पूजा-पाठ / अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
आजकल का एक ढंग यह भी है कि पहले तो हमारे मन की जितनी बातें नहीं हैं, उनको हम मानना नहीं चाहते, और यदि किसी कारण से हमको उन्हें मानना पड़ता है, तो उनको हम उलट-पुलट कर अपने मन की बना लेते हैं। आजकल पूजा पाठ के भी कुछ नये अर्थ गढ़े गये हैं, पर हमको उस नये अर्थ से काम नहीं। हमें मुख्य अर्थ से ही प्रयोजन है। पूजा पाठ करने का क्या फल है। इसके करने से किसी का कुछ भला हो सकता है या नहीं? आज तक किसी का कुछ भला हुआ? और यदि हुआ तो क्या ? यदि हम इन प्रश्नों का उत्तर देने लगें, तो बहुत लम्बा चौड़ा उत्तर दिया जा सकता है, इस ग्रन्थ जैसी बहुतेरी पुस्तकें निर्मित हो सकती हैं, क्योंकि संसार की सारी धार्मिक पुस्तकें इसकी प्रशंसा से भरी पड़ी हैं। पर हमको उसके जटिल मार्ग में नहीं जाना है, उसके ऊँचे-ऊँचे पदों पर नहीं पहुँचना है, हमें केवल यह देखना है कि पूजापाठ करने या न करने से रोगी को कुछ लाभ पहुँच सकता है, या नहीं, उसका रोग दूर हो सकता है या क्या?
पूजापाठ हम अपने आप भी कर सकते हैं, और दूसरों से भी करा सकते हैं। जो पूजापाठ हम दूसरों से कराते हैं, उसमें यथा शक्ति इस बात की चेष्टा करते हैं कि पूजापाठ करनेवाला ऐसा मिले जो अच्छी तरह से पढ़ा लिखा और भला हो, और अपना काम जी लगाकर ठीक-ठीक करे। जिस आत्मबल की चर्चा हमने झाड़ फूँक के वर्णन में की है, यदि उस आत्मबल को काम में लाकर कोई पूजा पाठ करेगा, तो वह किसी रुग्ण को कहाँ तक लाभ पहुँचा सकता है, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है। जिसका आत्मबल जितना बढ़ा होगा, वह इस विषय में उतना ही सफल होगा, और यदि इतना ही लिखकर हम इस पूजापाठ की बात को यहीं छोड़ दें, तो भी हमारा काम पूरा होता है। पर झाड़ फूँक और पूजापाठ में बड़ा भेद है, झाड़ फूँक कहीं होता है कहीं नहीं, पर पूजापाठ सब जगह होता है, और आजकल धर्म के विषयों में बहुत कमी हो जाने पर भी, इसका बहुत कुछ आदरमान है। इसलिए हम इस बारे में सब बातें पूरी तौर पर लिखना चाहते हैं।
जितने पूजापाठ हैं वे सब किसी देवता के नाम पर होते हैं, सोचा यह जाता है कि इस पूजा पाठ से देवते प्रसन्न किए जाते हैं, जिसके बदले वे हमारे बहुत से दुखों को दूर कर देते और कितने कार्मों को पूरा करते हैं। अब यहाँ पहले ही यह प्रश्न होता है कि क्या देवते कोई हैं? और क्या हमारे पूजा पाठ से वे प्रसन्न भी हो जाते हैं? और क्या सच है कि वे प्रसन्न होकर हमारा दुख दूर कर देते, या हमारे कामों को पूरा कर देते हैं? देवते हैं या नहीं, यह कोई नया प्रश्न नहीं है, बहुत पुराना प्रश्न है, इस विषय में हमारे धर्म के ग्रन्थों में ही बहुत कुछ खूब लिखा गया है, आजकल के नये जाँच पड़ताल करनेवालों ने भी इस विषय में खूब लिखा-पढ़ी की है। हम यहाँ उन वैज्ञानिकों की बातों को नहीं दिखलाना चाहते पर इतना कहना चाहते हैं कि जो ईश्वर का होना मानते हैं, उनको देवते भी मानने पड़ेंगे, चाहे ये ईश्वर के दूसरे नाम करके माने जावें, चाहे उनकी कोई शक्ति समझी जावें, चाहे उनका कोई अलग रूप माना जावे। जो लोग ईश्वर को नहीं मानते, उनको भी एक ऐसी शक्ति माननी पड़ेगी, जो इस सम्पूर्ण संसार का सब कुछ है, और यह सब कुछ ही ईश्वर है, ईश्वर और कहते किसे हैं? पुष्पदन्ताचार्य ने महिम्न में एक स्थान पर लिखा है कि मनुष्यों की प्रकृति भिन्न प्रकार की होती है, इसलिए वे सीधे टेढ़े बहुत से रास्तों से होकर निकलते हैं, पर वे उसी प्रकार परमात्मा के पास पहुँचते हैं, जैसे सब नदियों का पानी समुद्र में पहुँचता है।
रुचीनां वैचित्रयात् कुटिल ऋजुनाना पथयुषाम्।
नृणामेकोगम्यस्त्वमसि पयसामर्णवमिव।
संस्कृत का एक और कवि कहता है कि जैसे आकाश से गिरा हुआ पानी बहुत से रास्तों से समुद्र में ही पहुँचता है, उसी तरह से समस्त देवतों को किए गये भाव ईश्वर के पास ही जाते हैं।
आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरे।
सर्वदेवं नमस्कारम् , केशवं प्रति गच्छति।
यह बात है बहुत ऊँचे दर्जे की, पर है बहुत सच, हमको सचाई ही से काम है। चाहे हमारे पाँवों की कोई पूजा करे, चाहे सिर की, वह पूजा है हमारी ही। चाहे कोई कलक्टर का अदब करे, चाहे कमिश्नर का, चाहे मेम्बरान बोर्ड का, चाहे लाट साहब का, पर वास्तव में वह अदब है हमारे सम्राट का ही। और जब यह ठीक है, तो प्रश्न की आवश्यकता नहीं रही कि देवते हैं या नहीं?
पूजापाठ से देवते प्रसन्न होते हैं कि नहीं, यह दूसरा प्रश्न है। ऊपर जो कुछ लिखा गया है, उससे यह बात आप लोग समझ गये होंगे, कि देवतों की पूजापाठ वास्तव में ईश्वर की पूजापाठ है। इसलिए हमको देखना है कि पूजापाठ से ईश्वर प्रसन्न होते हैं या नहीं। कोई-कोई कहेंगे कि वाह, क्या अच्छी टालटूल है, प्रश्न तो है देवतों के प्रसन्न होने का, और आप खींच खाँचकर उसको ईश्वर पर ले गये। पर थोड़ा सा सोचने पर यह सन्देह नहीं रह सकता। यह कोई भी न कहेगा कि यदि कोई पेड़ सींचा जावे तो उससे उसके डाल और पत्ते हरे न होंगे। या डाल और पत्तों पर जो जल किसी तरह आकर गिरेगा, वह पेड़ को हरा भरा न बनावेगा। इसलिए अब हम फिर अपने मुख्य अभिप्राय पर आते हैं, और देखते हैं, कि पूजापाठ से ईश्वर प्रसन्न होते हैं कि नहीं।
ईश्वर का कोई रूप रंग नहीं है, वह क्या है, न तो यह ठीक-ठीक बतलाया जा सकता है, और न मन और बुध्दि उसके विषय में कुछ काम करती है। फिर भी वह किसी प्रकार बतलाया ही जाता है, और मन और बुध्दि से भी काम लेना पड़ता है, क्योंकि बहुत से विषयों में यह देखा गया है, कि कुछ मानकर आगे बढ़ने से बाद को परिणाम ठीक निकल आता है। इसी सिध्दान्तों पर और किसी प्रकार ईश्वर के भेद की गुत्थी को थोड़ा बहुत सुलझाने के लिए हमारे यहाँ संसार को ही ईश्वर का रूप माना गया है। हमारी देह पर यहीं कोई धूल डालता है, तो हम बुरा मानते हैं, पर उसी पर यदि कोई फूल चढ़ा देता है, तो हम प्रसन्न होते हैं। इसलिए समझना चाहिए कि जिस काम से संसार को या संसार के किसी एक भाग को यहाँ तक कि एक रज:कण को लाभ पहुँचेगा, वही काम तो ईश्वर को प्रसन्न करनेवाला है, और जिससे इनको लाभ न पहुँचेगा, या इनकी बुराई होगी, वही काम ऐसे हैं कि जिनसे भगवान अप्रसन्न होंगे। अब हम यह विचारेंगे कि पूजापाठ से संसार को कुछ लाभ पहुँचता है या नहीं? कुछ भलाई होती है या नहीं? पहले पूजापाठ के जितने सामान हैं आप उनको लीजिए। पूजापाठ के लिए यह आवश्यक है कि घर को लीपपोत कर स्वच्छ बनाया जावे, पूजापाठ के लिए कपूर, धूप, चन्दन, फूल, माला और तरह तरह की साकलाओं का होना भी आवश्यक है। जो लोग विज्ञान के जानने वाले हैं, वे अच्छी तरह जानते हैं, कि जैसे साफ सुथरा मकान उसमें रहनेवालों को स्वस्थ बनाता है, उसी तरह कपूर और धूप का जलना, फूल माला का सुगन्ध फैलाना, और तरह-तरह की साकलाओं के सहारे से होम का होना भी हवा को साफ और सुगन्धित बनाकर, आस-पास के रहने वालों को लाभ पहुँचाता और नीरोग बनाता है। जब पाठ होने लगता है, तब भी हम यही जानते और सुनते हैं, कि हमारे लिए जिसकी पूजा हो रही है, वह बड़ी भारी शक्ति रखता है, वह दुखियों के दु:ख को दूर करता है, अकिंचनों पर दया करता है, विपत्ति में पड़े को उबारता है, यहाँ तक कि जिसकी सहायता कोई नहीं करता वह उसकी भी बाँह पकड़ता है। ये बातें ऐसी हैं, जो टूटे हुए दिल को भी ढाढ़स बँधाती हैं, अंधेरे में भी उँजाला करती हैं, और गिरे हुए को भी पकड़कर उठाती हैं। अब आप समझ गये होंगे कि पूजापाठ में जितनी बातें हैं वे सब संसार के लोगों को लाभ पहुँचाने वाली हैं, ऐसी दशा में यह बात अपने आप सिद्ध हो गयी कि पूजापाठ से ईश्वर (या देवते) प्रसन्न होते हैं।
अब रही बात कि रोग वाले का रोग दूर हो सकता है या नहीं? रुग्ण को लाभ पहुँचेगा या नहीं? जब रोगी एक लिपे पुते साफ-सुथरे मकान में रखा जावेगा, जब उसके पास की हवा नित्य कपूर, धूप और तरह-तरह की साकलाओं को जलाकर साफ-सुथरी और सुगन्धित बनाई जावेगी, तब उसे ऐसे देवता का भरोसा दिलाया जावेगा, जिसका विश्वास उसके जी पर लड़कपन से ही जमा हुआ है, और जब भरोसा दिलानेवाला एक ऐसा जन होगा, जिसकी उसके जी में बहुत कुछ जगह है, या जिसको उसके जी में जगह दी है, तो उसको लाभ क्यों न पहुँचेगा, अवश्य पहुँचेगा, और मैं समझता हूँ कि शायद कोई बुध्दिमान ऐसा नहीं है जो इस बात को न मानेगा।
आजकल बहुत छानबीन करने के बाद यह बात मान ली गयी है, कि जो बात हमारे ध्यान में हर घड़ी जमी रहती है, या जिस ओर हमारा जी प्राय: लगा रहता है, उसका हमारे ऊपर बहुत बड़ा प्रभाव होता है। यदि खाते-पीते, उठते-बैठते और दूसरे कामों के समय भी मृत्यु ही हमको याद रहती है, चर्चा भी हम जब करते हैं, तब उसी की करते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि मृत्यु हमारे सिर पर सवार है, और अब वह बहुत शीघ्र अपना काम करेगी। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि कंस को पिछले दिनों सर्वदा मृत्यु ही याद रहती, कृष्ण ही उसकी ऑंखों पर नाचा करते, सोने में भी वह सपना मृत्यु का ही देखता और खाते-पीते भी मृत्यु ही उसको चौंका देती, फल क्या हुआ, श्रीकृष्ण अचानक वृन्दावन से मथुरा आये, और देखते-देखते ही कंस का विनाश कर डाला।
इंगलैण्ड में एक बड़े कंगाल लड़के के जी में यह बात बैठ गयी थी, कि वह लार्ड मेयर होगा। लोग उसकी बातों को सुनकर हँसते, पर वह अपने विचार का इतना पक्का था कि एक दिन ऐसा आया, कि जिस दिन वह सचमुच लार्ड मेयर हो गया था। हमारे यहाँ इससे और भी ऊँचा उठा गया है, और वेदान्त ने बतलाया है कि यदि ठीक-ठीक तुम्हारी लौ ईश्वर के साथ लग गयी है, तो और तो क्या तुम्हारे ईश्वरत्व प्राप्ति में भी सन्देह न रह जावेगा।
कोई रुग्ण है और उसके जी में यह बात जम गयी है, कि अब वह अच्छा न होगा, और यह विचार इतना पक्का हो गया है, कि जी से निकालने पर भी नहीं निकलता, तो लाखों दवा भी होती रहे, तो भी समझ लेना चाहिए कि मृत्यु पास आ गयी, और अब वह मरेगा। पर यदि वह किसी बुरे रोग में भी फँस गया है, और उस पर उसका दिल इतना पुष्ट है, या किसी प्रकार इतना पुष्ट बना दिया गया है, कि वह यह समझता है, कि कुछ नहीं, अब वह थोड़े दिनों में ही अच्छा हुआ जाता है, तो समझ लेना चाहिए कि उसके अच्छे होने में देर नहीं है, और उसका बड़ा भारी रोग भी काई की तरह फट जावेगा।
संसार में जब पढ़े-लिखे लोगों में भी ऐसे लोग कम हैं, जो सब बातों का भेद ठीक-ठीक समझते और उससे लाभ उठाते हैं, तो फिर जो लोग अनपढ़ गँवार हैं, उनकी चर्चा ही क्या। इसलिए बुध्दिमान लोगों ने ऐसी बातें बना रखी हैं, कि जिनको करते रहने पर बिना समझे हुए भी लोग बहुत कुछ लाभ उठाते हैं, और तरह-तरह की आपदाओं से बचते हैं। जब हम देखते हैं कि कोई शिव जी के मन्दिर में जाकर उनकी जल अच्छत से पूजा करता है, उन पर विल्व पत्र चढ़ाता है, उनका गुण गाता है, और साथ ही अपना दुखड़ा भी सुनाता जाता है, तो हमको समझ लेना चाहिए कि पलटते समय वह ऐसे विचार भी साथ लाता है, कि जो उसके लिए पारस का काम देते हैं। कोई कितना ही बड़ा समझदार और जी का कड़ा क्यों न हो, फिर भी मुसीबत में घबरा जाता है। जब समझदार और दिल के कडे लोगों की यह दशा है, तो अनपढ़ और गँवार ऐसे अवसर पर कितना घबराएँगे, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। मनुष्य जब घबराता है, तो उसका घबराया हुआ दिल कोई सहारा ढूँढ़ता है, सहारा ढूँढ़ने वाले को कभी-कभी एक तिनके का सहारा भी काम दे जाता है। पर जिसका सहारा देनेवाला ऐसा है, कि जिसने काल के मुँह से मारकण्डे को भी बचा लिया, जो सब देवतों से बड़ा और काल का भी काल है, उसका क्या पूछना, यदि उसका घबराया हुआ दिल उसका सहारा न पावेगा, तो किसका पावेगा, और इस सहारे को पाकर यदि उसका दिल पुष्ट न होगा, तो किसका होगा, और यही बात ऐसी है, जो उसके लिए पारस बन जाती है। पूजापाठ करना और कराना, उसके सारे सामान, और ऐसा ही और भी कितनी ही बातें, सब ऐसे ही ऐसे कामों को पूरा करने के लिए गढ़ी गई हैं और उन सबकी जड़ यही है, कि किस तरह एक घबराए और निराश भी को ढाढ़स देकर धर्य बँधाया जावे, और कैसे उसके जी से घबराहट बढ़ाने वाले और निराश करने वाले विचार दूर कर दिए जावें, जिससे वह निश्चिन्त और सुखी हो, और उसके सब तरह के रोग दूर हो जावें।
पण्डित जगन्नाथ पाठक हमारे यहाँ के एक बहुत सीधे-साधे ब्राह्मण थे, इनमें ब्राह्मणों के बहुत से गुण थे, परन्तु पढ़े-लिखे कम थे, यहाँ तक कि अपनी विद्या पर उनको आप भरोसा न था। जब वे कोई पूजापाठ करते, तो उनको इस बात का खटका बना रहता, कि जजमान का काम मुझसे पूरे तौर पर हुआ या नहीं हुआ। वे सच्चे थे, इसलिए जब उनको इस प्रकार का विचार होता, तो उनके जी को चोट लगती। और वे दुखी होते। दुखी होने पर उनका मुँह मलीन हो जाता, तब वे देवते के सामने अपना सिर झुका देते, गिड़गिड़ाते, हाथ जोड़ते, ऑंखों में ऑंसू भर लाते, और बहुत दर्दभरी आवाज़ से देर तक विनय करते और यह चाहते कि देवता उनकी भूलचूक को क्षमा करें, और यजमान का काम कर देवें, जिसमें वे लोगों को अपना मुँह दिखलाने योग्य रहें। एक दिन मैं एक रोगी को देखने गया, उस समय उसके पास एक चौकी पर बैठे हुए पाठक जी पाठ कर रहे थे, जब मैं पहुँचा, उसके थोड़े ही देर बाद पाठ पूरा हुआ, और पाठक जी विनय करने में लग गये। मैंने रुग्ण से पूछा कि अब आप कुछ अच्छे हैं? उन्होंने कहा-मेरी तो घड़ी टल रही थी, मैं भी जीने से निराश हो गया था, पर अब आशा होती है कि मैं अवश्य अच्छा हो जाऊँगा। पाठक जी ऐसे सीधे और सच्चे ब्राह्मण जब मेरे लिए देवता के सामने इतना गिड़गिड़ा रहे हैं, तो मैं क्यों न अच्छा होऊँगा, अवश्य अच्छा हूँगा। कुछ दिनों पीछे मैंने देखा कि जैसा उनका विचार था, उसके अनुसार वे अच्छे हो गये थे।
विसूचिका बड़ी ही डरावनी बीमारी है, यदि तीन मनुष्य साथ हों, और इन तीनों को छोड़कर दूसरा कोई इनका साथी और सहायक न हो, और ऐसा संयोग आन पड़े कि इन तीन मनुष्यों में से दो विशूचिका से बीमार होकर मर जावें तो डॉक्टरों की राय है कि तीसरा भी अवश्य मर जावेगा। जिन दिनों किसी गाँव में या शहर में यह बीमारी फैली होती है, उन दिनों इस विचार की सचाई ज्ञात होती है। यह रोग ऐसा बुरा है कि गाँव में फैला नहीं कि लोगों के जी में डर समाया नहीं। ज्यों-ज्यों मृत्यु बढ़ती जाती है, लोगों की घबराहट भी अधिक होती जाती है, बहुत से लोगों की तो ऐसी गत हो जाती है कि उनको हर घड़ी बीमारी का ही ध्यान बना रहता है, और ऐसे ही लोग बहुत कर मरते भी हैं। इसीलिए अच्छे लोग इसकी चर्चा भी बुरी समझते हैं। हम लोगों में चाल है कि विसूचिका के दिनों में बड़ी धुमधाम से चलावा या निकासी की जाती है, इस चलावे का ऐसा प्रभाव देखा गया है, कि होते ही गाँव का गाँव रोग के चंगुल से छुटकारा पा जाता है, कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है, पर हमको प्राय: होनेवाली बात को देखना है। चलावे में पहले पूजापाठ होता है, फिर होम, और इसके बाद रात में गाँव के सब लोग एकत्र होकर किसी भैंसे या बकरे को सवारी की तरह सजाते हैं, और फिर बाजा, घड़ी, घण्टा और शंख बजाकर बड़े उत्साह से दुर्गा को मनाते हुए उसे गाँव के बाहर निकाल देते हैं। जिसका अर्थ साधारणतया यह समझा जाता है, क्रिया द्वारा बीमारी गाँव के बाहर निकाल दी गयी। जैसी ही डरावनी यह बीमारी है, और जैसा ही प्रत्येक के जी पर इसका डर छाया रहता है; वैसी ही यह परम्परा है, जिससे सर्व साधारण का डर जाता रहता है। घबराहट मिट जाती है। और इसी का यह प्रभाव होता है कि रोग का सारा आतंक गाँव से दूर हो जाता है। चाहे रोग का गाँव से निकाल दिया जाना, और उसके सारे सामान ढकोसले ही समझे जावें, पर इस प्रयत्न का जो प्रभाव साधारणतया लोगों पर मुख्य कर स्त्री एवं लड़कों और साधारण जनों पर पड़ता है, वह अवश्य इस बात का प्रमाण है कि यह आविष्कार बहुत सोच समझकर किया गया है, और बड़े काम का है। इसकी जड़ भी रोगी के दिल को पुष्ट बना देना, और लोगों के भावों को पलट देना, आदि उन्हीं विचारों पर है कि जिनकी चर्चा मैंने ऊपर कीहै।
हमने देखा है कि जब पूजापाठ होने पर कोई रोगी नहीं बचता, मर जाता है, या काम नहीं पूरा होता, तो किसी-किसी की प्रकृति बिगड़ जाती है, और पूजापाठ से वह बिल्कुल बे-विश्वास हो जाता है। हमारे यहाँ एक रागी थे, उनको एक ही लड़का था, आठ नौ बरस के सिन में इस लड़के को चेचक निकली। रागी बेचारे ने जिस प्रकार अन्य उपचारों का प्रबन्ध किया, उसी प्रकार उन्होंने धुम से पूजापाठ भी कराया। पर उसका दिन पूरा हो गया था; इसलिए वह चल बसा, संयोग ऐसा हुआ कि जिस समय पाठ हो रहा था, उसी समय लड़का मरा, रागी बेचारे का कलेजा दुख से तो फट गया ही था यह बात उनको और खली, वे पागल हो गये, और एक डण्डा लेकर उन्होंने पूजा के कुल कलसों को तोड़ डाला, पूजा के सारे सामान को छींट दिया। चाहा कि पोथी लेकर उसको भी टुकड़े-टुकड़े कर डालें, पर पण्डित जी के सामने पेश न गयी। उनका क्रोध यहीं ठण्डा न हुआ, जब वह लड़के की लाश लेकर निकले तब भी बुरा हाल था, वह रोते तो थे, पर बीच-बीच में सैकड़ों बेतुकी गालियाँ देवी और दुर्गा को भी देते जाते थे, मैंने देखा कि उसी दिन से उनका विश्वास पूजापाठ से उठ गया था, और पीछे भी जब कभी उनसे देवी और दुर्गा की चर्चा हुई, तभी उन्होंने उनको बिना दस पाँच गालियाँ सुनाए न छोड़ा।
एक पण्डित जी ने बहुत कुछ पूजापाठ करके एक लड़का पाया, पर यह लड़का भी बहुत दिन जीता न रहा, कोई बीस पचीस दिन के बाद मर गया। पण्डित जी नित्य ठाकुर जी की पूजा करते थे, जब वे पूजा कर रहे थे, तभी उनको ज्ञात हुआ कि लड़का जाता रहा। फिर क्या था, आप इतने बिगड़े और बावले बन गये कि ठाकुर जी की सारी मूर्तियों को उठाकर इधर-उधर फेंक दिया, शालिग्राम की दो एक मूर्तियों को तोड़ डाला, और फिर फूट-फूटकर रोने लगे। एक दिन रात उनकी बुरी गत रही, पर दूसरे दिन उनका जी ठिकाने हुआ, जब उनका जी ठिकाने हुआ, तो वे इतने लज्जित हुए थे कि उनको अपना मुँह दिखलाना भी कठिन था। उन्होंने फेंकी हुई मुर्तियों को उठाकर फिर अपने स्थान पर रखा, और जिन मुर्तियों को तोड़ दिया था, उनको ले जाकर नदी में विसर्जन किया। जिस घड़ी वे टूटी हुई मुर्तियों को लेकर विसर्जन करने के लिए नदी जा रहे थे, उस घड़ी उनके जी पर लड़के के मरने से भी अधिक चोट थी, उनके चेहरे पर एक रंग आता था, और एक जाता था, और बार-बार वे यही कहते थे, कि हाय! मैं ऐसा बावला हो गया कि पवित्र गीता के इस वचन को भी भूल गया तुम काम कर सकते हो पर फल मिलना तुम्हारे हाथ नहीं है।
कर्मण्येवाधिकारस्ते , मा फलेषु कदाचन
आप लोग देखें कि दुख के वेग ने रागी और पण्डित दोनों के दुर्बल चित्त को बावला बना दिया था, पर दुख का वेग कम होने पर पण्डित जी को तो समझ आयी, पर रागी वैसा-का-वैसा ही रहा, वह अपनी बिगड़ी हुई प्रकृति को न सुधार सका। हम मामलों में वकील रखते हैं, और एक नहीं कई बार वकीलों के लाख सिर मारने पर भी मामलों को हार जाते हैं, फिर भी मामला आन पड़ने पर वकीलों को रखते हैं, मामला हार जाने से वकीलों का रखना नहीं छोड़ते। हम अच्छी-से-अच्छी औषधी एक-से-एक अच्छे वैद्यों से कराते हैं। पर मरनेवाला मर ही जाता है, लाख दौड़ धूप करने से भी नहीं बचता, पर दवा की तरफ से हम कभी बे-विश्वास नहीं होते। और जब आवश्यकता होती है, तभी करते हैं। फिर पूजापाठ की ओर से बे-विश्वास होने और उसे छोड़ बैठने का क्या कारण है? सच्ची बात यह है कि उसकी बातें इतनी सूक्ष्म और गूढ़ हैं, कि मोटी समझ वाले उसको कभी नहीं समझ सकते, इसलिए जब तक कि उनका काम निकलता रहता है, तब तक तो वे उसको करते हैं, और जहाँ कोई बात बिगड़ी, वहीं उसको छोड़ बैठे, और पिछली सारी बातें भूल गये। पर समझदार और दूर तक सोचनेवाले लोग कभी ऐसा नहीं करते, और वे यह समझते हैं कि बहुत-सी दशाएँ ऐसी हैं कि जिनमें बिना पूजापाठ के दवा बिल्कुल व्यर्थ हो जाती है। वह ऐसे कामों को अपना कर्त्वय समझकर करते हैं, उसके फल पर ऑंख नहीं डालते, क्योंकि फल का झगड़ा मनुष्य को बे-विश्वास बना देता है।
मैं ऊपर कह आया हूँ कि पूजापाठ रोग दूर करने के लिए, रोगी के जी को ढाढ़स बँधाने के लिए, उसके दुख के वेग को हलका करने के लिए, उसके घबराए हुए दिल को बहलाने और दृढ़ बनाने के लिए, उसके मन को ठिकाने रखने के लिए, किया कराया जाता है। न मृत्यु को न होने देना पूजा पाठ कराने का अभिप्राय है, और न ऐसा कभी हो सकता है। फिर मृत्यु हो जाने पर पूजापाठ से बे-विश्वास हो जाना, यदि नासमझी नहीं है तो क्या है?
मैं एक दिन एक साधु के पास बैठा था, इसी समय उनके यहाँ एक हलवाई आया और हाथ जोड़कर उसने उनसे कहा कि महाराज! जो भभूत आपने रात मुझको दी थी, उससे बीमार को कुछ लाभ नहीं हुआ। यह सुनकर वे हँसे और कहा कि, यदि तावा खूब जल रहा हो, तो क्या उस पर दो एक बूँद पानी डाल देने से वह ठण्डा हो जायेगा? उसने कहा-नहीं महाराज, उसके लिए दस पाँच घड़े पानी की आवश्यकता होगी। उन्होंने कहा-फिर समझ जाओ। रोग जैसा है, वैसा यत्न भी करो। भभूत क्यों न काम करेगी। साधु की यह सीख सब रोगों में याद रखने योग्य है। हमने देखा है कि बड़े-बड़े गाँवों में भी विसूचिका फैलने पर चार पैसे के घी और सेर दो सेर साकल से ही होम करके कभी-कभी काम निकाल लेने की बात सोची जाती है। पर यह तो जलते तवा के लिए दस-पाँच बूँद भी नहीं है, फिर काम कैसे होगा! इसी प्रकार बड़े-बड़े रोगों में भी यदि हम साधारण पूजापाठ से ही काम निकालना चाहते हैं, तो समझ लेना चाहिए कि यह वैसा ही है, जैसा कोई स्याही के धब्बे को एक चुल्लू पानी से धोना चाहे।