टेम्स की सरगम / भाग 12 / संतोष श्रीवास्तव
मूसलाधार बारिश हो रही थी। वृंदावन की गलियाँ सड़कें, वृक्ष सब पानी के झीने आवरण से ढक गए थे। रागिनी का कमरा बदल गया था। अब उसे एकदम छोर पर बने कमरे में रहना था जहाँ की खिड़की बगीचे की ओर खुलती थी। तेज बारिश और हवा में लहराते परदे ने रागिनी का बिस्तर भिगो डाला। वह एक पल के लिए खुली खिड़की की चौखट पकड़े बौछारों का मजा लेती रही फिर खिड़की बंद कर दी। जब से रागिनी वृंदावन आई है गीता आश्रम का प्रबंधन विभाग स्वामीजी से ये प्रार्थना कर रहा है कि वे रागिनी को प्रबंधन विभाग का सचिव बना दें पर रागिनी लगातार इन्कार कर रही है। वह किसी भी ऐसे झमेले में नहीं पड़ना चाहती जो उसके शांत मन को तनावग्रस्त कर दे। आश्चर्य तो इस बात का है कि उसे अब कुछ भी नहीं सालता। बीती बातें न तो उसे याद आती हैं। न कचोटती हैं। कृष्ण ने सब पर जैसे राहत का मलहम चुपड़ दिया। अब वह अपना सारा समय मोटे-मोटे धर्मग्रंथों, दर्शन की पुस्तकों के अध्ययन-मनन में ही बिता देती है। फिर आश्रम की अपनी तरह की विशेष दिनचर्या है जिसमें वह आश्रमवासियों की तरह ही पग गई है।
लंदन से भारत आकर कुछ दिन वृंदावन में गुजार कर वह लगातार दो महीनों तक भारत भ्रमण करती रही। सारे तीर्थ, ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की यात्रा ने उसमें जैसे नवजीवन का संचार कर दिया। भारतीय संस्कृति ने उसे भीतर तक आंदोलित कर डाला जहाँ पहुंचकर यह जीवन मात्र प्रभु का दिया उपहार प्रतीत होता है। इस उपहार के बदले वह क्या देगी? क्या देने का माद्दा रखती है? नहीं, इतना शऊर कहाँ... इतनी हिम्मत कहाँ... तो बस अपने आप को कृष्ण में ही रचा-बसा लो। जीवन में एकाकार कर लो उन्हें। यह बीज मंत्र लिए वह भारत का चप्पा-चप्पा घूम आई।
शाम घिरते ही अक्सर यमुना किनारे चली जाती है वह। कृष्ण का प्रिय कदंब फूला है। पीले-पीले गेंद से लटकते फूल। जिनकी सुगंध दूर-दूर तक हवा में समाई है। मादक सुगंध में बरसाती कीट पतंग तक मतवाले हो उठे हैं फिर मनुष्यों के लिए तो यह ऋतु ही श्रृंगार रस से पूर्ण मानी जाती है। यमुना का जल स्तर बढ़ गया है और बढ़ गई है रागिनी के चिंतन की धार भी। तीखी, प्रखर... वह जितना चिंतन करती है अर्थ उतने ही गूढ़ होते जाते हैं।
नन्हें बच्चों की खिलखिलाहट से यमुना का किनारा भीग गया। छोटे-छोटे ग्वाल बालों का झुंड कदंब के खट्टे-मीठे फलों को बटोरकर मुँह में भरता जा रहा है। कोई किसी से आगे बढ़कर झपटकर फल उठाता है तो दूसरा फल छीनने के चक्कर में अपने हाथ लगे फलों से भी हाथ धो बैठता है। थोड़ी देर तक रागिनी उन्हें देखती रही। उसे उनके इस खेल में बड़ा मजा आया। उनमें से एक नटखट बच्चा उसकी तरफ दौड़ता आया और हथेली में दबा फल उसे देते हुए बोला-”खाएँगी?”
रागिनी हँस पड़ी। उसने फल लेकर मुँह में रखा और चबाते हुए बोली-”हूँऽऽ... मजेदार है।”
“हमाई अम्मा जा को साग भी पकाती है।”
“अच्छा... तुम्हें पसंद है?”
“भौत।” लड़के ने कुलाटी मारते हुए रागिनी को करतब-सा दिखाया तब तक और भी बच्चे आ गए थे। फिर तो होड़-सी लग गई उनमें। पल भर में ही रागिनी के सामने कदंब के फलों का ढेर लग गया। संध्या आरती का वक्त हो चला था। रागिनी ने तमाम फलों को अपने रूमाल में बाँधकर उसी लड़के को थमा दिया जिसने उसे सबसे पहले फल लाकर दिया था।
“लो अपनी अम्मा से मेरे लिए साग बनवाकर लाना। मैं कल यहीं मिलूँगी तुम्हें।”
दूर से माइक आता दिखा। केशरिया धोती, कुरता, माथे पर त्रिपुंड दाहिना हाथ रेशमी बटुए में कृष्ण-कृष्ण जपता हुआ।
“अरे माइक... तुम मथुरा से कब आए?”
“आज ही... हम तो मथुरा वृंदावन दोनों जगह रहते हैं। रागिनी तुमने इस्कॉन अपनाकर बहुत अच्छा किया... यह संसार मिथ्या है। जितनी जल्दी कृष्ण की शरण मिले, उतना अच्छा।”
बच्चों ने रागिनी सहित माइक को भी घेर लिया था।
“अरे! तुम कहाँ इनके चुंगल में आ गई? ये बड़े नटखट हैं।”
“नटखट तो होंगे ही, कृष्ण सखा हैं।” रागिनी ने बारी-बारी से सभी के गालों को छूकर प्यार किया। वे हँसते खिलखिलाते धमाचौकड़ी मचाते चले गए।
साए सिमटने लगे थे। सूर्यास्त को हौले से धकेलकर दिन को कुछ बड़ा करने की आकांक्षा लिए रागिनी ने यमुना के किनारे पर आँखें टिका दीं। बरसाने गाँव को छूते उस दूसरे किनारे को अनुराग के सुनहले रंग में रंगता हुआ सूरज यमुना में हौले से समा गया। सिहर उठी यमुना... सिहर उठा जल का कण-कण। जल की लहरों पर तैरती पनडुब्बियों ने पँख फड़फड़ाए... कहाँ हो राधेरानी... कृष्ण की बाँसुरी टेरने लगी।
रागिनी और माइक आरती में शामिल होने के लिए मंदिर की ओर तेजी से कदम बढ़ा रहे थे। अचानक क्षितिज पर बिजली-सी कौंधी। एक घना काला बादल न जाने कहाँ से भटककर आ गया था। रह-रह कर उसमें बिजली कौंध रही थी। अचानक हवा तेज चलने लगी। भीगी हवा ने बरसात का एहसास जो कराया तो दोनों के कदमों में भी और अधिक तेजी आ गई। गेट तक पहुँचते-पहुँचते बूँदा-बाँदी शुरू हो गई थी। रागिनी के बालों पर अटकी बूँदें हीरे की कनी-सी चमक रही थी।
आरती शुरू हो चुकी थी। ढोल, मजीरे बज रहे थे और केशरिया वस्त्रों में कृष्ण भक्त मतवाले थे। आरती की लौ बादलों में चमकती बिजली को मानो लजा रही थी। फिर घनघोर बारिश शुरू हो गई। ठंडी, तेज हवाओं ने रागिनी के मन को छू-सा लिया। वह मंदिर के खंभे से टिककर बैठ गई और मुठ्ठी में दबा कृष्णप्रसाद खाने लगी।
आश्रम में स्वामीजी का प्रवचन चल रहा था-”अपने पिता वेदव्यास को जब सदैव के लिए त्यागकर पुत्र शुकदेव चले गए तो व्यासजी हाथ जोड़े उनके पीछे-पीछे दौड़े... लौट आओ पुत्र हमारी व्याकुल पुकार को सुनो, हमें त्यागो मत। लेकिन शुकदेव कहाँ सुनने वाले थे उन्होंने पलटकर देखा तक नहीं। पिता की पुकार सुनना तो दूर की बात है। तब आम के वृक्षों ने वेदव्यास की पीड़ा देख उन्हें समझाया कि आप तो त्रिकालदर्शी हैं, जानते हैं शुकदेव अब कभी नहीं लौटेंगे। पुत्र वियोग से मुक्ति पाने के लिए ही वेदव्यास ने श्रीमद्भागवत की रचना की। वह कौन-सा ग्रंथ लिखे? क्या लेखन से बिछुड़ गए लोगों की स्मृतियाँ धूमिल हो सकती हैं? क्या उसे भी कलम थामनी पड़ेगी? क्या ये संभव है?... क्यों अपने शून्य हो चुके मन में मोह जगा रही है वह?... शून्य में कभी कुछ नहीं होता... होने की गुंजाइश भी नहीं।”
यमुना के किनारे छोड़कर वह घास के मैदानों में घास चरती गायों की ओर आई। गायों के गले की घंटियाँ इतनी मधुर बज रही थीं कि पलांश उसे ठहर जाना पड़ा। अगले ही पल वह पगडंडी में उतर गई। घास की चरी जाती टूटती पत्तियाँ भीनी सुगंध फैला रही थीं। एक बड़ी-सी चट्टान पर वह बैठ गई... मन फिर भटकने लगा। कितना कुछ छोड़ आई है। कृष्ण ने उसे समृद्धि देने में कंजूसी नहीं की। पर जीवनसाथी नहीं दिया। कन्हैया... तुम तो इतनी पटरानियों, रानियों और गोपियों से घिरे रहते हो? तुम कैसे मेरा दर्द समझ सकते हो? तुम सचमुच छलिया हो।
पैरों में पहनी जयपुरी मोजड़ियों पर कुछ रेंगा। उसने देखा दो तीन बीर-बहूटियाँ मोजड़ियों पर टँके मोतियों पर अटकी थी। उसने उन्हें आहिस्ता से झटक दिया। चट्टान ठंडी हो चली थी, अंधकार बढ़ने ही वाला था। उसने बाँहें पसार कर जैसे समस्त सृष्टि को बाँहों में भर लिया। धरती, आकाश, पाताल... हवाएँ, मौसम ओले, बर्फ, मूसलाधार बारिश, कड़कती बिजलियाँ, घटाटोप अंधकार... सब कुछ को बाँहों में भरा महसूस किया... कि जैसे अचानक हलकी हो उठी रागिनी। हवा में तैरने के लायक हलकी और विकार रहित... न हार न जीत... न घाव, न चोट, न खून, न वेदना... मैं हूँ ही नहीं... तो वेदना कैसी... मैं कृष्ण में समा गई हूँ... अब कुछ नहीं दिखता सिवा कृष्ण के... अब तो बेलि फैल गई कहा करे कोई...
चट्टान से उठकर वह गीताश्रम की ओर चल पडी। संकरी पगडंडी पर उसके कदम कृष्ण के कदमों के पीछे-पीछे चलने लगे। पगडंडी के दोनों ओर उगी घास के बीच-बीच में पीले, बैंगनी फूल सिर उठाए उसके रास्ते में बिछ-बिछ गए। पेड़ों की डालियाँ झुक-झुक आईं। घोसलों में परिंदे पंख फड़फड़ाते चहचहाने लगे। टिटहरी टि..टि..ह..टि..टि..ह का राग छेड़ने लगी। प्रकृति ने संकेत दे दिया, अब तुम निर्विकार हो रागिनी। अब तुम ईश्वर में हो, ईश्वर तुममें हैं... डाली-डाली बोल उठी, मुरली संग डोल उठी... बावरा हुआ जहान... ऐसी प्रीत जाग उठी।
स्वामीजी ने उसे पास बुलाया। चुंबकीय सम्मोहन से मानो खिंची जा रही है रागिनी। स्वामीजी की चमकती आँखें, चमकता त्रिपुंडयुक्त ललाट, चौड़े नंगे सीने पर जनेऊ और रुद्राक्ष की मालाएँ... केशरिया धोती, पैरों में खड़ाऊँ। उसने सिर झुकाया... खुद भी झुकी। उसकी गुलाबी लंबी, कोमल उँगलियाँ स्वामीजी का चरण स्पर्श कर रही हैं। आज उसने भी केशरिया साड़ी, केशरिया ब्लाउज और गले में रुद्राक्ष की माला पहनी है। बालों की चोटी गूँथी है। संगमरमर-सा गोरा बदन और काली आँखें... उसके रूप से आश्रम चमक उठा है। स्वामीजी ने चंदन की कटोरी उसकी ओर बढ़ाई है-”माथा चंदन चर्चित कर लो साध्वी... आज से तुम रागिनी नहीं रुक्मिणी हो। साध्वी रुक्मिणी... “
“रुक्मिणी।” रागिनी के होठ काँपे। कहना चाहा... रुक्मिणी तो कृष्ण की पटरानी थी... मैं तो राधा हूँ स्वामीजी... राधा जो कृष्ण की छाया से जन्मी है। मेरा ऐसा कायाकल्प!! रुक्मिणी के रूप में एक नया जन्म, पुनर्जन्म... मिट गई रागिनी... कृष्ण को अर्पित कर दिया स्वामीजी ने उसे। प्रागंण में बैठे, हॉल में बैठे तमाम कृष्णभक्तों ने एक स्वर में उसके रुक्मिणी नाम का अनुमोदन किया। रागिनी के रोम-रोम से लहर उठी... दूर तलक बस कृष्ण ही कृष्ण थे... हर चेहरा कृष्ण का... हर आँख कृष्ण की... हर होठ कृष्ण के, हर चेष्टा कृष्ण की। उसने थरथराती उँगली चंदन से भरी लकड़ी की कटोरी में डुबो दी। डूबी हुई उँगली को माथे पर ले जाकर वह आड़ी तिरछी रेखाएँ बनाने लगी, बना नहीं पाई। स्वामीजी ने स्वयं उसके हाथ से कटोरी लेकर उसके माथे पर चंदन का तिलक लगा दिया। तिलक लगाते हुए उन्होंने श्लोक बोलते हुए उसके सिर पर हाथ रखा। उसके मन की जमुना हिलोरें लेने लगी। नटखट कृष्ण चंद्र की भांति उसके मन की लहरों को अपनी तरफ खींच रहे थे। तभी तो वह लंदन से प्रयाग और प्रयाग से वृंदावन तक खिंची चली आई है। जैसे हजारों किलोमीटर दूर साइबेरिया में अंडों से फूटे पक्षी भरतपुर तक उड़े चले आते हैं। हर साल... हर बसंत में... इसी ऋतु में... यह कैसी अंतःप्रेरणा है स्वामीजी?
“लतिका, साध्वी रुक्मिणी का चित्त व्याकुल है, इन्हें विश्राम के लिए ले जाओ।”
रुक्मिणी के रूप में सचमुच व्याकुल थी रागिनी। उसका अतीत ध्वस्त हो चुका था... दीवारें ढह गई थीं। वह मलबे में दब चुकी थी कि बचाव दल के रूप में कृष्ण ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया। उस हाथ में बांसुरी थी पूरे जगत को मोहित कर लेने वाली लेकिन राधा के आगे बेबस... राधा की जब इच्छा होती बाँसुरी छुपा देती। कन्हैया कितनी चिरौरी करते राधा की बांसुरी पाने के लिए। राधा को मनाते, फूलों से उनका श्रृंगार करते... अपनी गोद में रख उनके तलुओं को सहलाते... इतनी चाहत के बावजूद एक बार जो बिछड़े वे राधा से, तो फिर कभी नहीं मिले। यह कैसा प्यार था जो मर्यादाओं में सिमटा रहा। तोड़ नहीं पाया कोई दीवार... जबकि जन-जन जान गया था उनका प्यार। कुछ भी नहीं छिपा था किसी से। फिर किन बंधनों में बंधे रहे वे दोनों जो जिंदगी भर मिल नहीं पाए और इस वियोग से क्या संदेश दिया उन्होंने संसार को? राधा से बिछुड़कर कृष्ण कर्मयुद्ध में कूद पड़े। फिर बाँसुरी कैसे बजाते? कर्म और प्रेम... जिंदगी की नदी के दो किनारे... ऐसे किनारे जिनके बिना जिंदगी की नदी बह भी नहीं सकती लेकिन जो कभी मिल भी नहीं सकते।
रागिनी आठों प्रहर कृष्णचिंतन में लीन है। गीताश्रम का पुस्तकालय गीताप्रेस गोरखपुर और कृष्णसाहित्य से ठसाठस भरा है। उसी में रागिनी की थीसिस भी किताब रूप में मौजूद है। चिंतन, मनन और पाठ... रागिनी की दिनचर्या इसी में सिमट कर रह गई। उसने बाँसुरी बजानी भी सीख ली है और भजन गाना भी। संध्या होते ही वह मौलश्री के वृक्ष से टिकी बाँसुरी बजाती रहती है। केशरिया साड़ी और रुद्राक्ष की माला अब उसका पहनावा है। स्वामीजी कहते हैं रुक्मणी कृष्णमय हो गई।
यह पटाक्षेप है या अंतिम दृश्य की शुरुआत?