टेम्स की सरगम / भाग 4 / संतोष श्रीवास्तव
देश में तेजी से अंग्रेजों के खिलाफ अभियान जन्म ले रहे थे। अगस्त 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन ने देशव्यापी स्वरूप ले लिया था। विद्यार्थियों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। लेकिन अंग्रेज पुलिस यह नही देख रही थी कि कौन विद्यार्थी है और कौन नेता... वह सबको गोली से भूने डाल रही थी... इधर बंगाल सूखे की चपेट में था। खेत-खलिहान बंजर पड़े थे। किसानों की आँखें शून्य में ताक रही थीं... उनके चूल्हे ठंडे पड़े थे... भूख से जूझने की समस्या मुँह बाए थी। धीरे-धीरे बंगाल के इस भयानक अकाल में लोग भूख से तड़पते-मरने लगे। यमराज की सेना पुलिस की गोली और भूख की शक्ल में लोगों को निगल रही थी।
डायना और नादिरा इसी समस्या पर विचार कर रही थीं कि तभी चंडीदास आया। गुनगुन की मृत्यु हुए डेढ़ वर्ष बीत गए थे पर अभी तक उसके परिवार से शोक की काली छाया हटी नहीं थी। सब जैसे भीतर ही भीतर घुल रहे थे। एक-दूसरे से बस काम की बात करते और खामोश हो जाते। चंडीदास भी ज्यादातर खामोश ही रहता और शोक गीतों को कंपोज किया करता। मानो शोक उस हँसते-खेलते परिवार में अमरबेल की तरह छा गया था। अमरबेल जिसकी जड़ें नहीं होतीं पर वह जिस पर छा जाती है उसे चूस-चूसकर खोखला कर देती है।
“आओ चंडी... कैसे हो?” डायना ने उससे हाथ मिलाया।
“हलो नादिरा जी... लगता है किसी खास विषय पर बहस चल रही है?” चंडीदास ने सोफे पर बैठते हुए कहा।
“हम बंगाल के अकाल के बारे में चर्चा कर रहे थे।” नादिरा ने तुरंत जवाब दिया।
“कयामत आई है बंगाल पर। अब तक लाखों इंसान भूख से मर चुके हैं।” और अंग्रेज सरकार खामोशी से मौत का तांडव देख रही है। चंडीदास की आवाज में दर्द ही दर्द था।
नादिरा जैसे भरी बैठी थी-”माफी चाहती हूँ डायना पर मुझे यह कहने में जरा भी खौफ नहीं कि अंग्रेज सरकार चाहती है कि भारत की दशा और बिगड़े, वे और असहाय हो जाएँ, भूखे मरें ताकि उनमें लड़ने की ताकत न हो पर वह यह नहीं जानती कि अब तो आजादी का शंखनाद हो चुका है। अब तो अंग्रेजों को भारत छोड़ना ही होगा।”
“नादिरा, तुम शायद नहीं जानतीं कि मैंने भारतीयता स्वीकार कर ली है। मैं भारतीय हूँ और चाहती हूँ मेरा देश जल्दी से आजाद हो जाए।” डायना ने गर्व से कहा।
डायना के इस वाक्य से जहाँ एक ओर चंडीदास आत्मविभोर हो अपनी प्रिया को निहार रहा था। वहीं नादिरा की आँखें विस्मय से फैलकर डायना को देखने लगीं-”या अल्लाह, ये आप क्या कह रही हैं? क्या सच? क्या आपकी इस बात से मिस्टर ब्लेयर सहमत हैं?”
“नहीं... वे अंग्रेज तो हैं ही पर साथ ही उन्हें हुकूमत करने में मजा आता है। यह अधिकार उन्हें इंग्लैंड में तो मिलेगा नहीं।” डायना ने कड़वाहट से कहा।
“खैर छोड़ो ये बातें... ..हमें देखना ये है कि हम भूख से मरते लोगों के लिए क्या कर सकते हैं। मैं सीधा घोषाल बाबू के घर से ही आ रहा हूँ।”
“ये घोषाल बाबू सुकांत के पिता हैं न।”
“हाँ... सुकांत की मृत्यु के बाद से वे सक्रिय हो उठे हैं। उनके घर में सुकांत के कॉलेज के तमाम विद्यार्थी जमा हुए थे। और भी कई पार्टियों के लोग भी इकट्ठा हुए थे... .घोषाल बाबू तो एक तरह से तमाम पार्टियों और विद्यार्थी संगठनों के नेता ही माने जाने लगे हैं... उन्हीं ने सबको निर्देश दिया है कि जो जिस ढंग से चंदा इकट्ठा कर सकता है करे... “
“जितना बोलोगी दूँगी।”
“मैं भी।” नादिरा ने डायना की हाँ में हाँ मिलाई।
“नहीं भाई... पर्सनल जो देना हो देती रहना... अभी तो ये सोचो कि कैसे अधिक से अधिक चंदा इकट्ठा किया जाए। मैं संगीत का कार्यक्रम करना चाहता हूँ... संगीत के साथ नाटक भी, हो सका तो चित्रकला प्रदर्शनी भी रिलीफ फंड के नाम पर यदि पेंटिंग्स बेची जाएँ तो कलकत्ता का धनाढ्य वर्ग ऊँची कीमत देगा। इस काम में मुझे आप लोगों का सहयोग चाहिए।”
“लेकिन इतनी जल्दी प्रदर्शनी के लिए पेंटिंग्स बनाओगे कैसे?”
“मैंने प्रेम दीवाने नाम से एक पूरी चित्रमाला तैयार की है। हीर राँझा, सोहनी महिवाल, सस्सी पुन्नू, रोमियो जूलिएट, लैला मजनूँ... बस आखिरी टच देना पड़ेगा।”
“बड़े रोमांटिक होते हैं ये बंगाली।” नादिरा ने कटाक्ष किया। चंडीदास कब पीछे रहने वाला था।
“ईश्वर ने कश्मीरियों को सुंदरता दी है तो हम बंगालियों को प्रेम... तभी तो संतुलन बनता है।”
जाहिर है नादिरा काश्मीरी मुसलमान थी। चंडीदास की बात पर वह ठहाका मारकर हँसी।
“मैं आपके रिलीफ फंड में क्या भागीदारी करूँ... न मुझे गीत लिखना आता है, न गाना... न ही चित्रकारी... “
“आप प्रेरणा बनकर हमारे साथ रहना। हमारे लिए वही बहुत है।”
सूरज जब कचनारों के पीछे छुपकर लॉन की पीले रंग से पुती दीवार पर क्रोशिए की जाली बुनने लगा... डायना के घर की सभा बर्खास्त हुई। तय हुआ... .तीन चार दिन बाद नाटक तय कर आपस में मिलेंगे और पात्रों का चुनाव करेंगे। डायना शास्त्रीय संगीत का गायन स्टेज करेगी मुनमुन के साथ... ..।
नंदलाल, सत्यजित और विद्यार्थियों का एक युवा दल जिसमें करीब पंद्रह-बीस लड़के लड़कियाँ थे, नाटक के चुनाव में जुट गए। पिछली बार चंडीदास ने बंगाली साहित्य से नृत्यनाटिका का मंचन किया था लेकिन अब पारसी थियेटर की लहर बंबई से बहती हुई यहाँ तक आ पहुँची थी। पारसी थियेटर कम्पनियों के कई नाटक चंडीदास देख चुका था। रूस्तम-सोहराब का तो एक दृश्य अभी तक जेहन में तरोताजा है। शाह समनगान का दरबार लगा था, नर्तकियाँ नृत्य कर रही थीं... साजिंदे वाद्य बजा रहे थे। वजीर अदब से बादशाह के सामने शराब का प्याला पेश कर रहा था, ठीक उसी वक्त के मनोभावों को अलग-अलग ढंग से जिस तरह कलाकारों ने पेश किया वह चंडीदास कभी नहीं भुला पाता। खासकर नर्तकियों का सहमकर नृत्य बंद करना और अपनी-अपनी जगह उसी मुद्रा में ठगी-सी-खड़ी रह जाना...
चंडीदास ने “रूस्तम सोहराब” को मंचन के लिए चुना। घोषाल बाबू ने एक स्वर में रजामंदी दे दी। अब पात्रों का चुनाव होना था जिसकी पूरी जिम्मेदारी डायना, चंडीदास और नंदलाल की थी। जब डेव फ्रेंकलिन ने सुना कि इस तरह का कोई नाटक स्टेज किया जा रहा है जिसकी टिकटें बेची जाएँगी और सारा धन अकाल राहत कोष में जाएगा तो वह दौड़ा-दौड़ा चंडीदास के पास आया। गुनगुन की तरह वह भी चंडीदास को दादा बुलाने लगा था और गुनगुन की मृत्यु के बाद से तो जैसे इस शब्द से प्रगाढ़ता से जुड़ गया था।
“दादा... मुझे भी कोई रोल दीजिए।” उसने चंडीदास से आग्रह किया।
“हाँ, क्यों नहीं... तुम्हारे कॉलेज के कई युवाओं को हमने रोल दिए हैं। तुम तीन चार डायलॉग अभिनय सहित सुना दो... अगर मिसेज डायना ब्लेयर और नंदलाल को तुम में संभावना दिखी तो जरूर रोल मिलेगा।”
डेव खुश होकर बोला-”आधा घंटा दीजिए, मैं अभी डायलॉग याद किए लेता हूँ।”
वह संगीत चित्रकला अकादमी के गेट के पास लगे नीम की छाँव में टहल-टहल कर डायलॉग याद करता रहा। शेक्सपीयर के नाटक का संवाद... । आधे घंटे बाद वह डायना और नंदलाल के सामने था। उसके संवादों की जीवंतता और बहाव से अभिभूत दोनों ने उसे तुरंत पास कर दिया।
रिहर्सल जोरदार तरीके से शुरू हो गई। सभी प्रतिदिन अकादमी में जुटते... कभी कमरे में, कभी बाहर मेंहदी की बाड़ लगे छोटे से मैदान पर जहाँ कहीं हरी और कहीं पीली मुरझाई घास थी... मन में जोश था, संवाद घर से याद करके आते। कोई संवादों के साथ संगीत को जोड़कर वाद्य बजाता तो कोई गीतों के मुखड़े गाता। डायना हारमोनियम पर गीत कंपोज करती, तानपूरा बजाकर शास्त्रीय गीत का अभ्यास करती कि जैसे समय नहीं है किसी के पास भी... सब जुटे हैं... । मुनमुन और सत्यजित कलाकारों को निर्देशन देते... सीन में काट-छाँट करते। मुनमुन की समझ और परख को देख सत्यजित उसे देविकारानी कहता। देविकारानी टैगोर के भाई की पौत्री थी और एक श्रेष्ठ फिल्म अभिनेत्री। सत्यजित ने देविकारानी की फिल्म'कर्म' देखी थी जिसमें हिमांशु राय के साथ उसके चुंबन दृश्य को देखकर वह चकित था। वह देविकारानी के अभिनय का कायल था और न जाने क्यों मुनमुन को देखकर उसे देविकारानी का ख्याल आता था। एक बार इस बात का जिक्र उसने मुनमुन से किया था तो वह तपाक से बोली... “शायद तुम चाहते हो कि मैं भी देविकारानी जैसी अभिनेत्री बनूँ पर क्या तुम हिमांशु राय बनोगे?” “क्या?” वह सकपका गया था। वह एक धीर, गंभीर और शर्मीला युवक था जिसके अंदर समाज सेवा का माद्दा कूट-कूट कर भरा था। उसने निश्चय कर लिया था कि वह विवाह नहीं करेगा और स्वामी विवेकानंद के बताए मार्ग पर चलेगा पर न जाने क्यों मुनमुन इस कदर उसके नजदीक आती जा रही थी... कि वह उसे हर अदा में लुभावनी लगती... शायद इसी तरह देविकारानी हिमांशु राय को लगी होगी। हिमांशु राय जो शांतिनिकेतन में टैगोर के निर्देशन में पढ़ता था और जिसकी रूचि रंगमंच और कला की ओर बहुत अधिक थी। शायद इसी कला ने दोनों को जिंदगी का हमसफर बना दिया था। आज मुनमुन के मुँह से यह अटपटा सवाल सुनकर सत्यजित का मन बेचैन हो उठा था। वह इसका जवाब मौका आने पर देगा, अभी नहीं। नादिरा ने चंडीदास की साईकिल की घंटी बजाई-ट्रिंग..ट्रिंग... “चलो लंच ब्रेक हो गया।”
वह बड़े-बड़े डिब्बों में बिरयानी और रायता लिए हाजिर थी। सारे कलाकार भुखमरे-से टूट पड़े खाने पर। डायना खिलखिलाकर हँसने लगी। उसने नादिरा के चमकते चेहरे पर तृप्ति देख कहा-”तुम कहती थीं न नादिरा कि इस अभियान में तुम्हारी क्या भूमिका रहेगी?”
“समझ गई... बावर्ची बनने के लिए मैं तैयार हूँ हुजूर।” नादिरा ने दरबारी अदा में सलाम ठोंका। डायना भी मूड में थी। रुआब से बोली-”हम खुश हुए तुम पर।”
रिहर्सल दिन में तीन तीन बार होती। घर लौट कर चंडीदास दो घंटे गहरी नींद लेता और थरमस भर चाय बनाकर रात बारह बजे से जुट जाता चित्रकारी में। न जाने कहाँ की कला आ गई थी उसके ब्रश में, रंगों में, ब्रश के एक-एक स्ट्रोक में... “प्रेम दीवाने' चित्रमाला में सबसे विलक्षण चित्र सोहनी महिवाल शीर्षक वाला है। कैनवास पर रात के अंधेरे में डूबा दरिया है। ऊँची-ऊँची लहरें। महिवाल तट पर बेचैनी से अपनी तूमड़ी बजा रहा है। घड़े के सहारे तैरती सोहनी की आकृति है। उसका चेहरा पीछे की ओर मुड़ा हुआ है, मानो वह घूमकर देख रही है कि कहीं गाँव वाले उसका पीछा तो नहीं कर रहे हैं? इस चित्र पर खुद चंडीदास फिदा है। उसने सोहनी महिवाल को चित्रांकित करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। एक चित्र उसने डायना के आग्रह पर बनाया। डायना ने पूरा दृश्य सजीव करते हुए उसे बताया था-राधा और कृष्ण के अभिसार का दृश्य। कृष्ण राधा से समागम कर संतुष्ट हैं। राधा पुलकित हैं। दूसरे हाथ में पान का बीड़ा है। दूसरे चित्र में वे पान का बीड़ा कृष्ण को देने के लिए थोड़ा-सा आगे बढ़ी हैं। उनके लहँगे और ओढ़नी की डोरिया लहराई हैं और चंडीदास का कमाल कि जब उसने यह चित्र बनाया तो रेखाएँ सहसा चंचल हो उठीं... राधा के भावों के अनुकूल। पारदर्शी ओढ़नी में से झाँकती उनकी खुली केशराशि का भी चित्रण बहुत डूबकर किया उसने।
मुनमुन संग-संग जागी थी चंडीदास के। वह जानती थी... “दादा धुन के पक्के हैं, जब तक वह नहीं कहेगी कि आराम कर लो तब तक उन्हें होश ही नहीं आएगा कि रात बीत चुकी है। सुबह के चार बज चुके हैं। तारे बस डूबना ही चाहते हैं... यह समय कैसा सन्नाटे भरा होता है... खासकर मुनमुन के लिए, जिसे इस वक्त हमेशा गुनगुन के लौटने का इंतजार रहता था। उसने कभी भी गुनगुन के कामों को गंभीरता से नहीं लिया जबकि वह एक बड़े मिशन में जुटी थी। हर समय हड़बड़ी में रहती।”
“समय नहीं हैं... जल्दी ही सब निपटाना है... देखो, हमारी गुप्त बातें कैसी तेजी से कॉमरेडों तक पहुँच जाती हैं और तुम एक कप चाय उबालने में कितना वक्त लगा देती हो।” गुनगुन के शब्द उसके कानों में गूंजते। नहीं, अब वह बिल्कुल वक्त जाया नहीं करेगी।... “दादा उठो... अब बस, इतनी मेहनत करोगे तो बीमार पड़ जाओगे। थोड़ा सो लो।”
चंडीदास ने उसके गाल पर रंग भरा ब्रश फेर दिया-”चलो दादी माँ... जीने थोड़े दोगी तुम चैन से।”
मुनमुन ने उसी की बाँह पकड़ अपने गाल से रगड़ ली... “अरे... ये क्या किया। अब कुरते पर से रंग छूटेगा?”
“न छूटे... मेरी बला से।” वह हँसती हुई भागी और अपने कमरे की खुली खिड़की के पल्लों को और ज्यादा खोलकर राह तकने लगी पर किसकी?... क्या जाने वाले लौटकर आते हैं?
इप्टा के ग्रुप ने अपना अलग नाटक मंचन करने का तय किया था-”आखिरी शमा'... घोषाल बाबू ने चंडीदास को इस ग्रुप से मिलवाया था। धीरे-धीरे कुछ ऐसी संगत बैठी कि चंडीदास, डायना, मुनमुन, सत्यजित, नंदलाल सभी इप्टा में शामिल हो गए और चंडीदास को “आखिरी शमा' में बाकायदा अपने दल सहित रोल मिल गए। लिहाजा दो नाटक मंचित हुए-”रूस्तम सोहराब' और “आखिरी शमा'। दोनों के ही पंद्रह-पंद्रह शो हुए। अपार भीड़ उमड़ी। 'राहत कोष' के नाम पर सबने दरियादिली से टिकटें खरीदीं। चंडीदास की एकल प्रदर्शनी का हर चित्र महँगे दामों में बिका और डायना के शास्त्रीय गायन ने तो बंगाल के संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज कर लिया। लेकिन टॉम को यह बात बेहद नागवार लगी।
“तुम यह तो सोचो कि तुम कितने बड़े बिजनेस घराने से ताल्लुक रखती हो। और यहाँ मेरा स्टेटस, मेरा पद... और मेरी पत्नी स्टेज पर शो कर रही है... सोचो जरा... ।”
“मैं सरस्वती की उपासक हूँ और लक्ष्मी और सरस्वती का कोई मेल नहीं।” डायना ने गंभीरता से कहा।
“बकवास है यह... तुम पर चंडीदास का फितूर चढ़ा है। अंधी हो गई हो तुम।”
“मत बोलो ऐसा। वे मेरे गुरु हैं... मैं उनका आदर करती हूँ। यह भारत है जहाँ कला पूजी जाती है पैसा नहीं। मुझसे भी ज्यादा अमीर कलाकार तो सड़कों पर झोली फैलाए रिलीफ फंड इकट्ठा कर रहे हैं। लोग उन्हें देखने को उमड़े पड़ते हैं। कला के प्रति दीवानगी है... एक जुनून-सा है लोगों के दिलों में। पर ये बातें तुम नहीं समझ सकते।” डायना की आँखों में यह कहते हुए एक चमक उभर आई थी... टॉम सह नहीं पाया वह चमक। उसकी आँखें जैसे चौंधिया-सी गईं... वह डायना की तरफ देखने की हिम्मत खो बैठा क्योंकि उन आँखों में था ईश्वरीय प्रेम... प्रेम जो संसार के कण-कण में समाया है। इसी प्रेम के बल पर तो संसार चलता है। दरिया बहता है, नदियाँ मचलती हैं, झरने छलकते हैं, मौसम बदलते हैं, मेघ घिरते हैं, फूल मुस्काते हैं। यही प्रेम तो है जो भौंरों से गवाता है, तितलियों को नचाता है... इस प्रेम को टॉम क्या जाने... उसके लिए तो भोग-विलास में ही जीवन का सार है... .लेकिन वह नहीं जानता कि यह भोग-विलास, नफरत उसके शरीर को एक दिन जर्जर कर देगी। तब उसे कोई नहीं पूछेगा और तब वह तनहा रहकर इसी प्रेम के लिए तरसेगा।
चंडीदास का फोन था-”डायना, आज शाम इप्टा हमें दावत दे रहा है शो की कामयाबी के लिए। तुम पार्क सरकस में आकर मिलो।”
“ओके डार्लिग... मैं वक्त पर पहुँच जाऊँगी।”
तब तक टॉम ने शराब की बोतल खोल ली थी। अभी पहली घूँट भरी ही थी कि नादिरा आ गई। उसके हाथों में कबाबों से भरी तश्तरी थी।
“इसे कहते हैं कांबिनेशन... डायना तुम कभी ये बात नहीं समझोगी कि ड्रिंक करते आदमी को किस चीज की दरकार होती है।” कहते हुए टॉम ने एक कबाब उठा लिया और फूँक-फूँक कर खाने लगा-”हूँऽऽऽ बढ़िया बने हैं। नादिरा, तुमने बनाए?”
“बावर्चिन जो हूँ।” नादिरा ने डायना की ओर देखा और दोनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। नादिरा सोफे पर डायना के नजदीक बैठ गई-”शाम को चलना है।”
“कहाँ?”
इप्टा पार्टी दे रहा है... शो की कामयाबी पर।”
“बिरयानी वाली का उन कलाकारों के बीच क्या काम?”
“बिरयानी कौन बनाएगा?”
फिर हँसी... धीमी-धीमी... जैसे घंटियाँ टुनटुनाईं हों।
नादिरा बाकायदा चंडीदास और डायना के दल में शामिल हो गई थी। संगीत, चित्रकला, नाटक... कितना जीवंत था यह दल। हर समय व्यस्तता, भागदौड़, कार्यक्रमों की फेहरिस्त... इस सबसे नादिरा को अपने आरामतलब जीवन में समझौता करना पड़ा था... यों तो वह कमिश्नर की बीवी थी... जुड़वाँ लड़कियों की माँ, लेकिन थी बिल्कुल तनहा। खान साहब अपनी नौकरी में व्यस्त रहते और लड़कियाँ पढ़ाई में, खेलने-कूदने में। शायद यही वजह थी कि वह डायना से इतनी आत्मीय हो चुकी थी लेकिन टॉम के मन में उसे लेकर बड़े खुराफाती विचार आते थे। वह उसके कश्मीरी सौंदर्य पर फिदा था। इस बात से नादिरा अनभिज्ञ थी। किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि... तू साँस भी ले तो बहुत धीरे से... ये दुनिया शीशे की है... और एहतियात जरूरी है। सपने जो शीशे के होते हैं उम्मीदें जो शीशे की होती हैं... हर वक्त सहमापन कि कहीं टूट न जाएँ... ।
पार्क सरकस में जिस मकान में इप्टा ने दावत दी थी, खासी चहल-पहल थी। घोषाल बाबू भी आए थे और इसी वजह से नाटकों की चर्चा के बीच सुकांत और गुनगुन की चर्चा भी चल पड़ी थी। चंडीदास और मुनमुन की आँखें भर आई थीं... लगता था जैसे कल की ही घटना हो... ।
“आपके कलाकार परिवार में वह कैसे अलग विचारों की निकली?” घोषाल बाबू को यह सवाल मथे डाल रहा था।
“शायद यही उसका लक्ष्य था... हम वक्त रहते उसे पहचान नहीं पाए।”
अब मुनमुन कैसे बताए कि वह तो सब कुछ जानती थी। उसके उठाए हर कदम से परिचित थी... रोकना चाहकर भी रोक नहीं पाई उसे क्योंकि वह जानती थी कि आजादी के दीवाने गुलामी में कभी नहीं जीते।
“उसने जिस बात के लिए अपनी कुर्बानी दी है वह जल्दी से पूरी होगी। हम जल्दी ही आजाद होंगे।”
दल में डेव फ्रेंकलिन और डायना भी थे। यह बात घोषाल बाबू ने शायद उन्हें ही सुनाने के लिये कही हो पर वे चकित रह गये जब डायना ने कहा"मै भी यही चाहती हूँ।
"मैं भी"डेव फ्रेंकलिन ने भी कहा।
हाँ, यह सत्य था कि इंग्लैंड से आए बहुत सारे अंग्रेज परिवार ऐसे थे जो भारत को आजाद देखना चाहते थे... भारत आजाद होगा तो उन्हें अपने देश लौटने को मिलेगा। कुछ को भारत की धरती से प्यार हो गया था... कुछ के वैवाहिक संबंध हो गए थे भारतीयों से... । वे यहीं बस जाना चाहते थे। वैसे भी अब साफ दिखाई दे रहा था कि अधिक दिन अंग्रेज टिकेंगे नहीं यहाँ... । फिर भी टॉम की जिद्द थी कि डायना बंबई जाए और वहाँ अपना बिजनेस शुरू करे। यह बात उसने दावत से घर लौटते हुए चंडीदास को बताई तो वह सोच में पड़ गया-”तब तो तुम्हें अधिकतर बंबई में ही रहना पड़ेगा।”
“हाँ... आना जाना लगा रहेगा... वैसे तुम्हारा क्या विचार है?”
“मुझे लगता है फॉर अ चेंज... यह कर ही डालो। टॉम शायद तुमसे थोड़े समय के लिए अलग रहना चाहता हो।”
'रहता तो है वो पंद्रह दिन टूर पर हर महीने।”
“शायद वह हमारे रिश्ते को जान गया हो। और इसीलिए तुम्हें कलकत्ते से दूर भेजना चाहता हो।”
“चंडी... जब मैं इंडिया आई थी तो अपने जीवन का शिकारा लहरों के हवाले कर दिया था। मुझे टॉम से जरा भी लगाव न था... वह मेरे पिता की पसंद थी, मेरी नहीं। मेरे स्वभाव की खामोशी और सहनशक्ति में विरोध की ताकत बिल्कुल नहीं थी। इसीलिए सब कुछ को अपना भाग्य मान लिया था। वैसे भी, जिन घटनाओं को मैं मन पर नहीं लेती, वे मुझे सालती नहीं हैं। मैं उदासीन रहकर उनका सामना कर लेती हूँ। मेरे जीवन का खालीपन तुमने भरा, मेरे शब्दों को अर्थ तुमने दिया... असल में मैं दूसरी ही मिट्टी से बनी हूँ चंडी।”
चंडीदास की आँखें मुँद गईं। मोटर की गति में सड़कों पर लगे रोशनी के हँडे भागते से लग रहे थे। मानो कुछ कहने को उतावले हैं पर जल्दबाजी में कह न पा रहे हों। आम के पेड़ पर एक मोर का जोड़ा अपनी लंबी पूंछ लटकाए बैठा था। मोटर की आवाज से वह चौंका और फिर चिल्लाया... । वीराने में दूर तक जैसे आवाज की लकीर-सी खिंच गई। जब वे मोटर में बैठे तो अंग्रेजी में बात करते थे क्योंकि ड्राइवर सिर्फ बंगाली बोलता समझता था। वैसे अंग्रेज परिवार की संगत में गुड़ मॉर्निंग, गुड नाइट आदि सीख गया था। वह उन दोनों की बातों से बेखबर हो ड्राइविंग कर रहा था।
“एक बार हो आओ बंबई। देख लो कि टॉम क्या चाहता है।”
“पूरा इंतजाम कर आया है वहाँ। मालाबार हिल में एक कोठी अभी तो किराए से ली है पर उसकी जिद्द है कि मैं वह कोठी खरीद लूँ। कोलाबा में ऑफिस ले लिया है... कुछ लोगों को अपॉइंट करके कारोबार की शुरुआत कर दी है।”
“अच्छा... ... याने चाक-चौबंद कर दिया है बंबई को तुम्हारे लिए।”
कहीं से हारमोनियम बजने की आवाज सुनाई दी। जैसे हुगली की लहरों पर थिरकती हुई गूँज तट तक लौट आई हो... एक पल के अंतराल में गायब... ।
चंडीदास अपने घर के सामने की सड़क पर उतर गया। जब मोटर का दरवाजा ड्राइवर ने बंद किया तो अपने बाजू की खाली सीट देखकर डायना को लगा जैसे वह अंधेरी वीरान गुफा में भीतर ही भीतर घुसती जा रही है। उस गुफा का कोई अंत नहीं है।
शनिवार की सुबह डायना बंबई के लिए टॉम के साथ रवाना हो गई। इस बीच चंडीदास से मुलाकात नहीं हो पाई। बेहद व्यस्त थे दोनों अपने-अपने कामों में... या शायद व्यस्तता इसलिए ओढ़ ली गई हो कि विरह की पीड़ा सही जा सके... कभी-कभी स्थितियाँ आस-पास फैले दायरे को यूँ ही छोड़ देती हैं... स्थितियों का उन पर कुछ अख्तियार नहीं होता।
मालाबार हिल में जिस जगह टॉम ने किराए से कोठी ली थी गझिन हरियाली में डूबा एक टापू-सा हो जैसे... । कोठी के सामने बेशुमार विलायती फूलों के पौधे लगे थे। पीछे हहराता सागर और धूप में चमकती, झिलमिलाती बालू वाला खूबसूरत तट... । नारियल, सीताफल के पेड़... डायना मंत्रमुग्ध-सी इस मंजर में डूबी थी। बंबई की हवाओं में समुद्र का खारापन साफ महसूस किया जा सकता था... । इस बंबई को पाने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने कितने पापड़ बेले थे। पहले यहाँ पुर्तगालियों का शासन था। सात द्वीपों वाली इस अद्भुत नगरी में गजब का आकर्षण था। 1661 में इंग्लैंड के किंग चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरिन डे ब्रिगेंजा से शादी की थी। कैथरिन और चार्ल्स को बंबई दहेज में मिला था... । ईस्ट इंडिया के अनुरोध पर चार्ल्स ने इसे दस पाउंड सालाना की लीज पर ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया था। उसके बाद यहाँ धनी घरानों और व्यापारियों की तादाद तेजी से बढ़ने लगी थी। कहते हैं यहाँ पाँव के नीचे सोने की मोहरें हैं बस उसे पहचानने की मनुष्य की कूवत होनी चाहिए। शायद यही वजह थी कि टॉम डायना का कारोबार यहाँ बढ़ाना चाहता था।
डायना के साथ पारो भी आई थी उसकी देखभाल के लिए... जॉर्ज को कोलाबा ऑफिस के सब पदाधिकारियों से मिलवाकर और दो दिन कोठी में आराम से गुजारकर टॉम कलकत्ते लौट गया था। वैसे तो कारोबार की नींव पड़ चुकी थी पर डायना का मन जरा भी नहीं लगता था कारोबारी कामों में। उसकी शिथिलता के कारण ऑफिस के कामों में भी शिथिलता ही रही, तेजी नहीं आ पाई, पर डायना क्या करे, वह दिल के हाथों मजबूर थी। रात को सोते-सोते वह समुद्र की गर्जन से जाग जाती... चंडीदास शिद्दत से याद आता। ऐसा लगता जैसे शरीर का कोई हिस्सा कलकत्ते में कटकर छूट गया है और इस विच्छिन्न हालत में बाकी का शरीर तड़प रहा है। रात को कोठी पर पहरा देते चौकीदार की सीटी उसकी उचटी-उचटी नींद में सुराख बना देती। वह अँधेरे में आँखें फाड़-फाड़ कर देखती पर चंडीदास कहीं नजर नहीं आता। कुछ देर बाद आँखें अंधेरे में टोहती एक एक चीज की अभ्यस्त हो जातीं... क्या कर रहा होगा इस समय चंडीदास? क्या वह भी मेरी तरह चुभती आँखें लिए, बोझिल पलकें झिपझिपाता मेरे लिए तड़प रहा होगा... हवा में लहरों की गर्जना तीखी हो कानों को बेधने लगती। ऊफ, इतना शोर जैसे तट की रेत को हजारों पैर थपथपाते चले जा रहे हों... वह बेचैनी में खिड़की की चौखट पर सिर टिकाए बाहर झाँकती। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की भुतैली छाया मन में दहशत फैला देती। जब वह कुफ्री में थी तो धुँध से ठिठुरा चाँद अपनी फीकी आभा में आकाश के बीचों-बीच टँका था। पर इस वक्त दूर-दूर तक कहीं चाँद नजर नहीं आ रहा था। बस तारे टिमटिमा रहे थे जैसे गहरी अंधेरी खोह में किसी ने जुगनुओं से भरी टोकरी उलट दी हो।
सुबह-सुबह चंडीदास का फोन आया। जैसे उसके मुर्दा शरीर में जान आ गई हो-”कैसे हो चंडी... तुम्हारी आवाज का सूनापन में साफ महसूस कर रही हूँ... मैं तुमसे अलग कुछ भी सोच नहीं पा रही हूँ।”
“यह हमें क्या होता जा रहा है राधे? इस तरह हम कैसे अपनी उम्र गुजारेंगे... तुम्हारी जुदाई के चंद दिनों ने मेरे शरीर से प्राण खींच लिए हैं।”
“नहीं चंडी... अब मुझसे बिजनेस नहीं हो पाएगा... इसे यहीं विराम देना होगा। मुझे तुम्हारे पास लौटना है, लौटना ही होगा।”
“जानता हूँ राधे तुम लौटोगी, तब तक अपने को सँभालूँगा... मुझे इप्टा ज्वाइन करने की सलाह घोषाल बाबू ने दी है... नंदलाल बता रहा था कि बंबई के थियेटर में इप्टा द्वारा अभिनीत नाटक का दसवाँ शो चल रहा है और शीघ्र ही वे नया नाटक शुरू करने वाले हैं जिसकी रिहर्सल बंबई में ही होगी। उस नाटक में कोई बड़ा रोल मुझे मिलने वाला है।”
सहसा डायना का शरीर रोमांचित हो उठा-”उस रोल के लिए तुम हाँ कह दो और बंबई आ जाओ।”
चंडीदास के आने की खबर से डायना की दिनचर्या ही बदल गई। अब वह हिंदी साहित्य की किताबों की ओर ध्यान देना चाहती थी। बांग्ला साहित्य और अंग्रेजी साहित्य तो उसने लगभग पूरा पढ़ डाला था। वह प्रेमचंद का पूरा उपलब्ध साहित्य बाजार से मंगवाकर इकठ्ठा कर चुकी थी। चंद्रकांता संतति के सभी खंड भी उसने खरीद लिए थे... उसके पिता एक सफल बिजनेस मेन थे लेकिन डायना को बिजनेस में जरा भी रुचि नहीं थी। न जाने कैसे कलाकार मन की भावुक लड़की उस खानदान में पैदा हो गई थी जहाँ संगीत की नहीं बल्कि पैसों की झनकार गूँजती थी। लेकिन डायना के मन का फलक बड़ा विस्तृत था। संगीत, चित्रकला, नाटक और भारत के स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े साहित्य को पढ़कर उसने अपने ज्ञान का धरातल ओर छोर फैला लिया था। भौतिक धन-संपत्ति, नाते-रिश्तों से सर्वथा परे वह एक ऐसे धरातल पर खड़ी थी जो सीधा कृष्ण के पीतांबर को छूता था... प्रेम का अद्भुत कोष थे कृष्ण। हद है कि रुक्मणी से मिलने आई राधा के प्रेम को आजमाने के लिए रुक्मणी राधा को गर्म-गर्म दूध पीने को देती है। दूध राधा पीती हैं और छाले कृष्णजी के हलक में पड़ जाते हैं... ऐसा प्रेम तो आज तक सुना नहीं डायना ने।
जॉर्ज ने ऑफिस का काम तो सँभाल लिया था पर डायना का रुझान न देखकर उसका मन भी नहीं लग रहा था। फिर भी वह सुबह-सुबह फाइलें डायना के टेबल पर रख देता था कि कहीं उससे कोई चूक न हो जाए। डायना तीन चार बार कोलाबा हो भी आई थी। कामकाज जाँच-परख आई थी। फाइलें पढ़कर ओके कर दी थी। बंबई में आंदोलनों की खूब गहमागहमी थी। सबकी जबान पर एक ही बात थी कि भारत के टुकड़े होंगे क्योंकि मलाबार हिल में उसके पड़ोसी जिन्ना अलग पाकिस्तान की मांग कर रहे थे। लोगों का अमन चैन छिन गया था। पाकिस्तान बनेगा तो मुसलमानों का क्या होगा... क्या उन्हें भारत छोड़ना होगा? तय था कि अंग्रेजी शासन का सूर्य अस्त होने वाला है... डायना का मन भटकता-भटकता टॉम की ओर चला गया। टॉम भी तो लौट जाएगा, टॉम के साथ उसे भी जाना होगा... तब क्या छूट जाएगा प्रेम संसार यहीं?
वह यू शेप में समंदर को घेरे हीरे से जगमगाती सड़क की बत्तियाँ देख रही है। मरीन ड्राइव में कुछ पल आँखें इस मंजर पर ठिठक-सी गई हैं। क्वींस नेकलेस नाम से प्रसिद्ध ये खूबसूरत जगमगाहट भी उसके मन को शांत नहीं कर पाई है... बत्तियों की लाल पीली रोशनी समंदर के काले पानी को स्वप्निल बना रही है। एक मराठी लड़की मोगरे के गजरे लिए पास आती है-”मेमसाहब गजरा” पारो ने उसे इशारे से दूर हटने कहा पर डायना ने उसे नजदीक बुलाकर सारे गजरे खरीद लिए। गजरों की महक से भी मोहक मुस्कान उस लड़की के चेहरे पर बिखर आई... ।
पंद्रहवें दिन चंडीदास आ गया। उसके रुकने का इंतजाम ड्रामे के निदेशक के घर किया गया था जो माहिम में एक छोटे से घर में रहते थे लेकिन डायना ने उसे कोठी पर ही रुकाया... ।
“रिहर्सल ऑपेरा हाउस में होगी। यहाँ से तुम्हें नजदीक पड़ेगा।”
चंडीदास बहुत जोश में था। एक तो इप्टा ने महत्वपूर्ण रोल देकर उसकी बरसों की मुराद पूरी कर दी। कलकत्ते में उसने जितने भी नाटकों और नृत्य-नाटिकाओं का मंचन किया था वह सब उसके अपने दिमाग की उपज थी जो सीमित दर्शकों के बीच सिमटकर रह गई थी लेकिन अब उसे बड़ा कैनवास मिल गया था, जिसमें वह अपनी योग्यता के रंग भर कर दूर-दूर तक अपनी बात पहुँचा सकता था। दूसरे डायना का साथ... जहाँ केवल वह होगा और दूर-दूर तक फैला सागर होगा। दोनों सुबह-सुबह सागर तट पर आ जाते। उगते सूरज की इन्द्रधनुषी किरणों को डायना अपने शरीर पर लपेटती धूप स्नान करती। तब चंडीदास लहरों पर तैरता... इतना मंथर जैसे बत्तख तैर रही हो। थोड़ी देर बाद डायना भी आ जाती। दोनों साथ-साथ तैरते... तैरते-तैरते थक जाते तो किनारे पर बैठकर सुस्ता लेते... फिर रेतीले बिछावन पर कोहनियों के बल लेट कर एक-दूसरे को मंत्रमुग्ध देखते... ।
“कहते हैं जहाँ राधा की पाजेब के घुँघरू बजते हैं वहाँ कृष्ण हमेशा मौजूद होते हैं।”
“राधाकृष्ण तो हर युग में प्रेम बनकर अवतरित होते हैं। जहाँ प्रेम है वहाँ राधा है।”
“और जहाँ राधा है वहाँ कृष्ण है।”
धूप जब थोड़ा चढ़ जाती... तट की रेत में मिले अभ्रक कण चमकने लगते तो दोनों वापिस लौटते... ।
आज पारो ने बावरची से कहकर आलू के पराँठे नाश्ते में बनवाए थे और अंगूर का रस निकालते हुए वह उसे हिदायत दे रही थी... “अब बाकी की लोइयाँ रहने दो। जब मेम साहब और बाबू मोशाय नाश्ता करने बैठें तो गरम-गरम सेक कर देना।” नाश्ते के बाद डायना कोलाबा में अफगान चर्च देखना चाहती थी। लौटते हुए वह ऑफिस आ जाएगी और चंडीदास कार से ऑपेरा हाउस रिहर्सल के लिए चला जाएगा। आज लंच कैंसिल। पराँठे डटकर खा लिए हैं दोनों ने। फिर तीन चार बजे तक फुरसत ही कहाँ होगी लंच लेने की।
अफगान चर्च की गोथिक कला देखकर डायना मुग्ध हो गई। चर्च की मीनार इतनी ऊँची थी कि देखते हुए सिर चकरा जाए। यह मीनार बंबई हार्बर जाने वाले जहाजों को रास्ता दिखाती है। वह चंडीदास के हाथों में हाथ दिए चर्च का गलियारा पार करने लगी। दीवारों पर शिलाएँ थीं जिन पर अफगान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों के नाम लिखे हैं। डोरिक स्टाइल में बने स्तंभ मन मोह रहे थे। चर्च की जादुई खूबसूरती से दोनों ठगे-से खड़े थे। जब वे अंदर प्रार्थना हॉल में पहुँचे तो हलके से अंधेरे में मोमबत्तियों की लौ दिपदिपा रही थी। प्रार्थना के बाद दोनों बाहर आए-”पता नहीं क्यों चंडी... मैं जब भी चर्च आती हूँ एक उदासी-सी मुझे घेर लेती है। अजीब-सी अनुभूति होती है, जैसे मदर मेरी मैं ही हूँ जो अपने सीने में क्रॉस सहेजे अपनी आने वाली नस्ल के कष्टों को महसूस करती हूँ। चैपल में बिशप के हाथों बजाई घंटियों की आवाज सुन लगता है जैसे मेरे आसपास वृंदावन के गोप-ग्वालों की गाएँ हैं जिनके गले में पड़ी घंटियाँ टुनटुना रही हैं... और जैसे मैं ही सीता हूँ जिसे वनवास मिला है। मुझे लगता है ये सारे के सारे धार्मिक प्रतीक मेरे अपने हैं और मैं उनमें उलझ कर रह गई हूँ।”
चंडीदास ने उसकी खूबसूरत नाक दबाते हुए कहा-”तुम सिर्फ मेरी राधिका हो... हमारे बीच और हमारी जिंदगी में बस यही एक सच है और सब छलावा।”
जब वे कार में बैठे तो अचानक आसमान पर बादलों का झुंड तैर आया। सूरज उसमें छुप गया और समंदर की ओर से आती हवाओं का भीगापन बढ़ गया। सड़क से वंदे मातरम् के नारे लगाता एक छोटा-सा जुलूस जा रहा था। हाथों में तिरंगा झंडा और कदमों में बला की फुर्ती। सामने होटल में रेडियो बज रहा था। बी.बी.सी. से खबरें आ रही थीं... भारत में छिड़े आंदोलनों की। “अंग्रेजों भारत छोड़ों', मुस्लिम लीग का पाकिस्तान के लिए आह्ववान...। मुस्लिम बहुल इलाका इलाका पाकिस्तान हो, अलग वतन हो उनका... कोलाबा की एक चॉल से बुरका ओढ़े एक औरत निकली और सोलह गज की साड़ी पहने मराठिन से बोली-”आपा, ये शोर कैसा?”
“अरी बाई... पाकिस्तान माँगते वो लोग।”
“पाकिस्तान?... इस नाम की कोई मजार, कोई दरगाह है क्या ये पाकिस्तान?”
“क्या मालूम... बाई... मेरे को थोड़ी साकर द्यो न। आज सुब्बू से चाय नको पिया।”
वारदातें... चर्चा... बहस... आम आदमी के लिए बस यही जरूरत की चीजें ईश्वर हैं, नून, तेल, लकड़ी।
और डायना खोती जा रही है... जैसे पैर टिकाने को चंडीदास का सहारा तो है पर उन सामाजिक बंधनों का क्या करें जो टॉम के साथ जोड़ दिए गए हैं।
रात को बेहद अंतरंग क्षणों में जब उसने चंडीदास से पूछा-”चंडी, क्या ये जरूरी है कि टॉम के साथ मैं जिस बंधन में बंधी हूँ... जो रिश्ता है वह रिश्ता कायम रहे? रिश्तों के रंग बदल भी तो सकते हैं।”
चंडीदास ने उसे आलिंगन में भरकर हलके से उसके होठों को चूमा-”कलकत्ते जाकर तुम टॉम को तलाक दे सकती हो।”
“लेकिन वह किसी भी हालत में मुझे तलाक नहीं देगा। वह मेरी प्रॉपर्टी को भोगना चाहता है। ऐश-आराम, भोग-विलास की उसे आदत पड़ गई है।”
चंडीदास सोच में पड़ गया-”इसका मेरे पास कोई हल नहीं है। मैं तुमसे शादी करने को अभी इसी वक्त तैयार हूँ... लेकिन टॉम का क्या करोगी? तुम्हें लेकर हम दोनों के बीच छीना-झपटी क्या उम्र भर चलेगी?”
उस गंभीरता में भी डायना हँसने लगी। चंडीदास अपनी प्रिया के इस रूप पर दिलोजान से न्यौछावर हो गया। वक्त ठहर सा गया... मानो वह भी रुककर इस प्रेमी युगल के जुनून को चकित हो देख रहा था... जिनके आगे सारा संसार तुच्छ था... सारी समृद्धि, सारे आराम, सारी नाते रिश्तेदारियाँ... बस था तो प्रेम... प्रेम जिसके जुबान नहीं थी पर जो दोनों के आपस में गुँथे शरीर को देख फुसफुसा उठा था। मैं हूँ, तुम दोनों में समाया, मैं ही चुंबन हूँ, मैं ही आलिंगन हूँ, मैं ही रतिक्रीड़ा हूँ, सृजन और मरण भी मैं ही हूँ... मैं ही वासना, लिप्सा, और चाह हूँ... इसी अधीर लिप्सा के वशीभूत मैं तुममें उछाहें भरता हूँ... भगवान ने जब कृष्ण के रूप में, एक इंसान के रूप में अवतार लिया तो मैं भी राधा बन उनमें समा गया। राधा ने उनकी बाँसुरी में सुर भरे और स्वयं गूँज बनकर सृष्टि के कण-कण में समा गई।
रात के किसी प्रहर में डायना की नींद खुली तो बेसुध सोए चंडीदास को देख वह मुस्करा दी... आहिस्ता से चादर उढ़ा उसने गाउन पहना और बाथरूम चली गई। उसके अंगों में हलकी-हलकी मीठी-सी पीड़ा थी जो चंडीदास से मिलन का संकेत दे रही थी... वह इस पीड़ा को हमेशा महसूस करना चाहती है। चंडीदास की दी इस पीड़ा से भी उसे प्यार है।
जॉर्ज डायना के किए उपकारों से गद्गद् था। वह बेहद गरीब घराने का था। लंदन में उसके पिता ने उसे और उसके दो छोटे भाइयों और दो बहनों को मिलों में मजदूरी करके पढ़ाया था... डायना ने वक्त बेवक्त उनकी भरपूर मदद की थी, अभी भी करती हैं... जॉर्ज को उन्होंने ही अपना पर्सनल असिस्टेंट चुना था क्योंकि वह ईमानदार, मेहनती और जिम्मेदार व्यक्ति था और यही कारण था कि बंबई के कारोबार का सर्वेसर्वा उसे बनाकर डायना निश्चिन्त हो गई थी। जॉर्ज डायना के खिलाफ किसी को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता था। वह जानता था कि टॉम और डायना के बीच मधुर संबंध नहीं हैं। डायना को एक सुखी वैवाहिक जीवन नहीं मिला। फिर भी वे सबकी फिक्र रखती हैं। जॉर्ज से भी कई बार कह चुकी हैं कि वह शादी क्यों नहीं कर लेता और हर बार वह टाल जाता है लेकिन इस बार... उसने मन बना लिया है। कोलाबा ऑफिस में उसके मातहत एक पारसी लड़की दीना सेठना काम करती है और चंद दिनों में ही दोनों एक-दूसरे की ओर आकर्षित होकर शादी करने का फैसला कर चुके हैं। दीना का परिवार पर्शिया से भारत उस वक्त आया था जब पारसियों का धर्म खतरे में था। जोरोस्ट्रियन धर्म को मानने वाले पारसियों को अपनी पवित्र अग्नि ईरानशाह की रक्षा अरब मुस्लिम समुदाय से करने के लिए अपना देश छोड़ना पड़ा था। स्वभाव से नम्र, दयालु पारसी हर स्थिति में खुद को बदल डालने में माहिर थे। भारत में ब्रिटिश राज और बांबे रेसीडेंसी का जमाना आते ही पारसी समुदाय ने खुद को ब्रिटिश शासन का वफादार सिद्ध करने में जरा भी देर नहीं की। नतीजा, अंग्रेज उनके प्रशंसक हो गए। आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने के मामले में आगे आने से बंबई में अंग्रेजों के बाद पारसी ही सबसे अधिक शिक्षित वर्ग के रूप में उभरे। अंग्रेजों के बढ़ते प्रभुत्व से भारत जिस आर्थिक संकट से गुजर रहा था उसे दादाभाई नौरोजी ने महसूस किया और बड़े दर्द के साथ लिखा-”भारत की धन-संपदा का अंग्रेजी शासन ठीक उसी तरह दोहन करता है जैसे गंगा के पानी को स्पंज में सोखकर लंदन की टेम्स नदी के किनारे ले जाकर निचोड़ दिया जाए।”
दादाभाई नौरोजी के इस वक्तव्य ने पारसी समुदाय को स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए उकसाया। दीना के पिता पेशान सेठना भी इस लड़ाई में कूद पड़े थे। सेठना परिवार यह मानता था कि जिस भारत में वे अपने कारोबार सहित आजादी से फल-फूल रहे हैं... न कोई धार्मिक उत्पीड़न है न कोई मजबूरी बल्कि उनकी भाषा भी वह गुजराती भाषा है जो पहले से यहाँ का गुजराती समुदाय बोलता था लेकिन जब पारसियों ने उसमें ईरानी को मिलाकर एक अलग तरह की गुजराती गढ़ ली जिसे “ईरानी पारसी' भाषा का नाम दिया गया तो उनका भी फर्ज बनता है कि वे भारत को आजाद कराएँ। दीना खुद भी क्रांतिकारी विचारों की थी लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों ने उसे इस विचार को त्यागने पर मजबूर किया। फिर भी वह स्वतंत्र विचारों की थी और जो दिल को अच्छा लगे उसे कर डालने में बुराई नहीं समझती थी। लिहाजा जॉर्ज के साथ कोर्ट मैरिज करने का उसने सोच लिया था।
बंबई की सड़कों के किनारे बाग-बगीचों में मौसम की दस्तक बेशुमार फूलों के रूप में हुई थीं। दीना के पिता को यह समझ में नहीं आ रहा था कि देशव्यापी स्वतंत्रता आंदोलनों का नतीजा भारत की आजादी ही होगा और जब अंग्रेज वापस लौटेंगे तो उसकी बेटी का क्या होगा? पर यह सोचने का वक्त दीना को नही था। लिहाजा एक सादे समारोह में दोनों विवाह बंधन में बँध गए। डायना ऐसे खुश हो रही थी जैसे उसके सगे भाई की शादी हो। संगमरमर-सी रंगत वाली दीना का माथा चूमते हुए उसने कहा-”मुबारक हो... कुछ मत सोचो... बस ये सोचो कि तुम दोनों एक नई जिंदगी की शुरुआत कर रहे हो, बाकी वक्त के हाथों छोड़ दो।”
दीना ने हाथ जोड़ दिए-”मैडम... आपका आर्शीवाद चाहिए, बाकी हम अपने रास्ते खुद बना लेंगे।”
अब डायना के परिवार में एक व्यक्ति का इजाफा हो गया था और वह थी दीना... मर्द होने के नाते जिन बातों तक पहुँचने के लिए जॉर्ज दरवाजे बंद पाता था वहाँ अब दीना की पहुँच थी।
रिहर्सल पूरी हो चुकी थी। आज ड्रेस रिहर्सल थी और दो दिन बाद शो... चंडीदास बेहद व्यस्त था और डायना परछाई की तरह उसके साथ... उसकी प्रेरणा बनी कि जैसे उसके बिना चंडीदास का वजूद ही न था और ये सच भी था। ड्रेस रिहर्सल के बाद चंडीदास डायना को दो सरप्राईज देना चाहता था। पिछली शाम उसने डायना के लिए रिदम हाउस से नूरजहाँ, शमशाद बेगम, सुरैया और अमीरबाई कर्नाटकी के गीतों के रिकॉर्डस खरीदे थे जो वह आज उसे भेंट करने वाला था ओर दूसरा नमन दादा से मुलाकात। आज शाम को ही उन्होंने उसे अपने घर बुलाया था।
“नमन दा गीतकार, संगीतकार, गायक और न जाने क्या-क्या हैं... हालाँकि उनकी ये सारी योग्यताएँ फिल्मों में इस्तेमाल हो रही हैं पर वे जन्मजात संगीतकार हैं।”
“अरे... मुझे तो आज ही पता चला और मिलने की तड़प जाग गई मन में।”
“बंदा हाजिर है... आपकी इच्छा सर आँखों पर... चलिए।”
चंडीदास का जब काम खत्म हो जाता है तो वह हलके-फुलके मूड में आ जाता है... वरना गंभीर बना रहता है।
नमन दा से मिलकर दोनों की खुशी का पारावार न था... दादा ने बताया था कि वे फिल्मिस्तान और बॉम्बे टाकीज में काम करते हैं और फिल्मों के लिए संगीत और गायकी उनके जीवन का लक्ष्य है... उन्होंने एक गीत गाकर सुनाया तो डायना को लगा जैसे वह नौका में बैठी है और मल्लाह की पतवार के संग गीत के बोल सुर में ढल रहे हैं... अभी देखते-देखते नदिया पार हो जाएगी और नाव खाली की खाली रह जाएगी... नमन दा के आग्रह पर चंडीदास और डायना ने एक युगल गीत सुनाया।
“तुम लोग फिल्मों के लिए क्यों नहीं गाते?”
“नहीं दादा... वो क्षेत्र हमारा नहीं है। उसमें स्ट्रगल बहुत है और हमारे पास उसके लिए समय नहीं है।”
“खैर... कल तुम दोनों स्टूडियो अगर आ जाओ तो तुम्हारे सोलो और डुएट का हम रिकॉर्ड तैयार करवा सकते हैं।”
“अरे वाह... यह तो आपने मनपसंद बात कह दी। लेकिन अभी अरसे से हमने रियाज नहीं किया है और दूसरे मेरी सारी एकाग्रता अभी शो के लिए है। शो हो जाने दीजिए।”
“ठीक है।” नमन दादा ने उन्हें गीतों की एक किताब देते हुए कहा... “इन गीतों को मैं तुम दोनों से गवाऊँगा... उसमें संगीत मेरा रहेगा।”
रियाज के लिए कोई भी वाद्य कोठी में न था। लिहाजा हारमोनियम, ढोलक, तबला और तानपूरा खरीदा गया। हफ्ते भर तक थियेटर में कामयाब शो के बाद यह तय हुआ कि जनवरी में बंगलौर में इसके शो किए जाएँगे। और इस तरह चंडीदास बंबई में उलझकर रह गया।
डायना के पास गीतों का खजाना था ही... बस थोड़े से रियाज की जरूरत थी जो वह सुबह चंडीदास के साथ करती थी... दीना और जॉर्ज हफ्ते भर महाबलेश्वर में हनीमून मनाकर लौट आए थे और ऑफिस के काम में मुस्तैदी से जुट गए थे।
पंद्रह दिन के अथक प्रयास के बाद नमन दा के संगीत निर्देशन में डायना और चंडीदास के गीतों की रिकॉडिंग हुई और नई आवाज को लिए नया रिकॉर्ड बाजार में आया तो धूम मच गई। डायना के लिए यह चमत्कार था और चंडीदास के लिए सपनों से कहीं अधिक बढ़कर एक जीवंत घटना।
उस शाम जब वे सागर तट बैठे लहरों का नर्तन देख रहे थे तो उनके पास शब्द न थे और उन मूक पलों में जिंदगी के अपार सौंदर्य और सुख में ईश्वर के प्रति अगाध विश्वास से भर उठे थे वे। तभी बच्चों का एक झुंड खिलखिलाता हुआ सामने से निकला और दूर कहीं स्वर उभरे... इंकलाब जिंदाबाद, वंदे मातरम्... डायना ने चौंककर चंडीदास की ओर देखा। सूरज नारंगी गेंद-सा सागर में आधा डूब चुका था और लहरें सतरंगी हो उठी थीं...
“जिंदगी भी क्या से क्या रंग दिखाती है। कहाँ मैं स्कूल का संगीत मास्टर और कहाँ...”
“इतने बड़े अभिनेता, चित्रकार, गायक... ।”
“और यह सब तुमसे मिलकर, तुम्हारे भाग्य से राधे।”
“मेरे भाग्य से?” डायना फीकी हँसी हँसी-”नहीं चंडी, अपने इस चमकते ख्वाब की सच्चाई मेरे भाग्य से मत जोड़ो। यह सब तुम्हारी अपनी काबलियत है... हाँ, मुझे बनाने में तुम्हारा हाथ जरूर है।”
चंडीदास ने दूर सागर की सीमा रेखा पर गायब होते सूरज पर नजरें टिका दीं... अचानक सागर की सतह लाल हुई और लहरें उसे दबोचे अपनी आरामगाह में डुबकी लगा गई... आसमान में तारे टिमटिमा उठे।
“अब मुझे बंबई को अपना कर्मक्षेत्र बनाना पड़ेगा... यानी बंबई कलकत्ता की रेस... इस रेस में तुम मेरे साथ हो न राधिका... “डायना ने चंडीदास के कंधे पर सिर टिका दिया-”मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ।”
धीरे-धीरे सागर तट सूना होने लगा था। बच्चे अपनी माँओं के साथ घर लौट रहे थे और उनके बनाए घरौंदे पीछे छूट रहे थे... अब वहाँ युवाओं की चहल-पहल थी।
सुबह चंडीदास कलकत्ता लौट गया।
जिस दिन डायना को बंबई छोड़कर टॉम कलकत्ते लौटा था उसकी आँखों में डायना के बढ़ते कारोबार की चमक थी। अब वह और अधिक धनवान हो जाएगा... और अधिक आराम... और अधिक सुखद, सुंदर भविष्य... और इसी खुशी में वह पैग बनाकर बैठ गया और ग्रामोफोन पर अफ्रीकी धुन का रिकॉर्ड लगा दिया।
“कैसे हैं टॉम साहब... वहाँ बंबई में हमारी डायना कैसी हैं?” सामने नादिरा को खड़ी देख वह अचकचा गया-”अरे आप?”
“हाँ... घर में मन नहीं लग रहा था और डायना के हालचाल भी जानने थे।”
टॉम ने ग्रामोफोन बंद कर दिया और नादिरा को सोफे पर बिठाते हुए पैग ऑफर करने लगा। नादिरा खिलखिलाकर हँस पड़ी-”तौबा, तौबा... हमारे लिए गुनाह है शराब... ।”
“नहीं, मुसलमानों के साथ मैंने शराब पी है। खान साहब भी तो पीते हैं।”
“उनकी अल्लाह जाने... मैं तो रोजे नमाज वाली हूँ... मेरे लिए गुनाह है ये।”
टॉम इस वक्त धार्मिक बहस के मूड में नहीं था। बात बदलते हुए पूछा-”हैं कहाँ खान साहब?”
“गए हैं दोनों लड़कियों को लिवा लाने श्रीनगर... बहुत दिनों से वे अपनी दादी के पास हैं न।”
“ओह, तब तो आपका अकेले घर में मन लगना मुश्किल है... आज आप डिनर हमारे साथ लें।”
नादिरा ने इनकार नहीं किया। बोनोमाली दोनों कुत्तों को घुमाकर लौट रहा था... ब्लॉसम हॉल में बिछे कालीन पर उछलकूद कर रही थी। टॉम की आँखों में नशे की वजह से गुलाबी डोरे तैर रहे थे। सामने नादिरा का लाजवाब हुस्न था... कश्मीरी काढ़ के काले सलवार कुरते में वह गजब ढा रही थी। कमर तक खुले काले बाल जैसे काली घटाएँ... गोरे गोल चेहरे पर झील-सी गहरी खूबसूरत आँखें और भरे-भरे होठ... जब वो डिनर के लिए उठने लगा तो उसने नादिरा के आगे हाथ बढ़ाया-”चलिए... टेबल लग चुका है।”
नादिरा ने उसके बढ़े हाथ को तवज्जो नहीं दी और खुद ही उठकर डाइनिंग टेबल तक आई। बोनोमाली प्लेटें लगा रहा था। काँच के डोंगों में चिकन शोरबेदार... एक-दो सब्जियाँ, रायता, पुडिंग, सलाद... दौड़-दौड़कर गरमा-गरम फुलके दोनों की प्लेटों में परोसते बोनोमाली के हाथ बिजली की फुर्ती से चलते... और टॉम इसरार करता... “और लीजिए... आपने तो कुछ लिया ही नहीं।”
नादिरा तकल्लुफपसंद नहीं थी। खुलकर जीना उसकी आदत थी... सो डिनर में भी कोई नाज-नखरे नहीं दिखाए उसने। खाने के बाद दोनों आधा पौन घंटे तक गपशप करते रहे... हालाँकि यह वक्त बहुत भारी पड़ रहा था टॉम के लिए। नशे और डिनर के बाद उसे औरत चाहिए। भरपूर लाजवाब हुस्न था सामने पर एकाएक हिम्मत नहीं पड़ रही थी नादिरा को छूने की।
नादिरा के जाने के बाद वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा... नींद कोसों दूर चली गई थी और अपनी तनहाई पर जार-जार रोने को मन कर रहा था टॉम का।
अगली शाम ऑफिस से लौटकर तरोताजा होकर वह नादिरा के बंगले खुद ही पहुँच गया। नादिरा उस वक्त क्रोशिया बुन रही थी उसे देखते ही मुस्कुराई।
“कैसी बीती रात? नींद आई डायना के बिना?”
“मत पूछो... मुझसा अकेला शायद ही कोई हो इन दिनों।” टॉम बेतकल्लुफी से सोफे पर बैठ गया।
“वो कैसे भला? डायना बंबई में अकेली है, खान साहब श्रीनगर में और मैं यहाँ... “
“तो क्यों न हम इस जुदाई को मिल-बाँट कर जिएँ।” टॉम ने इरादतन कहा।
नादिरा ने उँगली में लपेटा डोरा खोलते हुए क्रोशिया टेबिल पर रख दिया-”बिल्कुल जनाब... कैरम खेलते हैं पर उसके पहले एक-एक कप कॉफी। मैं कॉफी बहुत अच्छी बनाती हूँ।” कहती हुई वह रसोईघर की ओर चल दी। हीटर ऑन कर कॉफी का पानी चढ़ाया और प्लेटों में नाश्ता निकाल ही रही थी कि टॉम ने दबे पाँव आकर उसे पीछे से दबोच लिया।
नादिरा लड़खड़ा गई-”मिस्टर टॉम, यह क्या... ।”
लेकिन बात अधूरी छूट गई। उसके होठों पर टॉम के होठों का कसाव था। वह छटपटाकर परे हटी और घूर-घूर कर टॉम को देखने लगी। लेकिन टॉम होश में कहाँ था। उसने गोद में नादिरा को उठाया और सीधा उसके शयनकक्ष में दाखिल हो गया।
“यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। खान साहब सुनेंगे तो... ।”
पर इसी बात से तो निश्चित था टॉम। एक पुलिस कमिश्नर की बीवी शोर करके मजमा तो इकट्ठा करेगी नहीं, इज्जत का सवाल है। न ही खान साहब को बताएगी क्योंकि उनकी उँगली उसकी ओर भी उठ सकती है... शादीशुदा जिंदगी नर्क हो जाएगी नादिरा की और नादिरा के सिले होठों का खूब फायदा उठाया टॉम ने। पंद्रह दिन तक जब तक खान साहब लौट नहीं आए वह रात के सन्नाटे में नादिरा के बंगले में दाखिल होता और आधी रात को घर लौट जाता। औरतों के मामले में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाली, बहस करने वाली, आधुनिक विचारों की बुद्धिमान नादिरा टॉम से हार मान कर हर रात कैसे उसे अपना जिस्म सौंपती रही... यह वह खुद नहीं समझ पाई। जबकि वह जानती थी कि यह सब वक्ती तौर पर है। टॉम के मन में उसके लिए जरा भी प्यार नहीं है... फिर भी... तो कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके ही मन का एक कोना खान साहब के प्यार से अधूरा छूट गया हो और अब जिस पर टॉम ने कब्जा जमा लिया हो।
खान साहब के लौटने के दूसरे दिन टॉम मध्यप्रदेश के जंगलों की ओर टूर पर भेज दिया गया। चंडीदास के बंबई जाने और कोठी पर ही ठहरने की बात उसे पता चल गई थी। वैसे भी उसमें छुपाने जैसा कुछ था नहीं। डायना और टॉम की अपनी अपनी अलग तरह की जिंदगियाँ थीं। अपने शौक थे, अपनी पसंद, अपने उसूल उसमें एक-दूसरे का दखल नहीं के बराबर था लेकिन जब बात टॉम के हक को छूने लगती है तो वह बर्दाश्त नहीं कर पाता। वह जानता था दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं। उसके मन में हमेशा शंका रहती थी कि कहीं डायना उसे तलाक न दे दें। वह जब भी यह बात सोचता उसकी रातों की नींद उड़ जाती और वह देर रात तक शराब पीता रहता। नहीं, वह किसी भी कीमत पर डायना को नहीं छोड़ सकता। न वह खुद उसे छोड़ेगा न डायना को छोड़ने देगा। हर बार सोचता है कि डायना को इतना प्यार करे कि उसके कदम बहकने ही न पाएँ, कोशिश भी करता पर डायना के नजदीक जाते ही उसकी यह कोशिश हवा में ताश के महल-सी ढह जाती। निश्चय ही डायना की खूबसूरती, बुद्धिमानी अमीर घराने में हुई उसकी परवरिश, उसका शालीन स्वभाव उसके आड़े आ जाता। और आड़े आ जाती लंदन में घटी वह घटना जब डायना के पिता ने उसे मामूली किसान परिवार से उठाकर अपना दामाद बनाया था... अब महसूस होता है जैसे वह एहसान नहीं था बल्कि भीख में मिला एक रिश्ता था जो उम्र भर टॉम को यह भूलने नहीं देगा कि उसने किस तरह कई-कई दिन बिना खाए कैंब्रिज में अपने पढ़ाई के साल पूरे किए हैं। अचानक उसे कैंब्रिज के दिनों का अपना दोस्त जॉन याद आया जो आजकल कैम्ब्रिज में ही लिटरेचर पढ़ाता है और जब भी वह लंदन जाता है डायना की कोठी पर वह जॉन के साथ ही अपनी शामें गुजारता है। जॉन उसका अंतरंग मित्र है... वह अपनी समस्या उसके सामने रखेगा, उससे सलाह लेगा और यह सोच कर टॉम को बड़ी राहत मिली।
डाक बंगले में उसके साथ चार अंग्रेज अफसर और थे जो चुहलबाज और खाने-पीने वाले नजर आ रहे थे। लेकिन आज टॉम का मन कहीं नहीं लग रहा था। उसे बड़ी शिद्दत से लंदन याद आ रहा था जहाँ की सड़कों पर बारिश में भीगते हुए वह कितनी ही बार जॉन के साथ गुजरा है। तब उनकी जेब में इतने पैसे नहीं रहते थे कि वे किसी अच्छे रेस्तराँ में बढ़िया-सी कॉफी पी सकें या टोस्ट के साथ मक्खन भी ले सकें। वे टहलते हुए लंदन सिटी से दूर देहातों की ओर चले जाते। सच पूछो तो उन्हीं देहातों में टॉम का बचपन गुजरा है। वहाँ उसका छोटा-सा घर था ओर दूसरों के खेत जिनमें उसके पिता खेती किया करते थे। बाद में वे बर्मिघम आकर बस गए थे... वह जॉन के साथ किसी देहाती कहवाघर में बैठकर कहवा पीता और चूल्हे की आँच तापता था। कैसे दिन थे वे भी... अनिश्चित, दुर्निवार और सरक-सरक कर बीतने वाले। बाद में... काफी समय गुजर जाने के बाद जब डायना के साथ उसकी शादी हुई तो वह दोस्तों के बीच रश्क का विषय बन गया था। उसकी तकदीर पर सभी गश खा रहे थे पर शायद वे जानते नहीं थे कि डायना के पिता ने बहुत सोच-समझ कर यह शादी की थी। उन्होंने समृद्ध घरानों के बिगड़ैल लड़कों को देखा था जो एक डेढ़ साल बाद तलाक तक नौबत ला देते थे... कम-स-कम यह गरीब लड़का डायना की समृद्धि से तो बँधेगा। उड़ती चिड़िया के मजबूत पर पहचान लिए थे उन्होंने। टॉम उनकी उम्मीदों पर खरा उतरा था।
कोई दरवाजा खटखटा रहा था। जंगल निबिड़ एकांत में ऊँघ रहा था... नहीं, आज वह किसी तरह के मूड में नहीं है जबकि उसके अंग्रेज सहकर्मी जानते थे कि इस वक्त टॉम कभी सोता नहीं... अक्सर कहता है मैं अपनी रात किसी को नहीं दे सकता चाहे वह ईश्वर ही क्यों न हो... मेरी रात सिर्फ मेरी है।
पर आज इस हक का भी मूड न था, उसने अपने साथियों से क्षमा मांगी और अनमना-सा बिस्तर पर जाकर लेट गया। पर इस वक्त नींद कैसी... उसकी आँखों के आगे तो चंडीदास सवाल बनकर खड़ा था। सारी जिंदगी तूफानों से भर दी थी चंडीदास ने... वह उससे छुटकारा पाना चाहता था, पर कैसे? उसने अपनी फाइल में से कागज निकाला और जॉन को खत लिखने लगा-
जॉन, मेरे दोस्त,
जिस नाटक के सूत्र ने मुझे डायना से मिलवाया था वही नाटक का सूत्र अब मेरा सिरदर्द बन गया है। डायना की जिंदगी में एक कलाकार ने घुसपैठ मचा दी है। मैं बहुत तनाव में हूँ। समझ नहीं पा रहा हूँ कैसे छुटकारा पाऊँ... मैं खुद अलग हट जाऊँ या उस घुसपैठिए को अलग हटाऊँ जो आसान नहीं है। डायना ने उसे अपने जीवन में रचा-बसा लिया है। न जाने क्या जादू है उस बंगाली महाशय में... उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें जरूर जादू जानती हैं वरना डायना जैसी शख्सियत आसानी से पिघल नहीं सकती। वह काँटा मेरी जिंदगी में गहरे चुभकर अब नासूर बनता जा रहा है... डायना मुझसे दूर होती जा रही है... बताओ जॉन, क्या करूँ?
पत्र लिखकर टॉम का तनाव हलका-सा कम हुआ। उसने पैग बनाया और बरामदे में कुर्सी पर बैठकर चाँदनी में डूबा सौंदर्य अपने पेग के साथ घूँट-घूँट पीने लगा। उसके चारों साथी सो चुके थे। इस वक्त डायना क्या कर रही होगी... नया प्रोजेक्ट लाँच करके क्या उसे सचमुच खुशी हुई होगी या यह सब मेरे आग्रह पर बेमन से किया उसने? सोचते-सोचते टॉम कब बिस्तर पर आया, कब नींद के आगोश में चला गया, पता ही नहीं चला।
दूसरे दिन... पूरा दिन... शाम और रात तक वे सब ऑफिस के काम में व्यस्त रहे। खाना खाने तक की फुरसत नहीं मिली... रात जो बिस्तर में ढेर हुए तो सुबह ही नींद खुली। वह पूरा दिन छुट्टी का था। नाश्ते के बाद टॉम अपने साथियों के साथ नदी में तैरने निकल गया। डाक बंगले के चौकीदार ने सतर्क कर दिया था-”साहब... नदी में मगरमच्छ है, जोड़े से रहता है।” वे सावधानी से तैरते रहे... मगरमच्छ की छाया तक उनके नजदीक नहीं फटकी। नदी से लौटकर उन्होंने लंच लिया और दोपहर भर सोते रहे, क्योंकि रात को शिकार का कार्यक्रम था।
उतरते अक्टूबर की खुनकी भरी रातें... सबने आधी बाँह के स्वेटर पहन लिए थे। जंगल का महकमा सँभालने वाले ताराबाबू और मुसद्दीलाल को इंतजाम करने का जिम्मा दिया गया था। ताराबाबू ने ही तो बताया था कि जंगलों में चीता, गुलबाघ और शेर है... .रात के सन्नाटे में शिकार की टोह में निकलते हैं ये जानवर। शिकार के लिए जरूरत थी पेड़ पर मचान की, गारे की और सर्चलाइट की।
झुटपुटे अंधेरे में ही उन्होंने दो-दो पैग व्हिस्की के लिए... सिर्फ खुद को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए। क्योंकि वे शिकार के लिए जा रहे थे। इसलिए होश में रहना जरूरी था। मुर्गा और रोटियाँ सलाद के साथ उस जंगली इलाके में बड़ा मजा दे रही थीं। रात गहराते ही वे जीप से घने जंगल तक आए और बंदूकों से लैस हो मचान पर जाकर बैठ गए। मुसद्दीलाल चाय से भरा थरमस लिए मचान के सिरे पर बैठा था। ताराबाबू जीप को सही जगह खड़ी करने गए थे। दूर पेड़ के तने से बकरी बँधी थी जो रह-रहकर मिमियाती और पहचल सुन शांत हो जाती। थोड़ी देर में ताराबाबू भी लौट आए और सर्चलाइट का काम सँभाल लिया। ठंडी, कंटीली हवा में पत्तों की सरसराहट खौफ पैदा कर रही थी। चारों और ऊँचे-ऊँचे दरख्त काले भूत से नजर आ रहे थे। सन्नाटे में कोई सियार हुआ-हुआ करता तो पेड़ों की टहनियों पर और घोंसलों में बैठे पंछी पंख फड़फड़ाने लगते। चाँद जब आसमान के बीचोबीच आ गया तो चाँदनी और भी उज्ज्वल होकर झरने लगी। मचान के ऊपर से एक टिटहरी “टिहु टिहु” की पुकार करता जैसे चाँद की ओर ही उड़ा जा रहा था। जब वे पाँचों जम्हाईयाँ लेने लगते तो मुसद्दीलाल थरमस में से गरमागरम चाय प्यालों में उँडेलने लगता... न शेर, न चीता, न गुलबाघ... कोई दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। रात ढलने को आ गई। बकरी मिमियाते-मिमियाते थक गई पर कहीं चमकती दो आँखें नजर नहीं आई। धीरे-धीरे सुबह के उजाले में जंगल स्पष्ट होने लगा। वे सभी मचान से उतरे। टॉम ने बंदूक कंधे से उतारकर मुसद्दीलाल को थमा दी-”मुसद्दीलाल, क्या तुम श्योर हो कि जंगल में शेर, बाघ, चीता है।”
“हओ मालिक... अपनी इन्हीं आँखों से देखा है हमने। इधर परली तरफ नदी बहती है, उसी में पानी पीने आते है सब।”
“चलो दिखाओ वो नदी... “
“अरे वही नदी तो इधर से निकलती है जिसमें आप सब नहाए रहे।”
सुबह की ताजी हवा में वे सब जंगल में चहलकदमी कर रहे थे।
“ताराबाबू... तुम सब सामान जीप में रख लो... मुसद्दीलाल... तुम भी ताराबाबू की हैल्प करो... तब तक हम लोग घूमकर आते है।”
पाँचों जंगल की नर्म लचीली घास पर अपने जूतों के निशान बनाते घूमने लगे। दरख्तों पर रंग-बिरंगे जंगली फूल बहुतायत से खिले थे जिनकी मीठी और तुर्श महक हवा में तैर रही थीं... ... पंछियों की चहचहाहट जंगल को जीवंत कर रही थी। तभी एक आदिवासी औरतों का झुंड वहाँ से निकला। झुंड नहीं बल्कि एक सधी हुई पंक्ति में वे एक के पीछे एक चली जा रही थीं... शीशम-सी चमकदार काली... घुटनों तक बंधी साड़ी। ब्लाउज नदारद... साड़ी के पल्ले से ही अपना यौवन ढके हुए... पाँचों का मन चंचल हो उठा। वे कसमसाए से खड़े देखते रहे। औरतों की पंक्ति आँखों से ओझल हो सामने पहाड़ की तराई में खो गई। वे आपस में उनके यौवन की चर्चा करते घूमने लगे। विशाल बरगद की जटाओं का फैलाव देखकर वे चकित थे। टॉम ने ऐसा ही बरगद कलकत्ते के बोटेनिकल गार्डन में देखा था। जटाएँ जमीन में धँसी हुई थीं, दरख्त की टहनियों, पक्तियों का चँदोवा तनता चला जा रहा था। वहीं घास पर साड़ी-सा कुछ था... हाँ... नीले रंग की सूती साड़ी धूप में सूख रही थी। साड़ी की दिशा में ही एक बावड़ी थी... पाँचों ने बावड़ी में झाँका... काई लगी सीढियाँ गोलाकार,बीचोंबीच धूप में झिलमिलाता बावडी का शीतल जल... सीढ़ियों पर बैठकर लोटे से नहाती एक आदिवासी औरत, बिल्कुल नग्न... शायद उसके पास एक ही साड़ी थी जो उसने धोकर धूप में फैला दी थी और सुनसान जंगल में निश्चिन्त हो नहा रही थी। पाँचों उसे देखकर सीटी बजाने लगे। उसने चौंककर ऊपर देखा और घबराकर अपने दोनों हाथों का क्रॉस बनाते हुए खुद को छुपा लिया पर तब तक टॉम सीढ़ियाँ उतर चुका था। उसने अपना हाथ औरत की ओर बढ़ाया। औरत ने इंकार में सिर हिलाया... उसके नग्न बदन से पानी की बूँदे चू रही थीं और ठंडी हवा और घबराहट में वह काँप रही थी। टॉम ने जबरदस्ती उसका हाथ पकड़कर उसे ऊपर खींचा और चिल्लाया-”फिनले... नीचे आओ, हेल्प करो।”
उनमें से फिनले नामक अंग्रेज नीचे उतरा और टॉम के साथ औरत को टाँगों, हाथों से पकड़कर झुलाते हुए लाकर घास पर पटक दिया। सभी के इरादे स्पष्ट थे। सबसे पहले टॉम ने फिर चारों ने बारी-बारी से उसके साथ बलात्कार किया। औरत कमसिन थी, उसकी चीख आसपास के दरख्तों को हिला रही थी... उसने अपनी शक्ति भर उनका विरोध किया... नोचा, खसोटा... पर वे पाँच थे... जब आखिरी अंग्रेज युवक उसके बदन को भेड़िए-सा चीथ रहा था तभी एक आदिवासी युवक वहाँ आया और चीखता हुआ अंग्रेजों पर पत्थर उठा उठा कर बरसाने लगा... अंग्रेज निहत्थे थे... बंदूकें मुसद्दीलाल के पास थीं... वे मचान की दिशा में भाग गए।
दोपहर होते-होते उनके डाक बंगले को आदिवासियों ने घेर लिया। उनके हाथों में तीर कमान, भाले आदि थे और वे अपनी भाषा में अंग्रेजों को ललकार रहे थे। मुसद्दीलाल घबराया हुआ आया-”साहिब, बाहर मत निकलना... वे लोग बहुत खूंखार हैं... उस औरत ने बावड़ी में कूदकर जान दे दी हैं।”
“तो? उनसे कहो सीधी तरह चले जाएँ... हमारे पास बंदूकें हैं।” टॉम ने निर्दयता से कहा।
“नहीं साहिब... यह गलती मत करना... यहाँ इन जंगलों में आदिवासियों के बड़े-बड़े कबीले रहते हैं... आग लगा देंगे जंगल को, डाक बंगले को... साहिब, आप तो चले जाएँगे। मैं बेमौत मारा जाऊँगा। मेरी नौकरी का सवाल है, रहना तो मुझे जंगल में ही है।” मुसद्दीलाल ने गिड़गिड़ाकर कहा।
“तब क्या करें... उनके तीर का निशाना बनें क्या?” टॉम ने आँखें तरेरीं।
“बस, निकलिए मत बाहर... और हमें थोड़े रूपए दीजिए बाकी हम सँभाल लेते हैं।”
टॉम ने पर्स ही थमा दिया मुसद्दीलाल को। वह बाहर आया। न जाने क्या समझाया, क्या किया... आधे घंटे बाद जब वह कमरे में लौटा तो टॉम का पर्स खाली था और आदिवासी जा चुके थे। टॉम हँसा-”भूखे... कुत्ते... ।”
और बिस्तर पर गहरी नींद लेने के लिए आराम से लेट गया।
शाम का वक्त था। सूरज अस्त हो रहा था। उसकी हलकी पड़ती किरणें बंगले के सतरंगी काँच पर पड़कर माहौल को इंन्द्रधनुषी बना रही थीं। टॉम लौट आया था... हर बार की तरह खुश, तरोताजा होकर... अब सबसे पहला काम उसे यह करना है कि चंडीदास के बारे में एक बार फिर ठंडे दिल से एकांत में बैठकर सोचना है और तब जॉन को पत्र भेजना है और फिर जवाब का इंतजार... इंतजार। यही इंतजार तो उसे खाए जाता है। वह बहुत जल्द हर बात का जवाब चाहता है। एक तरह की हड़बड़ाहट उसे हमेशा घेरे रहती है... न जाने क्यों? शायद भारत में न रहने की बहुत जल्दी लंदन लौट जाने की उसकी इच्छा उसे चैन नहीं लेने देती। नफरत है उसे इस देश से, देशवासियों से... काहिल, मूर्ख, गँवारों के साथ रह-रहकर वह भी वैसा ही हुआ जा रहा है। और डायना उतनी ही प्रभावित है इस देश से... हमेशा तारीफ, हमेशा भारतीयों की कला, साहित्य, नवजागरण का गुणगान... वह विवेकहीन औरत एक गुलाम से प्यार ही कर बैठी। क्या हो गया है उसकी कौम को? डायना को? सी. एफ. ऐंडूज को जिन्होंने गाँधी के पैर तक छू लिए थे और जो सबसे बड़े भारतभक्त कहलाते हैं। डायना ने ऐंडूज की किताब “इंडियन इंडिपेंडेंस इट्स इमीडिएट नीड' उसे पढ़ने को दी थी। समझ में नहीं आता कि आखिर स्वाधीन होकर क्या कर लेगा भारत? एक डग भी तो किसी के सहारे के बिना चल नहीं पाता। अंग्रेजों के आने के पहले सदियों से गुलाम ही तो रहता आया है यह देश। न जाने कितनी विदेशी कौमों ने इस पर राज किया। टॉम इतिहास का अच्छा जानकार है इसीलिए वह उँगलियों पर गिना सकता है उन विदेशी लुटेरों, हमलावरों के नाम जिन्होंने इस देश को लूटा भी और इस पर शासन भी किया है। उसे अपने इंग्लैंड पर नाज है। दुनिया के न जाने कितने देशों पर राज रहा है अंग्रेजों का... निश्चित ही नोबल कौम का है टॉम। औरों से श्रेष्ठ, बुद्धिमान और वक्त की नब्ज पकड़ने वाला। उसकी कौम का एक अंग्रेज ऐंडूज भले ही भारत भक्त हो... टैगोर के शांतिनिकेतन में रहकर भले ही प्रवासी भारतीयों के विषय में लेख लिखता हो, किताबें लिखता हो पर इस सबके पीछे आखिर उसके अंग्रेज होने का चमत्कार भी तो शमिल है। वरना बता दे कोई... कि कोई भारतीय फ्रांसभक्त है, रूसभक्त है या इंग्लैंडभक्त है। हो ही नहीं सकता। न! गुलामों की सोच इतनी परिपक्व कहाँ। उनसे तो बस गुलामी करवाओ और काम का न रहने पर गोली मार दो। उनकी औरतों को भोगो। हैं ही वे भोगने के लिए... सदियों से यही होता आया है। दुनिया ऐसे ही चलती रहेगी। कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा... परिवर्तन होगा तो बस इतना कि चंडीदास जाएगा जहन्नुम में और वह डायना के साथ दुनिया के सुख भोगेगा।
चंडीदास को अपने रास्ते से हटाने की तरह-तरह की योजनाओं पर टॉम रात बारह बजे तक विचार करता रहा। वह शराब पीता जाता था और सोचता जाता था। कोई ऐसी योजना बने कि डायना को, चंडीदास के परिवार को... अड़ोस-पड़ोस को कुछ पता ही न चले और वह चंडीदास से छुटकारा पा ले। पर कैसे? क्यों न जॉन को लंदन से यहाँ बुला लिया जाए? या वह खुद ही कुछ दिनों के लिए लंदन चला जाए। हाँ-यही ठीक रहेगा। लंदन में जॉन के साथ सारी समस्याओं पर अच्छे से विचार किया जा सकता है और एक बलवती योजना बनाई जा सकती है। बहुत ज्यादा एहतियात की जरूरत है क्योंकि चंडीदास एक प्रसिद्ध गायक, अभिनेता और चित्रकार हो चुका है। उसका दल काफी सदस्यों वाला, संगठित और जाना-माना है। अकाल राहत कोष के लिए उसने जो धूम मचाई थी, वाहवाही लूटी थी... पूरा बंगाल उसे मानने लगा था। उसके बारे में बहुत सोच-समझकर फैसला लेना होगा।
यही ठीक रहेगा कि वह लंदन चला जाए। वह बंबई होते हुए लंदन जाएगा। डायना से मिल भी लेगा। काफी महीने बीत गए हैं मुलाकात नहीं हुई। डायना आई ही नहीं कलकत्ते... उसका बिजनेस में मन लग गया है और यह कल्पना करते ही टॉम खुशी से भर उठा... बिजनेस में मन लगना यानी करोड़ों का स्वामित्व... खुशी और नशे से धीरे-धीरे उसकी आँखें मुँदने लगीं।
मलाबार हिल में जिस कोठी में डायना रहती थी उसी को उसने खरीद लिया था। बंबई में उसका मन लग गया था। एक तो यहाँ चंडीदास के संग जीने का मौका मिल गया था। चंडीदास कलकत्ते की अपनी संगीत कक्षाएँ भी सँभाल रहा था और बंबई में नाटक और गायकी से गहराई से जुड़ गया था। इप्टा का आकर्षण जबरदस्त था। पूरे भारत में इप्टा के रंगकर्मी फैले हुए थे जो नित नए प्रयोग करते। कभी-कभी तो अलग-अलग प्रदेशों से आए हुए कलाकार अपनी-अपनी भाषाओं में लोकनाट्य शैली के कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे। बंगाल के... बल्कि सिर्फ कलकत्ता और शांतिनिकेतन के कलाकारों के साथ चंडीदास भी “जात्रा” पर एक अनूठा कार्यक्रम तैयार करने की योजना बना रहा था। इन सब कामों के लिए बंबई सुरक्षित गढ़ था। चंडीदास के कई गीत रिकार्ड की शक्ल में बाजार में आ गए थे। गायन में डायना भी पीछे नहीं थी। उसकी बेहतरीन उर्दू मिश्रित हिंदी से संगीतकार दंग थे और उसे गवाने में पीछे नहीं थे। उसके चंडीदास के साथ तो गीत आए ही... शास्त्रीय गायन में भी उसने कइयों को पीछे छोड़ दिया था।
ब्लॉसम, पोर्गी और बेस को डायना क्रिसमस में कलकत्ता जाकर बंबई ले आई थी। मलाबार हिल में वह अकेली नहीं थी। कोठी में उसके साथ जॉर्ज और दीना भी रहते थे, पारो का पति दुर्गादास भी बंबई आ गया था और कोठी का सारा दीगर काम सँभाल लिया था। टॉम ने कलकत्ते से ही डोरोथी को डायना का केयर टेकर बनाकर भेजा था जो अधेड़ उम्र की, थुलथुल ईसाई महिला थी और खूब रुआब झाड़ती थी। इस तरह कोठी आधा दर्जन लोगों को लेकर आबाद थी। चंडीदास का कमरा उसके लिए हमेशा तैयार रहता... सजा सजाया... अगर वह कलकत्ते चार-पाँच दिनों या हफ्ते दस दिन के लिए गया होता तब भी पारो अपने बाबू मोशाय के कमरे में ताजे गुलाब के फूल गुलदान में रखना नहीं भूलती थी।
क्रिसमस में डायना कलकत्ता आई थी। चंडीदास भी उन दिनों कलकत्ते में ही था लेकिन ज्यादातर शांतिनिकेतन में। वहाँ के छात्र एक अँग्रेजी नाटक का हिंदी रूपांतर कर रहे थे ताकि चंडीदास उसका मंचन कर सके। शांतिनिकेतन में ही चंडीदास के एकल चित्रों की प्रदर्शनी भी लगने वाली थी। डायना ने अपने आने की पूर्व सूचना टॉम को नहीं दी थी... वह उसे सरप्राइज देना चाहती थी। जैसे ही उसके आने की सूचना बोनोमाली ने टॉम को दी वह हड़बड़ाया हुआ बेडरूम से बाहर निकला... पीछे-पीछे नादिरा... चकरा गई डायना। यह क्या? टॉम के कारनामों से तो वह परिचित थी पर नादिरा से उसे यह उम्मीद नहीं थी। वह मुँह फेरकर सोफे पर बैठ गई। नादिरा उसके पास आई। उसके हाथों को अपने हाथ में लेकर बोली-”मुझे माफ कर दो डायना... लेकिन इतना जान लो... तुम्हारा पति तुम्हें बिल्कुल नहीं चाहता... कैसे तुमने जिंदगी के इतने साल उसके साथ बिता दिए।”
डायना तैश में भर उठी-”कहना क्या चाहती हो नादिरा तुम? खुद को गुनाह से बचा रही हो?”
“नहीं डायना... मेरी मजबूरी ऊँचे खानदान से जुड़ाव के कारण थी और टॉम ने उसी बात का फायदा उठाकर मेरा यौनशोषण किया... तुम्हें गए साल भर से ऊपर हो गया... मैं इसकी शिकार होती रही। इसकी वासना की।”
“तो क्या करता? तुम्हारी गैरमौजूदगी में खुद को कहाँ उलीचता? और ये गुलाम... तुम इनकी परवाह करती हो डायना... ये तो होते ही भोगने के लिए हैं।”
“यू बास्टर्ड” कहते हुए नादिरा तेजी से उठी और उसने टॉम के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया-”हमारे... भारत के टुकड़ों पर पलने वाले तुम अँग्रेज किस मुँह से हमें गुलाम कहते हो? कोई खजाना लेकर आए थे इंग्लैंड से जो रुआब मारते हो... ऐसे खदेड़े जाओगे कि कभी इधर का रुख नहीं करोगे।”
और वह पैर पटकती वहाँ से चली गई। सब कुछ सिनेमा की रील की तरह डायना की आँखों के सामने से गुजरा और फिर सीन गायब... पटाक्षेप... ।
डायना के मन में टॉम के प्रति कोई भावनाएँ न तो पहले थीं, न अब हैं... हाँ उसके प्रति उदासीनता में और इजाफा हो गया था। लेकिन इस बात ने... टॉम की इस दलील ने उसे गहरे आघात पहुँचाया था कि डायना की अनुपस्थिति में वह अपने को कहाँ उलीचता। अचानक अपने आप से घृणा-सी होने लगी उसे कि वह टॉम की जिंदगी में बस इतना महत्व रखती है कि उसकी वासना के विकार को अपने शरीर पर झेले। हे प्रभु! यह कैसी उसकी जिंदगी है? कैसी नियति कि एक ओर प्यार से लबालब खजाना उसके इंतजार में है तो दूसरी तरफ वासना की वह आग जो उसे लील जाने को आतुर है। उस आग की लपटों में झुलसकर क्या वह साबुत बच पाएगी? और क्या अपना खंडित स्वरूप अपने चंडीदास के चरणों में अर्पित करेगी? डायना का सिर चकरा गया। अचानक उसे सिरदर्द महसूस हुआ और वह सिर पकड़कर वहीं सोफे पर लेट गई। टॉम बेशर्मी से उसके नजदीक आया-”सिर दुख रहा है। दवा भिजवाता हूँ।”
डायना के कान सुन्न हो चले थे... वह नीमबंद आँखों से देखती रही... बोनोमाली दवा लाया है... पारो चाय बनाकर सिरहाने खड़ी है। फिर प्याला बोनोमाली को पकड़ाकर उसके तलवे सहलाने लगती है... जैसे चंडीदास सहलाता है। वह मन ही मन बुदबुदाई-”मैं सिर्फ तुम्हारी हूँ चंडी और तुम उस प्रभु का अंश जिसने मुझे बनाया है।”