झाड़फूँक / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

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आजकल एक विचार फैला हुआ है-जो बात चटपट समझ में न आ जावे, या दलीलों से जो पूरी तौर पर साबित न की जा सके, या जिसका प्रभाव ठीक-ठीक हम न जान सकें, वह बात मानने योग्य नहीं होती है। ऐसी बात को इस प्रकार के विचार वाले बिल्कुल ढकोसला समझते हैं। और जो लोग इस प्रकार की बातें मानते हैं, उन पर बुरी तरह से आक्रमण करते हैं, और जली कटी सुनाने में भी नहीं चूकते। आजकल की ऐसी बातों में झाड़फूँक भी है। एक मनुष्य ने कुछ पढ़कर किसी को फूँक दिया। या हाथों से या और किसी वस्तु से उसको झाड़ दिया, और इससे उसका भला हो गया, या कोई रोग दूर हो गया, यह बात उनके जी में नहीं जमती, इसलिए ऐसी बातों में वह पड़ना नहीं चाहते। पड़ना ही नहीं चाहते, वरन् उनकी जड़ तक को खोद कर फेंक देना चाहते हैं। उनका विचार है कि भ्रम का परदा जितना ही लोगों की ऑंखों के सामने से दूर किया जावे, उतना ही अच्छा। जो कहीं कुछ ऐसा प्रभाव दिखलाई पड़ता है, कि जिसको हम आप झाड़फूँक का प्रभाव कह सकें। तो उसको ऐसे लोग संयोग बतलाते हैं, जो सदा नहीं हुआ करता।

मेरा विचार है कि इस प्रकार की जितनी चालें हम लोगों में चली हुई हैं, उनका सिद्धान्त बुरा नहीं है, हाँ, यह हो सकता है कि पीछे उसमें बहुत-सी बुराइयाँ आकर मिल गयी हों। झाड़फूँक कब चला, किसने चलाया, यह बतलाना कठिन है, पर यह अवश्य कहा जा सकता है, कि जभी चली हो पर यह प्रणाली बहुत समझ-बूझकर चलाई गयी है। सबका हित और भला करना ही इसका उद्देश्य है। बहुत दिनों तक इसका ऐसे हाथों में रहना पाया जाता है कि, जिनसे समाज का बहुत कुछ भला हुआ, नहीं तो इसकी जड़ कभी उखड़ गयी होती। अब जो कुछ उसका बचा खुचा भाग हम लोगों के सामने है, वह न तो अच्छे हाथों में है, और न पहले की तरह पूरा और ठीक है, और इसीलिए अब उसका उतना आदर भी नहीं है। थोड़े दिनों से फिर कुछ अच्छे चिन्ह दिखलाई पड़ने लगे हैं, पर वे कहाँ तक ठीक उतरेंगे, अभी यह बतलाना कठिन है।

थोड़े दिन हुए समाचार पत्रों में प्राय: यह समाचार पढ़ने को मिला, कि अमेरिका से एक साहब आये हुए हैं जो हाथ से छूकर या झाड़कर बहुत से रोगों को दूर कर सकते हैं। उनके इस क्रिया की जाँच लाहौर में भी कराई गयी। वहाँ उन्होंने कई एक रोगियों को हाथों से छू कर और झाड़कर आराम किया। किसी डिप्टी कमिश्नर ने भी उनको अपना रोग दूर करने के लिए लाहौर से बुलाया था। पर फिर इसके बाद क्या हुआ और वह कहाँ गये, इसका कुछ पता न चला। यहाँ इस बात के लिखने का प्रयोजन यह है कि जो विज्ञान के ज्ञाता हैं, जिनकी ऑंखों पर भ्रम का परदा पड़ा हुआ नहीं माना जा सकता, उनमें भी ऐसी बातें अब मानी जाने लगी हैं, और वह लोग बहुत अच्छे ढंग से अब इस कार्य को करने लग गये हैं।

श्रीमद्भागवत में लिखा है कि जब संकट के गिरने पर दुधमुँहें बच्चे श्रीकृष्ण बालबाल बच गये, तो इस तरह के बखेड़ों की शान्ति के लिए बहुत से ब्राह्मण बुलाए गये। उन लोगों ने आकर लड़के को झाड़ा फूँका और शान्ति के लिए कई एक धार्मिक क्रियाएँ कीं। श्रीशुकदेवजी ने इस अवसर पर जो कथन किया है, उसका मर्म यह है कि-जो झूठ नहीं बोलते, किसी से डाह नहीं रखते, कोई जीव नहीं मारते, जिनसे घमण्ड और बुराई नहीं होती, ऐसे सच्चे लोगों की दी हुई असीस कभी बिना पूरे हुए नहीं रहती-

येऽसूयानृतदंभेर्ष्या हिंसा मान विवर्जिता : ।

न तेषां सत्यशीलानामाशिषो विफला : कृत : ।

- भागवत

शुकदेवजी का वचन यह बतलाता है कि झाड़फूँक करने के लिए कैसे पवित्र पुरुष चाहिए। आजकल झाड़फूँक करना एक व्यापार हो गया है। और यह काम अधिकतर ऐसे लोगों के हाथ में चला गया है, जो प्राय: धूर्त होते हैं, और यह जानते तक नहीं कि इसका सिद्धान्त क्या है। यदि कुछ बुराई है तो यही, नहीं तो जितनी कड़ी ऑंखों से यह देखा जाने लगा है, कभी भी यह उतनी कड़ी ऑंखों से देखे जाने योग्य नहीं है।

कितने कीड़े ऐसे हैं कि यदि वे बदन से छू जावें, तो छाले पड़ जाते हैं, कितनों के छू जाने से बेतरह खुजली होने लगती है, आग के छू जाने से लोग जल जाते हैं, पानी छू जाने पर ठण्डे होते हैं। बिजली की बैटरी छू गयी नहीं कि हम बेहोश हुए नहीं। यदि कोई युवती जरा ऑंख बदल कर हमारा हाथ पकड़ लेती है तो हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कलेजा धड़कने लगता है। हम इन सब बातों को मानते हैं, पर ऐसा सत्य पुरुष जिसकी पहचान श्रीशुकदेवजी ने बतलाई है, अपने जी में हमारी भलाई चाहते हुए, हमारा रोग दूर करने की चाह से, यदि हमारे ऊपर हाथ फेरेगा, तो हमारा अवश्य भला होगा; न जाने हम इसे क्यों नहीं मानते। जब बड़े लोग (जिनके शरीर की बिजली भी विशेष शक्तिमान होती है) अपने बढ़े हुए भीतरी बल को काम में लाते हुए, किसी पर हाथ फेरते हैं, तो उनके शरीर की बिजली तो काम करती ही है, उनका बढ़ा हुआ भीतरी बल भी उससे अधिक काम देता है, फिर किसी का भला क्यों न होगा? और रोगी कैसे अच्छा न होगा? बड़े लोगों की बातें तो दरकिनार, यह सब लोग जानते हैं कि एक स्वस्थ और अच्छे चाल-चलन वाले मनुष्य के शरीर की बिजली अथवा विशेष शक्ति रोगी प्राणी पर वैसा ही प्रभाव डालती है, जैसे शरद ऋतु की कड़ी धूप में सताए हुए पौधों पर चाँदनी। परन्तु यदि हम इस अनुभूत बात को भी न मानें तो इस विषय में क्या कहा जाए।

लड़कों को एक रोग होता है, जिसमें उनका दम फूलता है, और कलेजा बेतरह उछलता है, इसे हलफा कहते हैं, यह बड़ी बुरी बीमारी है, लड़के इसके पंजे में पड़कर बहुत जल्द मर जाते हैं। इस बीमारी में मोर का पंख जलाकर शहद में चटाया जाता है और बहुत लाभ करता है। आप लोगां ने देखा होगा कि भीख माँगने वाले योगी अपने साथ एक मुरछली भी रखते हैं, स्त्रियों इस मुरछल से प्राय: लड़कों को जोगियों से झड़वाया करती हैं, ये सब जोगी नाम के ही जोगी होते हैं, गुण इनमें कुछ नहीं होता, जब ये लड़कों को झाड़ देते हैं, तो बातें भी ऊट-पटांग बकते हैं, इससे यह तो कभी नहीं माना जा सकता, कि उनमें लड़कों के भला करने का कोई विशेष बल है। पर लड़कों की देह से बार-बार जो मुरछल छुलाई जाती है, वह अपना प्रभाव अवश्य रखती है, ऊपर जो रोग कहा गया है, उसके कीड़ों को इन मोर के पंखों के छुलाने से बड़ा धक्का लगता है, और वे बहुत कुछ दबे रहते हैं। यह एक ऐसी बात है जिसको सभी जानते हैं, और ऐसी दशा, में यह नहीं कहा जा सकता कि झाड़ने से कुछ होता ही नहीं।

झाड़ने के इतना ही फूँकने में भी गुण है, यह नहीं कहा जा सकता। पर फूँक भी कुछ-न-कुछ गुण अवश्य रखती है। हमारी ऑंखों में जब किरकिरी पड़ जाती है, या कोई छोटा तिनका घुस जाता है, तो उस समय ऑंखों में फूँक का दिलाना बहुत काम करता है। जब ऑंखें कुछ पड़ जाने से या योंही गड़ने या दुखने लगती हैं, तो किसी कपड़े से छोटे मुट्ठे पर फूँक मार कर यदि उस मुट्ठे को कुछ देर तक हम ऑंखों पर फेरते रहते हैं, तो ऑंख का गड़ना और दुखना दोनों बन्द हो जाता है। आप लजालू पौधे की पत्तियों पर फूँक मारिए तो यह देखने में आवेगा, कि उसकी पत्तियाँ सिकुड़ रही हैं, और उसकी डालियाँ झुकती जाती हैं। इन बातों पर से यह कहा जा सकता है, कि फूँक भी अपना प्रभाव कुछ रखता है, और उससे कुछ-न-कुछ भला भी होता है, और ऐसी दशा में हम फूँक को भी बिल्कुल व्यर्थ नहीं बतला सकते।

झाड़ फूँक में एक भेद की बात और है, वह यह कि जिस समय कोई झाड़ फूँक करता है, उस समय वह कोई-न-कोई मन्त्र भी पढ़ता रहता है। मन्त्र क्या है? वह अपना कुछ प्रभाव रखता है या नहीं, हम यह बात भी थोड़े में यहाँ बतलाना चाहते हैं। यह सब लोग जानते हैं कि मन्त्र और कुछ नहीं है। थोड़े से शब्दों का समूह मात्र है। शब्दों का गुण छिपा नहीं है, जिस काम के लिए जो शब्द माना हुआ है, अपनी जगह पर वह शब्द उस काम के लिए पूरा प्रभाव रखता है। यदि हम किसी राक्षसी को माँ कहकर पुकारेंगे तो शायद वह भी पसीज जावेगी, क्योंकि माँ शब्द का प्रभाव ही ऐसा है। देखने में माँ एक अक्षर का शब्द है, पर इस एक अक्षर में ही, दया की, पालने-पोसने की, भला करने की, सहारा देने की, दुख दर्द में शरीक होने की, न जाने कितनी गूढ़ बातें भरी हुई हैं, जब हम किसी को माँ कहकर पुकारते हैं, तो वे सभी गूढ़ बातें एक साथ उसके जी में जाग उठती हैं, और वह हमारी ओर ढलने के लिए अपने आप बेबस हो उठती है। यही हाल दूसरे शब्दों का भी है। बड़ी कुचरित्र स्त्री को भी हम बेटी कह पुकारते हैं, तो वह हमारे सामने सिर नीचा कर लेती है। और उसके जी के सारे बुरे भाव एक दम पलट जाते हैं, पर 'बेटी' शब्द है तो दो ही अक्षर, हम किसी को गाली देते हैं, तो वह हमारा दाँत तोड़ने के लिए तैयार हो जाता है, पर यह गाली क्या है, केवल दो चार शब्द मात्र। आप किसी से प्यार जतलाते हैं, या किसी से मीठी बातें करते हैं, तो वह आपके पाँवों की धूलि भी सिर पर चढ़ाने को उतारू हो जाता है, पर प्यार जतलाने या मीठी बातें करने में क्या कोई जादू है, नहीं यहाँ भी शब्द ही काम करते हैं। फिर मन्त्र के शब्द जिस काम के लिए बनाए गये हैं, उस काम के करने में वे उपयोगी क्यों न सिद्ध होंगे। न जाने कितने सह्स्त्र बरसों से हमारे जी में यह बात जमी हुई है कि मन्त्र के शब्दों में यह प्रभाव है कि उनके जपने, जाप कराने, या उनके सहारे झाड़ फूँक कराने से बड़ी-बड़ी आपदाएँ टल जाती हैं, बड़े-बड़े रोग कट जाते हैं, तो क्या इन शब्दों का हमारे लिए काम में लाना, सर्वथा व्यर्थ हो जावेगा, और हमको उसका कुछ फल न मिलेगा? संसार में जिनते शब्द फैले हुए हैं, यदि वे अपनी जगह पर काम देते हैं, तो यह मानना पड़ेगा कि मन्त्र के शब्द भी अवश्य अपनी जगह पर काम देंगे। और ऐसी दशा में मन्त्र का प्रभाव और उसका उपकारक होना मान्य है।

आजकल के पढ़े-लिखे लोगों ने भी लगभग यह बात मान ली है, कि जिसमें कुछ भी भीतरी बल है, या आत्मबल है, वह जब अपने बल को एक दुखिया के दुख को दूर करने में लगाता है, उसको अच्छा कर देने का विचार जी में जगह बनाता है, और अपनी अच्छी-से-अच्छी स्वस्थता और आत्मबल का उस पर भाव डालता है, तो उसके भला होने में कभी त्रुटि नहीं होती। अब इसी के साथ झाड़ फूँक के व्यापार, मन्त्र के बल, और उस देवते के नाम को भी संयुक्त कीजिए, जिसके विनय और प्रार्थना का यह मन्त्र होता है, और फिर बतलाइए कि झाड़ फूँक किसी काम की वस्तु है या नहीं?

ऐसे अवसर पर प्राय: लोग यह भी कहते हैं कि जब झाड़ फूँक से ही सब कुछ हो सकता है, तो औषधी क्यों खिलाई जाती है? पर पहले तो यह प्रश्न ही ठीक नहीं है, क्योंकि यह कोई नहीं कहता कि झाड़ फूँक ही सब कुछ है, उसके साथ-साथ दवा भी होनी चाहिए, और ऐसी प्रणाली भी है। पर यदि हम इस प्रश्न को मान भी लें तो इसका सीधा-सादा उत्तर यह है, कि जो दवा के विश्वासी हैं, वे खुले और हवादार घर क्यों खोजते हैं, सर्दी और धूप से बीमार को क्यों बचाते हैं, रोगी को साफ सुथरे कमरों में क्यों रखते हैं, उसके बिछावन को सातवें-आठवें दिन क्यों बदलते हैं? जो ये सब भी दवाए हैं या दवा को सहायता पहुँचाने वाले सामान हैं, तो उनको समझना चाहिए कि झाड़ फूँक भी दवा है, या दवा को सहायता पहुँचाने वाली प्रणाली है। जो बिना ऊपर लिखी क्रियाओं के दवा का प्रभाव बहुत कम होता है या दवा व्यर्थ सी हो जाती है, तो यह भी जानना चाहिए कि झाड़ फूँक का प्रभाव भी बहुत सी अवस्थाओं में बिना दवा के बहुत कम होता है, और झाड़ फूँक को सफल बनाने के लिए दवा का होना भी बहुत आवश्यक है। जब नौका भँवर में पड़ती है, तो उसके बचाने की सभी युक्तियाँ उस समय की जाती हैं, किसी युक्ति को लेकर झगड़ा नहीं उठाया जाता। इसी प्रकार जब कोई बीमार होता है, तो उसके लिए जितने प्रयत्न हो सकें, सभी करने चाहिए उलझनें डालना व्यर्थ है।

किसी की सम्मति यह भी है कि जिनका आत्मबल बहुत बढ़ा हुआ होता है, वह झाड़ फूँक कर बड़े-बड़े रोगों में भी सफल हो सकते हैं, और ऐसी दशा में दवा की भी आवश्यकता न होगी, परन्तु ऐसे लोग हैं कहाँ? और यदि हैं भी तो इने गिने। इसीलिए जहाँ तक देखा जाता है, छोटी-छोटी बीमारियों में, और स्त्रियों एवम् लड़कों के किसी मुख्य रोग में इससे काम लिया जाता है। सब रोगों या बड़ी-बड़ी बीमारियों में न तो केवल इस पर भरोसा किया जाता है न करना चाहिए। यदि छप्पर के किसी एक कोने में आग लग जावे तो उसको हम हाथ से पीटकर या उस पर धूल डालकर उसे बुझा सकते हैं, पर जब यह आग बढ़कर छप्पर भर में फैल जाती है, तो फिर उसको सैकड़ों घड़ा पानी से बुझाना कठिन होता है, और ऐसी दशा में उसको कोई हाथ से पीटकर या उस पर धूल डालकर कभी बुझाना नहीं चाहता। यही दशा आप झाड़ फूँक और किसी दूसरे ऐसी ही क्रियाओं को समझिए। ये सब उपाय मुख्य अवस्थाओं को छोड़कर आरम्भ की हैं और इनसे आदि में ही काम लेना चाहिए।

बहुत दिनों से हमारे घर की यह चाल है कि, अगर झाड़ फूँक कराई भी जाती है, तो बच्चों की कराई जाती है। और वह भी ऐसे लोगों से जो कि भले-मानस और योग्य होते हैं। जब से हमने होश सँभाला, कभी न तो अपने घर में किसी पुरुष की झाड़ फूँक होते देखा न किसी स्त्री की। जब से घर का कारबार मेरे हाथ में आया, तब से कई अवसर ऐसे आ पड़े कि जिनमें लोगों ने मुझसे झाड़ फूँक कराने के लिए कहा, पर मेरा चित्त कभी इस ओर नहीं आया। कारण यह है कि मेरे जी में यह बात बैठ गयी है, कि यह काम अब ऐसे लोगों के हाथों में नहीं है, कि जिनके झाड़ फूँक का कुछ प्रभाव हो सके। झाड़ फूँक के विषय में मेरे जो विचार हैं, आप लोग उन्हें ऊपर देख आये हैं, उससे आप लोग समझ गये होंगे कि मैं झाड़ फूँक को बुरा नहीं समझता, पर यह अवश्य चाहता हूँ कि यह काम उन्हीं लोगों से लिया जावे, जो इसके योग्य हों, नहीं तो उससे किनारे रहना ही अच्छा है। निदान यही सब सोच समझ कर मैंने अपने उन मित्रों की राय को पसन्द नहीं किया, जिन्होंने मुझे झाड़ फूँक कराने की सम्मति दी, सिवा इसके मेरा रोग भी ऐसा नहीं है कि वह झाड़ फूँक से जावे, इसलिए मैं इससे किनारे ही रहा। बच्चों की झाड़ फूँक मैं अब भी करा लेता हूँ, पर उन्हीं लोगों से जिनको कि मैं आत्मबल में बढ़ा हुआ पाता हँ-या गाँव घर का जिन्हें मैं बड़ा बूढ़ा समझता हूँ।