ज्ञानरंजन के बहाने / नीलाभ / पृष्ठ-6

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ज्ञानरंजन के बहाने - ७


‘सिर्फ़’ के उसी अंक के साथ या उसके कुछ दिन बाद मुझे नवल जी का एक पत्र मिला कि वे दिसम्बर 1970 में एक युवा लेखक सम्मेलन कर रहे हैं। लेखक सम्मेलन के परिपत्र और आमन्त्रण के साथ भेजी गयी इस चिट्ठी में नवल जी ने लिखा था कि वे सम्मेलन को बड़े पैमाने पर करने की सोच रहे हैं और उन्होंने मुझसे पटना आने का आग्रह किया था। इसके साथ-साथ नवल जी ने यह भी लिखा था कि अगर मैं चाहूँ और ठीक समझूँ तो अपने संग कुछ और युवा साथियों को भी लेता आऊँ। वे तीसरे-दर्जे का आने-जाने का रेल भाड़ा देंगे और रहने-खाने की भी व्यवस्था करेंगे।

आज का कोई लेखक अव्वल तो अपना पैसा ख़र्च करके दूसरे शहर जा कर लेखक-मित्रों से मिलने की नहीं सोचता और अगर किसी आयोजन में जाना हो तो ए.सी. टू टियर या ए.सी. थ्री टियर से नीचे बात नहीं करता और उम्मीद करता है कि उसे किसी अच्छे होटल में ठहराया जायेगा, लेकिन उन दिनों बात दूसरी थी। लोग धड़ल्ले से यात्राएँ करते थे, अक्सर निष्प्रयोजन, सिर्फ़ मित्रों से मिलने के लिए, और मित्रों के यहाँ ही टिकते थे। कोई सम्मेलन वग़ैरा होता तो किसी बड़े-से हॉल में फ़र्श पर गद्दे डाल कर सो जाया जाता। तीसरे दर्जे का यात्रा-व्यय ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया जाता। यों बीच की बात यह है कि अनेक लेखक आज भी सफ़र तीसरे दर्जे में करते हैं, हाँ, ऊपर के पैसे जेब में डाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, अगर आयोजक देने की स्थिति में हो, जैसा कि सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्थानों के साथ होता है। लेकिन जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ अपनी तरफ़ से ख़र्च करके जाने भी कोई हानि नहीं है। जिन बड़े आयोजनों को हम याद करते हैं, मसलन, 1952 में इलाहाबाद का प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन या इलाहाबाद ही में 1957 का लेखक सम्मेलन, वे सब ऐसे ही हुए थे। इसीलिए चलन बदलने के साथ ऐसे जमावड़े भी - कम-से-कम साहित्यिक संस्थाओं की ओर से - आयोजित होने बन्द हो गये हैं। सच तो यह है कि साहित्यिक संस्थाएँ भी दुकान बढ़ा कर चलती बनी हैं। 1970 का पटना सम्मेलन इस कड़ी का आख़िरी बड़ा सम्मेलन था।

नवल जी का पत्र आने पर मैंने दरियाफ़्त किया तो पता चला कि इलाहाबाद से ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, ममता, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी, अजय सिंह और सतीश जमाली जा रहे थे। मैंने सोचा, कण्टिंजेण्ट में कुछ और लोगों को शामिल कर लिया जाय।

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ज्ञान के जबलपुर चले जाने के बाद उन दिनों मेरा समय दो लोगों के साथ बड़ी कसरत से गुज़रता था। एक तो थे वीरेन डंगवाल, जो आज बड़े ही महत्वपूर्ण कवि हो गये हैं और जिनके प्रशंसकों-प्रेमियों की संख्या भारतीय फ़ौज को भी शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी हैं। दूसरे सज्जन, जिनकी संगत में मैं ज्ञान की ग़ैर-हाज़िरी को भुलाये रखता था, रमेन्द्र त्रिपाठी थे, जो इन दिनों प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश जैसे परम भ्रष्ट राज्य में अपनी आकबत बचाये रखने के फेर में इतने मुब्तिला रहते हैं कि कविता से केवल पढ़ने का रिश्ता रखते हैं। उन दिनों रमेन्द्र एम.ए. कर रहा था। इरादा प्रशासनिक सेवाओं में जाने का था। चूँकि रामचन्द्र शुक्ल के परिवार से था, इसलिए हम लोग रमेन्द्र को ‘रामचन्द्र शुक्ल का नाती’ कह कर भी बुलाते थे।

वीरेन से मेरी मुलाक़ात अजय सिंह ने करायी थी जो हॉलैण्ड हॉल छात्रावास में प्रकुबम (यानी प्रणव कुमार बंद्योपध्याय) और गिरधर राठी के साथ रहता था। अजय का एकांकी ‘कुहनी की हड्डी’ 1966 में ‘ज्ञानोदय’ के उसी ‘नयी कलम अंक’ में छपा था जिसमें मेरी भी कविता छपी थी, और वह राजनीति शास्त्र में एम.ए. न करने की कोशिश कर रहा था, जिस कोशिश में वह अन्ततः सफल हो ही गया था। मैं एम.ए. करके हिन्दी विभाग से निकल आया था, मगर चूँकि मैंने शोध के लिए आवेदन दे रखा था और वह स्वीकृत भी हो गया था इसलिए जब तक ज्ञान की तरह मैंने भी शोध न करने फ़ैसला न कर लिया, मैं कुछ महीनों के लिए हर दूसरे-तीसरे विभाग का चक्कर लगा आता था।

तभी एक दिन विभाग के गलियारे में अजय सिंह मझोले क़द के दुबले-पतले बेढंगे-से युवक के साथ मिला जिसकी आँखों में कुछ ‘लुक हियर सी देयर’ वाला भाव था। अजय ने परिचय कराते हुए कहा कि यह वीरेन डंगवाल है, इसकी कहानियाँ ‘सरिता’ में छप चुकी हैं। ‘सरिता में!’ मुझे एक धक्का-सा लगा क्योंकि 1966 में भले ही रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ वह झूठा जिहाद शुरू नहीं हुआ था, जिसका ज़िक्र मैंने कालिया के सिलसिले में किया, तो भी कोई गम्भीर लेखक ‘सरिता’ में छपने की बात अपने परिचय में कहना या कहलवाना चाहेगा, यह मुझे अटपटा ही लगता था; हालाँकि एम.ए. करने के दौरान मैं दो बार गर्मियों की छुट्टियाँ दिल्ली बिता आया था और जानता था कि ‘सरिता’ कई लेखकों की पनाहगाह रही है, मसलन, भीमसेन त्यागी, कंचन कुमार, सुदर्शन चोपड़ा वग़ैरा की। ज़ाहिर है, मैंने सरसरी नज़र डाल कर उस युवक को ख़ारिज कर दिया था। लेकिन चूँकि उन दिनों इलाहाबाद में बहुत गहमा-गहमी थी, लेखकों के बीच बहुत मिलना-मिलाना था, इसलिए वीरेन से मिलना-जुलना बढ़ता चला गया। वैसे, वीरेन से खिंचे-खिंचे रहने का भाव सिर्फ़ मेरे ही मन में नहीं था। बाद में पता चला कि वीरेन को भी मुझसे शिकायत है, क्योंकि मैंने एक बार बटरोही से कॉफ़ी हाउस में बुरा व्यवहार किया था।