह प्रस्ताव एक सम्मान की बात है तो मैंने कहा ठीक है, भैये, करा लेते हैं सम्मान, अपनों ने तो हमारी औक़ात हमें जता ही दी है, कविता में कुछ होगा तो रहेगी, वरना डूब जायेगी - पन्त जी की भूमिका समेत। लगे हाथों मैंने कविता से पहले उसकी रचना-प्रक्रिया, वग़ैरा, वग़ैरा पर अपनी तरफ़ से भी दो-तीन पन्ने ख़ासी ऊँचाई से लिख मारे। फ़रवरी 1970 में पुस्तिका प्रकाशित हुई और कुछ महीने बाद ‘सिर्फ़’ में नन्द किशोर नवल ने कविता पर वाचस्पति उपाध्याय की ख़ासी लम्बी समीक्षा प्रकाशित की, जिसमें कविता को, इलाहाबादी शब्दावली में कहें तो, ‘धो कर रख दिया गया था।’ मैंने वह समीक्षा पढ़ी और ऐलान किया कि बनारसी कवि को अपना आसन डोलता नज़र आ रहा है। बनारसी कवि से आशय धूमिल से था, जिनके साथ-साथ वाचस्पति उन दिनों छाया की तरह लगे रहते थे।

(आज, लेकिन, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वाचस्पति की समीक्षा से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ। बाईस-तेईस साल की कच्ची उमर में लिखी गयी वह लम्बी कविता भले ही पुस्तिका के रूप में छप गयी थी, लेकिन मैंने बाद में भी उसे सुधारना-सँवारना जारी रखा था और इस काम में वाचस्पति की समीक्षा से मुझे काफ़ी मदद मिली और उसे मैंने बाद में ‘वयस्क होते हुए’ के शीर्षक से अपने कविता संग्रह ‘जंगल ख़ामोश है’ में संकलित किया। चूँकि तुलसीदास की उक्ति के अनुसार मुझे भी ‘निज कवित्त’ को ले कर एक मोह रहता ही है, इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि कविता इन संशोधनों के बाद निर्दोष हो गयी - यूँ भी उसका एक बुनियादी ख़ाका तो बन ही चुका था - अलबत्ता, यह ज़रूर हुआ कि वह पहले से काफ़ी बेहतर हो गयी। इस नाते मैं वाचस्पति का बहुत कृतज्ञ हूँ।)