टेम्स की सरगम / भाग 11 / संतोष श्रीवास्तव

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मुनमुन तकियों के सहारे लेटी थी। और नर्स उसका ब्लडप्रेशर चैक कर रही थी। अस्पताल के गलियारे हमेशा भयभीत करते हैं रागिनी को... लंबे- लंबे चमकते फर्श वाले गलियारों पर नर्स, वार्डब्वाय, मरीज, मरीजों के रिश्तेदारों की आवाजाही एक बोध-सा कराती है... जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम...

यह चलना किस अंत तक होगा, कौन जाने... मुनमुन का चेहरा जर्द उतरा हुआ, कमजोर दिखा। जैसे बहारों के मौसम में पीला पत्ता.. इस माहौल में कितनी अनफिट लग रही थी मुनमुन। वह दौड़कर उसके गले से लिपट गई-”बुआ... यह क्या कर लिया आपने?”

मुनमुन फीकी हँसी हँसी। सिरहाने खड़े सत्यजित ने अपनी आँखें कमीज की आस्तीनों से रगड़कर पोंछी। नर्स ने ब्लडप्रेशर नापने की मशीन बंद करते हुए रागिनी की ओर देखा-”मैडम समझाइए न साब को, हर वक्त रोते रहते हैं।”

उसके जाने के बाद रागिनी ने शिकायत भरे लहजे में कहा-”सुना आपने, नर्स क्या कह रही थी?”

“शायद वह प्यार करना नहीं जानती? शायद उसने कभी किसी से प्यार किया ही न हो?” सत्यजित ने आहिस्ते से कहा।

“रागिनी, मेरा सत्य अकेला पड़ जाएगा, उसे सँभालना। मुझे तुम्हारी भी बहुत फिक्र है।”

“मेरी?... मेरे साथ तो मेरे कृष्ण हैं बुआ। जिसने श्रीकृष्ण के लीलामय स्वरूप में खुद को समर्पित कर दिया उसे फिर किसी के साथ की जरूरत नहीं। बुआ, अब मैं बस एक बार लंदन जाऊँगी अपनी वसीयत लिखने। बस... फिर मथुरा वापिस... ।”

मुनमुन अवाक हो रागिनी का चेहरा देखती रह गई। वह बहुत शांत और तेजस्वी लग रही थी। तमाम हसरतों से परे शांति के चरम पर।

“क्या तुम संन्यासिनी होने जा रही हो रागिनी?”

“नहीं बुआ... यह विशेषण भ्रम में डालता है। इंसान सन्यासी होकर भी संसार में लिप्त रहता है जबकि ये दुनिया ही छलावा है। हर इंसान मृग मरीचिका के यथार्थ को नकार रहा है जबकि हर एक के मन का कोई कोना उसे ये बताने की कोशिश करता रहता है फिर भी वह मानने को तैयार नहीं।” सत्यजित का दिल डूबा जाता था... रागिनी की बातों में उदासी थी परन्तु तथ्य भी था। वह पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। मुनमुन लेट गई। कंबल के अंदर हाथ डाल रागिनी उसके ठंडे तलुओं को अपनी गरम हथेली से रगड़ने लगी। मुनमुन देख रही थी अपनी इस बिटिया को जो सदा से ही उसे असाधारण लगी है। किसी देवात्मा का शापग्रस्त रूप जिसने मनुष्य लोक में जन्म लिया है।

डॉक्टर ने अधिक बोलने को मना किया है। सत्यजित हर रात मुनमुन की पसंदीदा किताब पढ़कर उसे सुनाता है जिसे सुनते हुए वह नींद के आगोश में चली जाती है। इस महँगे अस्पताल का यह कमरा मुनमुन के लिए विशेष रूप से व्यवस्थित किया गया है। मुनमुन की पसंद के परदे... फूल और जीवन के अंत को नकारती सत्यजित की उपस्थिति। और क्या चाहिए मुनमुन को... इससे ज्यादा तो चाहा ही नहीं जीवन से। आज रागिनी को इस रूप में देखकर, इस बदलाव को देखकर मुनमुन कहीं भीतर हिल गई है... क्या जिंदगी का एक पक्ष ऐसा भी हो सकता है?

“बुआ, जीवन की कठोरता आपसे क्या कहूँ, छोटे मुँह बड़ी बात... आप अपने दिल में कोई बोझ न पालें, यही आग्रह है।”

“रागिनी, मेरे दिल पर एक ही बोझ था जिसे मैं अरसे तक जिजीफस की तरह ढोती रही। जिजीफस सारी उम्र एक गोल चट्टान को पहाड़ की चोटी तक ढकेलकर ले जाता रहा था और चाहता था कि वह उस चट्टान को पहाड़ पर रखकर दुनिया को अपनी ताकत दिखा दे। पर वह ऐसा नहीं कर सका। पहाड़ सीधा और ढलवाँ था और वह गोल चट्टान हर बार लुढककर नीचे आ जाती थी। मैं भी बार-बार प्रयास करती रही उस बोझ से मुक्त होने का पर मुझे सफलता नहीं मिली।”

“कौन-सा बोझ बुआ?”

“तुम्हारे जन्म की सच्चाई का।” कहते-कहते मुनमुन को खाँसी आ गई। उसके फेफड़ों में साँस घरघराने लगी। सत्यजित उसे थपकियाँ देने लगा। रागिनी ने दौड़कर रूम टेम्प्रेचर बढ़ा दिया। कमरा सुखद रूप से गर्म होने लगा। मुनमुन को नींद आ गई थी।

“तुम खाना खा लो रागिनी, मैं यही बैठा हूँ तब तक।” रागिनी को सत्यजित बूढ़ा थका और लाचार दिखा। मुनमुन की बीमारी ने उसे भीतर तक खोखला कर दिया था। उम्र के इस पड़ाव पर तो व्यक्ति को अपने साथी की बहुत जरूरत होती है और सत्यजित की आँखों के सामने ही उसकी जीवन संगिनी? वह क्या कर डाले जो मुनमुन की साँसों का खाली होता जा रहा कोष भर जाए...।

रागिनी ने हॉटबॉक्स से गरम सूप निकालकर प्यालों में उड़ेला। एक प्याला सत्यजित को देते हुए कहा-”पी लीजिए... खुद को कृष्ण को अर्पित कर दीजिए... उसी में जिंदगी का सार है।”

सत्यजित ने चकित हो रागिनी को देखा। अब वह रागिनी को समझ चुका था। यह भाव अधिक देर टिका नहीं। उसने सूप का घूँट भरा। घूँट बेस्वाद लगा। वह टकटकी बाँधे मुनमुन के खूबसूरत लेकिन जर्द और कुम्हलाए चेहरे को देखता रहा। इस एहसास से परे कि खिड़की के नीचे रखी आराम कुर्सी पर बैठी रागिनी उन्हीं दोनों को देख रही थी। मुनमुन को देखकर सब कुछ याद आता है... सड़कों पर सारी शाम टहलना... दरीबे में से झाँकता अस्ताचल होते सूरज का मद्धिम-मद्धिम पीला उजाला... एक बेफिक्र जीवन जिसमें भविष्य के लिए सपनों की कहीं कोई गुंजाइश न थी। बस था तो वह समय जिसे वे जी रहे थे... साथ-साथ बिना किसी रुकावट के... शांत बहते जल की तरह। मुनमुन... तुमने अकेले जाने का फैसला कैसे कर लिया? तुम तो जिंदगी के उस फलसफे को मानने वाली थीं जिसमें शिद्दत से प्यार करने वाले दो दिलों को दुनिया की कोई ताकत अलग नहीं कर सकती। क्या तुमने सोचा कि जिंदगी की इस डगमगाती नाव पर मैं अकेले कैसे टिक पाऊँगा?

दिन पहर, सप्ताह बीतते गए। मुनमुन पीड़ा झेल रही थी और अधिक पीड़ा उसका पोर-पोर काट डालती, यह दर्द, असहनीय दर्द... “सत्य, मुझे घर ले चलो... मैं अपने घर को अंतिम पलों में जीना चाहती हूँ।”

सत्यजित रो पड़ा। रागिनी ने पूरे आत्मबल से मुनमुन का हाथ थामा “हाँ बुआ, आज ही घर चलेंगे हम। शाम को डॉक्टर राउंड पर आएँगे... उसके बाद... अब हँसो बुआ, हँसो न... ।”

मुनमुन की आँखों से आँसू चू पड़े। वह कठिनाई से मुस्कुराई-”अरे सत्य, देखो तो ये लड़की हँसने को कहती है। सत्य बताओ इसे, अपने हिस्से की सारी हँसी हँस चुकी हूँ मैं... है न सत्य?” सहसा रागिनी मुनमुन से लिपट गई-”अब बुआ, मुझे भी रुलाओगी क्या?”

ठंडी हवाएँ पहाड़ों से लौटी हैं। कोल्ड वेव्ज। मुनमुन की बीमारी ने सत्यजित के जीवन में क्रांति ला दी है। ठीक वैसी ही बेचैनी, वैसी ही भारी-भारी रातें, भारी-भारी दिन जब भारत क्रांति की चपेट में था। तो क्या अंदर बाहर का युद्ध एक जैसा है। आत्मा का युद्ध... । जब सत्यजित देखता है कि इस युद्ध के लिए भले ही वह कितना भी तैयार क्यों न हो, हार उसकी निश्चित है। अब उसके जीवन में घटाटोप अंधकार है और रेत के अंधड़... आँखें खोल के रख पाना कठिन हो रहा है। मुनमुन की जुदाई की आहट हर वक्त उसे चौंकाती है। आत्मा भीतर तक कचोट उठती है कि अब जो बिछुड़ी मुनमुन तो फिर कभी नहीं मिलेगी... यह कैसी विडंबना है, कैसी सच्चाई... एक जर्जर, बस टूटने-टूटने को आतुर पुल पर खड़ी है मुनमुन... वह इस बेबस दिल का क्या करे जो उस पुल को टूटने से रोकने की जद्दोजहद में खुद भी टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा है।

कार के शीशे चढ़ा दिए सत्यजित ने। मुनमुन की क्षीण देह को अपने आलिंगन में समेटे कंबल से ढका-मुंदा बैठा है वह। सामने की सीट पर रागिनी। सड़कों पर चहल-पहल बढ़ रही है। इस वक्त वृंदावन के बाँकेबिहारी मंदिर में आरती हो रही होगी। स्वामीजी प्रवचन के लिए आसन पर बिराजने ही वाले होंगे। डॉक्टर बड़ी मुश्किल से मुनमुन को कुछ दिनों के लिए घर भेजने को रजामंद हुए। उन्हें जो दर्द की दवाएँ दी जाती हैं उसमें जरा भी भूल-चूक संकट पैदा कर सकती है। अचानक रागिनी को लगा उसका मन भटक रहा है, कभी वृंदावन की गलियों में कभी मुनमुन की बीमारी में-”ऐसा क्यों?' चित्त स्थिर क्यों नहीं? यह कमजोरी कहाँ से व्याप रही है? उसने आँखें मूँदकर सीट से सिर टिका लिया।

मुनमुन ने पूरे घर को, घर के कोने आतड़ को जैसे मन में उतार लिया। सुबह खिड़कियों से धूप आती। सत्यजित खिड़कियाँ खोल देता। किरणें आड़ी-तिरछी हो कमरे में बिखर जातीं। मुनमुन घूँट-घूँट धूप को पीती। कैसा लगता है, तृप्ति के नाम पर और अतृप्त हो जाना। यदि ऐसा न हो तो कल के सूरज का कोई इंतजार क्यों करे?

सत्यजित अपने हाथों मुनमुन को सूप बनाकर पिलाता। उसके पसंद के रवींद्र संगीत को दिन में कई-कई बार रिकार्ड प्लेयर पर बजाता। मुनमुन को एकला चलो रे गीत बहुत पसंद था। किसी संगीत संध्या में उसने यह गीत गाया भी था। कितना आसान है यह कहना कि “एकला चलो रे'... क्या कोई चल पाया है अकेले? जिंदगी के तमाम काँटों भरे, आड़े-तिरछे रास्तों को पार कर उस पार पहुँचना... और पहुँचने की अवधि तक जीवन को बचाए रखना क्या आसान है? फिर भी एक कोशिश... जाना तो तय है मुनमुन का। उसके इस संघर्ष को सहज बनाने के प्रयास में सत्यजित पुरानी बातों को याद दिलाकर उसका मनोरंजन करता, हँसाता, पर कमजोर शाखें बसंती बयार का अधिक साथ न दे पातीं। मुनमुन निढाल हो जाती। रागिनी उसे आराम से पलंग पर टिका देती-”बुआ, एक बढ़िया-सी तस्वीर खिंचवानी है आपकी?”

“लो सत्य... अब ये इस पिचासी साल की खूसट बुढ़िया की तस्वीर खिंचवाएगी? मेरे जाने के बाद मेरी जवानी की तस्वीर देखना न तुम।”

“आप अब भी जवान हैं। साठ, पैंसठ से ज्यादा की नहीं दिखतीं। नहीं, मैं मजाक नहीं कर रही बुआ क्यों अंकल?”

सत्यजित ने बेहद लाड़ से मुनमुन की ओर देखा जिसका हृदय हमेशा उसके प्रति प्रेम से लबालब रहा है।

राधिका का हृदय जो कृष्ण के समस्त क्रियाकलापों का केंद्र है। वृंदावन से विदा लेते कृष्ण को फिर कभी नहीं मिली थी राधा। मुनमुन की विदा वेला क्या नजदीक है?

रागिनी ने प्रोफेशनल फोटोग्राफर को घर बुलाया। अत्यधिक दर्द की हालत में जबकि बाँहों पर से ब्लाउज पहनाते हुए छू जाती रागिनी की उँगलियों का स्पर्श भी मुनमुन को पीड़ा से भर देता... उसने मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाई। फोटो इतनी खूबसूरत आई थी कि लगता ही नहीं था कि मुनमुन बीमार है। फोटो लेमिनेशन कराके मुनमुन और सत्यजित के बेडरूम में टाँगी गई।

ठंडी हवाएँ अब कुछ कम हो चली थीं। रात के भोजन से निपटकर दवाइयाँ खिलाकर सत्यजित मुनमुन के सिराहने बैठा था। अब यही रूटीन था उसका। अब वह चौबीसों घंटे घर पर ही बिताता है और हर क्षण मुनमुन को मरता देखता है। अकेला, बूढ़ा, लाचार... रागिनी जब भी उसके सामने होती है उसकी आँखों में आँसुओं को अटका पाती है।

रागिनी आकर मुनमुन के पैरों के पास बैठ गई। उसके तलुए सहलाती हुई बोली-”बुआ, मेरी थीसिस नहीं पढ़ी न तुमने?” मुनमुन ने लाचारी से रागिनी की ओर देखा।

“आज मैं अपनी थीसिस के कुछ अंश पढ़कर सुनाऊँगी आपको।” मुनमुन ने मुस्कुराते हुए हामी भरी। सत्यजित की आँखों में प्रश्न था-”इस हालत में?”

पर रागिनी की आँखें पूर्ण विश्वास से चमक रही थीं। शायद उसके कृष्ण कुछ चमत्कार कर दें, शायद ऐसा कुछ हो कि बुआ पीड़ा से छुटकारा पा लें, मुक्ति पा लें। वह थीसिस उठा लाई और वहीं पैरों के पास ही कुर्सी पर बैठकर पढ़ने लगी। इस एंगिल से कि बीच-बीच में मुनमुन के चेहरे के उतार-चढ़ाव भी देख सके-”हाँ बुआ, राधा कृष्ण के प्रेम को अपने मन में बसा लीजिए, कण-कण को स्पंदित कर लीजिए।” और थीसिस पढ़ते हुए रागिनी की आवाज जादू बन कर छाने लगी। गुनगुन के लिए रागिनी की आवाज ईश्वरीय अनुभूति थी जैसे एक अलौकिक निर्झर की झर-झर नजदीक ही कहीं हो।

“कृष्ण का अवतार विविधताओं से भरा है। मामा कंस के अत्याचारों से त्रस्त जनता को राहत दिलाने के लिए देवकीनंदन कृष्ण का जन्म जेल में हुआ था। कंस से दूर बाबा, नंद और यशोदा ने उनका लालन-पालन किया। वहाँ गोचारण, बाल-लीला, रासलीला आदि के बाद फिर मथुरा, द्वारिका, हस्तिनापुर की राजनीति, युद्ध कौशल और इन सबसे एकदम अलग दार्शनिक कृष्ण जो गीता के उपदेशक हैं, वक्ता हैं। वे अपने इन समस्त रूपों से संसार को मोहित किए हैं। राधा के प्राण, गोपियों के हृदय वल्ल्भ, मीरा के पति प्रभु गिरधर नागर, सुदामा के ऐसे सखा जो अदृश्य हाथों से मित्र को मालामाल कर देते हैं और अर्जुन के सारथी। गीता में वे ऐसे दार्शनिक, चिंतक और विचारक नजर आते हैं जिसका कोई सानी नहीं। अनेक पटरानियों के बावजूद वे राधा से ऐसे प्रेम करने वाले जो पुरुष और प्रकृति के संयोग को रेखांकित करता है। इसीलिए कृष्ण के पहले राधा नाम लिया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण की पटरानियाँ सूर्यग्रहण के समय समुद्र के किनारे नहाने गईं। सागर तट के एक किनारे ग्वाल बाल भी नहा रहे थे। रानियों ने देखा कि उन ग्वाल बालों के बीच परम रूपवती महातेजस्वी एक नारी भी है। सूर्य-सी तेजस्वी नारी को उन्होंने अपने संग स्नान के लिए आमंत्रित किया। नारी और कोई नहीं कृष्णप्रिया राधा थीं। बोलीं-”हम वहाँ कैसे आएँ? वे मुझे जहाँ छोड़ गए हैं, मेरा स्थान वहीं होना चाहिए।” कहते-कहते राधा की आँखें भर आईं। पटरानियाँ भाव हिह्नवल हो गई। स्नान के बाद वे उनसे दूध पीने का आग्रह करने लगीं।”

“ले लो... इसे न ठुकराओ।”

राधा आग्रह टाल नहीं पाईं। चाँदी के पात्र में केसर मिश्रित दूध से भरे ग्लास को पकड़ते हुए उन्होंने मन ही मन कृष्ण को पुकारा-”तुम्हारे बिना जीवन जीने के कारण मैंने आभूषण और कीमती वस्त्रों का त्याग तो कर ही दिया है किन्तु दोबारा ऐसे आग्रह का दिन न दिखाना।” कृष्ण की याद में उनके मुँह से जो आह निकली तो दूध बहुत तेज गर्म हो गया। इधर राधा ने दूध पिया उधर कृष्ण के शरीर पर फफोले उभर आए। बड़ी पीड़ा हुई। यह देख उद्धव रोने लगे।

“किसे बुलाऊँ... वैद्यराज को आते-आते एक घड़ी समय तो लग ही जाएगा।”

“नहीं उद्धव... राधा की आह, विरह की तपन से पड़े हैं ये फफोले। तुम राधा के पास जाओ और विरह की अश्रुधार जिस पल्लू से राधिके पोछ रही है वह पल्लू ले आओ। वही पल्लू इन फफोलों को ठंडक देगा।”

आठ पटरानियों के बावजूद कृष्ण की हृदयेश्वरी केवल राधेरानी थीं।

पन्ना पलटते हुए उसने रुककर बुआ के चेहरे की ओर देखा। आश्चर्य से बिल्कुल गद्गद् भाव लिए रागिनी को निहार रही थीं वे। राधा के प्रति कृष्ण के अलौकिक प्यार की गहराई ने उन्हें आलोड़ित कर डाला था। अलबत्ता सत्यजित अपना चेहरा रूमाल से पोंछ रहा था। इतनी ठंड में पसीना तो आ नहीं सकता फिर!!... क्या सत्यजित अपनी मनोदशा अपने आँसू छुपा रहा था जो अब मुनमुन के लिए बस इशारे भर से छलक आते हैं?

पढ़ना बंद कर रागिनी ने देखा बुआ ने धीरे से पलकें मूँद ली हैं। लगता है वे थक चुकी हैं। उसने थीसिस टेबल पर रख दी और बुआ के बाल सहलाने लगी। पलांश में ही वे गहन निद्रा में डूब गई थीं। रागिनी ने बत्ती बुझाकर नाइट बल्ब जला दिया-”अंकल, आप भी सो जाइए... रात अधिक हो चुकी है।”

“नहीं... ग्यारह ही तो बजे हैं।”

रागिनी मुस्कुराती हुई कमरे से बाहर हो ली।

देर रात तक वह मुनमुन बुआ और सत्यजित के बारे में सोचती रही। ममा और चंडीदास के बारे में सोचती रही। मुनमुन बुआ और सत्यजित ने प्यार भरा लंबा जीवन जिया। ममा और चंडीदास नहीं जी पाए। उनका लघु जीवन मानो अब वह खुद जी रही है। क्या पता कितना? मुनमुन बुआ जैसा दीर्घ शायद या फिर अभी इसी पल कृष्ण बुला लें अपने पास। रात रागिनी ने सपना देखा। एक बहुत बड़ी बावड़ी से लगा पत्थरों से बना विशाल मंदिर है। जिसकी बुर्जियों पर पीतल के कलश हैं और लकड़ी के जड़ाऊ तख्तों से बने काले विशाल दरवाजे हैं। दरवाजे पर मोटी-मोटी साँकलें हैं। दरवाजों के पास लोहे की छड़ों से बना एक जंगला है। जंगले से अंदर की ओर झाँको तो गाढ़ा अंधेरा नजर आता है। जहाँ देवता की प्रतिमा होनी चाहिए वह स्थान खाली है। मंदिर की छतों में अबाबील लटक रहे हैं जो उलटी तितलियों से लटके नजर आते हैं। वे चिक्-चिक्-चिक् की आवाज करते उड़ते हैं। कमरे का चक्कर काटते हैं और फिर यथावत् लटक जाते हैं। बाहर बावड़ी के पानी में सूखे फूल- पत्ते उतरा रहे हैं और उनके बीच चाँद का प्रतिबिंब। अचानक चाँद में ममा नजर आती हैं जो मंदिर की ओर संकेत कर कहती हैं-”वहाँ चंडीदास थे, कहाँ गए?” रागिनी उस खंडहरनुमा मंदिर और पंखों के फड़फड़ाने से और अपनी बीट से सड़ाँध फैलाते अबाबीलो को देखती और बदहवास दौड़ती अपने पिता चंडीदास को तलाशती है कि छपाक्... बावड़ी में चाँद के प्रतिबिंब में झाँकती ममा पानी में समा गई हैं।... और घबराकर रागिनी की नींद खुल गई। उसका सारा शरीर बावजूद ठंड के पसीने से चुहचुहा रहा था। उसने मन ही मन कृष्ण को जपा... यह कैसा स्वप्न है मोहन... भयानक और मन को बिखरा देने वाला। यह क्या मुनमुन बुआ के अंत का प्रतीक है? या ममा की अधूरी आकांक्षाएँ जो वे मुझसे, मेरे द्वारा पूरा कराना चाहती हों... यह गुत्थी जितना सुलझाओ, उलझती ही जाती है।

फिर कई दिनों तक रागिनी बेचैन रही। घुमा-फिराकर वही एक सपना बार-बार देखती। बार-बार भविष्य की दुश्चिंताओं से व्याकुल हो जाती। इस बीच बुआ निस्तेज होती गई। आहिस्ता-आहिस्ता आती मौत की पदचाप उसे साफ सुनाई दे रही थी। जो जिंदा रह जाने वाले लोगों को बेरहमी से मार रही थी। वे जिंदा छूट जाते... मौत के दानवी पंजों से लहूलुहान हो और न जाने कितने वर्षों तक जीने के लिए अभिशप्त थे वे।

दोपहर को जब आसमान साफ था और ढलती धूप नंगे ठूँठे पेड़ों पर उग आई कोपलों को ललछौंहा बन रही थी। मुनमुन को साँस लेने में तकलीफ हुई। सरहद पर तैनात हमेशा सतर्क रहने वाले फौजी की तरह सत्यजित ने तुरंत कार निकाली। रागिनी ने जरूरी सामान का बैग उठाया और पंद्रह मिनिट के अंदर कार अस्पताल के गेट पर। स्ट्रेचर... नर्स... डॉक्टर... अस्पताल का गलियारा भागने लगा। मुनमुन बुआ ने नीम बेहोशी में सत्यजित को पुकारा... “सत्य... बहुत दर्द... सत्य' और वे बेहोश हो गई। सत्यजित की डबडबाई आँखें इंटेंसिव केयर यूनिट के दरवाज़े तक मुनमुन बुआ का पीछा करती रहीं। रागिनी ने आँखें मूँदकर प्रार्थना की... हे ईश्वर... बुआ को राहत दो... एक घंटे का अथक प्रयास कृत्रिम साँस की मशीन हृदय के नजदीक फिट की गई। मुनमुन मशीन पर लिटा दी गईं... सुबह होते-होते वे कोमा में चली गई।

सत्यतिज बच्चों-सा बिलख पड़ा लेकिन रागिनी शांत बनी रही। काया तो आत्मा का घर है... चल देगी दूसरे घर में... वह अजर अमर है... नैनं छिंदति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।

आत्मा के इस निवास स्थान को जितना हो सके कृष्ण नाम से सजा लो, भर लो लबालब... यह भरण ही तो मुक्ति है।

सत्यजित निढाल, कांतिहीन बैठा था जैसे मेले में उसकी कोई महत्वपूर्ण चीज खो गई है और शाम होने लगी है और मेला उठने वाला है।

अस्पताल के गेस्ट हाउस में सत्यजित और रागिनी रुके... आई.सी.यू. में किसी को जाने की आज्ञा तो नहीं है फिर भी सत्यतिज बार-बार वहाँ के चक्कर लगाता रहा। सारा दिन, सारी शाम गुजर गई। रात घिर आई। घड़ी ने बारह के घंटे बजाए-”अंकल, थोड़ा आराम कर लें।”

सत्यजित ने बिस्तर की टेक लेकर भागदौड़ से अकड़े शरीर को ढीला छोड़ दिया-”रागिनी, इस बीमारी में हम एक-दूसरे को बस यही समझाते रहे कि हम दोनों में से किसी एक को अकेला तो होना ही पड़ेगा... जिंदगी का यही तकाजा है।”

“कौन अकेला नहीं है अंकल... पर जिसने कृष्णामृत पी लिया वह खुद को भूल जाता है... लेकिन अंकल, इस हकीकत को हम स्वीकारते तब हैं जब सब कुछ खो देते हैं।”

दीवारों पर कमरे की मद्धिम रोशनी अजीबोगरीब चित्र उकेर रही थी। रागिनी ने बोतल में से पानी उड़ेलकर पिया। घूँट भरते उसके गले को, उसके निर्विकार चेहरे को सत्यजित ठगा-सा देखता रह गया। रागिनी का सर्वांग परिवर्तन के आंदोलन से गुजर रहा था। वह रागिनी जो मथुरा वृंदावन गई थी और यह रागिनी जो सामने खड़ी है, जमीन आसमान का फर्क है दोनों में।

अस्पताल के अहाते में लगे बाँस के झुरमुट पर से हवा साँय-साँस कर गुजरने लगी। कोई कठफोड़वा मौलश्री की डाली पर चोंच से प्रहार कर रहा था... ठक...ठक... ठक... ठक... एक ओर जिंदगी जीने की जद्दोजहद दूसरी ओर विदा होती जिंदगी... सुबह के चार बजे थे। नर्स ने आकर खबर दी कि मुनमुन होश में आई है। दोनों भागे... वे कृत्रिम जीवनदायिनी मशीन पर नीम बेहोश थीं। रागिनी को देख जैसे उनके होठ काँपे... “हाँ बुआ... कहो... कहो बुआ... ।” मुनमुन ने असहनीय विवशता से पहले रागिनी फिर सत्य की ओर देखा... सिर हिलाकर जैसे विदा माँगी... आँखों की कोरों से दो बूँद आँसू चू पड़े। सत्यजित मुनमुन को कलेजे से लगा फफक पड़ा... पर अब कुछ शेष न था। आत्मा काया का घरौंदा त्याग चुकी थी। मुनमुन की अंतिम साँस ने विदा लेते-लेते उन तमाम साँसों को सहमा दिया था जो इस एक दिन के लिए महीनों से अपने को तैयार कर रही थीं। और जब वह एक दिन आया तो तमाम बाकी के दिन झुलस गए। रागिनी सत्यजित को बच्चे-सा लिपटाए धीरे-धीरे आई.सी.यू. के बाहर आकर सोफे पर बैठ गई। सत्यजित जड़ हो उठा था। न आँसू, न सिसकी... बस शून्य में तकती आँखें। वह पानी ले आई “अंकल, सँभालिए खुद को। बुआ तो ईश्वर में समा गईं। सुबह चार बजे... ठीक ब्रह्ममुहूर्त में उन्होंने संसार से विदा ली है। इस बेला के द्वार सीधे मुक्ति की ओर खुलते हैं।”

मातमपुरसी के लिए आए लोगों की भीड़ से सत्यजित और मुनमुन का घर भर चुका था। जबकि सत्यजित ने कहा था-”मातम नहीं मनाएँगे। जब मुनमुन हमारे साथ है तो मातम कैसा? मुनमुन मेरे साथ ही विदा होगी इस संसार से जब तक मैं जिंदा हूँ, वह भी जिंदा है।” यह कैसा भ्रम पाल रहे हैं अंकल... मृत्यु शाश्वत सत्य है उसे स्वीकार क्यों नहीं कर रहे हैं? कौन सँभालेगा इन्हें अब... हे कृष्ण... इनके मन को शांत करो, इन्हें शक्ति दो।

मुनमुन का पार्थिव शरीर उठाकर अर्थी पर लिटाया गया... सत्यजित ने मुनमुन को कफन भी नहीं ओढ़ाने दिया... उसे हीरों के गहनों और सफेद झिलमिलाती, रूपहले बॉर्डर की साड़ी पहनाकर दुल्हन-सा सजाया गया और जो मुनमुन के जीते जी नहीं कर पाया सत्यजित... वह मुनमुन के मरने के बाद हुआ। सत्यजित ने चुटकी भर सिंदूर लेकर मुनमुन की मांग भर दी। कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं... आसपास खड़ी भीड़ पर कोई असर नहीं... या शायद ये सोच रहे हों सब कि अब कुछ भी करो क्या फर्क पड़ता है... माटी शरीर का कैसा विरोध?

चंद दिनों बाद जब रागिनी लंदन के लिए रवाना हुई तो खाली घर में सत्यजित अकेला था।

“अंकल... “

“मेरे लिए दुख न करो रागिनी... मैं मुनमुन की यादों के सहारे जी लूँगा।” सत्यजित ने बहुत शांति से जवाब दिया। ऐसी शांति जो दिल को दहला दे। जो तेजी से यह एहसास कराए कि अब कहीं कुछ नहीं बचा सिवाय एक बड़े शून्य के। सत्यजित को उस शून्य ने निगल लिया है... अब उसका निकलना मुश्किल है। वक्त मानो थमकर रह गया है।

रागिनी प्लेन में बैठी तो पूर्णतया कृष्ण को अर्पित हो चुकी थी। उसका मन संसार से विरक्त हो चुका था लेकिन कृष्ण कर्म से विरक्त नहीं होने दे रहे थे। यही तो खासियत है इस लीलामय मोहन में। जैसे कीचड़ में खिला कमल जो खिलता तो कीच में है पर उसकी एक बूँद भी अपने फूल पत्तों और डंडियों पर नहीं लगने देता। मोहन यही तो कहते हैं कि संसार में रहकर भी लिप्त मत हो उसमें।

डायना विला रागिनी के वहाँ पहुँचते ही आगंतुकों की भीड़ से रोज-ब-रोज भरने लगा। जो भी सुनता दौड़ा चला आता। मातमपुरसी करने वालों के बीच काले कपड़ों में रागिनी मौन बैठी रहती। उसने हॉल में मुनमुन बुआ की वही अंतिम अवस्था में खिंचवाई फोटो रख दी थी जिसके सामने दीपक जलता रहता। रति ने मोमबत्ती जलाने की बात की थी तो रागिनी ने मना कर दिया था। जिंदगी भर जिन परंपराओं में व्यक्ति जीता है मृत्यु के बाद उसे कायम रखना चाहिए। यही उसूल है। यही तो चिरंतन भूख है इन्सान की। प्रेम और शांति... साँसे हैं तो प्रेम... साँसें शेष तो शांति... दिवंगत हुए व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए किए गए अनुष्ठान से मानो व्यक्ति अपनी खुद की शांति पा लेता है।

धीरे-धीरे जब रात ने दस्तक देनी शुरू की... जब हवाओं ने ठंडे-ठंडे झोंके लुटाने शुरू किए तब रागिनी से विदा ले मेहमान लौट चले। डिनर लेने का मन नहीं था रागिनी का। उसका मन भी रात की तरह भीगता चला जा रहा था पर यह रति के साथ ज्यादती होगी सोचकर उसने मुँह जुठार लिया। डिनर के दौरान रति चहकती रही और रागिनी की अनुपस्थिति की ढेर सारी बातें उसे बताती रही। आज की रात रति अपनी ममा के गले में बाहें डाल बिल्कुल चिड़िया-सी दुबकी सोती रही।

वसीयत लिखी जा चुकी थी। रागिनी ने अपने नाम बस उतना ही धन रखा था जितना हर महीने विभिन्न संस्थाओं को दान में जाता था। इनमें दो संस्थाएँ और जुड़ गई थीं मथुरा में इस्कॉन और वृंदावन में गीता आश्रम ट्रस्ट। वृंदावन में जिंदगी गुजारने के लिए उसे जितने धन की जरूरत थी उसके नाम के धन में यह जरूरत भी शामिल थी। बाकी उसने डायना वेलफेयर ट्रस्ट के नाम फिक्स कर दिया जिसके ब्याज से ट्रस्ट अपने लक्ष्य को अंजाम देगा। देश-विदेश में स्थापित तमाम कंपनियाँ, फार्महाउस, बंगले, चल-अचल सारी संपत्ति, कीमती जेवरात उसने अपनी अठारह वर्षीय बेटी रति के नाम कर दी थी लेकिन इस पर उसका पूर्ण अधिकार तभी होगा जब वह पढ़-लिख कर कंपनी के मालिक की कुर्सी पर बैठने के काबिल हो जाएगी। तब तक उसे उसकी पढ़ाई और खुद के खर्च का रुपया मासिक मिलता रहेगा। ट्वायला और रिचर्ड उसकी देखभाल करेंगे और हर समय उसके साथ रहेगी उसकी अंगरक्षक मार्था जो पैंतीस वर्षीया निःसंतान विधवा है और जिसके हृदय में ममता का सागर हिलोरें मारता रहता है।

सच हैं इंसान सोचता कुछ है हो कुछ और जाता है। क्या कभी डायना के पिता ने सोचा होगा कि जिस संपत्ति की अकेली वारिस उनकी बेटी डायना है वही संपत्ति उसे टॉम से दूर कर देगी? इसी धन की चाह में टॉम ने डायना के वियोग के डर से चंडीदास के खून से अपने हाथ रंगे और वह सड़-सड़ कर मरा। न यह धन उनके वंशज भोग पाए न वे खुद। सारा का सारा साम्राज्य यूँ दान में समर्पित हुआ। इसीलिए यह सब धन श्रीकृष्ण को अर्पण... श्रीकृष्ण शरणम् मम। मैं कृष्ण की हुई।

न अब दीना है न जॉर्ज जिन्होंने उसे गोद में खिलाया, घुटनों के बल चलते देखा। दूध के दाँत निकलते देखा। उसके किलकारी भरने पर दीना भी हँसी होगी और उसके रोने पर रोई होगी। जॉर्ज को जितनी पीड़ा जितना आघात उससे मिला वह कर्ज तो वह कयामत तक नहीं चुका पाएगी। मुनमुन बुआ ने नेपथ्य में रहकर उसे एक सुदृढ़ व्यक्तित्व दिया, कर्तव्य-बोध कराया, प्यार के मायने सिखाए... इन सबकी कर्जदार है वह। वह तो सत्यजित की भी कर्जदार है जिसने उसकी प्यारी मुनमुन बुआ को बिना किसी रिश्ते के बिना किसी सामाजिक बंधन के असीमित प्यार दिया, साथ निभाया... और अब यह रति... लगातार चौदह वर्ष तक जिसके सान्निध्य में उसने जीवन के अर्थ समझे। खुद को प्यार करना सीखा और दुनिया को प्यार की नजर से देखा। देह को भूलना सीखा और ये माना कि देह से ज्यादा दुरूह मन के रास्ते हैं। तो इस मन को लगा दिया कृष्ण के चरणों में और उनके चरणों के नूपुरों से उठी रुनझुन साध को मन के भीतर उतार लिया। “हे गोपियों... मुझे भी अपने संग रखो ताकि श्रीकृष्ण के लिए मैं भी जीना सीख लूँ।”

“मॉम... तो तुमने फाइनली वृंदावन में सैटिल होने का सोच लिया? रति ने पीछे से आकर रागिनी के गले में बाँह डाल दीं। एक दिन इसी तरह दीना के इंडिया वापिस लौट जाने और हमेशा के लिए लंदन छोड़ देने की बात पर उसने सवाल किया था। दीना में उसके प्रति मोह था, वह रुक गई थी लेकिन रागिनी नहीं रुक सकेगी। वह जिंदगी का सार समझ चुकी है। अब दुनियावी नाते-रिश्ते, माया-मोह आकर्षित नहीं करते। यह सब कुछ बुलबुलों की तरह आकर्षक लेकिन पल में टूट जाने वाला है। सबको खोकर रागिनी ने सीख लिया है कि सच क्या है? उसने दुनिया देख ली है। लुभावनी, आकर्षक, जादूभरी लेकिन उसकी तह में है जीवन का कड़वा सच... रोग, भुखमरी, आतंक, अपमान, जलालत और इन सबसे छुटकारा सिर्फ कृष्ण दिला सकते हैं। वे तो कहते हैं, खुद को ही कृष्ण समझो। न ये दुनिया है, न धरती, न आकाश, न नाते-रिश्ते, न दीन-धर्म अगर कुछ है तो सिर्फ मैं... मैं ही कृष्ण... मैं ही राधा।”

लंदन छूट रहा है... उसका अपना लंदन, ममा का लंदन और वह जा रही है पिता के देश... पितृनगरी... क्या उसके चले जाने से यहाँ कुछ बदल जाएगा? क्या मौसम अपना गणित भूल जाएगा? क्या नदियाँ, समंदर रास्ते बदल देंगे? पर इन सबसे ऊपर कृष्ण हैं... कृष्ण उसे आवाज दे रहे हैं। वह देख रही है, महसूस कर रही है एक सिहरा देने वाली आवाज... हाँ, इस आवाज से मौसम का गणित डगमगा सकता है। इस आवाज से तमाम बहते पानियों की लहरें अपना रास्ता भूल सकी हैं। इस आवाज से चिनार और चीड़ के दरख्त टुकड़े-टुकड़े हो सकते हैं। वीराने काँप कर पुकार सकते हैं... त्राहि माम-त्राहि माम... इस विराटता में समा जाना चाहती है रागिनी। नहीं याद करना चाहती अपना अतीत... याद करने के प्रयत्न में यादों के मनके बिखर जाते हैं और हर मनका कृष्ण हो उठता है। उसके कानों में कोई फुसफुसाता है... हारो मत रागिनी... हर व्यक्ति को अपना-अपना कुरुक्षेत्र स्वयं लड़ना पड़ता है। अपनों के बीच मन के अंदर ही महाभारत होता रहता है। और फिर दुनिया धन, ऐश्वर्य, भौतिक सुखों से ऊबकर बाहरी दिखावा गौण लगने लगता है और अंतर्गमन की अवस्था आती है। यह अवस्था मार्ग सुझा देती है कि अपना सब कुछ कृष्णार्पण करते चलो। अच्छा-बुरा, हँसी-आँसू, हानि-लाभ, शोक-खुशी... सब कुछ कृष्ण को अर्पण करो।

रागिनी ने आँखें मूँद लीं और विराट सुख में तल्लीन हो गई।

आखिर वह दिन भी आ पहुँचा जब रागिनी हमेशा के लिए लंदन छोड़कर वृंदावन जाने वाली थी। अपनी मॉम के इस फैसले से चकित है रति। उसने कई रातें इसी सोच में जाग कर बिताई कि आखिर मॉम क्यों उससे दूर जाना चाहती हैं। वह क्यों कर अकेली रहे? वह क्यों इस भाँय-भाँय करते डायना विला में बस अपने ही साये को नजदीक पाए? खिड़कियों के पल्ले तेज हवाओं में खड़खड़ाते मानो यही सवाल दोहराए जा रहे हैं। तमाम कमरों के परदे हवा में फड़फड़ाते, डोलते यही सवाल दोहराए जा रहे हैं। मार्था की नजरों से वह बचती फिर रही है। उसकी नजरों में भी तो यही सवाल मंडरा रहा है। कितनी दफे वह चर्च जाकर प्रार्थना कर चुकी है-"हे प्रभु, मेरी मॉम को जाने से रोक लो।" किंतु वहाँ भी मोमबत्तियों की लौ जैसे मॉम के फैसले की रजामंदी में ही थरथरा रही हैं। सब कुछ मेरे विपरीत क्यों हो रहा है? सोचा था रति ने “क्योंकि तुम डरपोक हो तुम खुद को मॉम के बिना असुरक्षित महसूस करती हो, तुम्हें लगता है कि उनके जाते ही दुनिया बदल जाएगी... आखिर इस कमजोर सोच की वजह? क्या मॉम का बेतहाशा दुलार, प्यार और अब एकाएक सारे बंधनों को तोड़ डालने की उनकी अपनी जिद्द!!”

'डायना विला' में निस्तब्धता छाई थी जिसे बाहर हो रही बारिश की अनवरत लय और पत्तों की सरसराहट तोड़ रही है। रागिनी का सामान कार में लादने के लिए बरामदे में रखने का क्रम जारी है। कमरे में सब रागिनी को घेरे खड़े हैं तमाम नौकर-चाकर, बहुत करीब मार्था और एकदम करीब रति।

“मेरे लिए दुख न करो क्योंकि ईश्वर का यही आदेश है।”

रति रागिनी के कंधे पर सिर रखकर बिलख उठी।

“अरे पगली, मैं जा कहाँ रही हूँ। मैं तो तुम सबके बीच हूँ, रहूँगी। जब भी तुमको मेरी जरूरत होगी, मुझको अपने नजदीक ही पाओगी। एक बात याद रखो। सब कुछ समाप्त हो जाता है अगर हम अपनी स्मृतियों से उस सब कुछ को पोछ दें तो... उन स्मृतियों में तो मैं हूँ न।”

रति की समझ में कुछ नहीं आया। हाँ, यह जरूर हुआ कि रागिनी के कृष्ण ने बारिश रोक दी। रागिनी के लिए एयरपोर्ट जाना आसान हो गया।

अंतिम विदाई में हिलते हाथों को देर तक मन में उतारती रही रागिनी। फ्लाइट की घोषणा के साथ ही उसने काँच का दरवाजा पार किया और फिर मुड़कर नहीं देखा।

रति खुद में सिमटी, अपनी मॉम की विदा होती आकृति को निहारती, अनेक अनुत्तरित सवालों को लिए खड़ी की खड़ी रह गई। रागिनी के लिए अब सब कुछ बेमानी था।