टेम्स की सरगम / भाग 10 / संतोष श्रीवास्तव
अचानक ही आसमान पर भूरे, लाल, सिलेटी मन में दहशत फैलाने वाले अजीबोगरीब बादल छा गए। तेज हवाएँ चलने लगीं। वृंदावन की गलियों से धूल उड़-उड़ कर आसमान और धरती के बीच शून्य में रेगिस्तान रचने लगीं। आज यशोधरा की बिदाई का दिन था। रागिनी सुबह से उदास थी। प्रकृति भी मानो उसकी उदासी में उसका साथ दे रही थी। यशोधरा सामान सहेजती घबराई आवाज में रागिनी को पुकारती उसके कमरे तक आई। पलंग पर वह सिर पकड़े बैठी थी।
“क्या हुआ रागिनी? ऐसी क्यों बैठी हो? तबीयत तो ठीक है न। एक तो मौसम अनिष्ठ के संकेत दे रहा है, ऊपर से तुम... “ रागिनी ने चेहरा उठाया। यशोधरा की आँखों का भय उसे भी डरा गया।
“देखती नहीं हो... कैसे डरावने, बादल घिर आए हैं। धूलभरी हवा अलग... उधर हमारे जम्मू में कहते हैं कि मौसम अनिष्ट के संकेत पहले से दे देता है। हम समझ नहीं पाते।”
“कैसा अनिष्ट यशोधरा? तुम कहना क्या चाहती हो?” रागिनी ने जिज्ञासावश पूछा।
“यही कि कुछ अनहोनी घटने वाली है। खैर... आओ, जरा मेरे कमरे में... सूटकेस बंद करवाने में मेरी मदद करो।” रागिनी यशोधरा के पीछे-पीछे उसके कमरे में आई। यशोधरा ने अपने परिवार में सबके लिए सौगातें खरीदी थीं इसलिए सूटकेस छोटा पड़ रहा था। मथुरा के पेड़ों के डिब्बे प्लास्टिक बैग में रखे थे... किसी के लिए केसर वाले... किसी के लिए पिस्ता इलायची वाले। जैसे-तैसे दोनों ने मिलकर सूटकेस बंद किया। गाड़ी मथुरा से पकड़नी थी। रागिनी की इच्छा थी यशोधरा को मथुरा तक पहुँचा आने की। पर यशोधरा ने मना कर दिया था-”नहीं रागिनी... अकेली आई थी, अकेली ही जाने दो। अब तो अकेले ही जीने की आदत डालनी है।”
“ऐसा क्यों कहती हो सखी... तुम्हारा परिवार तुम्हारे साथ है, तुम अकेली कहाँ?”
“परिवार तो वो पड़ाव होता है जहाँ इंसान जीवन यात्रा करते करते थककर आराम करता है, वरना यात्रा के मार्ग का साथी तो सिर्फ पति ही होता है।”
और जिनका पति नहीं होता उनकी यात्रा क्या आरंभ ही नहीं होती? क्या जीवन तालाब के ठहरे जल की तरह अपने में ही सिमट कर रह जाता है? कहना चाहा रागिनी ने पर यशोधरा की डबडबाई आँखों की कैफियत ने कुछ न कहने दिया। वह रागिनी के गले लग रो पड़ी थी। जीप आ चुकी थी। आश्रम के कुछ यात्री और आ जुटे थे यशोधरा के साथ, जिन्हें मथुरा से गाड़ी पकड़नी थी। किसी को दिल्ली जाना था, किसी को फरीदाबाद, मेरठ, देहरादून। सब जीप में सवार हुए।
“प्रेम विरह का दूसरा रूप है, इसे याद रखना... ..फिर मिलेंगे गर खुदा लाया...।”
“आमीन... ... सखी।” रागिनी की आँखें गली के मोड़ तक यशोधरा के हिलते हाथ को देखती रहीं... गोपियों का विरह क्या ऐसा ही था... या इससे अधिक... गोपियाँ जिनमें राधा का अंश समाया था... जो कृष्ण को ऐसे घेरे रहतीं जैसे फूल को तितलियाँ... वृंदावन रागिनी की हर साँस में बस गया था। अब उसे कुछ सूझता ही नहीं था। जैसे अफीम की पिनक में आदमी को अपना होश नहीं रहता वैसे ही रागिनी वृंदावन के नशे में लिप्त थी। सुबह तड़के ही आँख खुल जाती। धुँधलके में हरिओम का जाप करते भक्तों की टोली सड़क से गुजरती तो वह भी उनके साथ हरिओम कहने लगती। फिर ग्वालों की साईकिलें दूध के बर्तन लादे गुजरतीं। पथरीली सड़क पर साईकिल के उतार-चढ़ाव से बर्तन खनकते, गायों के गले की घंटियाँ टुनटुनातीं... .गौशाला में बाल्टी भर-भर दूध दुहते और दूध के झाग में नापने का बर्तन डुबोते ग्वाले। जंगल की हरियाली हवा के संग सूँघती रागिनी सुख से भर जाती। इतना सुख कहाँ था जीवन में? उसके अंदर सुख की और शांति की पावन गंगा... गंगा नहीं यमुना लहरें मार रही है... यमुना की लहरों पर पूनम का चाँद थिरक रहा है... .यही है महारास का उत्सव... अलंकार प्रिय कृष्ण... राधा... बीचोंबीच और उनको घेरे गोपियाँ.स्वर्गिक सँगीत की धुन पर थिरकते कुँज... कुँजों में पुष्पों से लदी वल्लरियाँ आह, यह कृष्ण से मिलन का असीम सुख वही जान सकता है जो प्रेम की शक्ति पहचानता है... कान्हा... मोहन... नटखट कन्हैया... कृष्ण... नंदलाल... संगीत तुम्हारा हर नाम पुकार है। इसीलिए क्या तुमने राधा के बाद बाँसुरी से प्रेम किया?
आश्रम की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए रागिनी ने आसमान की ओर देखा, आँधी तो पहले ही थम गई थी... अब बादल भी छँट गए थे। न जाने किस अनिष्ट की आशंका से चेता गई है यशोधरा। शाम की आरती का वक्त हो चला था। भक्त जुटने शुरू हो गए थे। आरती के बाद प्रवचन होगा तब तक रागिनी अपने बेचैन मन पर काबू पाना चाहती थी। और उसका एकमात्र तरीका था, एकांत कमरे में आँख मूँदकर बैठना। रागिनी ने बाथरूम में जाकर चेहरा धोया, आँखों में पानी के छपाके मारे। चेहरा पोंछ कमरे में आकर बिस्तर के बीचों बीच पालथी मारकर बैठ गई। आँखें मूँदते ही लंदन की उसकी अपनी कोठी याद आई... बेटी रति... जिसके भोले मासूम चेहरे और किलकारियों में उसने अपना बचपन खोजना चाहा था...। उसके जवाँ सौंदर्य ने उसे सैम याद दिलाया था और सैम को याद करते ही वह पतझड़ी हवाओं से घिर गई थी। घबराकर उसने आँखें खोलीं फिर ध्यान की कोशिश और फिर मोह के जाल... मुनमुन बुआ, सत्यजित, दीना, जॉर्ज... आह... इस जाल से कैसे निजात पाए कि यशोधरा कान में फुसफुसाई... “यही तो भक्ति का चरम है... यह प्रेम ही तो ईश्वर है... इस ईश्वर को पाना बड़ा कठिन है क्योंकि प्रेम की डगर बहुत संकरी है और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बड़ा टेढ़ा... दुर्लभ... नहीं, ध्यान नहीं लगा पाई रागिनी... मन और अधिक बेकाबू हो चला था। नीचे से आरती के घंटे, मंजीरे, ढोलक बज उठे। वह दौड़ती हुई नीचे आई। आरती शुरू हो चुकी थी। उसने हाथ जोड़कर राधाकृष्ण की मूर्ति पर अपनी आँखें टिका दीं। मंदिर आश्रम से पाँच मिनट की दूरी पर था लेकिन आश्रम के सभी भक्त समय पर सुबह शाम उपस्थित हो जाते थे। रागिनी भी अब नियमित आने लगी थी। आरती के बाद प्रसाद लेकर वह थोड़ी देर चबूतरे पर बैठी रही तभी एक कृष्णभक्त उसके पास आया। इतने दिनों से रोज एक दूसरे को देखने, आरती भोजन के समय मिलने के कारण सब एक-दूसरे को पहचानने लगे थे। आने वाला युवक माइक अमेरिकन था।
“आओ माइक... बैठो कुछ देर।” रागिनी ने चबूतरे पर जगह होते हुए भी थोड़ा सरककर उसके लिए जगह बनाई।
“आज सुबह का मौसम तुमने देखा रागिनी... .बादल और धूल भरा?”
रागिनी को लगा माइक कोई अनहोनी घटित होने की आशंका जता रहा है।
“क्यों... ऐसे क्यों पूछ रहे हो माइक... क्या कोई अनहोनी... “
“अनहोनी?” रागिनी की बात अधूरी ही छूट गई। माइक अपनी छोटी-छोटी नीली आँखों को जितना फैला सकता था, फैलाकर बोला “हाँ... अनहोनी ही थी... उस दिन को याद कर आज भी रोमांचित हो जाता हूँ। करिश्मे का देश है इंडिया।”
रागिनी व्याकुल हो उठी-”बताओ माइक, क्या हुआ था? किस अनहोनी की बात कर रहे हो तुम?”
“सन् 1998 में मैं इंडिया में... इस्कॉन आया था। कृष्ण भक्त होकर... समस्त सांसारिक भोगविलास, रिश्ते-नाते अमेरिका में ही छोड़कर खाली हाथ इस्कॉन आया था, प्रभु की सेवा करने। भयानक गर्मी थी उस दिन। ऐसे ही डरावने बादल आसमान पर छा गए थे। पश्चिम दिशा से धूल भरी आँधी उठी थी और मथुरा नगरी धूलमय हो गई थी। सुबह की आरती का समय था। हम सब उस दिन द्वारकाधीश मंदिर में थे क्योंकि वहाँ भारत के शास्त्रीय संगीत के प्रसिद्ध गायक पंडित जसराज आए थे। आरती आरंभ हो चुकी थी। मंदिर में तिल रखने को जगह नहीं थी, इतनी भीड़ पड़ी थी उस दिन। तभी अचानक पंडित जसराज ने हारमोनियम पर राग धूलिया मल्हार गाया।”
“मैं जानती हूँ इस राग के बारे में।”
माइक ने आश्चर्य से रागिनी की ओर देखा।
“मेरी ममा भारतीय संगीत की गायिका थी और पापा शास्त्रीय संगीत के अध्यापक थे।”
“ओह... वंडरफुल... तब तो तुम यह भी जानती होगी कि यह राग बहुत अधिक गर्मी होने पर गाया जाता है ताकि बादल इस राग से आकर्षित हो बरसने लगें। पंडित जसराज भजन गा रहे थे और भक्त झर-झर आँसू बहा रहे थे। भजन की तन्मयता के कारण सब अपनी जगह मूर्तिवत खड़े थे। भक्ति भावना और कला का अपूर्व संगम हो रहा था वहाँ। तभी बूंदाबांदी शुरू हो गई और देखते ही देखते बादल रिमझिम बरसने लगे। करिश्मा मैंने खुद अपनी आँखों से देखा।”
रागिनी जड़वत बैठी रह गई। ऐसी कोई वजह नही थी जिसके कारण वह माइक की बात पर यकीन नहीं करती। कुछ देर की खामोशी ने दोनों को दूसरे ही लोक में पहुँचा दिया था। रागिनी के लिए भारत का कोई भी विषय गर्व का विषय था क्योंकि उसके पिता भारतीय थे। लेकिन माइक! माइक तो परदेशी था... फिर किस चुंबकीय शक्ति से खिंचा चला आया वह यहाँ और यहीं का होकर रह गया। यह मथुरा... यह वृंदावन... जहाँ हवा में चमेली झूलती है और अपनी खुशबू से रच देती है एक सुगंधमय संसार। यहाँ क्यों महसूस होता है जैसे अभी इस गली में चलते-चलते कृष्ण से सामना हो जाएगा...। तभी तो चाँदनी और हरसिंगार के फूलों को चुनते-चुनते कुमारियाँ हरिओम... .हरिओम रटती हैं और कुएँ से पानी खींचती ग्वालिन गोपाल... गोविंद... कहती मटके में पानी उड़ेलती है। कृष्ण ने कहा था... “उतरो... उतरो, अपने मन के वृंदावन में उतरो तो पाओगी कि मैं हर जगह हूँ... ऐसी कोई जगह बचती ही नहीं जहाँ मैं नहीं हूँ।” गोपियाँ इसी वाक्य को ब्रह्मवाक्य मान जिंदगी भर कृष्ण को अपने नजदीक महसूस करती रहीं... इस वाक्य में समाया है संपूर्ण आत्मा का रहस्य... बस मुझे भजो, मुझे देखो, मुझे पाओ, मुझे बाँटो... हे श्रीकृष्ण... सच ही तुम अंतर्यामी हो...
“कहाँ खो गई रागिनी?” माइक रागिनी को मानो जगा-सा रहा था।
“मैं अनन्त को पाने की कोशिश में थी।”
“चलो... ठंड बढ़ रही है। मुझे रात को मथुरा लौटना था लेकिन आज स्वामीजी का खास प्रवचन है जिसे सुने बिना मेरा मन नहीं मानेगा।”
“ठीक कहते हो माइक... स्वामीजी के वचनों में जादू है। वे जब बोलते हैं तो पत्ता भी खड़कने से कतराता है।”
वे तीखी ठंड में आश्रम की ओर लौट रहे थे। गोपाल भक्तों की टोली “हरिओम... ' कहती चली जा रही थी। मंदिर को पीछे छोड़ वे पथरीली सड़क पर उतर आए। रागिनी ने हाथ बढ़ाकर किनारे लगी फूलों की डाली को छुआ। एक पत्ता टूट कर रास्ते पर आ गिरा।
“कृष्ण पत्ते के गिरने में भी समाए हैं।” रागिनी बोले जा रही थी और माइक को पक्का यकीन हो गया था कि रागिनी अब लंदन नहीं लौटेगी, उस पर वृंदावन का जादू चढ़ गया है।
आश्रम लौटकर रागिनी ने स्वेटर पहना, कानों पर स्कार्फ बांधा और स्वामीजी की गद्दी के पास आ बैठी। स्वामीजी ने उसके सिर पर हाथ रखा-आओ कल्याणी रागिनी... तुम तो शक्ति हो। प्रभु ने नारी के रूप में शक्ति की ही तो रचना की है। राधा भी श्रीकृष्ण की शक्ति थीं... आनंद शक्ति। राधा प्रेम का परम तत्व हैं। उनका नाम लेते ही श्यामसुंदर अपने आप चले आते हैं। अलग से श्याम सुंदर को भजने की आवश्यकता नहीं पड़ती। राधा में समाए हैं कृष्ण। राधा को पुकारो... कृष्ण को पाओ। राधा नहीं होतीं तो क्या कृष्ण गोवर्धन पर्वत धारण करते? वे अपनी हर सफलता का श्रेय राधाजी को देते हैं। राधा का प्रेम, राधा की कृपा उन्हें पग-पग पर सफलता दिलाती है, ऐसा मानते हैं कृष्ण -
कछु माखन ते बल बढ़यो, कछु गोपन करी सहाय,
श्री राधे रानी की कृपा ते, मैंने गिरवर लियो उठाय।
राधा की कृपा से ही आनंद और प्रेम रस की वर्षा हुई, रास लीला रची। रस जब समूह में बरसता है तो रास कहलाता है। राधा शब्द पहली बार उच्चरित होते ही समस्त चराचर जगत अभिभूत हो गया। पवन का वेग थम गया। बछड़ों ने दूध पीना छोड़ दिया। यहाँ तक कि ब्रह्मलोक में वीणावादिनी सरस्वती भी वृंदावन पधार गईं। राधा शब्द के जादू से बँधी जब सरस्वती वृंदावन आईं तो कृष्ण के आकर्षण में ऐसी रमीं कि उनसे प्रणय निवेदन कर बैठीं। कृष्ण तो राधामय... दूजी सूझती ही नहीं कोई, सरस्वती की तरफ न तो उनका ध्यान गया न प्रेम निवेदन पर। सरस्वती आहत, स्तब्ध वहीं खड़ी खड़ी बाँस का वृक्ष बन गईं। कृष्ण तो अंतर्यामी थे... प्रेम का साक्षात भंडार। समझ गए देवी सरस्वती को जब तक वे अपने होठों से स्पर्श नहीं करेंगे, उनका उद्धार नहीं होगा। इसी बाँस से कान्हा ने बाँसुरी बनाई, होठों से लगाई और सरस्वती की वीणा के सुर सारे के सारे बाँसुरी में समा गए। क्या जादू था सुरों का... किसी को प्रेम दीवाना बना दे तो किसी को उग्र। उन सुरों को सुनकर वृंदावन की गौएँ इतनी उग्र हो गईं कि उन्होंने कंस के सैनिकों को खदेड़ दिया।
रागिनी आँखें मूँदे स्वामीजी के वचन सागर में डूब उतरा रही थी। मानो आँखों के सामने ही घट रहा हो सब। वृंदावन में राधा भी हैं। कृष्ण भी हैं यह तो तय है। बस उन्हें देखने की दृष्टि चाहिए। रागिनी के तर्क स्वयं से होते रहते हैं। प्रवचन के बाद कमरे में लौटकर वह इन्हीं तर्कों में उलझी रहती है। अब कुछ भी दीगर नहीं सूझता। बनाए हुए रिश्तों के मायाजाल भी नहीं दबोचते... हाँ, वे सांस्कृतिक शामें जरूर याद आती हैं जो विभिन्न राष्ट्रों से आए विद्यार्थी और नौकरीपेशा शौकीन लोगों द्वारा स्थापित की गई थी कि अंग्रेज जान सकें कि उनकी संस्कृतियाँ कितनी अधिक प्राचीन हैं और फिर भी आधुनिक काल में ज्यों की त्यों चली आ रही हैं। ऐसी ही एक सांस्कृतिक शाम बेरियल किथ की स्मृति में आयोजित की गई थी। यह उन दिनों की बात है जब वह उमाशंकर से संस्कृत सीख रही थी और बेरियल किथ की लिखी पुस्तक “द हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर' पढ़ रही थी। उस शाम मंच पर उपस्थित वक्ताओं के द्वारा उसने जाना कि बेरियल किथ के पास भारतीय संस्कृति का अद्भुत खजाना था। उनके ड्राइंगरूम की दीवारों पर रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद की तस्वीरें फ्रेम की हुई टँगी थीं। फायरप्लेस के ऊपर बुद्ध की सफेद संगमरमर से बनी मूर्ति और काली धातु से बनी नटराज की तांडव करती प्रतिमा थी। एक ओर अजन्ता एलोरा की पेटिंग्स लगी थीं तो दीवार से सटे पथरीले खंभे पर गीता के और अभिज्ञान शाकुंतलम् के श्लोक खुदे हुए थे। सामने बुक रैक पर वेद-वेदांत, रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति के ग्रंथ रखे रहते थे - जो इस बात के गवाह थे कि उन्होंने भारतीय साहित्य और संस्कृति का कितनी गहराई से अध्ययन किया था।
रागिनी को आश्चर्य है... उसे तो कुकिंग गैस जलाना तक भी नहीं आता कॉफी बनाना तो दूर की बात है और वह यहाँ अपनी कॉफी स्वयं बनाती है। बाजार से वह कॉफी शक्कर खरीद लाई है। आश्रम के भोजनकक्ष से थरमस में दूध मिला गरम पानी पहले खुद लाती थी अब कोई भी कृष्णभक्त ला देता है। सब उसका काम करने को उतारू रहते हैं। वह बाल्कनी में थर्मस लेकर खड़ी होती ही है कि कोई भी आकर उसके हाथ से थरमस ले लेता है और आनन-फानन मे भरा हुआ थरमस हाजिर। कॉफी पीते हुए वह आश्रम के पुस्तकालय से लाए ग्रंथों को पढ़ती है... जो रागिनी कभी अपने अकेलेपन की पीड़ा में डूबीं रहती थी, बिसूरती रहती थी अब सिवाय कृष्ण के कुछ सूझता ही नहीं। उसे आश्चर्य है कि वह अपने बनाए हुए घर के किसी भी सदस्य को मिस नहीं करती... न रति को, न मुनमुन बुआ को, न सत्यजित को... जब से भारत आई है कितने ही लोगों से महाकुंभ के दौरान मिली, मथुरा में मिली, वृंदावन में मिली... यशोधरा के संग अधिक रही पर कहीं किसी की भी कमी खलती नहीं। माइक अक्सर मथुरा से आ जाता है। दोनों में मित्रता हो गई है। वह चला जाता है तब भी रागिनी कृष्ण ध्यान में निमग्न रहती है। यह क्या होता जा रहा है उसे? इसी को क्या विरक्ति कहते हैं? यह क्या निष्काम योग है जिसका लैक्चर कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इंकार करते अर्जुन को कृष्ण ने दिया था?
“जो संयोग-वियोग, मान-अपमान, रात-दिन और सुख-दुख में समान दृष्टि रखता है वही मुझे प्रिय है।” तो क्या वह भी कृष्ण को प्रिय लगने लगी है? उसे भी तो अब कोई दुनियावी विकार सताता नहीं। दृष्टि में अगर कुछ समाता है तो बस राधा और कृष्ण... राधा के पास आकर प्रेम की सारी परिभाषाएँ समाप्त हो जाती हैं। जयदेव, चंडीदास, विद्यापति, सूरदास, रसखान, सभी ने राधा के प्रेम को अपने-अपने नजरिए से लिखा। जयदेव की राधा प्रेम में व्याकुल है। गीतगोविंद में ही सबसे पहले राधिका की पायल के नुपुर बजे, गीत बन कर विकसित हुए। विद्यापति की राधा में रूप लावण्य की दीप्ति है। जैसा रूप, वैसे ही सुंदर मन से उपजी प्रेम-लीलाएँ। चंडीदास ने राधा को विशुद्ध प्रेम की प्रतिमा माना है। वह प्रेमोंमादिनी है... जैसा कि टैगोर ने लिखा है...
“बंधु तुमी आमार प्राण”
लेकिन व्याकुल होते हुए भी है वह गंभीर ही। राधा के चरित्र और व्यक्तित्व का जो वर्णन सूरदास ने सूरसागर में किया है वह अन्यत्र दुर्लभ है। राधा शैशव से यौवन के द्वार तक आकर ठिठक जाती है। द्वार पर ही कृष्ण की अनुपम छवि देखती है और उनसे बातें करने के मोह में वह उनकी मुरली छुपा देती है। राधा तो बरसाने गाँव के वृषभानु की छबीली कन्या है लेकिन दूध दही बेचने नंद के गाँव मथुरा और वृंदावन तक जाती है। इन्हीं गलियों में मिल गए उसे कृष्ण। प्रथम मिलन में ही कृष्ण ने राधा का इंटरव्यू ले डाला-”तुम कौन हो? किसकी बेटी हो? कहाँ रहती हो?”
राधा चतुर थी... कृष्ण के मन में उतर जाने वाले उत्तरों को उसने बड़ी चतुराई से कृष्ण से कहा। मोहित हो गए कृष्ण... अब आते-जाते ठीक उसी स्थान पर खड़े हो उसकी राह तकते... राधा आँख मिचौली खेलने के लिए बहुत बदनाम थी। वह उस राह से ऐसे गुजरती कि कृष्ण को न दिखे। कृष्ण की व्याकुलता देख वह परम आनन्दित होती। राधा के न मिलने पर कृष्ण ने उदास होकर यमुना तट की राह ली और कदम्ब के वृक्ष पर जा बैठे। यमुना के उस पार बरसाने गाँव था। वे उस ओर टकटकी लगाए मुरली बजाने लगे। पेड़ों के पीछे छुपी नटखट राधा अपनी सुध-बुध खो बैठी और कृष्ण की ओर दौड़ी आई। दोनों के हृदय में प्रेम के अंकुर फूट चुके थे। कृष्ण राधा के सौंदर्य और चतुराई के दीवाने हो गए और राधा... उसने संपूर्ण पुरुष कृष्ण को अपना दीवाना बना लिया।
अब तो कन्हैया जू को चितहु चुराय लीनो
छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।
लिखते हुए कवि “बेनी बंदीजन' राधा के विलक्षण सौंदर्य और प्रतिभा का वर्णन करते नहीं अघाते।
वे कृष्ण जो कहते हैं कि मैं ही सृष्टि का आदि हूँ और मैं ही अंत। मैं जल का स्वाद हूँ, सूर्य और चंद्र का प्रकाश हूँ। मैं वेदों में एक अक्षर ओम हूँ। मैं आकाश की ध्वनि हूँ, मानव मात्र का सामूहिक आत्मबोध हूँ। मैं धरती की पवित्र गंध हूँ। मैं सारे प्राणियों का प्राण हूँ। संन्यासियों का संयम हूँ, अंतरयामी हूँ। मैं ही औषधि हूँ, यज्ञ की अग्नि हूँ, यज्ञ की क्रिया हूँ। मैं ही सृष्टि की माता और पतिा हूँ। मैं मार्ग हूँ और साक्षी भी और अंतिम शरण भी। आदि अंत, विश्रामस्थल, अशेष कोष और आदि बीज भी मैं ही हूँ। मैं गर्मी पैदा करता हूँ, जल बरसाता हूँ, मैं अमरता हूँ, मृत्यु हूँ, परम आत्मबोध हूँ, रुद्रों में शंकर हूँ, पर्वतों में मेरु हूँ, पुरोहितों में बृहस्पति हूँ। सेनापतियों में स्कंद हूँ, सिद्धों में कपिल हूँ, नागों में अनन्तनाग हूँ, जल में वरुण, शासकों में यम, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरूड, योद्धाओं में राम, नदियों में गंगा, मंत्रों में गायत्री, मुनियों में व्यास, ऋतुओं में वसंत, अनाजों में जौ हूँ। मैं संसार का आदि, मध्य और अंत हूँ। मैं रहस्यों की निस्तब्धता हूँ। हे अर्जुन, मेरे दिव्य रूप असीम हैं...। वे ही कृष्ण राधा के सामने अवश हो जाते हैं। जो दूसरों को अपने वश में कर लेते हैं वे ही कृष्ण राधा के सामने कैसे बेबस हो अपना दिल हार बैठते हैं। रागिनी का भी अब अपने ऊपर कोई वश नहीं रहा। अब वह भी वृंदावन को अपना दिल दे बैठी है और कृष्ण को अपना सर्वस्व मान चुकी है। अफसोस इस बात का है कि इतनी उम्र यूँ ही गंवा दी...।
अचानक धरती डोल उठी। शेषनाग ने अपने थके फन से धरती का भार दूसरे फन पर सरकाया ही था कि धूल चाटने लगा गुजरात... भुज, कच्छ, अहमदाबाद। एक ओर महाकुंभ का पवित्र स्नान... दूसरी और वृंदावन मथुरा में गूँजता कृष्ण भजन और ठीक उसी समय ताश के पत्तों से गिरते मकान, बिल्डिंगें। महाविनाश का घोर तांडव... क्या इसी अनिष्ट की ओर संकेत किया था यशोधरा ने? क्या आसमान तक उठती धूल की आँधी और धूसर मटमैले बादलों को देख यशोधरा ने अनुमान लगा दिया था कि विनाश का तांडव होने वाला है? उस दिन भोर की आरती के बाद मंदिर से आश्रम लौटते पंडित गिरिराज भी तो डर गए थे। उन्होंने रागिनी का ध्यान धूलि से स्नान करती गौरैया चिड़िया की ओर दिलाया था। वहाँ मौलश्री के पेड़ के नीचे अपने पंखों को धूल में फड़फड़ाती, चोंच को धूल में गड़ाती चिड़ियाँ अजीब-सी चेष्टाएँ कर रही थीं। धरती पर जब कुछ अनिष्ट घटने वाला होता है तो सबसे पहले जानवर और पक्षियों पर ही उसका असर दिखाई देता है। पक्षी चहचहाना बंद कर देते हैं। पृथ्वी मौन हो जाती है। बंदर वृक्षों से नीचे उतर आते हैं और भीड़ लगाकर सुरक्षा का उपाय सोचने लगते हैं। प्रकृति का यह पूर्व परिवर्तित रूप विज्ञान के लिए एक बड़ी चुनौती है... मानव आज भी इस चरम तक नहीं पहुँच पाया वरना हादसों में जानमाल का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। पहले के दिन होते तो इन आशंकाओं, हादसों से रागिनी काँप जाती पर उसने अब सब कुछ श्रीकृष्ण को अर्पित कर दिया है। एक नई सोच से अभिभूत है वह...। अपना सब कुछ कृष्णार्पण करते चलो। अच्छा, बुरा, लाभ, हानि, शोक, विषयवासना, प्रसन्नता ये सब कृष्ण के ही दिए हैं, उन्हें ही अर्पण करते चलो। इस विचारधारा से चंचल मन को स्थिरता की दिशा मिलती है। कृष्ण कहते हैं-”जब हमें खाली हाथ जाना है तो मोह किसका? आत्मा अमर है... जिसे हम मोहवश अपना समझ रहे हैं वही कल किसी और का होगा। इसीलिए मात्र कर्म करो। कर्म ही हमारा अपना है।”
संध्या के प्रवचन को स्थगित कर विशेष बैठक बुलाई गई। स्वामीजी ने कहा-”बड़ा कठिन समय है ये गुजरात के लिए। भीषण तबाही की कगार पर है वो। हमें उनकी मदद के लिए जाना चाहिए। धन से भी और तन से भी, यही वक्त है उनके काम आने का। वहाँ जाने के लिए आप स्वतंत्र हैं। जिन्हें जाना हो आचार्य अखंडानंद को अपना नाम बता दें। कल इस्कॉन से हम सब प्रस्थान करेंगे।”
रागिनी सबसे पहले उठी। उसने अपने कानों से कीमती हीरे के कर्णफूल उतारे, हाथ से हीरे का ब्रेसलेट, गले से हीरे का लॉकेट और अंगूठियाँ उतारकर उसने स्वामीजी के सामने भूकंप पीड़ितों की सहायतार्थ रख दीं। यह सारी विरासत ममा की थी। ममा की चीजें उनकी प्रेमनगरी को समर्पित...। रागिनी सिर झुकाए खड़ी थी। पल भर को बैठक में सन्नाटा छा गया।
“स्वामीजी, मैं लंदन फोन करना चाहती हूँ। वहाँ से और धन मंगाया जा सकता है।”
स्वामी ने रागिनी के सिर पर हाथ रखा-”साध्वी, तुम धन्य हो... तुम सही अर्थों में कृष्णप्रिया हो।”
फिर सभा को संबोधित करते हुए वे बोले-”वृंदावन के बचाव दल का नेतृत्व देवी रागिनी करेंगी। रागिनी तुम आचार्यजी से परामर्श कर लो।”
रागिनी ने गद्गद् हो स्वामीजी के चरणों में शीश नवाया...। रात दो बजे तक आचार्यजी के साथ रागिनी की मीटिंग चलती रही। नाम इतने अधिक थे कि चार दल बनाए गए। प्रत्येक दल अलग-अलग प्रस्थान करेंगे ऐसा तय हुआ। दान में मिले रूपए, जेवर, गरम कपड़े, कंबलों का ढेर लग गया। आश्रम में ही जौहरी बुलाकर जेवरों का मोल-भाव कराके उन रुपयों से अनाज, दवाएँ और प्राथमिक चिकित्सा की सामग्री खरीदी गई। रागिनी ने रिचर्ड और रति से फोन पर बात की और जल्द से जल्द रुपए भेजने का आदेश दिया।
वह कमरे में लौटकर सोने की तैयार कर ही रही थी कि मोबाइल बज उठा। मोबाइल पर बुआ नाम देख वह चौंकी... इतनी रात को? सत्यजित की आवाज थी... “तुम्हारी बुआ हॉस्पिटल में एडमिट हैं, उन्हें ब्रोंकाइटिस का अटैक आया है, फेफड़ों में पानी भर गया है। कल पानी निकालकर जाँच के लिए भेजा जाएगा।”
रागिनी के भीतर कुछ पिघला... हिमखंड-सा कुछ जो यों तो स्पंदनहीन था पर जिसमें भावनाओं की रवानी थी-”सच बताइए अंकल, बुआ को हुआ क्या है?”
“डॉक्टरों को फेफड़ों के कैंसर का शक है... अगर जाँच सही निकली तो बस तीन महीने और... “ सत्यजित रो पड़ा। रागिनी पुरखिन-सी तसल्ली देती रही-”नहीं, कुछ नहीं होगा बुआ को... कृष्णजी पर विश्वास रखिए।”
काफी देर तक सुबकियाँ सुनाई देती रहीं रागिनी को... आँसू रागिनी के भी छलक आए... हे ईश्वर यह कैसी परीक्षा ले रहे हैं आप क्या रिश्ते और प्रेम की इस नन्हीं-सी डोर को भी तोड़ना होगा...। क्या नितांत अकेला करके ही अपनाएँगे प्रभु!!
न जाने किसने, कैसे स्वामीजी तक इस बात की खबर पहुंचा दी। स्वामीजी स्वयं रागिनी के कमरे में आए। उसके सिर पर हाथ रखा ही था कि वह उनसे लिपटकर फूट-फूट कर रो पड़ी। आंसू झरने की तरह बह चले। स्वामीजी ने तसल्ली से उसकी पीठ थपथपाई-”यह क्या देवी रागिनी, ईश्वर की शरण में हो और इतनी कमजोर?”
“इस संसार में बस बुआ ही तो हैं मेरी स्वामीजी।”
“ऐसा मत कहो... तुम्हारे साथ स्वयं कृष्ण हैं और जिसके साथ कृष्ण होते हैं, सारा संसार उसका होता है। तुम अकेली कहाँ हो देवी?” रागिनी धीरे-धीरे स्वस्थ हुई।
“तुम उनके पास जाओगी न अब? इंतजाम करवा दें?”
अचानक जैसे मुनमुन बुआ सामने आ खड़ी हुई हो... कमजोर, दुर्बल फिर भी शक्ति का पुंज बन... मानो कह रही हों... .”मेरा अंत तो तय है लेकिन जिनका तय नहीं है उनकी सहायता करो।'
“नहीं स्वामीजी... अभी नहीं। पहले मैं गुजरात जाऊँगी। कृष्णजी का अनुरोध है। लौटकर बुआ के पास जाऊँगी।”
स्वामीजी ने आश्वस्त हो रागिनी की ओर देखा। अब वह सही अर्थों में उनकी शिष्या हो गई है। अब उनका अनुग्रह रागिनी को मिल चुका है। उन्होंने पुनः रागिनी के सिर पर हाथ फेरा... “तुम धन्य हो देवी।” और जैसे आए थे वैसे ही चले गए स्वामीजी।
रागिनी बिस्तर पर लेट गई लेकिन मन पंछी अपने डैने फड़फड़ाता उड़ चला बुआ की ओर... न जाने कैसी होंगी वे... न जाने कितना कुछ सह रही होंगी। आखिर उसके ही साथ ऐसा क्यों होता है हमेशा... जब भी किनारा नजदीक दिखाई देता है, एक बड़ी लहर नौका को फिर मँझधार की ओर ठेल देती है। वह उबर ही नहीं पा रही है।
यह डूब कब तक? कब शांति को, सहजता को, तल्लीनता को पाएगी वह। मानती है यह संसार मायाजाल है फिर भी... फिर भी क्यों नहीं इस सत्य को स्वीकराती कि दृष्टि-पथ तक दिखता ये धरती आकाश का मिलन... यह क्षितिज... यही सत्य है... बाकी सब नष्ट हो जाएगा... अब उस नष्ट हुए को इतिहास कहते रहो। क्या महत्व रह जाता है इतिहास का... मात्र इतना ही कि वह घटित हो चुका है और हम उसे जान सके हैं। आखिर हर गुजरा क्षण इतिहास ही तो बनता जाता है लेकिन दुनिया से उसका अस्तित्व तो मिट ही चुका होता है।
सोचते-सोचते न जाने कब झपकी लग गई उसकी। सपने में उसने देखा... मुनमुन बुआ रेत के ढूह पर बैठी चमकते सूरज की कंटीली किरणों से त्रस्त हथेलियों को चुल्लू बना उससे पानी मांग रही हैं... वह दौड़ रही है उनकी ओर, पर पाँव हैं कि रेत में धँस-धँस जाते हैं...। तभी सत्यजित बहुत पीड़ा से कराह उठता है... अरे, कोई है जो मेरी मुनमुन को पानी पिला दे। हाय, मैं इतना असहाय, धिक्कार है मेरे जीने पर।
पक्षियों के चहचहाने से रागिनी की आँख खुली तो गालों पर हाथ फेरते महसूस हुआ कि उन पर आँसुओं की चिपचिपाहट थी। लेकिन मन पर लगभग काबू पा लिया था उसने। वह कृष्ण नाम जपती दैनिक कर्मों को निपटाने लगी। आश्रम में चहल-पहल थी। बचाव दल की पहली खेप ठीक दस बजे रवाना हो जाएगी। सब दैनिक कार्यों से निपटकर नीचे हॉल में इकट्ठे होने लगे थे। कइयों के हाथ में गुजरात की भीषण तबाही से रंगे पड़े अखबार थे। लेकिन इस विषय पर चर्चा कोई नहीं कर रहा था। सबको रागिनी के नीचे उतरने का इंतजार था। शायद स्वामीजी ने रागिनी की बुआ के बारे में बता दिया था। उसके नीचे उतरते ही स्वामीजी ने उसे अपने पास बुलाया-”साध्वी रागिनी, चित्त शांत हुआ? प्रभु की इच्छा के आगे हम सब बेबस हैं, आज मनुष्य ने धरती, आकाश, पाताल पर काबू पा लिया है लेकिन वह काल पर काबू नहीं पा सका। काल मात्र प्रभु के हाथ में है।”
फिर सारे कृष्णभक्तों को स्वामीजी ने संबोधित किया-”आप जानते हैं तपस्या सिर्फ जंगलों में जाकर तप करने से नहीं होती। तपस्या संसार में रहकर भी होती है। तपस्विनी रागिनी ने समय की मांग के आगे स्वयं के कार्य को दूसरे स्थान पर रखा है। यही तो ईश सेवा है। मानव सेवा के द्वारा ईश सेवा।” एक-एक करके सबने मुनमुन के लिए प्रार्थना की। रागिनी ने अपने अंदर और अधिक साहस और शक्ति महसूस की।
रागिनी के नेतृत्व में मथुरा, वृंदावन से आए बचाव दल की जीप गुजरात की सड़कों पर तेजी से दौड़ रही थी। जीप के पीछे वह ट्रक था जिसमें राहत सामग्री दवाइयाँ, खाने-पीने का सामान और तंबू थे। रागिनी का मन चीत्कार कर उठा उस विनाश को देखकर। कहीं-कहीं मलबे को हटाने का काम चल रहा था। रागिनी का काफिला वहीं रुक गया। लाशों के सड़ने की दुर्गंध हवाओं में तारी थी। सभी ने मुँह और नाक पर कपड़ा बाँधा और मलबे के ढेर में साँसें खोजने लगे। किसी भुक्तभोगी ने बताया कि ये बुलडोजर आज चौथे दिन आया है। पहले आ गया होता तो शायद कुछ और जानें बच जातीं।”
तबाही के तांडव से सबकी आँखें फटी की फटी रह गई थीं। रागिनी का दल जल्दी-जल्दी मलबा हटा रहा था। शायद किसी पत्थर या पलंग के नीचे तड़प-तड़प कर कोई एक-एक पल गिनता मिल जाए। यही हाल भुज, बचाऊ, रापर का भी था। पूरा का पूरा शहर धरती पर गिरकर बिखर गया था। ये लोग अंजार में थे। सारे मकान खंडहर बन चुके थे। सड़क के दोनों ओर छतें ढहकर धरती को छू रही थीं। दीवारें अस्थिपंजर में बदल चुकी थीं। मलबे के ढेर में बिखरी पड़ी हैं जिंदगी की आवश्यकताएँ... चूल्हा, बर्तन, टीवी, कपड़े, आलमारी और इनका उपयोग करने वाला आदमी लाश बन चुका है। निर्जीव... महज एक सामान की तरह।
दूसरा बचाव दल भी आ गया था। रागिनी की तबीयत बिगड़ने लगी। माहौल के असर ने उसे बुरी तरह झंझोड़ डाला था। दूसरे दल ने जल्दी-जल्दी तंबू तान कर दरियाँ बिछा दीं। पानी की बोतलें रख दीं। चाय बनाने की तैयारी होने लगी। दस आदमियों को मलबे में से जिंदा निकाला था इन लोगों ने। जिनमें चार महिलाएँ और एक बच्चा भी था। सबके चेहरे भय से काले पड़े हुए, आँखों में खुद के जिंदा बच जाने का अविश्वास... रागिनी ने स्वयं की तबीयत की परवाह न करते हुए इन्हें दवा दी, अन्य कृष्णभक्तों ने चाय और पूड़ी-सब्जी के पैकेट दिए। ठंडी हवाएँ चलने लगी थीं। उन्हें कंबल, स्वेटर, मफलर भी बांटे गए। धीरे-धीरे राहत कार्य ने तेजी पकड़ ली। रागिनी वृंदावन से आई अन्य महिलाओं के साथ तंबू में रहकर, बचे हुए लोगों की तीमारदारी करने लगी। अब उनकी संख्या में इजाफा हो रहा था। दस से बीस... .बीस से पचास तक आदमियों को रात होते बचा लिया गया। परम संतुष्टि से रागिनी गहरी नींद सो गई लेकिन उसका दल सर्चलाइट लिए मलबे में जीवन ढूंढता रहा।
आधी रात को हड़बड़ाकर उठ बैठी रागिनी। मुनमुन के लिए उसका मन छटपटा उठा। अब तक तो रिपोर्ट कब की आ गई होगी। इस वक्त फोन करके पूछना ठीक रहेगा? क्या पता मुनमुन की देखरेख करते-करते अभी ही आँख लगी हो सत्यतिज की? या क्या पता जाग रहा हो... चिंता, तनाव, उदासी में... अपेक्षा कर रहा हो कि रागिनी फोन करे। उसने कांपते हाथों से नंबर मिलाया। पहली ही घंटी में सत्यजित की आवाज... “रागिनी... देखो न, डॉक्टर क्या कहते हैं। कहते हैं कैंसर है... पाँच छह महीने भी चलना मुश्किल है... “
“क्या... “ उसे लगा अब वह मलबे के ढेर में है... जैसे सारा आकाश टुकड़ा-टुकड़ा उसके इर्द-गिर्द उसे दबाए डाल रहा है।
“नहीं अंकल... ये झूठ है... मेरी बुआ को कुछ नहीं हो सकता।” वह सिसकने लगी।
अब तक बिखर चुके सत्यजित में जैसे बड़प्पन लौट आया। अपनी रागिनी को सँभालने के लिए उसके शब्दों में राहत का मलहम लगने लगा... .टूटन दोनों ओर से थी। टूटना तय था बल्कि टूट ही चुका था सब कुछ। सत्यजित की जिंदगी थी मुनमुन और रागिनी के लिए एकमात्र रिश्ता जो माँ, बाप... सगे-संबंधी सबसे बढ़कर था... अब कौन किसको समेटे... दोनो ओर भयावह सन्नाटा लील लेने को आतुर था।
उस निःशब्द रात की जब सुबह हुई तो लग रहा था जैसे रागिनी का सारा खून किसी ने निचोड़ लिया हो। सबका जाना तय है पर यह अहसास कितना जानलेवा है कि अब कोई हमारा अपना हमारे बीच बस चार-पाँच महीनों के लिए ही है। पल-पल होती मौत को ऐसे महसूस करने से बढ़कर शायद ही कोई पीड़ा हो।
बचाव दल की महिलाएँ जल्दी ही उठकर अपने अपने कामों में लग गई थीं। रागिनी को देखकर सभी का यह सुझाव था कि वह अधिक से अधिक आराम करे। उसका सफेद पड़ गया चेहरा सभी के लिए चिंताजनक था।
“मैं आपके लिए चाय लाती हूँ देवी रागिनी।”
एक लड़का तंबू के बाहर चाय की दुकान लगाए खड़ा था। ठंड के कारण चाय बिक भी खूब रही थी। उन लोगों ने भी चाय पी और मलबे के काम में जुटने के लिए आगे बढ़ने लगीं। रागिनी के लिए तंबू में रुकना और भी कष्टप्रद था। वह भी साथ हो ली। एक बहुत बड़ा टावर मानो मुँह के बल जमीन पर गिरा पड़ा था। अचानक रागिनी को लगा कि टावर के मलबे में गाय फंसी हुई है। शायद जाड़े की रात में वह बालकनी के नीचे खड़ी होगी और फिर भूकंप आते ही उस पर मलबा आ गिरा होगा। वे सब जल्दी-जल्दी मलबा हटाने लगीं पर व्यर्थ... वह मर चुकी थी। उसकी आँखें पथरा चुकी थीं। उसी की बगल में एक ऑटो रिक्शा भी दबा पड़ा था। उसके पीछे लिखा था-”टा-टा बाई-बाई, फिर मिलेंगे, गर खुद लाया।” थोड़ी दूर मलबे में गुलाबी-सी चीज... अरे यह क्या... यह तो किसी बच्ची की फ्रॉक है। मलबा हटाने पर दबी-कुचली नन्ही-सी बच्ची के कलेजे से चिपटी थी एक और गुड़िया... लेकिन कपड़े की... खिलौना... गुलाबी फ्रॉक पहने उस बच्ची का विदीर्ण चेहरा देख रागिनी काँप गई।
तंबू में लौटकर उसने दूसरे बचाव दल के नेता माइक से कहा-”अब मैं और अधिक नहीं देख सकती ये तबाही, आज ही लौट जाऊँगी।”
माइक ने उसके थर-थर काँपते शरीर को देखा। पीठ पर हाथ फेरा-”मैं समझता हूँ। चिंता मत करो। इधर का हम सँभाल लेंगे।”
पीठ पर हाथ रखा तो माइक को महसूस हुआ रागिनी का बदन बुखार से तप रहा है-”अरे, तुम्हें तो बुखार है? चलो, लेट जाओ, मैं दवा देता हूँ।”
माइक से सहानुभूति पा वह रो पड़ी... .”माइक, इतनी तबाही? यह कैसा ईश्वर का न्याय है... बेकसूरों को ऐसी सजा?” माइक ने दवा खिलाई फिर अपने रूमाल से उसके आँसू पोंछे... .”ईश्वर पर भरोसा है न तुम्हें... उसने बिगाड़ा है तो वही संवारेगा भी। कुछ मत सोचो, आँख बंद करके सोने की कोशिश करो।”
पर रागिनी दवा खाकर भी सो कहाँ पाई? वह स्वामीजी से बात करना चाहती थी। नंबर डायल कर उसने कान पर मोबाइल रखा पर नेटवर्क काम नहीं कर रहा था। इस वक्त स्वामीजी के वचन चोट पर मलहम का काम करते... कितना भयानक है यहाँ का माहौल... रोते-कराहते लोग... सड़ती लाशें। जीवन क्षणभर में मरण में तब्दील हो गया था। अब वह अधिक अच्छे से समझ सकती थी मुनमुन बुआ की पीड़ा... जीवन का महत्व... .अब उसे जाना होगा, बुआ के पास जाना होगा... सत्यजित अंकल को सँभालना होगा। एक वे ही तो हैं इस दुनिया में उसके अपने... वरना उसके ठूँठ जीवन में था ही क्या!!
दोपहर ढली और दबे पांव शाम आ गई। अपने साथ डूबते सूरज संग ढेर सारी परछाइयाँ समेटे... जैसे पेड़ों से उतर-उतरकर भूत और चुड़ैलें इस शमशान में नृत्य करने आ रही हों... यहाँ गरबा होता है। माँ दुर्गा की नगरी में माँ काली अपना खप्पर लेकर पधार गई हैं। वह किलकारियाँ मारती नाच रही हैं... और कितनों का खून पियोगी माँ...। क्या तुम्हारा खप्पर अभी नहीं भरा...। क्या मौत की दावत अभी खत्म नहीं हुई? हड़बड़ाकर उठ बैठी रागिनी। यह कैसा दुःस्वप्न था... उसका सारा शरीर शक्ति खो रहा था। कहाँ डूब रही है वह... इस डूब का कोई किनारा है क्या?” जगह-जगह मोमबत्तियाँ जल उठी थीं...। हवा में झिलमिलाती उनकी लौ कभी जीवन का संकेत दे रही थी तो कभी मृत्यु का...। अंधेरे-उजाले की इस आंख मिचौली से घबराकर वह बिस्तर से उठी... कंबल परे फेंका... सारा शरीर पसीने में नहा उठा था। टीशर्ट बदन से चिपक कर निचोड़ने लायक हो गई थी। माइक अभी-अभी घायलों को चाय-नाश्ता देकर लौटा था और थरमस में से अपने और रागिनी के लिए चाय उड़ेल रहा था। उसे लस्त-पस्त देखकर वह तेजी से उसके पास आया। उसका माथा छूकर देखा-”थैंक गॉड, बुखार तो उतरा... तुम्हारे कपड़े भीग गए हैं। तुम चेंज कर लो फिर चाय पीते हैं।” और वह तंबू से बाहर हो लिया। पल भर को माइक की शिष्टता पर रागिनी मुस्कुराई लेकिन माहौल की भयावहता में वह मुस्कुराहट मेघों में बिजली-सी चमक कर गायब हो गई।
चाय पीते हुए माइक दिन भर के कामों का ब्यौरा दे रहा था उसे। बहुत सारी जिंदगियाँ बचाने की संतुष्टि थी उसके चेहरे पर...। वह चली गई जिंदगियों के लिए बिसूर रही थी। अपने जीवन में इतना कुछ खो चुकी है वह कि अब किसी का भी दर्द, शोक भीतर तक कुरेद जाता है उसे। समृद्ध गुजरात कुछ ही पलों में धूल धूसरित हो चुका था। गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ... जिनके हर फ्लैट में वैभव की चमक थी, गुजराती स्त्रियों के शरीर पर सोने, हीरे, मोती के गहनों की लकदक थी... और थी भविष्य के लिए ढेरों कल्पनाएँ, सपने... धरतीकंप में कुछ न कर पाया वह वैभव, वह समृद्धि। क्या मूल्य है आखिर धन-दौलत का? प्रकृति के आगे सब तुच्छ। ममा की करोड़ों डॉलर की संपत्ति...। डैड की सब कुछ पा लेने की लालसा की दौड़... और घुल-घुल कर मरता उनका शरीर... क्या दे पाया सुख? भोग पाए वे? फिर धन का क्या मूल्य? क्या अर्थ?
कोई लालटेन जलाकर रख गया। तंबू की कपड़े की दीवारों पर बड़ी-बड़ी छायाएँ डोलने लगीं। जो अकाल मौत मर गए... जो जिंदगी नहीं जी पाए... जिनकी तमन्नाएँ मलबे में दफन हो गईं... वे परछाईं बन अपनी-अपनी साँसों का हिसाब मांग रहे हों जैसे... तंबू के बाहर साँय-साँय हवा बिफर रही थी, पगला रही थी... ढूँढ रही थी उन दरख्तों को, जो डालियों में मुँह छुपा लेते थे...। कितना कुछ मिट जाता है। कितना बेबस है इंसान प्रकृति के हाथों। सल्तनतें मिट जाती हैं, राज्य मिट जाते हैं, सभ्यताएँ नष्ट हो जाती हैं लेकिन इंसान की जिद्द। वह रक्तबीज की तरह फिर गुलजार हो जाता है, हरियालियाँ रोप दी जाती हैं, खेत बो दिए जाते हैं... नहरों में पानी छलछलाने लगता है... यही तो जीवन हैं... बसकर उजड़ता... उजड़कर बसता... जैसे घरौंदा... एक ठोकर में रेत बिखर जाती है... फिर रेत को समेटकर थोप दो... घरौंदा बन जाता है।
बाहर लाउडस्पीकर का भोंपू चीख रहा था... “आइए... आइए... हमारी 'संजीवनी' संस्था की ओर से आज रात आपके खाने का इंतजाम किया गया है।'
माइक दो प्लेटों में खिचड़ी, पापड़ और अचार लिए तंबू में दाखिल हुआ-”अचार तुम मत खाना रागिनी, बुखार था न तुम्हें... नुकसान करेगा।”
“मेरा तो खिचड़ी खाने का भी दिल नहीं है।” रागिनी ने खुद को कंबल में लपेटते हुए सोने का उपक्रम किया।
“थोड़ा खा लो... फिर दवा की एक खुराक और ले लेना। सुबह तक चंगी हो जाओगी... वृंदावन लौटने का तुम्हारा इंतजाम भी कर दिया है मैंने।”
वृंदावन के नाम से ही रागिनी के शरीर में जान-सी आ गई। वह पापड़ को खिचड़ी में चूर कर खाने लगी। खिचड़ी काफी स्वादिष्ट लगी। खिचड़ी खत्म कर उसने दवा खाई और फौरन लेट गई। पलकें मूँदी तो भारी-भारी-सी लगीं। माइक सिरहाने आ बैठा-”लाओ, सिर दबा दूँ... अच्छी नींद आएगी।”
माइक, कितना ख्याल रखते हो तुम मेरा... उसने कहना चाहा पर तभी तंबू में रुदन की आवाज भर गई। दो लड़कियाँ बचाव दल ने मलबे में से निकाली थीं जो बेतहाशा जख्मी थीं। माइक सिर दबाना छोड़ कर उनकी ओर भागा और प्राथमिक चिकित्सा का डिब्बा उठा लाया।
रागिनी चाह कर भी नहीं उठ पाई। वह देर तक उनके रुदन से काँपती रही... लगा जैसे बुखार कंपकंपी देकर फिर से चढ़ रहा हो। माइक ने कंबल के ऊपर उसे रजाई भी ओढ़ा दी थी। अब वह कंबल, रजाई के बोझ तले बेतहाशा काँप रही थी, जैसे हवा में पीपल का पत्ता...।
वृंदावन लौटकर पता चला कि रति ने पच्चीस हजार डॉलर का चैक भूकंप पीड़ित राहत कोष के लिए भेजा है। आश्रम में बस स्वामीजी और ट्रस्ट के दो कार्यकर्ता थे। पूरा आश्रम तो इस वक्त गुजरात में था। रागिनी की बीमारी ने सबको चिंता में डाल दिया था। तुरंत विशेषज्ञ डॉक्टरों से स्वामीजी ने रागिनी का चेकअप करवाया... सब तरह के टेस्ट... सभी रिपोर्ट रागिनी को स्वस्थ सिद्ध कर रही थीं। इतनी बड़ी तबाही जिन आँखों ने देखी हो वह भला कैसे खुद को काबू में रखती? जरूरी दवाइयाँ और पथ्य लेकर रागिनी चार-पाँच घंटे सोकर जब उठी तो उसके कुम्हलाए चेहरे को देख स्वामीजी ने पूछा-”जा पाओगी कलकत्ते और वहाँ से लंदन...।”
“जाना ही होगा स्वामीजी... ईश्वर की यही इच्छा है। लेकिन इतना तय है कि लौटकर यहीं आना है मुझे? यही वह जगह है जहाँ जीवन का असली आनंद है। धन, नाते-रिश्ते सब मिथ्या है।” स्वामीजी ने आँखें मूंदकर आशीर्वाद दिया-”कल्याण-भव।”
दूसरे दिन रागिनी की दिल्ली से फ्लाइट थी। स्वामीजी ने सारा इंतजाम करवा दिया था। किसी को पता भी नहीं चला कि कब एयरटिकट आई, कब दिल्ली एयरपोर्ट तक पहुँचाने वाली जीप आई और कब रागिनी को स्वामीजी ने पूर्ण आश्वस्ति का प्रवचन दिया। प्रवचन के बाद उन्होंने अपने हाथों से कृष्णचरणामृत रागिनी को पिलाया। तभी से वह तमाम मानसिक विकारों से, दुख और पीड़ा से मुक्ति का अनुभव करने लगी थी। कृष्णचरणामृत पीते ही उसे लगा था मानो कृष्ण साक्षात उसके कमरे में आए हैं... उनके हाथों में मुरली है, वे मुरली को होठों से लगाते हैं और एक मधुर तान कमरे में गूँजने लगती है। रागिनी को लगता है मानो वह फूल-सी हलकी हो गई... इतने विनाश के बाद मुनमुन बुआ के जाने की कल्पना। वहाँ परिवार के परिवार नष्ट हो गए...। यहाँ उसकी बस अकेली बची मुनमुन बुआ की सांसारिक विदा बेला...। यही जीवन का सत्य है यही शाश्वत है... अनंत है। सत्यजित को भी यह सत्य स्वीकार करना होगा। मान लेना होगा कि बुआ के साथ का उनका सफर बस इतना ही था। वैसे भी किसी की भी अगली साँस मुकर्रर नहीं... सत्यजित ने और बुआ ने तो हर मुकर्रर रिवाजों को ठुकराया है और यह माना है कि इन्सानी रिश्तों की बुनियाद शरीर की उम्र पर नहीं टिकी होती।