टेम्स की सरगम / भाग 5 / संतोष श्रीवास्तव

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एक डायना वह है जो चार सालों से बंबई में अपना कारोबार सँभाल रही है... एक डायना वह है जो गायन-वादन के क्षेत्र में तहलका मचाए है। तहलका इसलिए कि वह अंग्रेज है लेकिन अंग्रेजी संगीत से उसका दूर-दूर तक वास्ता नहीं... उसके अंदर जो संगीत बसा है वह शुद्ध भारतीय है। संगीत उसकी आत्मा है। और एक डायना यह जिसके लिए चंडीदास उस प्यार का देवता है जिस प्यार को पाने के लिए वह तरसती रही थी। चंडीदास के साथ उसका रिश्ता एक साथी का, एक प्रेमी का और अब एक हमसफर का है और यह बात चंडीदास के साथ बिताए इन छह वर्षों में डायना से जुड़े हर व्यक्ति ने जान ली है। टॉम ने भी। टॉम उसका दुनियावी पति जरूर है पर डायना के दिल ने उसे कभी नहीं स्वीकारा। वह चंडीदास के संग एक विवाहिता की तरह पेश आती है जबकि उसके साथ कोई दुनियावी रिश्ता नहीं है उसका। फिर भी वह चंडीदास के साथ उसी रास्ते पर चलती है जिस पर एक वैवाहिक संबंध चलता है। मलाबार हिल की इस कोठी में हर चीज उसने चंडीदास के साथ मिल जुलकर बसाई है... और इस मायने में उसने चंडीदास के प्रति अपनी स्त्रियोचित भूमिका निभाई है। ऐसे मुक्त संबंध और पारंपरिक शादीशुदा संबंधों में एक छोटे से हाशिए भर का तो फर्क है। डायना इस बात को स्वीकार करती है कि टॉम के साथ शादी के इन आठ वर्षों में उसने महज एक नीरस और उबाऊ जिंदगी जी है... एक ऐसी जिंदगी जो सिर्फ टॉम की है और डायना का उसमें प्रवेश महज पत्नी होने के नाते है। वरना कहीं से, किसी भी कोण से टॉम उसके योग्य नहीं।

क्रांति अपने चरम पर थी। हर प्रदेश सुलग रहा था। हर तरफ एक ही आवाज बुलन्द थी... आजादी... आजादी... हमें आजादी चाहिए... चले जाओ अंग्रेजों... छोड़ो हमें ताकि हम मानसिक और शारीरिक गुलामी से आजाद हो सकें... हम सोच सकें अपनी संस्कृति, धर्म और दर्शन को।... कवियों की कविताएँ झँझोड़ रही थीं भारतीय मानस को... ईसा, मुहम्मद आदि का जग में न था कोई पता, तब की हमारी सभ्यता है कौन सकता है बता? न केवल भारत में यह बदलाव था बल्कि संसार भर के हालात बदलाव के कगार पर थे। अंतरराष्ट्रीय स्वरूप भी बदल रहा था... खलबली मची थी। जापान तहस-नहस हो चुका था... आग... आग... हर ओर मानवता को लीलती आग। घबराकर डायना ने जॉर्ज से कहा था-मेरे ख्याल में अब हमें अपनी कंपनी बंद कर देना चाहिए।”

“हाँ मैडम... देश के हालात तो यही कहते हैं। कभी भी ईस्ट इंडिया कंपनी के पैर उखड़ सकते हैं।”

“हमें वापिस कलकत्ते चलना चाहिए और वहीं मिल बैठकर सोचना चाहिए। यह समय बिखराव में रहने का नहीं है।” डायना ने सोच समझकर जॉर्ज के सामने प्रस्ताव रखा था और जब चंडीदास रिकॉर्डिंग से लौटा तो यही बातें उसने चंडीदास के सामने भी रखीं।

“मेरी भी यही राय है... मैं भी बाबा, माँ के लिए यहाँ परेशान रहता हूँ... कलकत्ता भी क्रांति की लपटों की गिरफ्त में है। कभी भी कुछ भी हो सकता है।”

“लेकिन कलकत्ते में तुम करोगे क्या? अब तो नौकरी भी नहीं है तुम्हारी?”

“वे तो अब भी बुलाने को उतावले बैठे हैं पर अब मैं नौकरी नहीं करूँगा... अपने इंस्ट्टियूट को ही आगे बढ़ाऊँगा और इप्टा से जुड़ा रहूँगा।”

डायना को चंडीदास की बात में वजन महसूस हुआ। अब वह लोकप्रियता के ऐसे मुकाम पर है जहाँ से राह नहीं बदली जा सकती।

कोठी बेचने का विज्ञापन अखबारों में जॉर्ज ने दे दिया था... दीना ने पारसाल जुड़वाँ लड़कों को जन्म दिया था। उसने पिता अपने परिवार सहित सूरत जाकर बस गए थे और दीना की योजना जॉर्ज के साथ लंदन जाकर बसने की थी। वहाँ जाकर वे डायना का पूरा कारोबार सभाँल लेंगे। पर इस योजना में डायना की रजामंदी की मुहर लगनी बाकी थी। दीना डायना को प्यार करने लगी थी... लगता था जैसे दोनों एक ही कोख से जन्मी बहनें हैं। दीना का कोई भी काम डायना के बिना पूरा नहीं होता था। शायद यही वजह थी कि उसे लंदन जाने की अनुमति नहीं मिली।

देश के साथ-साथ डायना के परिवेश में भी आमूलचूल परिवर्तन होने से वह उदास थी। ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ बिखर रहा है। मुँह अंधेरे ही उसकी आँख खुल गई। वह चंडीदास की बाहों से अपने को अलग कर खिड़की के पास आ खड़ी हुई। आँखें निबिड़ गहरे अंधेरे में ठहर-सी गईं। ब्रह्ममुहूर्त का यह समय सबसे ज्यादा रहस्यमय होता है। डूबते चाँद का फीका आलोक ढल चुके समय को कुरेद कर रख देता है। सागर के रेतीले तट पर बनाए बच्चों के घरौंदे ढूह में बदलते नजर आते हैं। पीछे मलाबार हिल का हरा-भरा समंदर, आगे पल-पल में बदलता हहराता अरब सागर... दोनों के बीच रुकती चलती हवा की सुबुक साँस में समा गई... लगा जैसे यह हवा उस लहर, लहर की हर बूँद को अपने में समो लेना चाहती है जो तट से टकराकर अभी-अभी सागर में लौटी है... लौटेगी और मिट जाएगी... क्या यही जिंदगी का भी दर्शन है?

अचानक चंडीदास की नींद खुली। डायना को बिस्तर पर न पाकर वह बेचैन हो उठा। दबे पाँव आकर उसने डायना को पीछे से आलिंगन में भर लिया। डायना के चेहरे पर हलकी स्मित थी-”तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है।'

चंडीदास अधीर हो उठा-”बताओ तो।”

“हमारे प्यार का फूल खिलने वाला है... हमारा अपना शिशु... जो मेरे अंदर प्रवेश कर चुका है।”

चंडीदास विस्मय से आँखे फाड़ें डायना को देखने लगा, मानो यकीन न आ रहा हो... “डायना... मेरी राधे... क्या यह सच है?”

“हाँ चंडी... कल ही डॉक्टर ने चैकअप करके बताया कि मुझे एक महीने की प्रेग्नेंसी है।”

“ओ माई गॉड... राधे मैं पागल हो जाऊँगा।” और उसने डायना को गोद में उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया और उसे बेतहाशा चूमने लगा-”अब मुझे चिंता नहीं... मेरे अधूरे छोड़े कामों को हमारा यह शिशु पूरा करेगा... मैं उसके रूप में हमेशा जिंदा रहूँगा। मैं भी, तुम भी।”

यह जनवरी सन् छियालिस की बात है। फरवरी में टॉम आया और बंबई से पूरे तौर पर नाता तोड़ डायना कलकत्ता लौट गई। डायना की केयर टेकर डोरोथी का स्वभाव डायना को रास नहीं आया... वैसे भी पारो और दुर्गादास डायना के ज्यादा करीब थे। लिहाजा डायना कलकत्ते में अपने पुराने दिनों में वापिस आ गई जब वह पारो और बोनोमाली की देखरेख में चैन का जीवन जी रही थी। टॉम से उसके संबंध मधुर तो रहे नहीं थे लेकिन सामाजिक तौर पर दोनों पति-पत्नी की भूमिका निभा रहे थे। खान साहब का तबादला हो चुका था और नादिरा के बंगले में एक अंग्रेज पुलिस अफसर आकर रहने लगा था।

समय बीतता गया। टॉम ने चंडीदास को डायना की जिंदगी से अलग करने की जो योजना बनाई थी और जिसमें वह जॉन की राय लेने लंदन जाने वाला था सो उसका लंदन जाना हुआ नहीं क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियाँ तेजी से रंग बदल रही थीं और ऐसे में ईस्ट इंडिया कंपनी ने टॉम को लंदन जाने की अनुमति नहीं दी थी। इन सब बातों से अनभिज्ञ डायना ने नूरजहाँ के गीतों का रिकॉर्ड ग्रामोफोन पर लगाया और पारो से एक प्याला कॉफी बना लाने का कह सोफे पर आँखें मूँदे गीत का आनंद लेने लगी। इन दिनों वैसे भी उसने खुद को सब ओर से समेट लिया था और अपना पूरा ध्यान अपनी कोख में पल रहे शिशु पर लगा दिया था। क्या होगा जब यह शिशु दुनिया में आएगा। बहारों की दस्तक वह साफ सुन रही थी... लेकिन कहीं से ढीठ पतझड़ आकर उसे सहमा गया था... किन परिस्थितियों में यह शिशु जन्म ले रहा है जबकि वह चंडीदास का है लेकिन दुनिया तो टॉम को ही उसका पिता समझेगी? डायना के लिए यह बात रुला डालने वाली थी। नूरजहाँ की आवाज के साथ उसके आँसू टपकने लगे-

“आज की रात से साजे-दिले पुरदर्द न छेड़... “

“यह क्या राधिका... तुम रो रही हो?”

चंडीदास को सामने देख डायना सकपका गई। रूमाल से आँसू पोंछ मुस्कुराई-”नहीं, यूँ ही।” और ग्रामोफोन से रिकॉर्ड पर की सुई सरका दी।

“एक बात का तुम्हें वादा करना होगा राधे... मेरे शिशु के सृजन काल में तुम्हारे आँसुओं, आहों और उदासियों पर मैं कर्फ्यू लगाता हूँ... जानती हो न कर्फ्यू तोड़ने की सजा?”

डायना ने उँगलियों से बंदूक बनाकर कहा-”ठाँय... “

दोनों हँसते हुए लॉन में निकल आए। अब कलकत्ता बदला-बदला नजर आता था। जगह-जगह तिरंगे-लहराने की जद्दोजहद थी... पर इन राजनीतिक बातों से न चंडीदास को सरोकार था, न डायना को... दोनों प्रेमी युगल अपने में ही डूबे हुए थे।

“क्या वरदान मिलेगा हमें... बेटी का या बेटे का?”

“यह तो ईश्वर जानता है... तुम किसमें खुश होगे चंडी?”

“मेरी खुशी केवल इसमें है कि हमारे प्यार का पवित्र फूल खिल रहा है... फिर चाहे बेटी हो या बेटा... बेटी होगी तो मेरी रागिनी होगी, बेटा होगा तो संगीत।”

डायना खुशी के आवेग में रोमांचित हो उठी। ओह... कैसे अद्भुत होंगे वे क्षण... जब उनका प्रेम दुनिया में किलकारियाँ भरेगा।

बोनोमाली चाय की ट्रे उठाए लॉन की ओर आ ही रहा था कि टॉम आ गया। आते ही सीधा लॉन पर... डायना और चंडीदास के पास... ।

“हलो मि. सेनगुप्ता... अब तो आप सेलिब्रेटी हो गए... व्यस्त और लोकप्रिय... लेकिन इस बार थोड़ा समय हमें भी दीजिए।” चाय के प्याले तीनों के हाथों में आ गए। टॉम की उपस्थिति से डायना कसमसाई पर चंडीदास औपचारिक हो उठा-

“फरमाइए।”

“हम कुछ दिन आपके साथ गुजारना चाहते हैं। बिल्कुल एकांत में और मध्यप्रदेश के जंगलों से बढ़कर मुफीद जगह और कोई हो ही नहीं सकती जहाँ पहाड़ों से फूटते झरनों के साथ-साथ आपके और हमारी स्वीट हार्ट के सुर गूँजेंगे।”

“इसकी वजह जान सकता हूँ मिस्टर ब्लेयर... क्योंकि इतने सालों में ऐसी इच्छा कभी आपने जाहिर नहीं की।”

टॉम ने पैंतरा बदला... “सही है... सही है... “ “लेकिन इतने सालों में ऐसा भी तो नहीं सोचा था कि राजनीतिक परिस्थितियाँ एकदम इस तरह बदल जाएँगी... अब देखिए न... हमें अपना बंबई का बिजनेस समेटना पड़ा। बीच में लंदन जाना चाहता था जाने नहीं मिला।”

“हम लोग तो कलाकार ठहरे... भावुक और आज में जीने वाले। इन सब बातों में हमारी रुचि नहीं।” चंडीदास ने निर्विकार होकर कहा।

“आखिर तुम जाना कहाँ चाहते हो टॉम?”

“पंचमढ़ी... बेहद खूबसूरत जगह है। सतपुड़ा के जंगल इतने घने हैं कि धूप और हवा उसमें घुस नहीं पाती... बेहद विचित्र एहसास होता है वहाँ। मेरी इच्छा है हम तीनों वहाँ कुछ दिन चैन से गुजारें। अब तो आप फैमिली सदस्य जैसे हैं।”

“शुक्रिया मिस्टर ब्लेयर... मैं सोचकर बताऊँगा।”

“आराम से... मार्च में होली पड़ेगी... उस वक्त वहाँ के आदिवासी एक विशेष डांस करते हैं। मेरे ख्याल में वही दिन ठीक रहेंगे। आपके संगीत इंस्टिट्यूट के स्टुडेंट्स भी उन दिनों अपनी फाइनल परीक्षाओं में व्यस्त रहेंगे।”

“ठीक है... फाइनल जवाब अगले हफ्ते दूँगा। तो चलूँ अब?”

“ओके... “टॉम डायना के साथ उसे गेट तक छोड़ने आया।

फरवरी की शुरुआत थी... ठंड बेतहाशा पड़ रही थी। बोनोमाली हीटर से कमरों को गर्म रखता था... खासकर डायना के कमरे को... टॉम को फैमिली डॉक्टर से पता चल गया था कि डायना माँ बनने वाली है। एक दिन उसने दीना को यह कहते भी सुन लिया था-”मैडम... मैं तो उन दिनों खूब इमली खाती थी जब प्रेग्नेंट थी... ।”

“तो तुम प्रेग्नेंट हो?” टॉम ने खुद ही पहल की।

“हाँ।”

“बताया नहीं तुमने? आठ सालों में हमारे जीवन में खुशी आई है और यह बात मुझे किसी और से पता चल रही है।”

“हमारे नहीं, सिर्फ मेरे... यह बच्चा सिर्फ मेरा है।” डायना ने दृढ़ता से कहा और व्यस्तता का बहाना करने लगी। टॉम दाँत पीसकर रह गया। उसने मन ही मन एक भद्दी-सी गाली डायना और चंडीदास को दी और शराब में डूब गया।

दीना ने बावर्ची खाने में जाकर डायना के लिए खुद ही इमली की खट्टी-मीठी चटनी बनाई और खस्ता कचौड़ियाँ। डायना कोट, पैंट, मफलर से लैस कहीं जाने की तैयारी में थी। शाम के छह बजे होंगे। आज जॉर्ज और दीना का फिल्म देखने का प्रोग्राम था। उसके दोनों बच्चे भूरे रंग के कोट पहने बड़े प्यारे लग रहे थे। दीना ने कचौड़ियों की प्लेट डायना के सामने रखते हुए कहा-”मैडम, नाश्ता करके जाएँ।”

डायना ने मुस्कुराकर दीना की ओर देखा। कभी-कभी कुछ अनाम रिश्ते इतने प्रगाढ़ हो जाते हैं कि फिर उन्हें कोई नाम देने की हिम्मत नहीं पड़ती। दीना ऐसे ही अनाम रिश्ते में उसकी सब कुछ थी... वह एक आज्ञाकारी लड़की की तरह कचौरियाँ खाने लगी।

“यह बहुत अच्छी बनी हैं। तुम भी तो लो दीना।”

डायना ने एक टुकड़ा उसके मुँह में भी रख दिया। पारो पीछे-पीछे दौड़ी आई, कार तक... “मेमसाहब... ज्यादा थकना नहीं। मुझे पता है आप बाबू मोशाय के पास गाने की रिहर्सल के लिए जा रही हैं पर जल्दी लौट आना।”

पारो ने पुरखिन की तरह रुआब से कहा। डायना इन सबके प्यार से निहाल थी... जैसे कृष्ण गोप गोपी और अपने सखाओं के प्यार को ही सब कुछ समझते थे। संपूर्ण कलाओं से युक्त लीलाधारी कृष्ण तभी तो उनके पीछे-पीछे घूमते थे... पीछे-पीछे इसलिए घूमते थे कि उनकी चरण रज उनके शरीर पर पड़े क्योंकि वह मामूली चरण रज नहीं थी। उसका कण-कण प्रेम में डूबा था। उन्होंने अपने से प्रेम करने वाले भक्तों के लिए क्या-क्या नहीं किया। सधन कसाई के सँग माँस बेचा, रैदास के चमड़े धोए, गोरे कुम्हार के मटके बनाए, सेन नाई की दुकान पर बैठकर हजामत की, नामदेव की छपरी बनाई, जनाबाई के साथ बैठकर चक्की पीसी, एकनाथ के घर में नौकर बनकर रहे। द्रौपदी के जूतों को अपने पीतांबर में बाँधकर चले, रुक्मिणी के लिए रात-रात भर उन्हें नींद नहीं आई, सुदामा को आलिंगनबद्ध कर इतना रोए कि... “पानी पराँत को हाथ दियो नहीं, नैनन के जल से पग धोए' और विदुर पत्नी के पास उन्हें खाने को देने के लिए कुछ न था... जो एक दो केले थे वे अभी-अभी खाकर उन्होंने भूख मिटाई थी, छिलके पड़े थे, उन छिलकों को खाकर ही वे इतने आनंदित हुए कि जिसकी कोई सीमा नहीं थी। ऐसे प्रेम के सागर कृष्ण के अद्भुत चरित्र से डायना अभिभूत है। इसीलिए तो डायना के मन में प्रेम ही प्रेम भरा है।

चंडीदास के साथ रिहर्सल तो हफ्ते भर से चल रही थी। आज रिकॉर्डिंग थी... दोनों ने लाजवाब गीत गाया... एक साथ चार पाँच गानों की रिकॉर्डिंग का तय था, पर डायना थके नहीं इसलिए दो ही गीत रिकॉर्ड कर चंडीदास ने कहा-”अब बाकी कल।”

नंदलाल, सत्यजित और मुनमुन भी जोर देने लगे कि अब बाकी के गीतों की रिकॉर्डिंग दो दिन बाद किए लेते हैं। पर डायना के मन पर तो कृष्ण छाए थे। न केवल सारे गीतों की रिकॉर्डिंग हुई बल्कि डायना ने एक भजन भी गाया... “ब्रज के लता पता मोहे कीजै... ।”

लेकिन रिकॉर्डिंग के तुरंत बाद डायना का गला सूखने लगा और चक्कर आने लगे। भगदड़ मच गई... कोई पानी ला रहा है तो कोई कॉफी... उसके चेहरे पर चुहचुहा आई पसीने की बूँदे अपने रूमाल में सोखते हुए चंडीदास ने कहा-”इस कड़कड़ाती ठंड में भी तुम पसीने से नहा रही हो... क्यों इतनी मेहनत कर डाली? अपनी तबीयत का जरा भी ध्यान नहीं?”

रात दस बजे चंडीदास और नंदलाल के साथ डायना घर लौटी... उसे सहारा देते हुए जब चंडीदास ने लाकर सोफे पर बैठाया उस वक्त टॉम के पेट में दो पैग उतर चुके थे... वह वहीं से चीखा-”क्या हुआ... यह डायना को क्या हुआ?”

“कुछ नहीं, अब ठीक हैं। थोड़ा चक्कर आ गया था। डॉक्टर को दिखाते हुए लौटे हैं।” चंडीदास ने बताया। पारो दौड़कर पानी ले आई और डायना को शॉल ओढ़ाते हुए बंद होठों से अपनी नाराजी भी प्रगट की। डायना समझ गई। उसकी पीठ थपथपाते हुए बोली-”सॉरी।”

“अब तो आप भी महसूस करते हैं न चंडीदास सेनगुप्ताजी कि इन्हें चेंज की, रेस्ट की जरूरत है? आप सोचने में इतना वक्त क्यों लगा रहे हैं?”

“कहाँ लगा रहा हूँ... चलूँगा न... एक दो बार की रिकॉडिंग और बची है, इस हफ्ते पूरी हो जाएगी।”

“गुड... मुझे खुशी है आपने मेरी बात मान ली।”

चंडीदास और नंदलाल टॉम ब्लेयर को मनहूस से कोने में, नीमउजाले में अकेले पीता छोड़ बाहर निकल आए। तभी जॉर्ज और दीना की कार आकर रुकी। वे फिल्म देखकर लौटे थे और चंडीदास से डायना की तबियत का सुन तेजी से अंदर आए। दीना ने डायना का माथा छूकर देखा-”मैडम”

“मैं ठीक हूँ पगली। तुम लोग नाहक परेशान होते हो।”

“चलो... चलो बंटी-शंटी बाबा लोग... भूख लगी होगी, डिनर तैयार है।”

पारो दीना के बेटों को बंटी-शंटी कहती थी जबकि एक का नाम जॉर्ज ने अपने मजहब के अनुसार माइकल रखा था और दूसरे का दीना के मजहब के अनुसार नेकजाद और जॉर्ज की इस दरियादिली से डायना बेहद प्रभावित थी... कुछ लोग कितने उदार दिल के होते हैं। इन्हीं के बल पर तो दुनिया टिकी है।

चंडीदास नंदलाल को उसके घर की तरफ छोड़ता हुआ जब रेसकोर्स के पास से गुजरा तो देखा मुनमुन और सत्यजित धीरे-धीरे हवा खाते हुए वहाँ टहल रहे थे। इतनी रात को? अब तक तो मुनमुन को घर पहुँच जाना चाहिए था। वह उनके नजदीक पहुँचा तो दोनों चौंक पड़े-

“मुनमुन... सत्यजित... घर नहीं गए तुम लोग?”

“घर ही जा रहे हैं। मुनमुन की चप्पल टूट गई थी, सुधरवाने में वक्त लग गया।”

“ठीक है... अब तुम घर जाओ सत्यजित... मुनमुन के साथ मैं हूँ ही।”

“नहीं दादा, मैं भी चलूँगा... आजकल हवा कुछ ठीक नहीं है, कभी भी कुछ भी हो सकता है।”

चंडीदास ने साफ महसूस किया कि सत्यजित की सारी चिंता मुनमुन के लिए थी। ठीक भी है... पुलिस, आंदोलनकर्त्ता और कलकत्ते की इस वक्त सूनी पड़ी सड़कें, फिर मुनमुन का साथ... वह खामोश हो गया।

घर में बाबा बेचैन थे-”मुनमुन को कैसे इतनी देर हो गई?”

“मेरे साथ बाबा। रिकॉर्डिंग थी न।” चंडीदास ने उनकी चिंता दूर करते हुए कहा तो माँ रजाई से मुँह निकाल बड़बड़ाई-”कहती हूँ शादी कर दो इसकी... पर न तुम्हारे बाबा को कोई चिंता है और न मुनमुन ही हामी भरती है। एक तो छोड़ कर चली गई... दूसरी के ये हाल।”

“क्यों दुखी होती हो माँ... गुनगुन के लिए तो तुम्हें गर्व करना चाहिए कि देश के लिए शहीद हो गई। मुनमुन को शादी के लिए मैं मना ही लूँगा।”

“नहीं दादा... यह काम इतना आसान मत समझिए। माँ को झूठी तसल्ली मत दीजिए... गुनगुन के जाने के बाद से ही मैंने अकेले जिंदगी गुजारने का फैसला कर लिया है।” मुनमुन ने गंभीरता से कहा और कपड़े बदलने अंदर चली गई। माँ ने गहरी साँस ली-”हे काली माँ!... इस घर को क्या हो गया है?”

चंडीदास माँ के पाँयते बैठ उनके पैर दबाने लगा। बाबा पानी पीकर रजाई ओढ़कर लेट गए थे। थोड़ी देर बाद मुनमुन के कमरे की बत्ती भी बुझ गई। लेकिन सड़क से आते प्रकाश में खिड़की के काँच पर मुनमुन का चेहरा स्थिर टँका सा रहा। बाहर तेज हवा चल रही थी। ठंडी और कंटीली। अमूमन फरवरी खत्म होते-होते ठंड थोड़ी कम हो जाती है पर इस बार तो हर दिन बीते दिन से अधिक ठंडा महसूस हो रहा था। सड़क पर से फौजी गाड़ियाँ गुजर रही थीं। कोई माउथऑर्गन पर फिल्मी गीत गा रहा था... बहुत दूर की वह आवाज रात के सन्नाटे में नजदीक ही जान पड़ती थी। रात के गाढ़े होते अंधेरे में तरह-तरह की आवाजों की भूल-भूलैया में वे चारों मौजूद रहे... तीन जागते हुए... एक सोते हुए।

“चंडी, बेटे... बताओ तो वह कौन है जिसे तुम प्यार करते हो?”

“माँ... है एक देवत्व से भरी जीवात्मा... पर हम मजबूर हैं माँ, हम सामाजिक बंधन में नहीं बँध सकते।”

“कहीं तुम्हें रिश्तेदारों का, समाज का तो डर नहीं?”

चंडीदास की आँखें झुक गईं-”अपने लिए नहीं माँ... उसके लिए डरता हूँ... वह बेमिसाल है।”

“माँ को नहीं बताओगे, जिसने तुम्हें जन्म दिया।”

“क्यों जन्म दिया माँ। यही तो पूछता हूँ... मैं क्यों आया दुनिया में। किसी काम का नहीं मैं। न तुम्हें सुख दे सका, न बाबा को। उसे प्यार किया पर साथ नहीं पा सका उसका। मेरा जीना बेमानी है।”

पहली बार माँ ने चंडीदास की आँखों में आँसू देखे। उन्होंने बिस्तर से उठते हुए हुलसकर उसे कलेजे से भींच लिया। वह भर्राए गले से बोला-”कुछ नहीं किया मैंने माँ उसके लिए... भिखारी-सा बना रहा उसके सामने। वह देती रही... मैं लेता रहा... माँ... नहीं जी सकता उसके बिना।”

“हौसला रखो चंडी, सब ठीक हो जाएगा। महान आत्माएँ दुख उठाने के लिए ही पैदा होती हैं। पर वे दुख उनके नहीं होते, संसार के होते हैं। मुझे अपने बच्चों पर गर्व है और विश्वास है कि वे कभी कोई गलत काम नहीं करेंगे।”

माँ देर रात तक चंडीदास को ऐसे थपकाती रहीं जैसे बचपन के उन दिनों में जब वह माँ की गाई लोरी के बिना सोता न था। वे गुनगुनाती हुई उसे थपकाती जाती थीं।... आज भी चंडीदास की आँखें माँ के आँचल में मुँह दिए मुँदने लगीं।

जिस वक्त मुनमुन ने फैसला किया कि वह अकेली रहेगी ठीक उसी वक्त सत्यजित ने अपना दिल मुनमुन को दे दिया। दोनों अगले दिन डूबते सूरज के दरम्यान पार्क में मिले और संग-संग मरने-जीने की कसमें खा लीं। जैसे गुनगुन और सुकांत ने खाई थीं।

“सत्यजित... मैं तुम्हारी हूँ... लेकिन हमारे बीच शादी का बंधन मुमकिन नहीं।” मुनमुन ने सत्यतिज का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा।

“मुनमुन... क्या मैं इतना स्वार्थीं हूँ कि जब देश बदलाव के कगार पर है... जगह-जगह विप्लव की आग फैली है तब मैं अपने लिए सोचूँ? नहीं मुनमुन... इस माटी में ही मैंने जन्म लिया है। इस माटी का कर्ज है मुझ पर। मैं क्रांतिकारी तो नहीं... पर अपने सुखों का बलिदान तो कर ही सकता हूँ। हम साथ-साथ जीते हुए, बंधन रहित एक मुक्त संसार बसाएँगे जहाँ हमारे घर के दरवाजे सबके लिए खुले रहेंगे। हम दादा के इंस्ट्टियूट को एक विशाल रूप देंगे। दादा उसके प्रिंसिपल होंगे... बाकी सब हम लोग देखेंगे।”

“हाँ, मेरी इच्छा नृत्य कक्षाएँ शुरू करने की भी है।” मुनमुन ने खुशी में भरकर कहा।

“यह तो बहुत अच्छा आइडिया है... तुमने दादा से बात की?”

“करूँगी... वे रिकॉडिंग से फुरसत हो जाएँ। बता रहे थे कि वे ब्लेयर फेमिली के साथ पंचमढ़ी आउटिंग के लिए जा रहे हैं।”

“अच्छा... मुनमुन बुरा मत मानना पर दादा और डायना ब्लेयर का प्रेम छुपा नहीं है और भी कई लोग चर्चा कर रहे थे।”

“करने दो न। प्रेम और खुशबू छुपाए नहीं छुपती। कोई पाप थोड़ी है प्रेम करना।”

“वैसे डायना है बेहद खूबसूरत... कहीं से भी अंग्रेज नहीं लगती।”

“बाल जो बढ़ा लिए हैं।” कहती हुई मुनमुन हँसने लगी।

सत्यतिज ने सिगरेट सुलगा ली... कुछ देर तीली सुलगने दी... उसकी लौ में उसे पार्क का लॉन काले रंग के कालीन वाला स्टेज नजर आया... मुनमुन स्टेज पर बैठी तानपूरा हाथ में लिए गा रही है... जाने कैसे चंडीदास द्वारा अभिनीत नाटक के कुछ दृश्य सर्र से आँखों के सामने से गुजरे... उसी समय स्टेज के पीछे मशालें लिए लोगों का शोर... ..”भागो... भागो... अंग्रेजों भागो... छोड़ दो हमारा देश... अब इस देश में तुमने छोड़ा ही क्या है? सब कुछ तो लूट लिया... हमारा कोहिनूर भी... वापिस करो... हमारा कोहिनूर... वापिस करो... ।”

एक हलकी-सी सिसकारी लेकर सत्यजित ने तीली छोड़ दी। उँगली पर एक बूँद बराबर फफोला उभर आया। मुनमुन की नजरें बचाकर उसने हाथ जेब में डाल लिया। सामने बेंच पर कुछ अंग्रेज लड़के-लड़कियाँ किसी बात पर जोर-जोर से हँसे। सत्यजित ने लॉन के किनारे बजरी पर चलते हुए एक छोटा-सा पत्थर हवा में उछाला और अंग्रेजों की ओर लानत भेजी... खामोश लेकिन सुलगती हुई।

मुनमुन ने सरदी के कारण फुरेरी ली। वे सड़क पर आ गए और हाथ दिखाकर रिक्शा रोका-”चलो मुनमुन, तुम्हें छोड़ते हुए मैं घोषाल बाबू के यहाँ निकल जाऊँगा। अब तक उन्होंने मेरी किताबें मँगवा ली होंगी।”

मुनमुन के मन में एक अजीब-सी विरक्ति तब से समा गई थी जब से गुनगुन की मृत्य हुई थी। गुनगुन उसकी बहन कम सखी अधिक थीं जब तक वह अपने मन की बात उसे बता नहीं देती थी चैन नहीं मिलता था। अब किसे बताए... लिहाजा धीरे-धीरे उसका मन सांसारिक बातों से उचटने लगा था। ऐसे में सत्यजित का उसकी जिंदगी में प्रवेश वह तूफान था जो उसके जीवन की बंद खिड़कियाँ, दरवाजे खड़का गया था। मुनमुन में एक खूबी और थी कि वह जो फैसला ले लेती फिर उसे कोई बदल नहीं सकता था। शादी न करने का फैसला भी माँ, बाबा, चंडीदास लाख चाहें कि बदल जाए पर यह मुमकिन न था। सत्यजित ने उसके फैसले का स्वागत किया था। सत्यजित गंभीर प्रकृति का लेकिन भावुक और नरमदिल इंसान था। गीत, संगीत, अभिनय उसकी पहचान थे... वह कलकत्ता यूनिवर्सिटी में इतिहास का लेक्चरर हो गया था जबकि मुनमुन संगीत में विशेषता हासिल कर अभी तक बेरोजगार थी और कई जगह नौकरी के लिए आवेदन पत्र भेज चुकी थी। वह सिर्फ संगीत की शिक्षिका होना चाहती थी। चंडीदास ने स्कूल से कब का त्याग पत्र देकर सारा ध्यान अपने इंस्टिटयूट् और गायन वादन में लगा दिया था। अब वह कलकत्ते और बंबई का मशहूर कलाकार था और दोनों शहरों में तमाम हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, बंगाली अखबारों में उसकी प्रशंसा, साक्षात्कार छपते थे। वह बेहद व्यस्त हो गया था। नाटक और गीतों की रिकॉर्डिंग के दौरान तो यह आलम रहता है कि रात एक डेढ़ बजे लौटे हैं और सुबह दस बजे फिर चल दिए... माँ कहती ही रह गई कि दोपहर का खाना खाने तो आएगा न। माँ अक्सर चंडीदास को केंद्र में रखकर ही घर की सारी योजनाएँ बनाती हैं।

पाँच मार्च को चंडीदास का जन्मदिन है और मुनमुन ने सोच लिया है कि इस बार जन्मदिन जोर-शोर से मनाया जाएगा। वह माँ के साथ बाजार जाकर सारी खरीदारी भी कर चुकी है। बाबा खुश हैं-गुनगुन को गए पाँच साल हो गए। पाँच सालों तक यह घर मुस्कुराना, हँसना, खिलखिलाना भूल गया था लेकिन अब धीरे-धीरे गुनगुन के बिना रहने की आदत पड़ चुकी है और अब पहली बार चंडीदास के जन्मदिन से उस खुशी के आगमन का वे स्वागत कर रहे हैं। उन्होंने माँ को आवाज लगाई-”मैं सोचता हूँ मुनमुन के लिए भी साड़ी खरीद लाऊँ... अरसे से उसके लिए कुछ खरीदा नहीं।”

“इसमें पूछना क्या? ले ही आना था। खुश हो जाती वो। वैसे भी चार मार्च को शिवरात्रि है। उस दिन पहनेगी तो शुभ होगा।”

शुभ-अशुभ सोचना बाबा ने बंद कर दिया था। विश्वास-सा हो गया था कि इस जिंदगी की नकेल ऊपर वाले के हाथ में है। हम तो केवल कठपुतली हैं जैसा नचाता है नाच लेते हैं। वे तो इसी बात से खुश हो लेते हैं कि उनका चंडीदास एक बड़ा कलाकार हो गया है और घर की गाड़ी आराम से खिंच रही है। वरना आर्थिक तंगी रहती थी। हालाँकि बहुत रुपया तो नहीं मिल रहा है पर जितना भी मिल रहा है उससे संतुष्ट हैं वे। मुनमुन भी खोई खोई-सी रहने के बावजूद खुश नजर आती है। हमेशा गुनगुनाती, मुस्कुराती रहती है। कभी कभी उन्हें शक होने लगता है कि कहीं... लेकिन फिर अपने ही विचारों को वे झटका सा देते हैं कि नहीं... मुनमुन की शादी की इंकारी की वजह कुछ और है... पर क्या?

नहीं मुनमुन से कभी नहीं जान पाएगा कोई कि इसकी वजह क्या है...

दर्द का कहना चीख उठो

दिल का तकाजा वजा निभाओ

सब कुछ सहना, चुप चुप रहना

काम है इज्जतदारों का...

लेकिन मुनमुन की यह खामोशी चंडीदास ने ताड़ ली है। वह जानता था कि सत्यजित और मुनमुन के दिल में क्या चल रहा है, क्या पल रहा है... चंडीदास खुद भी तो उसी दौर से गुजरा है और जानता है कि जब दो दिल मिलते हैं तो आरजूएँ कैसी मचलती हैं? कामनाएँ कैसी तूफान उठाती हैं? होश में कहाँ रहता है वजूद? बस... नजर आता है तो हर ओर महबूब... खैर,

खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीत, मद्यपान

रहिमन दाबैं न दबैं जानत सकल जहान

उस दिन भी तो यही हुआ। कलकत्ते में रिकॉर्ड तोड़ सफलता प्राप्त कर चुकी देविकारानी की फिल्म जिस टॉकीज में दिखाई जा रही थी उसके गेट पर चंडीदास ने मुनमुन और सत्यजित को देख लिया था। मुनमुन लाल बॉर्डर की काली साड़ी पहने आश्चर्यजनक रूप से खूबसूरज नजर आ रही थी। दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े अंदर की ओर जा रहे थे। वह उल्टे पाँव सड़क पर चल पड़ा था। पतझड़ी हवाओं ने सड़कों पर सूखे, पीले पत्तों को जहाँ-तहाँ बिखरा दिया था जो चलती कारों और मोटरों के साथ रेलों में बहते और फिर शांत होकर जहाँ के तहाँ थम जाते।

रात दस बजे जब चंडीदास घर लौटा तो मुनमुन आराम से बिस्तर पर बैठी अपने लंबे बालों में कंघा फेर रही थी।

“मुनमुन हाँ या ना में जवाब देना। तुम सत्यजित को चाहती हो?”

मुनमुन चौंक पड़ी। यह कैसा सवाल पूछा दादा ने? कहीं उसकी शादी के लिए इंकारी की वजह यही तो नहीं समझ रहे हैं वे।”

“दादा... “

“बोलो मुनमुन... जवाब दो।”

मुनमुन ने हामी में सिर हिलाया।

“क्या वह भी तुम्हें चाहता है?”

मुनमुन ने फिर हामी में सिर हिलाया।

“क्या तुम दोनों शादी करोगे?”

यही सवाल मुनमुन के लिए खतरे से भरा था... इसी सवाल का तो कोई माकूल उत्तर नहीं था उसके पास। वह उठी और दादा से लिपटकर अपने अंदर के आवेग को रोक नहीं पाई-

“दादा, मुझे राह सुझाएँ। मेरा रास्ता बस यहीं तक है... इसके आगे कुछ सुझाई नहीं देता।”

“तुम्हें इंतजार करना पड़ेगा मुनमुन। वक्त अपने आप रास्ते बनाता चलता है।” चंडीदास ने मुनमुन का चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया-”इधर देखो, मेरी तरफ... तुम कभी कुछ गलत नहीं करोगी, भरोसा है तुम पर। बस इतनी गुजारिश है कि कुछ ऐसा न कर बैठना कि माँ बाबा दुखी हों। बहुत दुख उठाए हैं उन्होंने।”

और उसका माथा चूमकर चंडीदास फौरन ही वहाँ से चला गया।

चंडीदास का जन्मदिन कलकत्ते के सांस्कृतिक इलाके के हॉल में उसके ही इंस्ट्टियूट के विद्यार्थियों ने अरेंज किया था। नेतृत्व की बागडोर मुनमुन और सत्यजित ने सभाँल रखी थी। बाकायदा हॉल बुक किया गया... लगभग पचास लोगों के डिनर का इंतजाम कैटरर को सौंपा गया। डिनर का मीनू तैयार हुआ। विद्यार्थियों ने गीतों के बेहतरीन आइटम तैयार किए थे... सोलो, डुएट, कोरस और कव्वाली। डायना ने संदेशा भेजा था कि वह एक गजल सुनाएगी जिसे उसने खुद ही कंपोज भी किया है। घोषाल बाबू अपनी पुकू के साथ हाजिर थे। डायना के साथ दीना और जॉर्ज भी थे... मुनमुन और सत्यजित ने कणिका मजूमदार का कत्थक नृत्य भी रखा था और इस नृत्य के साथ वे यह घोषणा करने वाले थे कि अब इंस्टिट्यूट में नृत्य क्लासेस भी होंगी और यह चंडीदास के लिए सरप्राइज आइटम था। भरसक कोशिशों से यह बात उससे छुपा कर रखी गई थी।

पाँच मार्च की सुबह माँ ने खीर बनाई और चंडीदास के साथ काली माँ के मंदिर दर्शनों के लिए गईं। लौटते हुए चंडीदास सीधा डायना के बंगले चला गया। जब से डायना गर्भवती हुई है फूलों से उसका लगाव बढ़ता जा रहा है फिर आज तो चंडी का जन्मदिन है। पूरा बंगला फूलों से महक रहा था। टेबिल पर लाल गुलाबों का बुके चंडी की प्रतीक्षा में था। जब चंडीदास ने बंगले में प्रवेश किया तो दिल-दिमाग को सुकून सौंपती एक रोमेंटिक सुगंध को अपने आसपास पाया। डायना ने आगे बढ़कर उसका आलिंगन करते हुए फूलों का बुके उसे दिया-”हैप्पी बर्थडे चंडी... याद करो पिछले कुछ सालों से आज के दिन हम कहाँ-कहाँ होते थे? शिमला, मलाबार हिल, महाबलेश्वर, खंडाला, लोनावला और आज यहाँ... लगता है जैसे तुम्हारे साथ गुजारे यह छह साल... ठहर गए वक्त का खजाना हैं... “

“और उस खजाने में हमारी चाहत का फूल खिल रहा है... मेरा अपना शिशु... मैं बहुत कंजूस हूँ इस मामले में... वो सिर्फ मेरा है... तुम तो उसकी मैया हो... मैया, कबहुँ बढ़ेगी चोटी... ।”

“मतलब तुमको चोटी वाली चाहिए।”

“बिल्कुल तुम्हारे जैसी... तुम्हारा ही प्रतिरूप जो मेरे और तुम्हारे हाथों गढ़ा जा रहा है।”

सहसा चर्च का घंटा टनटना उठा और उसके साथ ही मधुर स्वर घोलती पूजा की घंटी भी जो पारो अपने कमरे के मंदिर में आरती करते हुए बजा रही थी। उसका कल शिवरात्रि का व्रत था और आज अब पूजा के बाद ही व्रत का पारायण होना था। उसने अपने बाबू मोशाय के लिए रोशोगुल्ला बनाया था। आरती के बाद वह काँच के कटोरे में रसगुल्ले लेकर आई। झेंपते, झिझकते उसने जन्मदिन की बधाई देते हुए चंडीदास के पैर छुए और कटोरा उसके आगे कर बोली-”मिष्टी रोशोगुल्ला।”

“तुम ही खिला दो न पारो अपने हाथ से।”

डायना के कहने पर पारो ने बाकायदा रस में उँगलियाँ डुबो कर रसगुल्ला उठाया और चंडीदास को खिलाकर दूसरा डायना को खिला दिया और पत्ते-सी काँप उठी क्योंकि उसकी मालकिन ने भी एक रसगुल्ला उठाकर अपने हाथों से पारो को खिलाया... “धन्न भाग्य... तर गई पारो... 'और वह रसगुल्ले का कटोरा वहीं रख शरमाकर भाग गई वहाँ से।

हॉल में गूँजती डायना की गजल, कणिका मजूमदार का नृत्य और विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत की गई गीतों की श्रृंखला से अभिभूत चंडीदास ने डिनर के दौरान ऐलान किया कि पंचमढ़ी से लौटकर वह इंस्ट्टियूट में बाकायदा नृत्य की कक्षाएँ भी आरंभ करेगा। और उसके सर्वेसर्वा सत्यतिज और मुनमुन होंगे। तालियों की गड़गड़ाहट इस बात का सबूत थी कि सभी तहेदिल से यह चाहते हैं। न जाने कितने नाम एक पर्ची में लिखकर मुनमुन को दिए गए... “हम भी सीखेंगे नाच... हम भी सीखेंगे... कहीं ऐसा न हो कि जगह का कोटा भर जाए और वे सीखने से रह जाएँ। कणिका मजूमदार पैंतीस चालीस वर्ष की प्रौढ़ महिला थी और अभी-अभी विदेश में अपने नृत्य का तहलका मचाकर लौटी थी और चाहती थी कि उसकी कला दूर-दूर तक फैले तो बाकायदा चंडीदास का इंस्ट्टियूट ज्वाइन करने के लिए उसने अपनी रजामंदी दे दी। सभी ग्रुप बनाकर नाचने लगे... सत्यजित ने ग्रामोफोन पर रिकार्ड लगा दिया। पार्टी देर रात तक चली।

डायना की गाड़ी ने चंडीदास के परिवार को उनके घर तक पहुँचाया। दूसरी गाड़ी जब दीना और डायना को लेकर आगे बढ़ी तो चंडीदास और नंदलाल सड़क के किनारे गेट के पास खड़े बातें करने में तल्लीन थे। गेट से लगी पुलिया के पीछे झड़बेरी की झाड़ियाँ थीं। सहसा तेज हवा चली और झाड़ियों के पीछे उगा पीला-सा चाँद हिलता नजर आया। डायना ने सिर पीछे टिकाकर आँखें मूँद लीं।

अगले हफ्ते चंडीदास डायना और टॉम ब्लेयर के साथ पंचमढ़ी रवाना हो गया। जाते-जाते मुनमुन से कहता गया “माँ बाबा का ध्यान रखना... मैं जल्दी ही लौटूँगा।”

दो कारें, एक जीप और तमाम लाव-लश्कर के संग भारी इंतजाम सहित टॉम उन्हें पचमढ़ी की सैर कराने लाया था। गेस्ट हाउस के दो कमरे आलीशान ढंग से सजाए गए थे और उनकी सेवा में हाजिर दो-दो नौकर इधर से उधर भागदौड़ कर रहे थे। पचमढ़ी में प्रकृति ने सुंदरता खुले हाथों लुटाई है। सतपुड़ा के पहाड़ों से घिरी हजारो फीट गहरी घाटियाँ किसी तिलिस्म से कम न थीं। जैसे तिलिस्मी दीपक रगड़कर एक नई दुनिया उजागर होती है। पृष्ठभूमि में उभरते हैं ख्वाबगाह से कमरे, हसीन वादियाँ, पेड़ों की शाखाओं पर फूल ही फूल, चहचहाती रंग-बिरंगी चिड़ियाँ... घाटियों में सहसा प्रगट होते पानी के झरने... कलकल का स्वर घाटियों को तरन्नुम में डुबोए रखता। टॉम का तो जैसे कायाकल्प ही हो गया था। वह शालीन और हँसमुख हो गया था और डायना और चंडीदास के साथ बेहद शिष्ट नजर आ रहा था।

होली दो दिन बाद थी और गेस्ट हाउस के सामने हरी दूब के लॉन पर आदिवासियों के लोकनृत्य का आयोजन था। पंचमढ़ी कलकत्ते से अधिक ठंडा था... वैसे भी जंगलों के बीच बसे इस पहाड़ी शहर में झरनों की तादाद इतनी अधिक थी कि गर्मियों में भी ठंडक रहती थी। लॉन के बीचोबीच अलाव जलाया गया था जिसकी लपटों की रोशनी में लॉन रंगीन हो उठा था। होली के त्यौहार के आगमन की खुशी में महुआ फलों से लद जाता है। इसी महुए की शराब बनाकर जंगलों के भीतर रहने वाले गौंड़ आदिवासी होली की प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। महुए के फलों की खुशबू से मानो हवा भी नशीली हो उठी थी। आदिवासी नर्तक-नर्तकियों ने शराब पी रखी थी ओर नशे में झूमते हुए ढोल बजा बजाकर नाच रहे थे। टॉम, डायना और चंडीदास के बैठने का इंतजाम सामने कुर्सियों पर था। उनके साथ और भी चार-पाँच अंग्रेज सैलानी थे जो पंचमढ़ी घूमने आए थे। सभी के हाथों में व्हिस्की के गिलास थे और सामने भुने गोश्त की मसाले में लिपटी बोटियाँ। कौड़ियों और बड़े-बड़े मनकों की माला पहने, बालों के जूड़े में जंगली फूल लगाए काली अर्धनग्न औरतों के साँचे में ढले ठोस स्तनों को देखकर अंग्रेज सैलानियों के साथ शराब का घूँट लेते टॉम ब्लेयर पूरी मस्ती के आलम में था...

“लाजवाब... क्यों चंडीदास सेनगुप्ता जी... देख रहे हैं ये अद्भुत डांस?”

“ये राई नृत्य है जिसे आदिवासी कबीलों में विशेष दिनों और त्यौहारों में नाचा जाता है। असली मजा तो अब आएगा आपको क्योंकि अब नृत्य ने तेजी पकड़ ली है।”

टॉम सोचता था कि चंडीदास के लिए एक नई दुनिया के द्वार खोले हैं उसने। पर यहाँ तो जनाब सब पहले से जानते हैं। डांस ने तेजी पकड़ ली थी और युवक-युवतियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले घेरा बनाए फिरकनी से नाच रहे थे। उनके कदमों की तेजी लपटों की रोशनी में अद्भुत समां बाँध रही थी। सहसा ढोल तेजी से बजने लगे, गीत के स्वर भी ऊँचे होते गए और एक पंक्ति पर आकर फिर धीमे हो उठे। रात थकने लगी थी। और चुभती हवाओं संग ओस की बूँदे लॉन पर टपकने लगी थीं। धीरे-धीरे धीमा होता नृत्य वहीं खत्म हो गया। टॉम नशे की हालत में वहीं कुर्सी पर लुढ़क गया। आदिवासियों के मुखिया ने ताजा औंटाया खोवा ढाक से बने दोने में रखकर डायना और चंडीदास को दिया... दल की बूढ़ी महिला एक बाँस की टोकरी में मक्के की लाई फोड़कर लाई थी। डायना के लिए ये देहाती सौगातें अनमोल थीं। यही प्यार तो उसकी पूँजी थीं। आदिवासियों को विदा कर डायना और चंडीदास ने टॉम को नौकरों के द्वारा बिस्तर तक पहुँचाया और दिन भर घूमते रहने और इतनी रात तक जागते रहने के कारण दोनों अपने-अपने कमरों में बिस्तर पर जा लेटे तो कब नींद की गिरफ्त में आए पता ही नहीं चला।

चार दिनों तक लगातार वे घूमते रहे। सुबह चाय-नाश्ता कर घोड़ों पर सवार हो वे घटियों में उतर जाते। दोनों नौकर और दो आदिवासी लड़के उनके खाने-पीने का सामान, दरी चादर आदि टट्टुओं पर लादे पीछे-पीछे चलते। जंगल की खूबसूरती में डायना खो-सी गई थी। टॉम घाटियों से जुड़ी ऐसी कहानियाँ सुनाता जो अंग्रेजों के हैरत अंग्रेज कारनामों से जुड़ी होतीं-”जानते हैं चंडीदास सेनगुप्ताजी, पंचमढ़ी को जिसने भारत के नक्शे से खोज निकाला वह था अंग्रेज कैप्टन जे. फारस्थी। उसके पहले कोई नहीं जानता था कि मध्यप्रदेश के जंगलों में इतनी खूबसूरत वैली भी है।” डायना और चंडीदास इन कहानियों के जवाब में चुप ही रहते।

दोपहर ढल रही थी। डूबने का आतुर सूरज की किरणें घाटियों को सोने में रंग रही थीं। टॉम ने नौकरों और आदिवासियो को डिनर आदि के इंतजाम के लिए गेस्ट हाउस की ओर रवाना कर दिया था। अब वे तीनों अकेले थे और दूर-दूर तक वीरान जंगल था। हवाओं की सरसराहट पत्तों को खड़खड़ाती उन्हें चौंका देती। पेड़ों की डालियों पर कभी परिदों का शोर होता कभी लंगूरों की किचकिचाहट। दिन भर घूमते रहने के कारण डायना थक चुकी थी। पर टॉम लौटने का नाम ही नहीं ले रहा था। चंडीदास को डायना की थकान उसके चहरे से साफ दिखाई दे रही थी-”थक गईं न।”

“हाँ... अब हम गेस्ट हाउस ही लौट रहे हैं न?”

जवाब टॉम ने दिया-”रुकिए जनाब... अभी तो इस एरिया की सबसे “ब्यूटिफूल वैली” देखनी बाकी है।”

चंडीदास ने कंधे से लटके थर्मस से पानी निकालकर डायना को पिलाया और टॉम की नजरें बचाकर उसके पैर सहलाए। डायना को राहत-सी मिली।

घोड़े उस तथाकथित ब्यूटीफुल वैली की ओर चलने लगे। नीलगिरी के सफेद पींड़ और नुकीली पत्तियों वाले सतर पेड़ों के घने जंगल का उदासीन सौंदर्य और भयभीत कर देने वाली लगभग पाँच सौ फीट गहरी घाटी के किनारे घोड़े रूक गए। टॉम ने हाथ बढ़ाकर डायना को उतारा और नुकीली सूखी पत्तियों के बिछावन पर उनके चरमराते जूते क्षण भर रुके। टॉम ने बताया-”ये है वो ब्यूटीफुल वैली... आह... अद्भुत सौंदर्य है। सन् 1887 में अंग्रेज मेजर मिस्टर हाँडी यहाँ शिकार खेलने आए थे। अचानक उनके घोड़े का पैर फिसला और वे घोड़े सहित इस वैली में गिर गए। कई दिनों की तलाश के बाद भी उनकी लाश नहीं मिली। घाटी में ही कहीं खो गई। तब से इस वैली का नाम ही पड़ गया “हाँडी खो।”

चंडीदास और डायना ने सैकड़ों फीट गहरी भयभीत कर देने वाली घाटी में निर्झर की एक क्षीण धारा देखी-”एई कुले आमी, ओई कूले तुमी... माझखाने नोदी ओई बोए चोले जाए।' चंडीदास ने डायना के चेहरे की ओर देखा जिस पर ढलते सूरज की किरणें अपनी फीकी होती रोशनी बिखेर रही थीं। जैसे आदिवासियों के लोकनृत्य के समय जलाए गए अलाव की लपटें अब तक सुलग रही हों... अब तक अपनी नारंगी पीली रोशनी बरकरार रखे हों... चंडीदास का मन हुआ डायना को बाहों में भर कर उन लपटों को चूम ले... डायना ने चंडीदास की आँखों में छलकता अनुराग देखा... सारा जंगल उस अनुराग के आलते में रंग उठा... पक्षियों के परों की सरसराहट... प्रेम... प्रेम का कीर्तन करती-सी लगी... डायना को उस अनुराग की शक्ति का अपने अंदर फैलना महसूस हुआ... जैसे चाँदनी जमुना की लहरों पर फैलती है... रंग, उज्जवलता, संगीत... मेरे किसना... नंदलाला, मेरे मुरारी, बाँके बिहारी... मेरे कान्हा...

अचानक पीछे कुछ दूरी पर खड़े टॉम ने कंधे से बंदूक उतारी और धाँय... धाँय... धाँय। चंडीदास कटे पेड़-सा “हाँडी खो' में सदा के लिए खो गया। डायना की आँखें फटी की फटी रह गई... “ चंडी...” घने पेड़ों पर बैठे परिन्दों के पँखों की फड़फड़ाहट के साथ डायना की हृदयविदारक चीख की प्रतिध्वनि लौट-लौट कर कई बार टॉम के कानों में पिघला गरम सीसा उड़ेलती रही। डायना बेहोश होकर गिर पड़ी थी... घास के उस छोटे से टुकड़े पर जहाँ तीन-तीन गोलियों से छलनी हुई चंडीदास की पीठ से बहे खून के कतरे थे... उस वक्त आसपास कोई न था। टॉम ने घाटी में झाँका पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया... सालों से धीरे-धीरे सुलगते अपने इरादे की कामयाबी पर टॉम अट्टहास कर उठा-”जीना हराम कर दिया था चंडीदास तुमने... लेकिन अफसोस मैं डायना को तुम्हारे पास नहीं भेज सकता... यह जानकर भी कि उसकी कोख में तुम्हारी नाजायज औलाद पल रही है... गुडबाय चंडीदास... गुडबाय... “ उसने घोड़े की गर्दन से लटकते चमड़े के बैग से व्हिस्की का क्वार्टर निकाला और एक ही साँस में पी गया। फिर उसका ध्यान डायना की ओर गया। वह अब भी बेहोश थी। टॉम ने उसे गोद में उठाकर घोड़े पर किसी तरह चढ़ाया और गेस्ट हाउस तक गिरते पड़ते लौटा... नौकरों ने मेमसाहब को बेहोश देखा तो भगदड़ मच गई। इलाके का नीम हकीम खतरे जान वैद्य बुलाया गया। टॉम ने बताया-”हमारा साथी चंडीदास वैली में गिर गया तभी से बेहोश हैं।”

वैद्य ने कोई जड़ी पत्थर की चौकी पर घिर कर डायना के तलवों, हथेलियों और माथे पर लेप किया... किसी दूसरी जड़ी का रस उसकी नाभि में भरा... करीब आधे घंटे बाद डायना को होश आया लेकिन चंडीदास को आवाज देती वह फिर से बेहोश हो गई।

टॉम कुर्सी पर अकेला बैठा डायना के बेहोश शरीर को ताक रहा था। अँधेरा पूरी तरह जंगल को निगल चुका था। घने अंधेरे जंगलों से गुजरती हवा का तूफानी स्वर और टिटहरी की आवाज मानो टॉम का मजाक उड़ा रही थी। उसे लगा चंडीदास हाहाकार करता उसी की ओर बढ़ा आ रहा है। टॉम पैग पर पैग पिए जा रहा था पर नींद उससे कोसों दूर थीं, शायद कोसों दूर रहेगी भी... क्योंकि उसने प्यार का खून किया है... और नफरत की उम्र अधिक नहीं होती। उस खूनी रात का अक्स ताउम्र उसे देखना ही होगा। अपने ही पैरों की आहट उसे डराएगी... वह जीना भूल जाएगा और हर पल... हर लम्हा... सुकून के लिए तरसेगा।

“नहीं... मेरे पास धन है... डायना की करोड़ों की दौलत... मैं उसके बल पर अपनी दुनिया बसाऊँगा।”

लेकिन उसका मन। जिस पर चंडीदास के खून में लथपथ घाटी में गिरते शरीर की छाप गरम सलाखों से अंकित हो गई थी, वह मन, वह उसका विवेक... कतई यह मानने को तैयार नहीं था। दौलत, भौतिक ऐशोआराम देती है, पर शांति नहीं, सुकून नहीं... हाँ... उसे डायना और चंडीदास के प्रेम का शाप लग गया है। वह कभी चैन नहीं पाएगा।

पीते-पीते टॉम भी वहीं लुढ़क गया। खिड़कियों के पल्ले चीखती हवा से रात भर भड़भड़ाते रहे।