झिर्रियों में रोशनी : विनोद कुमार शुक्ल / अशोक अग्रवाल

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वर्ष 1979। भोपाल से अशोक वाजपेयी ने एक उपन्यास की पाण्डुलिपि प्रेक्षित की, इस आग्रह के साथ कि क्या इसे संभावना से प्रकाशित कर पाना संभव हो सकेगा। उपन्यास पढ़ते ही मैं मुग्ध हो गया। अपने कथ्य, संरचना और अछूते काव्यात्मक बिम्ब-विधान से गुँथा एक अप्रतिम उपन्यास। यह ‘नौकर की कमीज़’ था जिसे प्रकाशित होते ही अपने समय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और चर्चित उपन्यास का दर्जा मिलने के साथ हिन्दी के कालजयी उपन्यासों की पंक्ति में जिसकी गणना होनी थी। उसे प्रकाशित करना संभावना के लिए गर्व और सम्मान की बात थी और उसे यह अवसर उपलब्ध कराने का पूरा श्रेय अशोक वाजपेयी को जाता है। उपन्यास की पांडुलिपि एक लंबे वक्त से राजकमल प्रकाशन में अटकी थी उनके और विलंब के कारण वह किंचित खिन्न भी थे।

संभावना का अपनी शुरुआत से इस बात पर आग्रह रहा कि रचनाकार की अपनी कृति के प्रकाशन में सक्रिय हिस्सेदारी हो। आवरण सज्जा से लेकर कृति के प्रकाशन के अंतिम चरण तक। इसके लिए पुस्तक के अन्तिम प्रूफ देखने के लिए लेखक को हापुड़ आने के लिए आमंत्रित किया जाता। बतौर प्रकाशक-लेखक इससे एक-दूसरे को जानने-समझने का दुर्लभ अवसर मिलता और पारिवारिक माहौल और स्थानीय लेखकों की सहभागिता एक उत्सव जैसा एहसास कराती।

आशंका के विरुद्ध विनोदजी ने हापुड़ आना सहर्ष स्वीकार किया और हमें अपनी आगमन की तिथि पोस्टकार्ड द्वारा सूचित की। मेरे मन में संशय बना था कि क्या विनोदजी छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुँच मुरादाबाद पैसेंजर को ठीक से पकड़ पाएँगे जो उन्हें हापुड़ स्टेशन पर उतारेगी। आखिरकार मैंने अमितेश्वर को पुरानी दिल्ली स्टेशन विनोदजी को रिसीव करने के लिए भेजना उचित समझा।

ट्रेन सही समय पर अपने गंतव्य पर पहुँची अथवा नहीं, अभी कितने घंटे का विलंब होगा कुछ भी सही-सही जानकारी प्राप्त करने की मोबाइल जैसी सुविधा उन दिनों उपलब्ध नहीं थी। सभी कुछ अनुमान के सहारे निर्धारित और संचालित होता था। खैर, दो घंटे की प्लेटफार्म पर प्रतीक्षा के बाद मुरादाबाद पैसेंजर हापुड़ पहुँची और अमितेश्वर के साथ विनोदजी अपना होल्डाल और अटैची को अपने दोनों हाथों में उठाए ट्रेन से उतरे। मैंने होल्डाल की ओर अपने हाथ बढ़ाएँ ही थे कि ‘‘नहीं... नहीं... आप रहने दीजिए’’, कहते विनोद जी ने मुझे रोक दिया। ‘‘दिल्ली स्टेशन पर भी मुझे विनोद जी ने अपने सामान को छूने नहीं दिया’’, अमितेश्वर बोला।

एक हाथ से पीठ पर होल्डाल और दूसरे में अटैची लटकाए विनोदजी ने अंडरग्राउंड पुल को पार किया। हम दोनों असहाय से खाली हाथ उनके साथ-साथ चल रहे थे।

‘‘विनोदजी, अब आप हमारे साथ हिंसा कर रहे हैं’’, कहते मैंने होल्डाल की ओर हाथ बढ़ाया।

‘‘नहीं... नहीं... ऐसी कोई बात नहीं’’, इस बार विनोदजी ने संकोच भरी हंसी के साथ अपना होल्डाल मुझे पकड़ने दिया।

इतने मितभाषी, संकोची और दूसरे की असुविधा का ख्याल करते अपनी जरूरत को नजरअंदाज करने वाले लेखक से मेरा साबका पहली बार हुआ। दूसरे दिन दुपहर के भोजन के वक्त थाली में भात देख उनकी आँखें चमकने लगी। भोजनोपरांत खुशी से बोले— ‘‘आज कई दिन बाद तृप्त हुआ।’’ मैं अवाक उनकी ओर देखता रह गया। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के खान-पान की परंपरा में चावल नियमित भोजन का हिस्सा नहीं था। भूल मेरी थी जिसे इस बात का ख्याल न रहा कि विनोद जी उस प्रदेश से आए हैं जिसे ‘धान का कटोरा’ कहा जाता है। खैर, उसके बाद विनोदजी जब तक रहे चावल हमारी भोजन का अनिवार्य हिस्सा रहा।

विनोदजी को जब पता चला कि मेरी छोटी बहन का विवाह दुर्ग में हुआ है और मेरे बहनोई भिलाई इस्पात कारखाने द्वारा संचालित अस्पताल में नेत्र चिकित्सक हैं और उनके श्वसुर एडवोकेट देवी प्रसाद अग्रवाल का उल्लेख पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ने अपनी किताब ‘मेरी डायरी’ में किया है, और पिता के यह बताने पर कि जब भी वह दुर्ग जाते हैं दो-तीन दिन रायपुर में अपने मित्र के घर जो वहाँ टिम्बर का बड़ा कारोबारी है अवश्य ठहरते हैं, विनोदजी परिवार में सहजता से घुल-मिल गए। हमारे छत्तीसगढ़ी संबंधों से अपरिचय का झीना आवरण सहजता से हट गया।

कवि स्वप्निल श्रीवास्तव उन दिनों हापुड़ में निवास कर रहे थे। उन्होंने रात्रि भोजन के लिए विनोदजी को अपने घर आमंत्रित किया। विनोदजी को पहले स्वप्निल ने अपनी कुछ कविताएँ सुनाई, फिर हमारी आग्रह पर विनोद जी ने अपनी लंबी कविता ‘रायपुर बिलासपुर संभाग’ का वाचन प्रारंभ किया।

छोटे से कमरे में फैली हल्की रोशनी में विनोद जी की कविता पंक्तियाँ एक नए लोक का निर्माण करने लगीं—

घुस जाएंगे डिब्बों में / खाली होगी बेंच / यदि पूरा डिब्बा तब भी / खड़े रहेंगे चिपके कोनों में / या उकड़ू बैठ जाएंगे / थककर नीचे / डिब्बे की जमीन पर / निस्पृह उदास निष्कपट इतने / कि गिर जाएगा उन पर केले का छिलका / या पल्ली का कचरा / तब और सरक जाएंगे / वहीं कहीं / जैसे जगह दे रहे हों / कचरा फेंकने को अपने ही बीच। जैसे-जैसे कविता का पाठ आगे बढ़ रहा था उनके स्वर में आकुलता, पीड़ा और अंर्ततहों में छिपी वेदना प्रकम्पित स्वरों में बहने लगी —

लगेगा कैसे उनको कलकत्ता महानगर / याद आने की होगी / बहुत थोड़ी सीमा / चंद्रमा को देखेंगे वहाँ / तो याद आएगा शायद / गांव के छानी-छापर का सफेद रखिया / आकाश की लाली से / लाल भाजी की बाड़ी / नहीं होगी जमीन / जहाँ जरी खेड़ा भाजी।

बहुत मुश्किल ढूंढने में / पर्रि नदी नाला मुहारा / रास्ता पगडंडी का / घर आंगन एक पेड़ मुनगे का / अजिया ने जिसे लगाया था / दो पेड़ जाम के / बाप जी बड़े भैया के और चाचा की छाया / अम्मा से तो एक-एक ईंट घर की / और चूल्हे की आगी / बहुत थक कर एक कोने में पड़ जाती / बहुत मुश्किल इन सबका उल्लेख नक्शे में। यहाँ तक आते-आते उनका कंठ रुंध आया, बमुश्किल जैसे अपने रुदन को बाहर निकलने से रोक रहे हो। इसी मनःस्थिति में कविता पाठ जारी रहा लेकिन —

चलने को है अब हरहमेश की रेलगाड़ी / हड़बड़ाकर मैं पेटी से उठा / कि हाथ का झूला छिटक कर दूर जा पड़ा / गिर गया टिफिन का डिब्बा झूले से बाहर / लुढ़कता खुलता हुआ / रोटी और सूखी आलू की सब्जी को बिखराता / ढक्कन अलग दूर हुआ / अचानक तब इकट्ठे भूखे नंगे लड़कों में / होने लगी उसी की छीना झपटी / मेरी छाती में धक-धक / मेहनत के आगे भूख का खतरा हरहमेश / कांप गए पैर / अरे! रोक दो मत जाने दो / मजबूर विस्थापित मजदूरों को।

इस पड़ाव पर पहुँचते उनकी आँखों की कोरों से अश्रु छलछला गए। चश्मा उतार उसके लैंसों को रूमाल से साफ किया और बमुश्किल कविता को अंत तक पहुँचाया। कविता और कवि के एकाकार होने का यह दुर्लभ साक्ष्य हमारे लिए अविस्मरणीय रहेगा। कविता के पुनर्पाठ में जो इस पीड़ा से गुजरा कविता सर्जन के समय वह कितनी असह्य वेदना और तकलीफ का भोक्ता रहा होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

‘वह आदमी / नया गरम कोट पहिनकर / चला गया विचार कि तरह’ यह विनोद जी के पहले कविता-संग्रह का नाम है जो संभावना से वर्ष 1980 में पहली बार प्रकाशित हुआ। ‘रायपुर बिलासपुर संभाग’ कविता भी इस संग्रह में संकलित है। संग्रह की कविताओं को क्रम देने, कविता संग्रह के नामकरण से लेकर उसके आवरण-अकल्पन का श्रेय पूरी तरह से श्री अशोक वाजपेयी को जाता है। संभवतः इतने लंबे शीर्षक वाला यह हिन्दी का पहला कविता संग्रह रहा होगा।

जून, वर्ष 1983। अपने छायाकार मित्र अशोक माहेश्वरी (दिवंगत) के साथ मेरा जगदलपुर विशेषकर अबूझमाड़ यात्रा का कार्यक्रम बना। अशोक माहेश्वरी विदिशा रहते थे। मैं पहले विदिशा पहुँचा फिर हम दोनों भोपाल। हम दोनों इंडियन कॉफी हाउस के बाहर खड़े थे कि अशोक वाजपेयी दिखाई दिए।

‘‘भोपाल प्रवास कब तक का है’’, उन्होंने पूछा।

मैंने उन्हें अपनी बस्तर यात्रा के बारे में बताते हुए कहा कि आज रात्रि ही ट्रेन से रायपुर के लिए रवानगी है। ‘‘बस्तर में रहने का कोई प्रबंध किया है?’’ उन्होंने ऐसा प्रश्न पूछा जिसका उत्तर मेरे पास नहीं था।

‘‘अभी 20-25 मिनट तो आप कॉफी हाउस में रहेंगे?’’ उन्होंने पूछा और कार में बैठ वापिस चले गए।

20-25 मिनट का समय भी संभवतः अभी बीता न होगा कि उनका ड्राइवर मुझे एक लिफाफा पकड़ा गया जिसमें जगदलपुर के जिलाधीश के नाम एक शासकीय निर्देशात्मक पत्र था कि वह हमारे बस्तर भ्रमण के दौरान ठहरने का उचित बंदोबस्त करें।

रायपुर में ट्रेन से उतरते ही हम सीधे विनोद जी के निवास की खोज पर निकले। शैलेंद्र नगर उन दिनों नया-नया बस रहा था और विनोद जी ने अपने घर का निर्माण बड़े लगाव और परिश्रम से किया था। घर तलाशने में अधिक परेशानी का सामना न करना पड़ा। घर का मुख्य द्वार भव्य, आकर्षक और नक्काशीदार प्रायः हवेलियों में लगने वाले द्वार की तरह था और घर को अपनी निजी पहचान भी देता था।

विनोदजी बेहद आत्मीय और पुराने परिचितों की तरह मिले। भोजन के समय मैंने उनसे स्थानीय साग-सब्जियों के बारे में पूछा और भी इधर-उधर की बातें होती रहीं। भोजनोपरांत विनोदजी ने हमारी विश्राम की व्यवस्था की। लगभग एक घंटे के विश्राम के बाद मैं कमरे से बाहर निकल बरामदे में आया तो देखा विनोदजी जून की तपती दुपहरी में साइकिल चलाते पसीने से लथपथ चले आ रहे हैं।

साइकिल से उतरते विनोदजी सलज्ज मुस्कुराए, ‘‘सब्जी मंडी की ओर निकल गया था। सोचा कि आपको सांय काल के भोजन में स्थानीय साग ‘लाल भाजी’ खिलाई जाए लेकिन ‘लाल भाजी’ आज सब्जी मंडी में आई नहीं ...वापसी में जब आप यहाँ रुकेंगे मैं लाल भाजी का स्वाद आपको जरूर...’’

मैं अवाक उनकी ओर देखता रह गया। सब्जी मंडी उनके घर से खासी दूर थी।

अपनी किस्म के अनोखे और औघड़ कवि-कथाकार जितेंद्र कुमार (दिवंगत) से विनोदजी के बारे में बातें हो रही थीं। उन दिनों जितेंद्र कुमार विशाखापट्टनम स्थित केंद्रीय विद्यालय में उपप्रधानाचार्य पद पर नियुक्त थे। उन्होंने बताया कि उन्होंने कई बार विनोदजी को सूचना दी कि वह दिल्ली से विशाखापट्टनम अमुक तिथि को अमुक ट्रेन से जाएंगे। ट्रेन रायपुर में लगभग आधा घंटा ठहती है यदि वह स्टेशन पर आ जाए तो उनसे मुलाकात हो जाएगी लेकिन विनोदजी ने सारे पत्रों को अनसुना-अनदेखा कर दिया।

‘‘मैं अब उनके साथ दुष्टता से व्यवहार करता हूँ’’, कहते हुए जितेंद्र कुमार हँसे, ‘‘उन्हें अब लिखता हूँ कि मैं अपने साथ भोजन की कुछ भी सामग्री नहीं ला रहा हूँ, यदि वह नहीं आए तो मैं विशाखापट्टनम तक भूखा रहते हुए यात्रा करूंगा। ...अब विनोदजी ट्रेन पहुँचने के आधे घंटे पहले से प्लेटफार्म पर खड़े टिफिन लटकाए मेरी प्रतीक्षा करते हैं।’’

वर्ष 84-85 का कोई दिन। मैं नवीन सागर के घर (भोपाल) ठहरा हुआ था। संयोग से विनोदजी भोपाल आए हुए थे, चंद्रकांत देवताले भी। नवीन हमेशा अपने घर मित्रों को एकत्रित कर भोजन कराने को उत्साहित और प्रफुल्लित रहते थे और छाया भी पूरे मनोयोग से स्वादिष्ट व्यंजन तैयार करने में जुट जाती थी। नवीन ने दोपहर के भोजन के लिए विनोद जी, चंद्रकांत देवताले, रमेशचंद्र शाह, राजेश जोशी के अलावा और भी दो-तीन मित्रों को आमंत्रित किया।

देवताले अपने विनोदी स्वभाव के चलते लगातार विनोदजी के साथ छेड़खानी करते रहे और विनोदजी भी बिना कुछ कहे चुपचाप मुस्कुराते रहे। देवताले की वक्रोक्तियाँ और टीका-टिप्पणी भोजन के मध्य भी चलती रही फिर उन्होंने विनोदजी की कविताओं पर कुछ व्यंग्य भरे वाक्य बोले ही थे कि यकायक विनोदजी ने देवतालेजी की कलाई सख्ती से पकड़ ली — ‘‘बस अब आप ठहरिये... मेरी कविताएँ जैसी भी है मेरी है।’’ एक क्षण में वहाँ खामोशी पसर गई। संभवतः भोजन समाप्त होने तक कोई भी एक शब्द न बोला। पिछले काफी समय से प्रगतिशीलों द्वारा विनोदजी की कविताओं की जो आलोचना हो रही थी और उन्हें जबरन कलावादियों के खेमे में ठहराया जा रहा था, उसका सुप्त क्षोभ भी संभवतः विनोदजी की उस दिन की प्रतिक्रिया में रहा होगा।