टेम्स की सरगम / भाग 6 / संतोष श्रीवास्तव

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भयानक सदमे की हालत में टॉम डायना को लेकर कलकत्ते लौटा। बिजली की तेजी से यह खबर फैल गई कि चंडीदास की हादसे में मौत हो गई। नंदलाल, सत्यतिज, डेव और इंस्टिट्यूट के सारे विद्यार्थी टॉम के बंगले पर दौड़े आए कि आखिर कब, कैसे हुआ ये हादसा? चंडीदास का शव कहाँ है? चंडीदास के घर में कोहराम मच गया। माँ उस वक्त रसोईघर में व्यस्त थीं। उनके हाथ में दाल की बटलोई छूटी और गरम दाल पैरों पर गिर गई। मुनमुन दौड़ी-”माँ... ये क्या कर लिया माँ?” और बेहोश होती माँ से लिपट फूट-फूट कर रो पड़ी। बाबा की आँखों में एक भी आँसू न था। वे काठ की मूर्ति बन चुके थे। टॉम के घर से सीधे नंदलाल और सत्यजित चंडीदास के घर बाबा को सँभालने पहुँच गए।

दूसरे दिन कलकत्ते के तमाम अखबारों में चंडीदास की फोटो सहित उसकी मृत्यु का समाचार छप गया। शोक-सभाएँ आयोजित होने लगीं। कलकत्ते का बुद्धिजीवी कलाकार वर्ग इस घटना से हिल गया था क्योंकि चंडीदास उनके बीच महान कलाकार तो था ही वह सही मायनों में इंसान भी था जो लोगों के दुख-दर्द बाँटने की कोशिश करता था और हर एक की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहता था। इंस्टिट्यूट के विद्यार्थियों ने शोक सभा के बाद यह तय किया कि वे पचमढ़ी जाकर पता लगाएँगे कि आखिर चंडीदास का शव मिला क्यों नहीं? डायना अस्पताल में एडमिट थी... न कुछ खा रही थी, न पी रही थी बस टकटकी बाँधे छत की ओर ताकती रहती और आँखों की कोरों से आँसुओं की धारा बहती रहती। पारो, दीना उसके नजदीक बैठी रहती।... बोनोमोली और दुर्गादास हाथ बाँधे पायते खड़े रहते थे। सबका रो-रो कर बुरा हाल था। पारो डायना को इस हालत में देखकर जितना रोई उससे चौगुना पचगुना तो वह अपने बाबू मोशाय के लिए रोती रहती है। लेकिन टॉम को इन सबसे कोई मतलब नहीं। उसे जो करना था, कर चुका। अब वह निर्द्वन्द्व था... हलका-फुलका... जैसे सिर से चट्टान सरक गई हो। अलबत्ता सुबह शाम अस्पताल में हाजिरी देकर डॉक्टरों से पूछ लेता कि-”डायना कब तक घर ले जाने लायक हालत में होगी?”

“अभी कुछ कहा नहीं जा सकता मिस्टर ब्लेयर। सदमा गहरा लगा है। ब्लडप्रेशर भी नॉर्मल नहीं है। अभी कुछ दिन सावधानी की जरूरत है।”

पारो डायना की आँखों पर हथेली रख देती-”थोड़ा सो लो मेम साहब... ऐसे तो आप अच्छी होने से रहीं।”

“अच्छी होना किसे है?” इतने दिनों बाद पहली बार डायना के मुँह से बोल फूटे। पारो खुशी में भरकर उससे चिपट गई। डायना ने उसे कसकर सीने से लगा लिया-”मेरा चंडी खत्म हो गया पारो... तुम्हारे बाबू मोशाय... अब हमसे कभी नहीं मिलेंगे।”

“मेम साहब... बाबू मोशाय... “

“हाँ पारो... अब वो हमसे कभी नहीं मिलेंगे... तुम ही कहो पारो मैं जिंदा कैसे रहूँ?”

“आपको जीना है मैडम, आने वाले बेबी के लिए।” दीना ने कब कमरे में प्रवेश किया किसी को पता ही नहीं चला। उसे देखते ही डायना ने अपनी बाहें फैला दी। दीना दौड़कर डायना से लिपट गई-”मैडम... आपको जीना है, बेबी के लिए, हम सबके लिए... बस, यहीं आकर तो इंसान असहाय हो जाता है। मृत्यु पर उसका कोई अख्तियार नहीं। मन मसोसकर रहना ही एकमात्र उपाय बचता है। कल्पना और साँसों को ढोना... ।”

अचानक दीना से इतनी गहराई की बातें सुन डायना के बेजान शरीर में जैसे रक्त का संचार हुआ।

“ठीक कहती हो दीना... साँसों को ढोना पड़ेगा। अब यही मेरी नियति है। मेरा इस दुनिया में कोई नहीं... अनाथ तो थी ही मैं अब एकदम अकेली हो गई हूँ... तनहा... “ और डायना रो पड़ी, दीना के आँसू भी नहीं रुके... “हम सब आपके साथ हैं मैडम।”

“मैम साहब... बाबू मोशाय के घर से...”

बोनोमाली का वाक्य अधूरा ही छूट गया। डायना तेज स्वर में बोली-”बाबा... मुनमुन... “ और रोते-रोते उसकी हिचकियाँ बँध गईं। बाबा उसके पास कुर्सी पर बैठ गए। मुनमुन उससे लिपट कर निःशब्द रोती रही। जब ज्वार थमा तो मुनमुन और पारो ने सहारा देकर डायना को पलंग से टेक लगाकर बैठा दिया। डायना ने बाबा को देखा जो बुढ़ापे में लुटे-लुटे से बैठे थे। उनका तो इकलौता बेटा था चंडीदास... बुढ़ापे का सहारा... टॉम ने उनका घर उजाड़ डाला। उसे लगा वह न होती तो आज बाबा को ये दिन नहीं देखना पड़ता। उसका मन हुआ दौड़कर बाबा के चरणों में गिर पड़े... “मुझे माफ कर दें बाबा। मेरे ही कारण आज चंडी आपसे बिछुड़ गया। आप महान हैं जिन्होंने चंडीदास जैसे देवपुरुष को जन्म दिया। आप टॉम को शाप दीजिए बाबा कि वह हमेशा एकाकी, तनहा और बिना प्रेम की जिंदगी जिए। हमेशा औलादहीन रहे। कभी चैन न पाए।”

“बेटी... इतनी बीमार पड़ गई? जरा भी सब्र से काम नहीं लिया? मुझे देखो, मैं चंडी के बिना भी जिंदा तो हूँ न।”

बाबा ने डायना के निस्तेज पीले चेहरे को देखते हुए नीचे फर्श पर आँखें टिका दी। डायना ने इन आठ दिनों में और अधिक जर्जर, असहाय और टूट चुके बाबा की ओर देखा। उनके लिए उसका मन ऐसा कलपा कि लगा वह अभी होश खो बैठेगी पर उसने अपने पर काबू किया... जब जन्म देने वाला पिता हिम्मत कर उससे मिलने यहाँ तक आया है तो वह क्यों टूटती जा रही है। टूटकर अपने चंडी की आत्मा को दुख ही तो पहुँचा रही है वह। उसने वेग से उठी रुलाई रोकी और आँखें रगड़कर पोंछी। मुनमुन ने उसे गिलास में पानी निकालकर पिलाया।

“दीदी... “

“मुनमुन के संबोधन पर डायना चौंकी। पहली बार उसे दीदी कहकर बुलाया था मुनमुन ने... एक पल को वह यह भूल गई कि वह टॉम की पत्नी है। उसे लगा वह इस परिवार की ही सदस्य है जिसके हर सदस्य में प्रेम कूट-कूट कर भरा है।”

“दीदी... हम लोग गए थे पंचमढ़ी... हाँडी खो... पर वहाँ ऐसी कोई जगह दिखाई नहीं दी जहाँ से हादसा हो... इतनी गहरी घाटी को कोई इतना झुककर देखेगा ही क्यों कि गिर जाए।” क्या कहे डायना? गूँगा कर दिया था उसे टॉम ने। कितनी सफाई से टॉम ने इस कत्ल को एक हादसा करार कर दिया था। हाँडी खो में उस वक्त डायना के सिवा और था भी कौन जो ये हकीकत जानता। हालाँकि गुनाह पर परदा डालने के लिए उसने जबर्दस्त नाटक खेला था, चंडीदास को ढूँढने का। दस बारह वनकर्मियों को भेजा था इस काम के लिए। पर हजारों फीट गहरी घाटी में उतरना क्या इतना आसान था? टॉम को पता था न कोई उतरेगा, न गोली खाया चंडी का शरीर मिलेगा। वनकर्मियों ने आदिवासियों से सहायता लेने की सलाह दी थी टॉम को पर वह टाल गया था... “आदिवासियों को भी कुछ नहीं मिलेगा... इतने जानवर हैं, क्या बची होगी अब तक बॉडी।”

“मुझे तो इतना ताज्जुब होता है सोच-सोचकर कि बॉडी तक नहीं मिली... ये कैसे संभव है?” दीना ने मुनमुन की बात के समर्थन में कहा।

“समझ में ही नहीं आता। मुझे तो लगता है दादा गए ही नहीं। लौट आयेंगे अभी।”

अब कैसे विश्वास दिलाए डायना कि उसका ही पति कातिल है। वह नराधम जिसकी पत्नी कहलाने में आज उसका सिर शर्म से झुका जा रहा है। लगता है धरती फटे और वह उसमें समा जाए... सीता की तरह... शायद सदियों से यही होता आया है औरतों के साथ। ईश्वर ने जब औरत बनाई तो उसके नसीब की गाँठ में सब्र की हल्दी बाँध दी।

बाबा चलने को तत्पर हुए। अपने दोनों घुटनों पर हथेलियों से दबाव डालते हुए बोले-”जिंदगी भर यह बात चीरती रहेगी कि हमें उसके अंतिम दर्शन तक करने नहीं मिले। अंतिम संस्कार से वंचित रह गया मेरा चंडी। न जाने किस जन्म के पापों का दंड मिला है हमें।”

“चलिए बाबा... फिर आपका बी.पी. हाई हो जाएगा। अब तो सब्र करने के अलावा और कोई चारा नहीं है।”

डायना ने विदा होती मुनमुन और बाबा को देखा उसकी साँसों ने एक सूखी सिसकी ली। और नजरें दरवाजे की ओर टिका दीं।

डायना घर लौट आई थी। अभी भी कभी-कभी तबीयत घबराने लगती, बुखार चढ़ जाता पर अब अस्पताल में रहना भी डायना के लिए जानलेवा सिद्ध हो रहा था। बंगले में किताबें, ब्लॉसम और संगीत से मन बहला रहता। पोर्गीं और बेस ज्यादातर दीना के लड़कों के साथ खेलते या गेट से बंधे रहते। अब वे बड़े हो गए थे और खूँखार भी।

नीम और पीपल के पेड़ों पर हवा सनसना रही थी। होली का रंग पलाश की चटख लाल कलियों पर छाया था। डायना का दिल अनाथ हो चुका था फिर भी कोख में पलती चंडी की निशानी के लिए उसे खुद को सँभालना था और यह कोशिश करनी थी कि टॉम की निर्ममता की उस पर छाया तक न पड़े। इस बात से सतर्क सावधान डायना रातों को छटपटाकर नींद से जाग जाती। उसे लगता अंधी वीरान खोह में चंडी का खून से लथपथ शरीर पड़ा है। चंडी की आँखों में उसके लिए प्रेम का सोता छुपा है जो बस बहने को आतुर है लेकिन बहे कहाँ? हर तरफ बंदूक की भयानक आवाज है। छूटी हुई गोलियों का धुआँ है। निर्मम हाथों में इतनी समझ कहाँ कि इस विशाल... ब्रह्मांड से भी विशाल प्रेम को नष्ट कर डालने के अपने भ्रम को मिटा सके। प्रेम ईश्वर है और ईश्वर को कोई मिटा नहीं सकता। ईश्वर पृथ्वी के कण-कण में समाया है। फूलों के खिलने में, नदियों के बहने में, समुद्र के ज्वार भाटे में, भौंरों के गुंजन में तितलियो के नर्तन में, बादलों के गर्जन में हवा के थपेड़ों में प्रेम ही प्रेम है, ईश्वर ही ईश्वर है जिसे कोई आसुरी ताकत नहीं मिटा सकती। चाहे उसने मंत्र फूँककर कितनी ही भयानक कापालिक क्रिया क्यो न की हों, कितना ही मसान क्यों न साधा हो।

गेट खुलने की आवाज सुन वह चौंकी। उसे लगा चंडीदास आया है... अक्सर ऐसा ही होता है। चंडीदास के कदमों की आहट शाम होते ही उसे कुरेदने लगती है। दुर्गादास था, बाजार करके लौट रहा था। आते ही उसने पारो को झोला आदि उठाने के लिए बुलाने के इरादे से साईकिल की घंटी बजाई। ब्लॉसम चौंककर म्याऊँ-म्याऊँ करती उसकी गोद में आ दुबकी। अब यह आवाज भी इस बंगले का जानलेवा सन्नाटा नहीं तोड़ पाती। सिरफिरी हवाएँ जब भी आती हैं पेड़ों से सूखे पत्ते, मुरझाए फूल झकझोर-कर अपने साथ उड़ा ले आती हैं पेड़ों से सूखे पत्ते, मुरझाए फूल झकझोर-कर अपने साथ उड़ा ले जाती हैं। क्या बच पाता है सिर्फ सन्नाटे के, सिर्फ नंगी शाखों के... । वह पुलिस को खबर करना चाहती है कि टॉम ने चंडीदास का खून किया है लेकिन अंजाम? टॉम से सच्चाई उगलवाने की कोशिश में डायना और चंडीदास का प्रेम बदनाम हो सकता है। कीचड़ उस पर भी उछाली जाएगी, कालिख उस पर भी पोती जाएगी। टॉम एक पहुँचा हुआ खिलाड़ी है... जैसे उसने डायना की संपत्ति को हथियाने के लिए डायना के पिता को अपना बना लिया था ताकि डायना शादी से इंकार न करे उसी तरह उसे बदनाम करने में वह क्या कोई कोर कसर बाकी छोड़ेगा? तब डायना क्या करे? एक कातिल के साथ जिंदगी गुजारे... उसकी अर्धांगिनी बनकर रात को उसकी बाहों में समा जाए?

नहीं, ऐसा करना चंडीदास के साथ धोखा होगा, खुद के साथ धोखा होगा। वह सिर्फ चंडीदास की है, आखिरी साँस तक उसी की रहेगी... और आखिरी साँस भी कब तक? जब तक उनकी यह प्रेम की निशानी दुनिया में जन्म नहीं ले लेती... .बस, उसके बाद वह होगी और चंडी होगा... यहाँ भी तू... वहाँ भी तू... जमीं तेरी फलक तेरा... मेरी हर साँस में तू... तेरी आत्मा मे मैं... यह जो मैं हूँ यह भी तेरा जिया प्रतिरूप है... डायना अपने चंडी की यादों में खो गई। उसे होश नहीं रहा कि कब दिन ढला और कब रात ने अपने पैर धरती की ओर बढ़ा दिए।

मौलसिरी और चंपा के पेड़ की डालियों के पीछे चाँद पीला-पीला निस्तेज, मृतप्राय-सा नजर आ रहा था। चंपा के फूल अलबत्ता खिलकर सुवास बिखेर रहे थे। पीले उजास में पेड़ों की छायाएँ लॉन पर फैली थीं। कभी इन छायाओं में उसकी छाया के साथ चंडीदास की छाया भी होती थी। तब चाँद ऐसा पीला नजर नहीं आता था। उसकी शुभ्र चाँदनी में छायाएँ चित्र-सी जान पड़ती थी। कैसी अजीब बात है कि इंसान जीवन भर जिन छायाओं का पीछा करता है वे कभी हाथ नहीं आतीं उसके जबकि रहती साथ-साथ हैं हमेशा... “तुम भी मेरे साथ हो चंडी। मेरी छाया बनकर, मैं जानती हूँ छाया में बड़ी ताकत होती है, वह इंसान को कभी तनहा नहीं छोड़ती कभी मिटने नहीं देती।'

सहसा डायना की कमर को टॉम की बाहों ने जकड़ लिया। बिना पानी मीन-सी वह छटपटा उठी-”छोड़ो टॉम... तुम्हारे हाथ खून से सने हैं।”

“क्या बचपना है डायना... पागल तो नहीं हो गईं तुम? गुलामों के लिए शोक करती हो?”

“गुलाम भी इंसान होते हैं और यह मत भूलो टॉम कि तुम भी गुलाम हो ईस्ट इंडिया कंपनी के... फर्क बस इतना है कि तुम भी उसी नस्ल के हो, अपने मालिकों की नस्ल के।” कहती डायना बिस्तर पर आकर अपने तकिये को उठाने लगी-”यह क्या? तुम यहाँ नहीं सोओगी?”

“नहीं... और आइंदा कभी नहीं। तुम अपने षडयंत्र में जरूर कामयाब हो गए जो तुमने मेरे और चंडीदास के खिलाफ रचा था लेकिन तुम उसी दिन हार भी गए जिस दिन चंडी की मृत्यु हुई। तुम हार गए जिंदगी की बाजी... खो चुके हो तुम मुझे।”

और डायना फफक-फफककर रो पड़ी... वह कातर रूलाई... मन मसोसता हाहाकार जब यह एहसास भीतर तक खुब चुका हो कि जो कुछ छूट गया वह कभी वापस नहीं आएगा... अब कभी चंडी को वह देख नहीं पाएगी। सब कुछ खत्म कर दिया टॉम ने... अब वह अकेली है। सूनी सन्नाटे भरी सड़क पर उसकी बोझिल जिंदगी किस तरह गुजरेगी? कैसे वह अपने चंडी के बिना साँस ले पाएगी। रोते-रोते वह आहिस्ते से कमरे से बाहर आ गई। संगीत के कमरे में से तानपूरा उठा कर वहीं कालीन पर बैठकर उसने रागिनी छेड़ दी। यही चंडीदास से मिलन का एकमात्र विकल्प रह गया था। संगीत में ही तो चंडीदास की आत्मा बसी है... धीरे-धीरे मधुर तरंगें पसरे सन्नाटे को अपनी झनकार से तोड़ने लगीं। अचानक हॉल में सोफे पर एक बड़ी गेंद की शक्ल में सोई ब्लॉसम चौंकी। उसने एक लंबी अँगड़ाई ली और डायना के दुखी स्वरों का पीछा करती संगीत कक्ष तक आई और दौड़कर अपने पंजों से तानपूरे के तारों को छेड़ने लगी। रागिनी टूट-सी गई। गीत के स्वर बिखर गए। डायना ने गायन रोककर ब्लॉसम की ओर देखा... ब्लॉसम उसके कंधों पर लपककर चढ़ी और उसके गालों को चाटने लगी। डायना के उदास सूखे होठों पर मुस्कान फैल गई। उसने ब्लॉसम को आहिस्ते से दबोच लिया... उसे क्या पता था कि यह बेजुबान एक दिन उसके दुख की साथिन हो जाएगी। यह समझती है उसकी पीड़ा, आघात... तभी तो... तभी तो... और एक टॉम है... उसका पति... जिस पर विश्वास कर वह लंदन से इतनी दूर एक पराए देश में यह सोचकर आई थी कि टॉम तो है उसके साथ... उसका जीवनसाथी... लेकिन टॉम ने जिंदगी की राहें काँटों से भर दीं। वह सिर्फ गोश्तप्रेमी है... रात होते ही उसे भुना गोश्त भी चाहिए और जीवित भी। तभी तो उसकी बीमारी और चंडीदास के कत्ल की ताजा-ताजा घटना के बावजूद उसने डायना के शरीर को हाथ लगाया, वासना से छुआ... आह।

रात भर डायना सो न सकी। सुबह वह हलके बुखार की गिरफ्त में थी। रोज ही ऐसा होता है, जब से अस्पताल से लौटी है यह बुखार पीछा ही नहीं छोड़ता। वह अंदर ही अंदर घुल रही है, जीने की इच्छा खत्म हो चुकी है। पर अभी अपने फर्ज को पूरा करना है और यही एक बात उसमें हर दिन जीवित रहने की थोड़ी बहुत ऊर्जा भर देती है। वह टॉम से घृणा भी तो नही कर पाती। चँडीदास के प्रति अथाह प्रेम उसे ऐसे शैतान के प्रति घृणा करने का अवकाश ही कहाँ देता है? और टॉम उसके जीवन में है ही कहाँ? क्योंकि चंडीदास उसके जीवन से गया ही नहीं और टॉम उसके जीवन में कभी आया ही नहीं। उसने बोनोमाली को आवाज दी-”बोनोमाली, ड्राइवर से कहो कार निकाले। मैं चंडीदास के घर जाऊँगी।”

“तबीयत तो ठीक हो जाने दीजिए मेमसाहब।”

डायना इस आग्रह पर मुस्कुरा कर तैयार होने लगी। बोनोमाली अपनी मालकिन के हठ के आगे लाचार था।

जब चंडीदास के घर के सामने आकर कार रुकी तो तहलका मच गया। सड़क पर खेलते हुए बच्चे खेल रोककर किनारे खड़े हो गए और तमाम घरों की खिड़कियों से चेहरे झाँकने लगे। निम्न मध्यमवर्ग के रहवासी इलाके में एक धनी और वह भी अंग्रेज महिला का आगमन सबके आश्चर्य का विषय था। यूँ तो वह गुनगुन के वक्त भी आई थी पर तब बात दूसरी थी। डायना दुख और भावनाओं के आवेग में कुछ देख न पाई। बोनोमाली ने उसे कार से उतारा और एक सीलन भरे अँधेरे से कमरे में ले आया। कमरे का फर्श बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से जड़ा था। लगता था आज फर्श खूब रगड़-रगड़कर धोया गया है क्योंकि पत्थरों के जोड़ों, उखड़े किनारों पर नमी थी। ठंडक थी कमरे में। दीवारें उघड़ी-सी थीं, प्लास्टर उखड़ा था और जगह-जगह से चूना झर रहा था। लकड़ी की चौखट वाली दहलीज में दीमक लग गई थी जिसने तमाम लकड़ी को चर डाला था और जगह-जगह छेद कर दिए थे। एक ओर लकड़ी का तख्त था जिस पर गद्दा बिछा था और गाव तकिये रखे थे। कोने में रखे टेबल पर हारमोनियम रखा था और वहीं कोने से ही दीवार के सहारे तानपूरा टिका था। दरवाजे पर पड़े पुरानी साड़ी से बनाए हुए परदे को हटाकर बाबा आए-”आओ बेटी।”

पीछे-पीछे चौड़े पाड़ की बंगाली साड़ी पहने माँ आई, मुनमुन के साथ। डायना अपने को रोक नहीं पाई। उनसे लिपटकर रो पड़ी। चंडी की माँ भी सहारा पाकर ढह गईं-”मेरा एक ही बेटा था, काली माँ ने उसे भी छीन लिया। अब किसके लिए जिऊँ? कैसे जिऊँ?

डायना ने कहना चाहा... चंडी की निशानी मेरी कोख में पल रही है, क्या उसके लिए नहीं जीना चाहेंगी आप? माहौल बोझिल था। खामोशी में देर तक किसी की ओर से कोई संवाद न था लेकिन आँखें सबकी भरी थीं जिन्हें उनमें से कोई जब्त किए था तो कोई बहा रहा था। सवालों का तूफान उस सीलन भरे कमरे में बरपा था-”कैसे हुआ ये हादसा... यकीन करने लायक कोई तो तर्क हो... “ डायना ने देखा सामने चंडीदास की तस्वीर पर गुलाब की माला थी और तस्वीर के आगे दीपक जल रहा था। अगरबत्तियों का धुआँ कमरे में ठिठका-सा था। तस्वीर में चंडीदास डायना की ओर देख रहा था, उसके खूबसूरत दाँतों की हँसी डायना के मन में उजाला भर गई।

“वह बिल्कुल महत्वाकांक्षी नहीं था। बस, उसका मन तो संगीत में रमा रहता था। कहता था संगीत मेरी आत्मा है, मेरा प्रेम है मेरा जीवन है। संगीत से ही मुझे जीवन की अमूल्य प्राप्ति हुई है।” डायना ने नजरें झुका लीं।

“शादी की बात पर भड़क जाता था। कहता था मुझे शादी के बंधन में मत बाँधो... मुझसे नहीं निभेगा।”

बाबा की बात बीच में ही काटकर माँ ने बंगाली में कहा-”अरे बाबा कुछ नहीं मालूम तुमको।” फिर डायना की ओर देखती हुई बोली “उसे किसी से प्यार हो गया था। बहुत सुंदर... बहुत गुणी थी... वो... फिर भी पता नहीं क्या बात थी। कहता था शादी नहीं हो सकती उससे। हम शादी के लिए नहीं बने हैं।”

डायना का सारा शरीर रोमाँचित हो उठा। दुख के माहौल में भी उसके गाल दहक उठे, कनपटियाँ गर्म हो उठीं। मन हुआ, कुछ ऐसा चमत्कार हो कि वह हाथ बढ़ाकर चंडी को तस्वीर से बाहर निकाल ले और माँ, बाबा से कहे-”मैं ही तो हूँ चंडी की राधिका... प्रेम का शाश्वत रूप... बाकी सब भ्रम है। सत्य है तो बस हम दोनों का प्रेम।”

“अब बस भी करो माँ... दादा की बातें क्या आज ही बता डालोगी दीदी को... ..”

माँ उमड़ आई आँखों को पल्ले से ढकने लगीं।

“तबीयत कैसी है दीदी?”

“मेरी चिंता छोड़ो मुनमुन... माँ, बाबा को सभाँलो। खुद को सभाँलो”

“जिंदगी के मेले में सब कुछ लुट गया दीदी।”

अब मुनमुन भी सिसकने लगी थी... डायना का मन व्याकुल हो गया... उसे अपने आप पर ग्लानि हो रही थी। न वो चंडीदास से परिचित होती, न इस परिवार को ये दिन देखना पड़ता। अंदर से कोई प्रौढ़ महिला चाय बना लाई। माँ चेहरा धोने अंदर गईं... चंडीदास की फोटो के आगे रखे दीपक में बाबा तेल डालने लगे। जिंदगी की बाजी उलट गई थी। चंडीदास के हिस्से का काम बाबा कर रहे थे... चाय का प्याला डायना के हाथों में पकड़ाते हुए मुनमुन का हाथ उसके हाथ से छू गया-”अरे, आपको तो तेज बुखार है दीदी।”

सभी चौंक पड़े। इस ओर तो अब तक किसी का ध्यान ही नहीं गया था लेकिन अब डायना की लाल आँखें, पीला निस्तेज चेहरा और पपड़ाए होठ सब कुछ बयान कर रहे थे। बाबा तेजी से अंदर गए और होम्योपैथी की दवा की शीशी ले आए। “जादू है इस दवा में।” और शीशी में से ढक्कन में चार गोलियाँ निकाल कर डायना से मुँह खोलने कहा। अपने हाथों दवा खिलाकर उन्होंने शीशी बोनोमाली को दे दी कि चार-चार घंटे में खिलाता रहे। आँखों में उमड़ आए आँसुओं सहित जब वह विदा हुई तो अपना बहुत-सा हिस्सा वहीं छोड़ आई... अपने चंडी के घर... अपनी पीड़ा... अपनी कराह... अपना अकेलापन भी... हाँ, अब वह अकेली नहीं है अब उसके साथ एक भरा पूरा परिवार है जिसमें माँ है, बाबा हैं, मुनमुन है। काश वह चंडी के रहते यह सब जान पाती।

और जब टॉम ब्लेयर के बंगले की वे चार सीढ़ियाँ जो बरामदे से हॉल की ओर जाती थीं वह पारो का सहारा ले चढ़ने लगी तो उसके पैर लड़खड़ा गए... एक बड़ा बोझ-सा मन में महसूस हुआ। अभी तक तो वह मान रही थी कि टॉम ने चंडीदास का कत्ल किया है पर अब लगता है उसने अपनी इस साजिश के तहत तीन कत्ल और किए हैं... माँ, बाबा और डायना के खुद के कत्ल से उसके हाथ रंग चुके हैं। वह बड़ा शातिर खूनी निकला... अपने मिशन में कामयाब। अब इन शेष साँसों को डायना कैसे ढोए? टूट चुकी है वह, कतरा-कतरा मर चुकी है वह। पारो ने उसे बिस्तर पर लिटाकर कंबल ओढ़ा दिया। बुखार अब भी नहीं उतरा था और उसकी आँखों में लगातार रोते रहने और नींद नहीं आने के कारण कांटे से चुभ रहे थे। उसने पलकें मूँदीं तो लगा पलकों का बोझ ऐसा तो कभी महसूस नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद पारो गुलाबजल में भीगे रुई के फाहे उसकी बंद पलकों पर रखकर हाथ और तलवे सहलाने लगी ताकि उसकी मालकिन दो घड़ी चैन से सो लें। ब्लॉसम भी चुपचाप डायना के पास ही बिस्तर पर सो गई।

बुखार उतरने में हफ्ता भर लग गया। डायना बहुत कमजोर हो गई थी। चेहरा पीला पड़ गया था। आँखों में हमेशा यह सवाल कौंधता... क्यों किया टॉम ने ऐसा? जो वो खुद मुझे न दे सका उसे किसी और से पाने में उसने डायना के साथ क्यों निर्ममता की... जब मुझे टॉम के अनैतिक स्त्री संबंधों में आपत्ति नहीं तो फिर उसे क्यों? क्योंकि वह मर्द है? क्योंकि वह कुछ भी कर सकने की छूट पाए हुए है समाज से? समाज को दिशा देने वाले बड़े-बड़े दार्शनिक, लेखक भी तो स्त्री की सीमा बाँधे रखने की बात पर बल देते हैं। डायना ने बालजाक को पढ़ा है जिसने स्त्री को पुरुष की संपत्ति कहा है... वह एक जंगम संपत्ति है जिसको पुरुष जहाँ चाहे हाँक कर ले जा सकता है। आखिर इस दासता को क्यों स्वीकार करती आ रही है स्त्री? क्यों यह धारणा उसके मन में जड़ जमा चुकी है कि मर्द औरत से अधिक सुपीरियर है।

“तुम अस्वीकार करोगी? तुम मुक्त करोगी खुद को इस बंधन से? सवाल किया था डायना ने अपने आप से, हाँ, वह मुक्त होना चाहती है पर टॉम उसे मुक्त करेगा नहीं। पुरुष ने सभ्यता की शुरुआत से ही अपनी ताकत के बल पर अपने लिए एक रुतबेदार श्रेष्ठ जगह बना ली है समाज में। इसी ताकत के बल पर वह स्त्री पर राज करता है। सारे धर्म, सामाजिक मूल्य, परंपराएँ, रहन-सहन, आचरण सब पुरुष ने अपनी सुविधानुसार गढ़े, स्त्री की सुविधानुसार नहीं। स्त्री को केवल उतनी ही छूट प्राप्त है जितनी पुरुष ने देनी चाही। टॉम भी उतनी ही छूट देगा उसे जितनी वह देना चाहेगा। वह उसे हरगिज तलाक नहीं देगा। उसे डायना नहीं चाहिए, उसकी करोड़ों की दौलत चाहिए। पिता की मृत्यु के बाद से डायना को रुपयों से मोह रहा नहीं। बहुत समय तक उसकी माँ कारोबार सँभालती रहीं लेकिन असमय ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हो गई... रहा सहा मोह भी जाता रहा... डायना इस संसार में अकेली रह गई। टॉम का होना न होना कोई मायने नहीं रखता। करोड़ों की संपत्ति की अकेली वारिस डायना। डायना के मन में प्रेम बस चुका है और जिसके मन में प्रेम है उसके लिए हर दौलत मात्र ठीकरा है।... “ तुमने चंडीदास का शरीर मिटाया है टॉम... प्रेम नहीं। प्रेम तक तुम्हारे नापाक हाथ कभी नहीं पहुँच सकते। लेकिन वह ऐसे खूनी, नापाक इंसान के साथ कैसे जिंदगी गुजारे? वह एक नोबल खानदान की प्रतिष्ठित संतान है। लंदन में रुतबेदार जिंदगी जी है उसने। मान-सम्मान पाया है। ऊँची सोसाइटी में उठना बैठना रहा है उसका। लक्जरी माहौल में बीते हैं जीवन के इतने वर्ष। अगर वह अपनी तरफ से कड़ा कदम उठाती है तो टॉम उसे बदनाम कर देगा। उसकी कोख में पल रही प्रेम की निशानी को भी मिटा देगा। बस यहीं आकर मात खा जाती है औरत। यही वत्सलता, ममता, माँ बनने की चाह और औलाद का सुख औरत को हर जुल्म के आगे घुटने टेकने पर मजबूर करता है। जब से डायना गर्भवती हुई है... एक विचित्र ईश्वरीय एहसास से गुजर रही है। उसके अंदर एक शरीर आकार पा रहा है, उसकी धड़कनें उसके शिशु को भी धड़कना सिखा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे अब उसके शरीर में परमात्मा का वास है। अब वह पूर्ण नारी है। अपने नारी जन्म की पूर्णता उसने पा ली है। वह अपनी दिनचर्या, अपने सोचने, विचारने के ढंग, उल्लास, खुशी, हर मुकाम पर सतर्क हो गई है। अब वह अपने स्वभाव, अपने विश्वास, बुद्धि, शौक, नैतिकता, व्यवहार सब की समीक्षा करती है और जो नागवार लगता है उसकी कतरब्यौंत कर डालती है क्योंकि अपने अंदर पल रही नन्हीं जान को वह एक साफ सुथरे, दोष रहित, प्रेममय संसार में लाना चाहती है। अब उसे मात्र दो चीजें याद रहती हैं अपना मातृत्व और अपने फर्ज।

धीरे-धीरे डायना स्वस्थ होती गई। मातृत्व की गरिमा के कारण चेहरे पर रौनक लौटने लगी। ब्लॉसम उसका खूब मनोरंजन करती। अब वह प्रतिदिन बोनोमाली के साथ चंडीदास के घर जाने लगी बुखार उतरने,स्वस्थ होने के बाद जब वह पहली बार चँडीदास के घर गई तो कार से उतरते हुए उसका ध्यान आसपास के घरों और सड़क पर गिल्ली डंडा, कंचे खेलते बच्चों की ओर गया। जब वह लंदन में थी तो उसने सुना था कि इंडिया सरसों का वह खेत है जहाँ रहट चलते हैं और जहाँ सिर पर रंग-बिरंगे साफे बाँधे लोग भांगड़ा करते हैं। जहाँ पग-पग पर देवी-देवताओं के मंदिर हैं जिनके आगे मन्नत करते प्रार्थना में लीन झुके सिर हैं। इंडिया वह सड़क, वह पगडन्डी, वह तिराहा, वह चौराहा है जहाँ से पूरी सज-धज के साथ हाथी पर सवार महंत की सवारी निकलती है, ढोल, मजीरे, घुँघरू के सुरों में हवा मतवाली हो नाचती है और पेड़ झूमते हैं। इंडिया एक ऐसी दरगाह है जहाँ इतने बड़े देग में खिचड़ी पकती है कि उसमें से बाल्टियाँ भर-भर कर दर्शनार्थियों को परोसी जातीं है, गुरूद्वारों में कड़ाह परसाद पकता है तो उसके द्वार से कोई भूखा नहीं जाता है। बड़ी-बड़ी शानदार हवेलियों में, कोठियों में, बंगलों में खानसामाँ ऐसा लजीज खाना पकाता है, रूमाल से भी बारीक परत वाली रूमाली रोटियाँ सेंकता हैं और तरह-तरह के कबाब कि लोग उंगलियाँ चाटते रह जाते हैं। सड़कें सुबह शाम धोई जातीं हैं जिन पर से अंग्रेज साहब बहादुर और मेमें कुत्तों को लेकर टहलने निकलतीं है। नवाबों के महल के आगे इत्रदार पानी से छिड़काव होता है। दरीचों में हवा सुगंध से ठिठकी खड़ी रहती है। इंडिया दर्शन शास्त्र का अपार जखीरा था... आकाश के तमाम रहस्यों को आध्यात्म से जोड़ एक नए लोक का रचयिता... जिस लोक के दर्शन मात्र प्रभु नाम संकीर्तन के होने का दावा था उसका। इंडिया कबीर था, तुलसी था, मीराबाई, सूरदास, रहीम, रैदास था, संत तुकाराम था, संत ज्ञानेश्वर था। संत ज्ञानेश्वर ईश्वर भक्ति में इतने डूबे रहते थे कि वे ईश्वर से सीधे बातचीत करते थे। देवशयनी एकादशी के दिन जब भगवान विष्णु लक्ष्मी के साथ चार महीने विश्राम करने के लिए क्षीरसागर जाते हैं तो संत ज्ञानेश्वर उनके मंदिर पंढरपुर में उनसे मिलने आते थे। जब संत ज्ञानेश्वर की मृत्यु हो गई तो भगवान विष्णु स्वयं उनसे मिलने आलंदी में बनी उनकी समाधि पर जाते हैं। अद्भुत... ।

लेकिन ऐसा इंडिया... ऐसे इंडिया से तो अनभिज्ञ थी डायना कि जहाँ बेतरबीत, कुकरमुत्तों से उगे घर थे जिनकी दीवारों के प्लास्टर उघड़े थे। सार्वजनिक कुएँ और हैंड पंप थे। बच्चों के खेलने के लिए न प्ले ग्राउंड था न कोई पार्क। वे सड़कों पर खेलते थे और अक्सर मोटरों, वाहनों की आवाजाही से घायल होते थे। औरतें सड़क के किनारे बोरियों पर लगे सब्जी बाजार से सब्जियाँ खरीदतीं थीं। कई घरों के आगे केले के गाछ थे जिनमें मच्छर भिन-भिना रहे थे और पोखर के कीचड़ भरे पानी में मछलियाँ तैर रही थीं। जो उन घरों का प्रतिदिन का खाद्य थीं। माहौल से भारी मन लिए डायना चंडीदास के घर आई। मौत का सन्नाटा अब भी पूरे घर पर तारी था। उसे देखते ही मुनमुन दौड़कर उससे लिपट गई-”कैसी हैं दीदी, कितनी दुबली हो गई हैं?” अंदर से माँ, बाबा आए। डायना की आँखों ने एक पल में भाँप लिया कमरे के भारी तनाव को। चंडीदास की फोटो के आगे दीपक वैसे ही जल रहा था। सधे हुए अगरबत्ती के धुएँ को कमरे में टंगे रहने की आदत पड़ गई थी।

“माफ करना बेटी... मैं तुम्हारी बीमारी में तुम्हें देखने नहीं आ सका। ये देखो अपनी पगली माँ को... इसे विश्वास ही नहीं होता कि चंडी अब इस दुनिया में नहीं है। कहती है वह जरूर लौटेगा।” बाबा डायना के सामने कुर्सी पर बैठ गए। माँ एक पल को अंदर गईं कि मुनमुन धीमी आवाज में बोली-”दादा की लाश घर आ जाती तो माँ यकीन कर लेतीं... पर हमारा दुर्भाग्य... हम उनके अस्थि फूलों को गंगा में नहीं सिरा सके, उनका दाह संस्कार नहीं कर सके तो कैसे यकीन हो?”

डायना का कलेजा फटने लगा। उसने भी तो जिंदा चंडी को घाटी में गिरते देखा है, जान तो उसकी बाद में निकली होगी। जान तो डायना की भी निकल चुकी है। डायना की आत्मा चंडी की आत्मा के साथ एकाकार हो चुकी है। शायद इसे ही मौत कहते हैं। यह डायना का दूसरा जन्म ही तो है। चंडी ने ही प्रेरणा दी है कि वह उसके शिशु को जन्म दे और उसके घर को सँभाले।

डायना की सहृदयता, प्रेम और अपनत्व की भावना ने चंडीदास के घर में अपनी जगह बना ली। वह मुनमुन, माँ, बाबा के साथ नीचे पालथी मारकर बैठती और अक्सर दोपहर का खाना वहीं खाती। माछ का झोल और भात... या फिर केले के फूलों की चटपटी सब्जी और मुँह में घुल जाने वाला स्वादिष्ट संदेश। मुनमुन ने उसे साड़ी बाँधना सिखाया जो गभर्वती होने के कारण इन दिनों काफी आरामदायक लगती थी। चंडीदास के घर की आर्थिक हालत से वह परिचित हो चुकी थी। पर एकदम से कुछ करना नहीं चाहती थी... कहीं माँ, बाबा बुरा न मान जाएँ... लेकिन क्या करेगी इसके बारे में सोच लिया था उसने। अभी तो उसका पूरा ध्यान अपने शिशु पर था। प्रेम और आध्यात्मिक पुस्तकों से उसकी लाइब्रेरी भर चुकी थी। वह हिंदुस्तान के लेखकों से बेहद प्रभावित थी। टैगोर के लेखन ने तो उसे मोह ही लिया था। वह अक्सर शांतिनिकेतन जाती। कभी मुनमुन या बाबा साथ होते... कभी अकेली ही। अब अकेलापन उसकी आदत हो चुकी थी। केवल अंग्रेजों के लिए आरक्षित डांसिंग क्लब में पड़ोस के बंगलों से अंग्रेज दंपत्ति उससे भी साथ चलने का आग्रह करते, एक दो बार गई भी पर ऐसे शोर शराबे में उसका मन नहीं लगता था। बाल रुंज में नाचती अंग्रेज अमीरजादियाँ अक्सर गैरमर्दों के साथ भौंडे मजाक करतीं और इसे वे हाईसोसाइटी की कल्चर समझती थीं। ताश, रमी, कैरम, शराब में डूबा यह संसार डायना को कभी लुभा नहीं पाया।

रवींद्रनाथ टैगोर का जन्मदिन था। सुबह से ही वह मुनमुन और अपने सेवक बोनोमाली को लेकर जीप से शांतिनिकेतन गई थी। वह रोमांचित थी क्योंकि वह पहली बार अपने प्रिय लेखक को देखेगी। वह जानना चाहती थी कि उनकी कविताओं, उपन्यासों को पढ़कर उसने अपने मन में टैगोर के व्यक्तित्व का जो खाका खींचा है क्या वे हूबहू वैसे ही हैं? उत्तरायण के प्रांगण पर बिछी दरियों पर शांतिनिकेतन के केवल विद्यार्थीं ही नहीं बल्कि कलकत्ता के प्रसिद्ध और समृद्ध व्यक्ति भी बैठे थे। डायना भी मुनमुन के साथ वहीं बैठ गई। बोनोमाली बाहर खड़ा था। वैसे वह ठस्स मूर्ख नौकर नहीं था बल्कि संगीत का जानकार एक अच्छा गायक था और बंगाली भाषा की किताबें पढ़ता था। डायना यह कैसे भूल सकती है कि उसी ने उसे चंडीदास से मिलवाया था। लेकिन अपनी मालकिन के बराबर बैठने की वह कैसे हिम्मत कर सकता है सो वह खड़ा रहा। कुछ विद्यार्थी टैगोर के जन्मदिन की संदेश प्रतियाँ सभी को बाँट रहे थे। उसके पास एक साँवली-सी लड़की आकर रुकी-”मैडम, आप बांग्ला भाषा जानती हैं?”

इसका जवाब डायना ने बांग्ला भाषा में ही दिया तो उसने बहुत ही सहज भाव से संदेश की एक प्रति उसे दी। मुनमुन अपनी प्रति पढ़ने लगी लेकिन डायना की आँखें टैगोर के इंतजार में बिछी थीं। अँधेरा हो चुका था और टैगोर रचित संगीत नृत्य-नाटिका चंडालिका का एक अंश संगीत कला भवन के विद्यार्थी पेश कर रहे थे। नृत्य-नाटिका में विद्यार्थियों ने अपना संपूर्ण कौशल उड़ेल कर रख दिया था। एक-एक भाव भंगिमा मन मोह लेती थी। बहुत सुंदर प्रस्तुति थी। बायीं तरफ की बत्तियाँ बुझी थीं। उजाला बरामदे के मध्य भाग में किया गया था और जैसे अंधेरे में सूरज उगा हो टैगोर दरवेशों जैसा काला चोगा पहने, हलकी-सी झुकी कमर किए, आँखों पर चश्मा लगाए माइक तक आए। डायना मंत्रमुग्ध-सी उन्हें देखे जा रही थी। उसका प्रिय लेखक, गीतांजलि का रचयिता उसके सामने खड़ा था। ऐसी अनुभूति उसे अंग्रेज लेखकों, कवियों विलियम ब्लेक, डन, ग्रे की कविताएँ पढ़कर उनके लिए क्यों नहीं हुई? डायना सोच ही रही थी कि टैगोर ने अपना वही भाषण पढ़ना शुरू किया जिसकी प्रतियाँ बाँटी गई थीं। भाषण इतना ओजस्वी, इतना प्रभावशाली था कि उसके खत्म होने के बाद भी न ताली बजी, न शोरगुल हुआ। चित्रलिखित से श्रोताओं के बीच खामोशी थी, सोच थी। टैगोर लौट गए। बरामदे की बत्तियाँ भी बुझा दी गई। डायना और मुनमुन भी बाहर आ गए। संध्या के सतरंगी माहौल में दिलोदिमाग पर मात्र टैगोर की छवि ही अंकित थी, उनके भाषाण के हर शब्द दिल में गूँज रहे थे। दोनों खामोशी से चलती हुई हरे-भरे निकुंजों के बीच उस तालाब तक आई जो “हाथी पुकुर' कहलाता था। वहाँ बोलपुर के जंगलों से एक हाथी रोज पानी पीने आता था। जब वह मरा तो टैगोर ने उस तालाब का नाम “हाथी पुकुर' रख दिया। आदमी तो क्या जानवरों तक की इज्जत करना टैगोर जानते थे, तभी तो महान कहलाए। हाथी पुकुर के किनारे हरी लचीली दूब पर दोनों बैठ गईं... इतने विद्यार्थियों, अध्यापकों के होते हुए भी शांतिनिकेतन में एक सुखद शांति थी। उस निबिड़ एकांत में अगर कुछ था तो आसमान पर तनहा चाँद जो तालाब के शांत जल में हौले से उतर आया था। यहीं मुनमुन के सामने डायना ने कबूल किया था कि वह चंडीदास के बच्चे की माँ बनने वाली है। दोनों में अपूर्व प्रेम था।

“मुझे पता है दीदी। दादा मुझसे कुछ छुपाते नहीं थे। उन्होंने ही बताया था कि वे जो दिन रात राधे, राधे जपा करते हैं वो आप ही हैं।”

डायना चकित थी... “तो क्या घर में भी सब जानते हैं।”

“नहीं, लेकिन बाबा को कुछ कुछ आभास हो चला है। वे आपके लिए चिंतित दिखाई देते हैं।”

“ओह!” डायना के मन में एक हिलोर-सी उठी। उस हिलोर में घने दरख्तों के पीछे आँख मिचौली खेलते चाँद की चंद्रिका जगमगा उठी। बड़े-बड़े आम के पेड़ों के नीचे से होकर डायना मुनमुन का हाथ पकड़कर चलने लगी। खुले आसमान के नीचे लगने वाली कक्षाएँ इस वक्त घास का मैदान नजर आ रही थीं। घास पर गुलमोहर, अमलतास के फूलों की पंखड़ियों ने छितराकर गलीचा-सा बुन दिया था। क्या ही अद्भुत लगती होंगी ये कक्षाएँ दिन के उजाले में। गुलमोहर, अमलतास और आम की छाया में विद्या अध्ययन करते विद्यार्थी तपस्वी से लगते होंगे। इस कल्पना मात्र से ही डायना की आँखें मुँद-सी गईं। हालाँकि दिन में कई बार वह शांतिनिकेतन में यह सब महसूस कर चुकी है पर इस वक्त। जबकि यह पता है कि मुनमुन उसके बारे में सब कुछ जानती है... डायाना उन घड़ियों को याद करने लगी जब वह मुनमुन के सामने आई थी। यह सोचकर कि इन सबकी नजरों में वह मात्र मिसेज ब्लेयर है। पर अब?

“नाराज हो मुनमुन?” डायना ने झिझकते हुए पूछा।

“किस बात से... दादा से आपके प्रेम संबंधों से?” पल भर रुकी मुनमुन-”दीदी... अगर वो मौका मेरे हाथ आता... दादा के जीवित रहते तो सच कहती हूँ मैं दुनिया की सबसे खुशनसीब औरत होती कि मेरे दादा की प्रेमिका आप हैं।”

पेड़ों पर पंछियों के पर फड़फड़ाए। एक लंबी पूँछ वाला मोर एक डाल से उड़ता हुआ दूसरी डाल पर जा बैठा। तभी विद्यार्थीयों का एक झुंड खिलखिलाता हुआ पास से गुजरा।

“चलें?” असीम सुख में डूबी डायना ने मुनमुन का हाथ दबाया।

मुनमुन ने डायना का मुख चूम लिया-”मैं खुश हूँ, बहुत खुश हूँ।”

फिर डायना के पेट पर हाथ फेरकर बोली-”कब तक बनूँगी मैं बुआ?”

जीप कलकत्ता जाने वाली सड़क पर तेज दौड़ने लगी।

डायना के लिए चंडीदास के संग हुए हादसे को भुला पाना तो कठिन था लेकिन धीरे-धीरे उसने उस हादसे के संग जीना सीख लिया था। वह चंडीदास से सीखे संगीत को भोर होते ही रियाज करके ताजा कर लेती। कहीं... कभी गलती हो जाती तो चंडीदास सुधार देता जैसे। हाँ, यह अनोखा सत्य डायना के साथ घटित होने लगा था। कभी-कभी वह चंडीदास से शून्य में बातें करती और उसे लगता उसकी बातों के उत्तर उसे मिल गए। यह इस अद्भुत देश का अद्भुत सच था जहाँ आदमी मरकर भी हमारी इच्छा रहते जीवित रहता है। डायना के सर्वांग में चंडी बस गया था... “तभी तो तुम राधे हो, चंडी की राधे।' राधा ने भी आजीवन कृष्ण वियोग सहा। फिर भी वे कृष्णमय थीं। वे कृष्णमय होकर ही इस धरती पर मानव धर्म का पालन करती रहीं। कैसी विचित्र बात है कि हिंदुस्तान में कृष्ण के मंदिर उनकी पटरानियों के साथ नहीं मिलते, राधा के साथ ही मिलते हैं। यहाँ प्रेम पूजा जाता है। वो भी चंडीमय होकर ही रहेगी हमेशा... जीवन के अंत तक... ।

टॉम जब टूर से लौटा तो उसने डायना में गजब का परिवर्तन महसूस किया। डायना का सौंदर्य दुगना हो गया था। चेहरे पर सलोनी आभा झलक रही थी। आँखें मातृत्व के चरम सुख से अर्धनिलीमित सी... अपने करोड़पति घराने की जो एक कोमलता, नाज-नखरा उसके व्यक्तित्व में था उसकी जगह प्रौढ़ता ने ले ली थी। टॉम को लगा डायना चंडीदास को भूल चुकी है... उस हादसे को, उसकी करतूत को भुला दिया है उसने। पर वह नहीं जानता मातृत्व को... वह नहीं जानता औलाद पैदा करने के सुख को। ईश्वर ने पुरुष को इस सुख से वंचित रखा है। इस सुख में औरत पुरुष से बाजी मार ले गई। ईश्वर भी जब धरती पर अवतार लेता है, दूत बनकर आता है तो उसे औरत की कोख तलाशनी पड़ती है। गर्भवती औरत सृजन के उस काल से गुजरती हैं जब सारी कायनात मातृत्व के चरणों में आ दुबकती है। भारत में तो ईश्वर के पहले माँ को नमन किया जाता है। माँ से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं।

संध्या के सुनहले रंगों के बिखरते ही मौसम की तपिश घटने लगी। गंगा की लहरों को छूकर आई भीगी-भीगी हवाएँ जब कमरे के द्वार पर दस्तक देने लगीं टॉम आकर सोफे पर पैर फैलाकर बैठ गया। सामने वाले सोफे पर पहले से बैठी डायना क्रोशिया बुन रही थी। उँगली में गुलाबी डोरा लिपटा था जैसे नन्हा-सा बटनरोज हो। डायना धीरे-धीरे कोई गीत गुनगुना रही थी। बोनोमाली ने टॉम के लिए नियमानुसार व्हिस्की का पैग बनाया... ऑमलेट और सलाद पारो रख गई। सब कुछ घड़ी के काँटों से बंधा था... रोज का एक जैसा रूटीन। लेकिन डायना इस सारे रूटीन से अलग-थलग अपने में ही खोई बैठी थी। अभी टॉम ने पहला घूँट भरकर सिगरेट सुलगाई ही थी कि फोन की घंटी बज उठी। फोन डायना के लिए था।

“कोई मुनमुन है... दीदी को पूछ रही है। कौन है दीदी?”

डायना ने फोन का चोगा हाथ में थामा... “मैं।”

और मुनमुन से मुखातिब हुई... “हाँ मुनमुन... नहीं, इस वीक नहीं आ पाऊँगी... हाँ, एप्लाई कर दो। बायोडाटा जरा प्रभावशाली होना चाहिए, मैं सँभाल लूँगी। तुम चिंता मत करो। नहीं, तुम भी इस वीक यहाँ मत आओ। इंटरव्यू की तैयारी में जुट जाओ... मैं ठीक हूँ... .जयदेव पढ़ रही हूँ आजकल। ओके ... .गुडनाइट।”

फोन रखते ही टॉम की सवालिया आँखों से डायना की आँखें टकराई पर उसने परवाह नहीं की। डायना की बेरुखी टॉम को दंश चुभो रही थी-”तुमने बताया नहीं।”

“बताया तो कि मुनमुन मुझे दीदी कहती है। वह चंडीदास की छोटी बहन है।”

“क्या... तो तुम चंडी को भूली नहीं अब तक? उन लोगों से... उन दो कौड़ी के गुलामों से पारिवारिक रिश्ते भी बना लिए?”

डायना ने नफरत भरी निगाहें टॉम पर टिका दीं। टॉम की शक्ल में यह कोई शैतानी शक्ति है जो डायना को उजाड़ने पर उतारू है। हिंदुओं में पुनर्जन्म मानते हैं तो हो सकता है टॉम उसके और चंडीदास के पिछले जन्म का कोई दुश्मन हो। कहते हैं पहले अहं पैदा हुआ, फिर पुरुष... तो सारा का सारा अहं पुरुष के हिस्से आया। औरत बाद में बनाई गई पुरुष के मनोरंजन के लिए सो वह नत रही। अपनी कोमलता, नम्रता और शालीनता के कारण नत रही हमेशा। इसे पुरुष ने औरत की कमजोरी माना और उस पर शासन किया। टॉम पुरुष के इस व्यवहार से अछूता नहीं इसीलिए वह नहीं मानता कि उससे भूल हुई है, अपराध हुआ है। उसके मन में थोड़ा-सा भी रंज नहीं, थोड़ा-सा भी गम नहीं।

“ऊँची सोसाइटी, ऊँचे खानदान से ताल्लुक रखती हो तुम। आखिर क्या देखा तुमने उस परिवार में जो तुमने घरेलू संबंध जोड़ लिए उनसे।”

“जो मैंने देखा, उसे तुम देख नहीं सकते टॉम? तुम भोग, ऐश्वर्य और वासना के पुतले हो। कैसे देख सकते हो ऐसे परिवार को?”

“पाँव की धूल सर पर चढ़ाओगी तो आँख की किरकिरी बनेगी ही।'

अचानक पहली बार डायना के मुँह से निकला-”आई हेट यू... नफरत है मुझे तुमसे।”

“हाँ, मुझसे नफरत करो और उस मर चुके गुलाम से प्रेम करो... न अपनी गृहस्थी का सोचो, न बच्चे का... क्या यही पत्नी का कर्त्तव्य है?”

“और पति का? टूर के दौरान हर रात किसी मासूम औरत को अपनी हवस का शिकार बनाना और बावजूद इसके यह सोचना कि पत्नी सिर्फ उसकी होकर रहे। अगर वह आँख उठाकर भी पराए मर्द को देखेगी तो आँखें फोड़ दी जाएँगी, शूट कर दिया जाएगा मर्द।”

“ओ... यू शट अप... और एक शब्द भी कहा तो... “

“तो... तो क्या कर लोगे? चंडी की तरह मुझ पर भी गोली चला दोगे? मैं तो चाहती हूँ चलाओ गोली। लेकिन तुम ऐसा नहीं कर पाओगे। तुम्हें औरत का शरीर चाहिए और अपार दौलत चाहिए... और ये दोनों तुम्हें मुझसे सहज मिल रहे हैं तो तुम मुझे क्यों मारोगे?”

टाम एक साँस में पूरा गिलास खत्म कर चप्पल अड़ियाता सोने के कमरे में चला गया। डायना जानती थी अब टॉम कुछ भी नहीं कहेगा। औरत और दौलत उसकी कमजोरी है। टॉम के पास है ही क्या? ईस्ट इंडिया कंपनी की अफसरी भर। वह भी डायना के पिता की बदौलत। पिता ने ही टॉम में व्यापार करने, शासन करने के गुण परख लिए थे। लंदन में वह केंब्रिज से अपनी पढ़ाई पूरी कर निकला ही था। टॉम के पिता मामूली किसान थे और अक्सर टॉम के पास कैम्ब्रिज में पढ़ाई के दौरान खाने तक के पैसे नहीं रहते थे। उसके साथी विद्यार्थी उस पर दया करके कभी खाना खिला देते कभी अपने घर सो जाने की स्वीकृति दे देते। टॉम में लगन थी और वह मेहनती था इसीलिए भले ही काली कॉफी और भुने आलू खाकर उसने रातें बिताई, पर हर परीक्षा में अव्वल आया। उसका एक ही सपना था खूब दौलत कमाना और अमीरों की श्रेणी में आना।

मुद्दतें गुजर गईं। अब याद करो तो दिल डूबने लगता है... वह घड़ी डायना की जिंदगी में आखिर आई ही क्यों। सालाना जलसे के मुख्य अतिथि के रूप में डायना के पिता को टॉम के कॉलेज ने बुलाया था और वहीं उनकी मुलाकात टॉम से हुई थी जब उसके ग्रुप के द्वारा खेले गए नाटक में सर्वश्रेष्ठ अभिनय के पुरस्कार की ट्रॉफी टॉम को उनके हाथों प्रदान की गई थी। उसी के बाद से टॉम का डायना के घर आना-जाना शुरू हो गया था। तभी से वह देखती आ रही है टॉम की सीढ़ी दर सीढ़ी ऊँचाईयों तक पहुँच, तरक्की... एक बेहद मौकापरस्त, खुदगर्ज और चालाक व्यक्ति को आखिर उसके पिता ने अपना दामाद कैसे बना लिया? यह चूक उनसे हुई कैसे? वे तो एक सफल बिजनेसमैन थे और सफल बिजनेसमैन एक-एक कदम फूँक-फूँक कर रखता है। फिर अपनी इकलौती बेटी के लिए वे कैसे गलत कदम उठा सके? डायना का दिमाग चकरा गया... वह टॉम को छोड़ भी सकती है, अलग रह सकती है। पर टॉम उसे चैन से जीने न देगा। डायना टॉम की तरफ से तटस्थ ही है। उसे जो करना हो करे पर इसके एवज में टॉम को भी एक वादा करना होगा... आज और अभी... डायना तेजी से उठी और टॉम के सिरहाने जाकर खड़ी हो गई। टॉम लेटे-लेटे ही ऊँचा तकिया किए सिगरेट फूँक रहा था। यह भी होश न था कि सिगरेट की राख झड़कर नीचे बिछे कालीन पर बिखर रही है।

“टॉम... “

टॉम ने डायना की ओर देखा लेकिन सिगरेट उसी तरह पीता रहा।

“टॉम... मैंने हर पहलू से सोचा और यही पाया कि...”

“क्या? अब तुम क्या चाहती हो? चैन तो छीन चुकीं मेरा। अब क्या एकांत भी।”

“तुम्हें मुझसे एक वादा करना होगा। वादा नहीं बल्कि समझौता करना होगा। मेरे साथ।” डायना पलंग के पास पड़ी ईजी चेयर पर बैठ गई।

टॉम उठ कर बैठ गया। मन ही मन सोच रहा था कि उसका क्रोध इस वक्त बड़े काम आया, डायना कैसी गिड़गिड़ाने को आतुर है। अरे, औरत की औकात ही क्या है जो वह मर्द के आगे सिर ऊँचा कर अपनी मनमानी करते रहने का दावा करे। वह औरत की इस अदा से खूब परिचित है। आखिरकार इन्हें मर्द की मर्जी से ही जीना पड़ता है फिर चाहे वह साधारण औरत हो या असाधारण।

“हाँ बोलो।” उसने निर्विकार बने रहने का ढोंग किया।

“आज के बाद अंतिम सांस तक तुम कभी भी मेरा जिस्म नहीं छुओगे। तुम्हारे साथ रहना मेरा इसी शर्त पर मुमकिन है कि वह साथ बिना किसी रिश्ते का होगा।”

टॉम के ऊपर मानो बिजली-सी गिरी-”यह तुम क्या कह रही हो डायना?”

“अभी मेरी बात खत्म नहीं हुई है टॉम।” डायना के स्वरों में कोई उत्तेजना न थी। जिंदगी के इस अहम फैसले पर वह पूरी तरह शांत थी।

“तुम मेरे किसी भी काम में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं करोगे। और तुम जो हर महीने हमारे पुश्तैनी बिजनेस से मनमानी रकम लेते हो... तो वह भी निश्चित रूप से तय करके तुम्हें मिलेगी। जितना मैं चाहूँगी। फैसला तुम्हें करना है। मुझे जो कहना था मैंने कह दिया। चाहो तो हफ्ते भर का वक्त ले लो... सोचने के लिए। मुझे कोई जल्दी नहीं है।”

और डायना बिना टॉम की प्रतिक्रिया का इंतजार किए वहाँ से चली गई। टॉम का गला सूख गया। उसकी सोच के विपरीत डायना के वाक्य तीर की तरह उसके शरीर को छेदे डाल रहे थे। उसने जग से उँडेलकर ढेर सारा पानी पिया फिर भी गला सूखा का सूखा। उसने फिर एक सिगरेट सुलगाई और कमरे में चहलकदमी करते हुए परदे से हॉल में झाँककर देखा। डायना शांत भाव से बैठी क्रोशिया बुन रही थी ओर पारो से दवा और कॉफी लाने का कह रही थीं। आज डायना ने टॉम को उसकी औकात दिखा दी... आज टॉम भी उस नशे से बाहर आया जिस नशे में वह डायना से शादी करके था और डायना के पिता और माँ की मृत्यु के बाद एक राहत-सी महसूस कर रहा था कि अब तो सब कुछ उसका है। लेकिन चंडीदास को कत्ल कर उसने जो भयानक अपराध किया उसके लिए डायना ने जीते जी उसे फाँसी पर चढ़ा दिया... अब वह जिंदगी भर इस सजा से उबर नहीं सकता।

डायना के मन से एक बोझ-सा उतर गया था और वह काफी हलका महसूस कर रही थी। अब उसके जीवन में सिर्फ उसका प्यार था... उसका चंडी... और आने वाली प्यार की निशानी उसका शिशु... पारो कॉफी ले आई। बाहर अंधेरा बढ़ चुका था। और सड़क पर रोशनी के धब्बे फैलाते लैम्प जल चुके थे। इस इलाके की सड़क इस वक्त वीरान हो जाती है... इतनी कि पत्ता भी खड़के तो ब्लॉसम चौंक जाती है। वह क्रोशिया बुनती डायना की गोद में बैठी क्रोशिया के हिलते धागे से खेल रही थी।

“मेम साहब... रात में सिलाई-बुनाई का काम नहीं करते ऐसे में। बच्चे की आँखें कमजोर हो जाती हैं।”

डायना ने तुरंत कोशिया बेंत की डलिया में रख दिया और ब्लॉसम को प्यार करते हुए मुस्कुराई-”और क्या-क्या नहीं करते तुम लोगों में ऐसे में।”

पारो वहीं कालीन पर बैठ गई और डायना के पैर अपनी गोद में रख तलवे सहलाते हुए बोली-”बहुत परहेज से रहना पड़ता है ऐसे में। लेकिन खाने की इच्छा कभी नहीं दबानी चाहिए नहीं तो लार बहती है बच्चे की। ऐसे में अगर साँप पर अपनी छाया पड़ जाए तो साँप अंधा हो जाता है।”

“अरे बाप रे... ऐसा क्यों?”

“वो तपस्या का पीरियड होता है न, बहुत तेज आ जाता है अपने में। देखो, आप कितनी सुंदर होती जा रही हो। एक बात बोलूँ मेम साहब... आप बहुत अच्छी हो... एकदम यहीं की लगती हो।”

डायना का मन पुलक से भर गया। उसे चंडीदास याद आया... वह भी तो कहता था-”तुम बिल्कुल भारतीय दिखने लगी हो राधे।” और इसी तरह उसके कोमल गुलाबी पैरों का हथेलियों में दबोच कर मसलता था... वह स्पर्श, वह एहसास आज तक जिंदा है उसके हृदय में। पारो के हाथों में वह एहसास नहीं, पर इस तरह पैरों का सहलाना... उसने पैर खींच लिए... “बस पारो... डिनर का टाइम हो रहा है... .तुम जाओ।'

पारो ब्लॉसम को गोद में लेकर चली गई। उसके भी दूध ब्रेड का वक्त हो चला था। डायना ने पैर सिकोड़कर सोफे में ही समेट लिए। न जाने क्यों दीवाना था चंडी इन पैरों का। कहता था... “चीन में सेक्स का सिंबल होते हैं पैर। चीनी औरतें अपने पैरों को बचपन से ही लकड़ी के जूते पहना कर रखती हैं ताकि वे बढ़े न। मर्द इन छोटे-छोटे टयूलिप जैसे पैरों को मसल कर असीम आनंद में डूब जाते हैं। छोटे पैर उनकी उत्तेजना को बढ़ाते हैं। डायना के पैर भी बेहद सुंदर थे जिन्हें मौका मिलते ही चंडीदास सहलाने लगता था। आज पारो ने उन सुखद स्मृतियों को दस्तक दे दी। रात बढ़ रही थी... उसकी रफ्तार सदा की तरह थी पर डायना की रफ्तार में विराम लग चुका था। अब उसकी रातों में टॉम का कोई दखल नहीं होगा। अपने बेडरूम से लगे दूसरे बेडरूम में वह सोने के लिए चली गई। दरवाजा भीतर से बंद कर लिया और नाइट गाउन पहन लंबे चौड़े बिस्तर पर तनहा लेट गई। खिड़की से दिखती बोगनविला की उलझी डालियों के पीछे चाँद भी तनहा, उदास था। न जाने कहाँ से एक बगुला उन डालियों के उस पार से उड़ता हुआ गंगा की ओर चला गया। डायना ने पलकें मूँदकर सोने की कोशिश की।”

मुनमुन में बहुत कुछ झलक चंडीदास की थी। रंग, रूप, बोलने का ढंग... भाई बहन में फर्क करना मुश्किल होता। मुनमुन भी चंडी की ही तरह संगीत की दीवानी थी और चंडीदास के बाद से इंस्ट्टियूट का काम बखूबी सँभाल रही थी। अभी तो सत्यजित साथ था पर जून जुलाई से नया सैशन शुरू होते ही वह यूनिवर्सिटी की नौकरी में व्यस्त हो जाएगा तब क्या होगा? अकेली मुनमुन के बस का नहीं है इंस्ट्टियूट सँभालना। लेकिन चंडीदास के इस सपने को बंद भी नहीं होने देना है। नए शिक्षक नियुक्त करने होंगे। उनके वेतन का खर्च विद्यार्थियों की फीस से निकल तो आएगा पर घर खर्च कैसे चलेगा? पहले तो सारा खर्च चंडीदास सँभालता था, अब यह नई समस्या आन खड़ी हुई है। इसीलिए मुनमुन अपने लिए स्थाई नौकरी चाहती है।

सत्यजित अब उसके घर पर ही मुनमुन से मिलता, परिस्थितियाँ आदमी को कितना लाचार कर देती हैं। हालाँकि सत्यतिज गंभीर, शालीन और शरीफ घराने का सभ्य पुरुष था, पर चंडीदास के रहते मुनमुन से उसके घर पर ही मिलने की सत्यजित ने कभी हिम्मत न की थी। लेकिन अब बाबा, माँ के हालचाल पूछने के बहाने आड़े दूसरे आता रहता। झोले में कभी सब्जी भर लाता कभी फल। माँ बाबा भी खामोश रहते। अब उनकी प्रतिवाद करने की शक्ति चुक गई थी। लगातार दो संताने खो चुके बाबा की तो बल्कि सत्यजित से मन बहलाने के लिए विभिन्न विषयों पर बहस ही होती रहती अक्सर। बातचीत का मुद्दा आजादी पर आकर टिक जाता।

“आपको क्या लगता है कि हम आजाद हो ही जाएँगे? अंग्रेज भारत छोड़ ही देंगे?”

“अब और क्या बाकी बचा है सोचने को? देखते नहीं देश के हालात, हर पार्टी अपनी-अपनी तरह से इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिबद्ध है।”

“बहुत मुमकिन है कि मुस्लिम लीग अपने मिशन में कामयाब हो... एक अलग वतन... एक अलग स्वप्न... “

“होने दो कामयाब। इन फिरंगियों से तो छुटकारा मिले।” माँ बीच में ही बोल पड़ीं-”इन्हें देख-देख कर अब मुझे तो भ्रम होने लगा है कि मैं अपने देश में हूँ या पराए।”

“बहुत जल्द माँ हम सारे राष्ट्र के मालिक होंगे।” मुनमुन चाय की ट्रे लिए आती हुई बोली-”लेकिन इस वक्त समस्या ये है कि मुझे नौकरी कहाँ मिले... इतनी जगह एप्लाई कर चुकी हूँ पर कहीं से कोई जवाब नहीं आया।”

समस्या तो विकट थी।

स्कूलों में नया सत्र शुरू हो चुका था। नए अध्यापकों की नियुक्तियाँ हो रही थीं। चंडीदास के स्कूल में संगीत अध्यापक का पद रिक्त था... उसी के लिए डायना ने मुनमुन से एप्लाई करवाया था लेकिन अभी तक इंटरव्यू का बुलावा नहीं आया था। एक दिन डायना अकेली ही स्कूल गई। हेड मास्टर से मिलकर चंडीदास के घर की हालत बयान की और मुनमुन के लिए सिफारिश की। मुनमुन के गुरू मुकुट गांगुली का नाम सुनते ही हेड मास्टर की बाँछे खिल गईं-”उनकी शिष्या हैं मुनमुन? वे तो बहुत महान गायक हैं। संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं है। मैं आज ही औपचारिकतावश इंटरव्यू के लिए मुनमुन को बुलवा लेता हूँ। आपका काम हो गया मैडम।”

डायना तसल्ली से भर उठी। वैसे भी इतने बड़े अफसर की करोड़पति बीवी का अनुरोध टालने की हेड मास्टर में हिम्मत नहीं थी। बल्कि उसने तो तपाक से घंटी बजाकर चपरासी को बुलाया और डायना के लिए कॉफी मंगवाई।

उस रात डायना देर रात तक संगीत कक्ष में बैठी तानपूरे पर गीत गाती रही। मुनमुन की नौकरी लगने से उसे जो खुशी मिली थी उसकी प्रतिध्वनि हवाओं में गूँज रही थी। तेज हवाओं में घर के परदे... हलकी-फुलकी चीजें खड़खड़ा उठी। हलकी-हलकी बरसात शुरू हो गई और गरमी से झुलसी धरती से सौंधी महक उठने लगी। डायना का मन चंडी के लिए कसक उठा... तानपूरे की आवाज में उसके मन का दर्द सिमट आया... वह गाती रही और बादलों के संग-संग उसके नयनों ने भी बरसना शुरू कर दिया। वे नयन जिन्हें चंडी नीली झील कहा करता था। उस झील में जब चंडी का चेहरा झिलमिलाता तो वह आहिस्ता से उसकी पलकें मूँद देता... खुद को उसकी आँखों में कैद करके। बाहर बारिश धीमी... तेज होती रही और डायना की आँखों की झील भी तरंगित होती रही। इतनी जोरदार हवा चली कि बगीचे की एक-दूसरे से टकराती डालियाँ और काँच की खिड़कियों के खड़कते पल्ले एकमेक हो गए। तमाम झौंकों ने दिल काट-काट डाला। तानपूरा रख वह उठ खड़ी हुई और बेडरूम में आ गई। ब्लॉसम पूँछ खड़ी क्रर उसके पैरों से अपना बदन रगड़ती साथ-साथ चल रही थी। दीवार घड़ी ने गिनकर बारह घंटे बजाए... तूफान का शोर अब कुछ कम हो चला था।

दूसरे दिन दोपहर तक डायना आराम करती रही। दिन ढले मुनमुन मिठाई का डिब्बा लिए आई। खुशी से खिली पड़ रही थी वह-”लो दीदी... मुँह तो खोलो, काली माँ का प्रसाद है। मेरी नौकरी लग गई।”

“मुबारक हो।” डायना ने मिठाई का टुकड़ा पहले मुनमुन को खिलाया फिर खुद खाया।

“कब से ज्वाइन कर रही हो?”

“कल ही से। कल से कक्षाएँ शुरू होने वाली हैं।”

“तो अब आप संगीत मास्टर हो गईं... इस बात की ट्रीट देनी होगी। आज शाम का डिनर यहीं करो।”

पारो चाय-नाश्ता लेकर आई तो मिठाई का डिब्बा मुनमुन ने उसे थमा दिया। पारो ने बंगाली में पूछा कि मिठाई किस खुशी में? कारण जानकर वह वहीं कालीन पर घुटने के बल बैठी और माथा टेककर काली माँ का धन्यवाद करने लगी फिर उसने डायना और मुनमुन के पैर छुए और दौड़ती हुई चौके में भाग गई जहाँ बोनोमाली और वह दोनों बहुत स्पेशल डिनर की तैयारी करने लगे।

चंडीदास की मृत्यु होली के आसपास मार्च के महीने में हुई थी। अक्टूबर में डिलीवरी किसी भी दिन हो सकती थी। सितंबर मास था, विदा होती बरसात का उमस भरा महीना... डायना को पता चला कि जब से चंडी गया है घर का किराया ही नहीं दिया गया है और मकान मालिक ने तंग आकर सरकारी नोटिस भिजवा दिया है मकान खाली करने का। घर के लोग भयंकर तनाव की स्थिति से गुजर रहे थे। डायना की इच्छा थी कि उन्हें एक घर खरीदकर दे दे ताकि उस गंदी बस्ती से उनका पीछा छूटे और किराए की किल्लत मिटे। डायना अधिक कहीं आती जाती नहीं थी आजकल, तबीयत भी खराब रहने लगी थी। जॉर्ज से कहकर उसने लिटिल रसेल स्ट्रीट पर एक घर बाबा और मां के नाम से खरीदने का प्रस्ताव बाबा के पास भेजा। शाम को बाबा खुद आए डायना के बंगले पर। घबराहट उनके चेहरे पर साफ झलकर रही थी।

“यह क्या बेटी... कहाँ से लायेंगे हम इतना पैसा?”

“बाबा... आप क्यों चिंता करते हैं। वह घर मेरी दोस्त का है जो लंदन वापिस जा रही है। इस वक्त मैं खरीद लेती हूँ, आपका मन हो तो थोड़ा-थोड़ा करके चुका देना।”

“लेकिन वह जगह तो धनाढयों की है... इतना महँगा मकान।” बाबा ने शंका जाहिर की।

“सस्ते में बेच रही है न मेरी दोस्त... उसे तो जाना है और यहाँ की सारी प्रॉपर्टी बेचकर जाना है। जल्दी में अच्छे खरीददार भी तो नहीं मिलते।” डायना ने कहा। बाबा के पास अपने तर्क थे और डायना हर तर्क की काट लिए पहले से तैयार थी। अंत में बाबा को मानना पड़ा। तय हुआ कि कल डायना और जॉर्ज के साथ बाबा कोर्ट जाएँगे। मकान का रजिस्ट्रेशन आदि कल ही निपटा कर पजेशन ले लेंगे।

बाबा को विदा करने डायना गेट तक आई। बाबा ने उसका माथा चूमकर कहा-”पूर्वजन्म का संबंध है तुमसे... सदा खुश रहो।”

डायना देर तक बाबा को जाता देखती रही जब तक कि वे सड़क से ओझल नहीं हो गए।

क्वार मास में बंगाल नवरात्रि की धूम से सराबोर रहता है। पूजा के ये नौ दिन विशेष व्रत, उपवास, पूजा पाठ के दिन कहलाते हैं। नवरात्रि की शुरुआत के पहले चंडीदास के परिवार को यह घर छोड़ देना था। सब इसी संशय में थे कि गृहप्रवेश की पूजा कैसे करें, अभी तक चंडीदास को गए केवल छह महीने ही हुए हैं। मुनमुन का तर्क था कि अब जो बचे हैं उनका शुभ भी तो सोचना पड़ेगा... अगर हमें कुछ होता है तो क्या दादा की आत्मा को तकलीफ नहीं होगी?

माँ के पास कहने को कुछ रह नहीं गया था। इस घर से जुड़ी गुनगुन, चंडी की यादें थीं, वे उन यादों को समेट कर ले जाने के लिए सहेज रही थीं। इस भारी परिवर्तन से सभी विचलित थे। रहते-रहते जमीन से मोह हो जाता है फिर इस घर में तो बरसों गुजारे थे उन्होंने। देखते ही देखते सब बिखर गया... शायद इसी को मुकद्दर कहते हैं। बड़ी मुश्किल से बाबा पंडित के पास से मुहुर्त निकलवा कर लाए थे। इतवार का दिन बताया था उसने। चार दिन बाद का।

और शनिवार को टॉम ब्लेयर को एक महीने के लिए ऊटी जाना था। जब से डायना ने उससे दूरियाँ बनाई हैं वह अपनी अच्छाइयाँ प्रगट करने की कोशिश करता रहता है। डायना का नौवां महीना बस पूरा होने ही वाला था कभी भी डिलीवरी हो सकती थी लेकिन बीच में उसका टूर आ गया। उसने डायना के लिए पूरी तैयारी करवा ली थी। अस्पताल में कमरे की बुकिंग, डाक्टर से डीटेल में बातचीत, नर्सेज, दवाएँ, स्ट्रेचर सहित जीप आदि का इंतजाम ऐसे कराया था कि पलक झपकते ही सारे साधन मुहैया हो जाएँ। पारो, बोनोमाली के अलावा ड्राइवर, माली आदि को भी सतर्क कर दिया था। दीना और जॉर्ज को हिदायत थी कि वे पल-पल की खबर साहब को ऊटी में देते रहें। डायना को सारे इंतजामात फिजूल लग रहे थे पर वह खामोश थी... अब संबंधों में मधुरता तो रही नहीं थी। टॉम को जो अच्छा लगे करे, उसमें क्यों दखल दे।

इतवार के दिन सुबह से मौसम बड़ा खुशगवार था। आसमान पर सफेद रुई के ढेर से बादल छाए थे... हवा हलकी खुनकी लिए थी। डायना पारो और बोनोमाली के साथ बाबा के नए घर की ओर रवाना हुई। बड़ी आलीशान जगह था मकान ऊँचे-ऊँचे दरख्तों से घिरी चहारदीवारी का लोहे का फाटक खोलते ही अंदर बगीचा था और बगीचे के बीचोबीच हौज... हौज के पानी में सफेद कमल खिले थे। कई बार डायना अपनी सहेली से मिलने इस घर में आ चुकी है। हौज पर भी नजर गई होगी पर उसे याद नहीं कि उसने यहाँ पहले भी कमल देखे थे। बायीं तरफ करौंदे और कचनार के पेड़ों की शाखों पर एक मोर का जोड़ा बैठा था। और नीचे घास पर गौरैया चिड़ियाँ फुदक रही थीं।

हॉल में हवन का इंतजाम था। बस, डायना का इंतजार था। मुनमुन ने डायना को आरामकुर्सी पर बैठाया। पारो पानी ले आई। कमरे में बिछी दरी पर उनके रिश्तेदार और चंडीदास के दोस्त बैठे थे। पूजा आरंभ हुई। बाबा, माँ जोड़े से हवन के कुंड के आगे आसनी पर बैठे। पंडित मंत्र पढ़ने लगा। पूजा के बाद हवन की अग्नि प्रज्ज्वलित कर आहुतियाँ दी जाने लगीं। डायना डबडबाई आँखों से सब कुछ घटित होते देख रही थी। काश, आज चंडी होता तो अपनी राधे को अपने परिवार के बीच बैठे देख कितना खुश होता।

“दीदी, आप रो रही हैं?” मुनमुन ने पास आकर घुटने के बल बैठते हुए कहा।

“नहीं तो... हवन के धुएँ से आँसू आ रहे हैं।” डायना ने रूमाल से आँखें रगड़ते हुए कहा।

“मैं जानती हूँ दीदी... दुख हम सभी को है। हवन पूजन होना तो नहीं चाहिए था अभी पर वो हादसा जो हुआ है उसके बाद जरा-जरा-सी बात शंका पैदा कर देती है। अगर कहीं चूक हो गई तो फिर न कोई अनर्थ हो जाए इसी से मन घबराता है इसीलिए दीदी... ये पूजा... ।”

“नहीं मुनमुन, मैं वह सब कहाँ सोच रही हूँ? बस, चंडीदास की याद आई और आँखें भर आईं। आज वो होते तो... “

“एक बात कहूँ दीदी... अब संकोच की जरा भी बात नहीं रह गई है। बाबा, माँ आप दोनों के बारे में सब जान गए हैं... यह भी कि आप उन्हें पोता देने वाली हैं... मैंने सब बता दिया। उसमें छुपाना क्या?”

मुनमुन सहज भाव से कहे जा रही थी लेकिन डायना के लिए यह खबर भूचाल समान थी। तो माँ बाबा सब जान गए... क्या वे उसे क्षमा करेंगे? क्या वे चंडी के शिशु को कबूल करेंगे? डायना का गला सूखने लगा। चेहरा पसीने से नहा उठा। साँस लेने में तकलीफ होने लगी ओर दिल डूबने-सा लगा। पारो दौड़कर पानी ले आई।

“दीदी... दीदी... क्या हुआ आपको... बाबा देखिए तो।” मुनमुन लगभग चीख-सी पड़ी। हवन की अंतिम आहुति थी। उसे किसी तरह समाप्त कर बाबा दौड़े। पीछे-पीछे माँ-”लगता है दर्द आने शुरू हो गए। जल्दी एंबुलेंस बुलवाओ।”

“उसकी जरूरत नहीं। जीप है बाहर।” और ड्राइवर बोनोमाली के साथ जाकर जीप से स्ट्रेचर निकाल लाया। लेकिन तब तक चंडीदास के दोस्तों ने डायना को बाहों में उठा लिया था... वे उसी तरह जीप तक आए और उसे सीट पर लिटा दिया। टॉम का खाली स्ट्रेचर जीप में रख दिया गया। बाबा और मुनमुन साथ गए। पंडित जी और मेहमानों को विदा कर माँ सत्यजित और नंदलाल के साथ आ जाएँगी ऐसा तय हुआ।

भयानक प्रसव वेदना सहकर रात के करीब साढ़े तीन बजे डायना ने बेबी शिशु को जन्म दिया। कोमल, गुलाबी, एकदम चंडीदास जैसी बड़ी-बड़ी काली आँखें, वैसा ही उन्नत ललाट। बाहर गैलरी में बाबा, माँ, मुनमुन, चंडीदास के सारे दोस्त और डायना का सेवक समूह बेसब्री से इंतजार कर रहा था... नहीं था तो बस टॉम... जैसे नियति को भी मंजूर न था कि अब टॉम डायना की खुशियों में शामिल हो। बेटी पैदा होने की खबर से मुनमुन नाच उठी। बाबा, माँ की आँखों से अश्रु बह चले। वे अपने चंडी के अंश को देखने के लिए उतावले हो उठे। पारो ने वहीं जमीन पर माथा टिका कर काली माँ का धन्यवाद किया और जॉर्ज जल्दी-जल्दी टॉम को फोन मिलाने लगा। करीब घंटे भर बाद डायना से मिलने की सबको अनुमति मिल गई। सबसे पहले माँ बाबा गए। डायना कमजोर थकी-थकी-सी लगी। चेहरा पीला पड़ चुका था। होठ पपड़ा गए थे। प्रसव की पीड़ा जो उसने झेली थी... उसका पूरा शरीर बयाँ कर रहा था। बाबा ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा-”कैसी हो बेटी?”

“ठीक हूँ बाबा... “ फिर पालने की ओर इशारा किया जहाँ चंडी का अंश मुलायम कपड़े में लिपटा साँसें ले रहा था। माँ ने उसे गोद में उठाया तो लगा जैसे उनके हाथों में वही कंपन है जो चंडी को पहली बार गोद में लेते समय था। सहसा वे रो पड़ीं। बाबा ने बच्ची को उनसे लेकर वापस पालने में लिटा दिया-”तुम रोती हो, यह तो खुशी की बेला है।” माँ ने डायना को चूमते हुए कहा-”ये आँसू भी तो खुशी के हैं।”

माँ, बाबा के जाते ही मुनमुन आई-”बुआ बनाने का शुक्रिया दीदी।”

डायना मुस्कुराई... लेकिन दवाओं, इंजेक्शन और प्रसव की थकान से उसकी आँखें मुंदने लगीं। डॉक्टर ने उसे आराम करने की सख्त हिदायत दी थी। वह सोई तो नहीं लेकिन महसूस करती रही पालने में लेटी बच्ची के पास तक आती तमाम लोगों की पहचल को। आँखें मूँदे हुए ही उसे चंडी के गाए गीत की आवाज भी आहिस्ता-आहिस्ता सुनाई देने लगी-”एई कूले आमी, आर ओई कूले तुमी... “ डायना आहिस्ता से करवट बदलकर अपने चंडी की बाहों में चली गई... “मैंने नदी नहीं सूखने दी चंडी... हमारे प्रेम की नदी बह रही है... बहती रहेगी... सदा। तुम अपनी बिटिया को देख रहे हो न... तुम्हीं ने तो सुनाई थी न ब्रह्माकमल की कथा... जो पानी में नहीं उगता पत्थरों में, घाटियों में उगता है बिना एक बूँद जल के... फिर भी कितना शुभ्र, कितना सुगंधित कि उसकी सुगंध का जादू मन को अनंत सुख, असीमित आनंद देता है। इसी सुगंध के जादू से सम्मोहित द्रोपदी ने पाँडवों से दुर्गम घाटियों के बीच खिले ब्रह्माकमल को लाने की जिद की थी और भीम कूद पड़ा था घाटी में। मैं ब्रह्माकमल हूँ... ..पत्थरों में खिला प्रेम का फूल... टॉम की कठोरता मुझे छू तक नहीं सकी।

बाबा की जिद्द थी कि अस्पताल से डायना पहले उनके घर आए... अब जब गृहप्रवेश के हवन से मातम का माहौल शुद्ध हो चुका है तो वे एक छोटी-सी पूजा कराना चाहते हैं। डायना को इंकार न था। दसवें दिन पूरी तरह स्वस्थ होकर डायना बाबा के घर आई। जॉर्ज ने इस बात की खबर भी टॉम को तत्काल दी। सुनकर टॉम झल्लाया लेकिन जॉर्ज से अपनी झल्लाहट छुपाकर एकदम स्वाभाविक हो कहा-”ठीक है, बंगले में अभी लौटकर क्या करेंगी। वहाँ उसकी अच्छे से देखभाल हो सकेगी।”

सारा दिन टॉम शराब पीता रहा और मन ही मन डायना को कोसता रहा। शाम होते ही वह घोड़े पर बैठकर चाय बागानों की ओर चला गया। चाय की पत्तियाँ चुन ली गई थीं और पहाड़ी लड़कियाँ अपनी कमर से टोकरी उतार सुस्ता रही थीं। एक कमसिन खूबसूरत पहाड़ी बाला पर नजर पड़ते ही वह अपना आपा खो बैठा। उसे गोद में उठाकर घोड़े पर बैठाया और डाक बंगले की ओर लौट गया। रात भर उस लड़की के शरीर से वह डायना का बदला लेता रहा। बाहर कड़कड़ाती ठंड में लड़की का बाप बैठा आँसू बहाता रहा। अंग्रेज साहब बहादुर के राज में उनकी मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने की सजा मौत है।

डायना को मुनमुन ने बसंती रंग की जरीदार साड़ी पहनाकर उसके लंबे बालों का जूड़ा डाला था और माथे पर बिंदी लगाई थी। डायना का रूप खिल पड़ रहा था। बच्ची भी नए रेशमी कपड़ों में बड़ी प्यारी लग रही थी। पूजा के बाद रिवाज था कि बच्ची का नामकरण हो। नामकरण बुआ करती है। मुनमुन असमंजस में थी कि नाम अंग्रेजी हो या हिंदुस्तानी। डायना ने उसे पास बुलाकर धीमे से कहा-”चंडी की इच्छा थी कि यदि लड़का होगा तो संगीत नाम रखेंगे और लड़की होगी तो रागिनी।”

मुनमुन खुशी से बावली हो पंडितजी के पास लौटी...

“पंडित जी, रागिनी।”

पंडितजी ने घोषणा की-”बच्ची की माँ ने बच्ची का नाम रागिनी रखा है। बहुत शुभ और राशि के अनुकूल है यह नाम।” कहते हुए उन्होंने रागिनी के माथे पर तिलक लगाया और कलाई में रक्षा सूत्र बाँधा। डायना ने भी रक्षा सूत्र बंधवाया। सभी ने डायना को बधाई दी। रागिनी का आगमन चंडीदास के जाने से पैदा हुए शून्य को भर चुका था।

बाहर बगीचे में हरसिंगार के फूल महक रहे थे। मोर के जोड़े ने भी पंख पसारकर नाचना शुरू कर दिया। अक्टूबर की यह शाम गुलाबी हो उठी।

टॉम टूर से लौट आया था। घर के माहौल में खासी चहल-पहल थी। कोई रागिनी के लिए पानी उबाल रहा है तो कोई दूध। दीना पालने के ऊपर झुनझुने लटका रही थी... पारो रेशमी लिहाफ ला रही थी... दुर्गादास फूलों से गुलदान सजा रहा था। टॉम का मन उखड़ गया... यह तो वह समझ गया था कि यह बच्ची चंडीदास की है... उसके ही घर में उसके ही नौकरों द्वारा डायना की नाजायज औलाद की इतनी खातिरदारी? मन हुआ अभी इसका गला दबाकर किस्सा खत्म करें पर डायना के बदले हुए रवैये से वह समझ चुका था कि नित नई औरतों के बाहुपाश नहीं बल्कि डायना की समृद्धि का संरक्षण ही उसके लिए सबसे मौजूँ स्थान है। वह पालने के पास पहुँचा-”ओह माई गॉड... कितनी छोटी है यह... डायना देखो तो इसके हाथ पैर कितने छोटे और नर्म... जैसे रुई का फाहा हों... और सिर पर बाल... काले टोप जैसे... “

डायना ने उसकी ओर हिकारत से देखा जो इतना सब कर गुजरने के बाद भी कितना नॉर्मल है। टॉम के इस नाटकीय अंदाज से डायना के अंदर एक चिनगारी सुलगी-”टॉम, मेरी बच्ची का नाम रागिनी है।”

टॉम की आँखों में रेत उड़ने लगी... सहसा डायना की मुस्कुराहट दीपक की लौ की तरह उस रेत में धँसकर बुझ गई... टॉम खिसिया-सा गया... “वाह, यह तो बड़ा प्यारा नाम है। पर यह मेरी उम्मीदों का भी तो गुलाब है... मेरी रोज... “

“रोज?”

“हाँ... इसका नाम रागिनी रोज ब्लेयर होगा।”

डायना को जॉर्ज के बेटे याद आ गए-माइकल और नेक्जाद। पर वे तो जुड़वाँ है। टॉम ने कितनी खूबी से उसकी बेटी को भी जुड़वाँ बना दिया पर डायना को यह नाम स्वीकार है। वह तंगदिल नहीं है कि इतनी-सी बात के लिए खुद को टॉम के आगे बौना कर ले।

अगली शाम टॉम के बंगले पर रागिनी रोज के जन्म की खुशियाँ मनाई जा रही थीं। बंगला दुल्हन-सा सजाया गया था। उस भव्य आयोजन में अंग्रेज अफसरों का जमावड़ा था। अफसरों की पत्नियाँ रंग-बिरंगी पोशाक में मौजूद थीं लेकिन डायना ने और दीना ने साड़ी पहनी थी। टॉम ने ब्रांडी, वाइन, रम, व्हिस्की, शैंपेन, वोदका से बार सजाया था। जिसको जो पीना हो पिए। वह बताना चाहता था कि आज वह बहुत खुश है... वह पिता बना है... सृजन की खुशी का क्या कोई माप है? सीमा है? यह तो आत्मा में छुपी वह चीज है जिसे मनुष्य ता-उम्र महसूस करता है। लेकिन डायना जानती थी कि टॉम की खुशी मात्र दिखावा है या डायना को रिझाने की कोई नई चाल। जिस तरह डायना ने यह स्वीकार कर लिया था... बेझिझक, खुलेआम कि यह बच्ची चंडीदास की है उससे टॉम हिल गया था। उसे अपने हाथ से सब कुछ फिसलता नजर आ रहा था। उसे लग रहा था उसके आगे खड़ा समृद्धि का महल ताश के महल के समान कभी भी ढह सकता है अगर हवा का रूख इस ओर हुआ तो। अब उसका हर कदम सावधानी से रखा कदम ही होना चाहिए।

डायना के लिए अब एक ही काम रह गया था, रागिनी की देखभाल... लेकिन धीरे-धीरे वह भीतर से खोखली होती जा रही थी। चंडीदास का एक स्वप्न तो वह पूरा कर चुकी थी दूसरा पूरा होना था, देश की आजादी जिसके लिए गुनगुन ने कुर्बानी दी थी। वह कहता था... “काश, ऐसा हो कि हमारा शिशु आजाद भारत में अपना पहला कदम रखे।”

“ऐसा ही होगा चंडी, गुनगुन की कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी।”

वह संवाद, वह पल अटककर रह गया है डायना की जिंदगी में और वह लगातार अपना स्वास्थ्य खोती जा रही है। उसे बुखार रहने लगा है और भूख मरती जा रही है। वह जब भी रागिनी की ओर देखती है, उसे छूती है, प्यार करती है उसे लगता है वह चंडी को छू रही है, देख रही है, प्यार कर रही है। उसे पता है कि उसे जल्द ही चंडीदास के पास जाना है... वक्त कम रह गया है... जल्दी-जल्दी बहुत कुछ निपटाना है। एक दिन उसने जॉर्ज को बुलाकर अपनी वसीयत लिखवाने की इच्छा प्रगट की। दूसरे दिन वकील आ गया। वसीयत में उसने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति, जेवरात आदि रागिनी के नाम कर दिए और रागिनी के बालिग होने तक उसकी देखभाल का जिम्मा और जायदाद की सारी कानूनी कार्रवाई का जिम्मा जॉर्ज और दीना को दे दिया। यह बात पच्चीस जुलाई सन् 1947 की थी और पंद्रह अगस्त को भारत आजाद हो गया। लेकिन उसके पहले चौदह अगस्त को पाकिस्तान बना। प्रकृति जब क्रोधित होती है तो आसमान फट पड़ता है। बिजलियाँ गिरती हैं, ज्वालामुखी फटते हैं, भूकंप आता है। बाढ़ और सूखे की चपेट में इंसान के प्राण दीये की थरथराती लौ के समान बुझ जाते हैं पर यह तो इनसानी बल्कि राजनीतिक फितरत का खूनी खेल था। मासूम निर्दोष मुसलमान यह सवाल लिए विभाजन की आग में कूद पड़ने को मजबूर थे-”कि आखिर हमने किया क्या है? कौन जुदा कर रहा है हमें... लाहौर क्यों पाकिस्तान बन गया और दिल्ली क्यों हिंदुस्तान? भारत को आजाद कराने की लड़ाई तो हमने भी लड़ी है। यह पाकिस्तान कहाँ से आ टपका? सनकी तुगलक बादशाह ने भी अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद स्थानांतरित की थी और दिल्ली का एक-एक इंसान दौलताबाद जाने के लिए मजबूर किया गया था। क्या अपनी जमीन का मोह कोई छोड़ सकता है? लेकिन यह मोह छुड़ाया गया। आजादी की खुशियाँ बंट गईं, दो टुकड़ों में देश बँट गया, दिल बँट गए और बिना किसी कारण के हिंदू मुसलमान एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। धर्म की आड़ ली गई और सांप्रदायिकता का बीज बोया गया। हिंदू मुसलमान को पाकिस्तानी कहने लगा और मुसलमान हिंदू को हिंदुस्तानी। एक बार फिर कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध दोहराया गया। भाई-भाई बँट गए और सीमाएँ निर्धारित कर दी गईं। इस तबाही पर आसमान खून के आँसू रोया।”

सोलह अगस्त की रात डायना ने चंडीदास की तस्वीर सीने से लगाई और जो सोई तो फिर उठी ही नहीं। सोते हुए ही उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया। वह दिल जो चंडीदास के लिए धड़कता था, चंडीदास के बिना कैसे धड़के... मर तो उसी दिन गया था जब चंडी का कत्ल हुआ था। उसके बिना इतने महीने जीना पड़ा... उसकी वजह चंडीदास के स्वप्न जिन्हें डायना पूरा करना चाहती थी... जिस दिन स्वप्न पूरे हुए डायना निश्चिन्त हो अपने चंडी के पास चल दी।

डायना की अंतिम इच्छा थी कि उसका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से हो और उसकी राख नदी में न बहाकर पंचमढ़ी की हाँडी खो में डाली जाए। “पहुंची वहाँ पर खाक जहाँ का खमीर था।' और उसकी यह इच्छा पूरी करते हुए बाबा रो पड़े थे... “सती थी डायना... आज मैंने अपना चंडी दुबारा खो दिया।” और इस सारे आयोजन में टॉम केवल एक मूक दर्शक था।