ठेठ हिंदी का ठाट / ग्यारहवाँ ठाट / हरिऔध

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धीरे-धीरे गंगा बह रही हैं, घाट पर कोई नहाता है, कोई जल भरता है, कोई उतरता है, कोई चढ़ता है, कोई खड़ा निकलते हुए सूरज को जल चढ़ाता है, वहीं दो जन और बैठे हैं, एक देवनंदन और दूसरे रमानाथ। भोर के कामों से छुट्टी पाकर इन दोनों जनों में बातें हो रही हैं। देवनंदन ने कहा रमानाथ! आज चार साढ़े चार बरस तुमको घर छोड़े हुआ, तुम क्यों ऐसे हो गये जो घर चीठी भी नहीं लिखते, क्या तुमको अपने उस छोटे बच्चे अपनी उस सीधी घरनी की भी सुरत नहीं होती! उसका दिन कैसे बीतता होगा, उनको खाने-पहनने को कौन देता होगा, कपड़ा न रहने पर, दो-दो दिन पीछे भी कुछ खाने को न मिलने पर, वह किस का मुँह देखते होंगे, क्या इन सब बातों को तुम कभी नहीं सोचते, तुम्हारे छोड़ जिन का कोई दूसरा नहीं है, तुम्हीं जिन के जीने मरने के साथ हो, क्या तुम्हीं को फिर इतना निठुर होना चाहिए। पसू भी अपने बच्चे को प्यार करता है! चिड़ियाँ भी अपने जोड़े के साथ रहती हैं,पर तुम्हारा जी ने जाने कैसा है, जो तुम इन्हीं सबको भूले बैठे हो। जब वह तुम्हारा छोटा बच्चा भूख लगने पर माँ, माँ, करता, सूखे मुँह आकर अपनी माँ के पास खड़ा होता होगा, कहता होगा, माँ! भूख लगी है, उस घड़ी उस दुखिया पर कैसी बीतती होगी, वह कितना रोती होगी, क्या यह सोचकर तुम्हारा कलेजा नहीं कसकता। वह भलेमानस की घरनी है, तुम को छोड़ उसको सहारा देनेवाला कौन है!!! रमानाथ! जो अब तक तुमने इन बातों को नहीं सोचा,तो क्या अब भी न सोचोगे?

रमानाथ ने रोते-रोते कहा। कल जबसे मैंने आपको देखा है, तब से मेरा जी ठिकाने नहीं है, न जानें क्यों बहुत सी पिछली बातों की सुरत हो रही है,आज आप की बातों को सुनकर कलेजा फटा जाता है, जी घबरा रहा है, पर मुझको यह नहीं सूझता है, मैं क्या करूँ, न जाने उस जनम में मैंने कैसी कमाई की है, जिससे मुझको यह सब भुगतना पड़ रहा है।

देवनंदन-तुम उस जनम की कमाई को क्यों झींखते हो, उस जनम की कमाई तुम्हारी बहुत अच्छी रही है, जो अच्छी न होती, बाम्हन के घर में जनम न होता, देवबाला ऐसी घरनी न मिलती। तुम अपनी इस जनम की कमाई को झींखो, जिससे दूसरे जनम में न जानें तुम्हारी कौन गत होगी। जो देवबाला तुम्हारे पाँवों की धूल माथे में लगा कर अपने को सुहागिनी जानती, जिस देवबाला ने तुम्हारे लिए अपने देह के गहने तक उतार दिये, जिस देवबाला को तुम्हारा औगुन भी गुन जान पड़ता है, जिसने तुमारी बुराई पर आँख न डाली, तुम को देवता समझा, तुमारा मुँह देखकर ही दुख को सुख माना, हाय! तुमने उसी देवबाला को छोड़ा, और उसको छोड़ा भी तो किसी बाबू की टहलुनी रखा, क्या इससे भी बुरी कमाई हो सकती है, रमानाथ! तुम्हारा जमन बाम्हन के घर में हुआ है, तुमको दूसरों का भला करना चाहिए, जो कुछ मिल जाए उसी पर सन्तोख रखना चाहिए, ऐसा काम करना चाहिए जिससे किसी का जी न दुखे, सब से प्यार के साथ बरतना चाहिए, जिन कामों को करने से धरती के जीवों का भला हो, उन्हीं में जी लगाना चाहिए, पर तुम चोरी, ठगी, बटपारी करते हो, धोखा देकर डराकर दूसरों से धन लेते हो, जिन बुराइयों का नाम सुनकर रोआँ खड़ा होता है, उन्हीं के करने में जी लगाते हो कल तुमको मैंने अपनी आँखों दूसरे का गला काटते देखा, इस पर भी तुमारे पास एक कौड़ी नहीं है, इन बुरे कामों को करके तुम जो कमाते हो, उसको रंडी भड़ुओं को खिला देते हो, नाच रंग में उड़ा देते हो क्या इन बुराइयों से बढ़कर भी कोई बुराई है! इन कमाइयों का पलटा उस जनम में तुमको क्या मिलेगा, क्या भूलकर भी अपने जी में सोचते हो! कोल, भील, भर, पासी जिन कामों के करने में हिचकते हैं! जिन बुराइयों का नाम सुनकर कान पर हाथ रखते हैं!!! वही बुराइयाँ तुम से होती हैं, उन्हीं कामों को तुम करते हो!!! क्या इससे नरक में भी ठौर मिलेगी, मैं समझता हूँ ऐसे लोगों को देखकर नरक भी काँप उठेगा। रमानाथ! क्या अब भी तुम सोच सकते हो! क्या अब भी सच्चे जी से भगवान को पुकार कर कह सकते हो! प्यारे! जो चूक आज तक मुझ से हुई, आगे को मैं कान पकड़ता हूँ, तू उनको छिमा कर, तेरी ही दया से मेरे सब पापों के कट जाने का आसरा है। मैं समझता हूँ, तुम बाम्हन के घर में जनमे हो, बाम्हन का ही लोहू मास तुमारे में है, अब तक तुमने जो किया सो किया, अब से अपना जनम बना सकते हो।

रमानाथ रो रहा था, फूट-फूट कर रो रहा था, पाप एक-एक करके उसकी आँखों के सामने नाच रहे थे, देवनंदन की बातों से उसके कलेजे पर चोट सी लगी थी, वह डरा भी बहुत था, उससे बोला न जाता था, पर उसने जी थाम कर कहा, आप मुझको बचाइये, आप मुझ डूबते को सहारा दीजिए, अब आप जो कहेंगे, वही मैं करूँगा, दो महीना हुआ मेरी रखेली भी मर गयी, यह झंझट भी मेरे सिर से जाता रहा, रहा पेट का झमेला, उसके निबाह के लिए जो आप कहेंगे, वही मैं करूँगा, जिस में मेरा भला हो, जिस में मैं भगवान को अपना मुँह दिखा सकूँ, आप उन्हीं बातों को बताइये, अब मैं उन्हीं को करूँगा।

देवनंदन ने कहा, सब से सीधा ढर्रा यही है, तुम घर चल कर अपने बाल बच्चों में रहो, अपनी दुखिया घरनी के उजड़ते घर को बसाओ, भाग से, भली कमाई से जो मिले उसको खा पीकर अपना दिन बिताओ, इसी में तुमारा भला होगा, भगवान को मँह दिखाने जोग तुम इन्हीं कामों को करके होगे?

रमानाथ ने कहा-ना! घर मैं न चलूँगा, कौन मुँह लेकर चलूँ! मैं आप ही के साथ साधु होकर रहूँगा। अपना भला मैं इसी में देखता हूँ।

देवनंदन-क्यों न घर चलोगे? घर चलना होगा। यही मुँह लेकर घर चलो, इसी मुँह के लिए तुमारी घरनी तरसती है! यही मुँह उसके अंधियाले जी का उँजाला है? इसी मुँह के देखने के लिए वह एक घड़ी को एक-एक बरस ऐसा समझ रही है। जो अपने बालबच्चों में धरम के साथ रहता है, उसको साधु बनने से क्या काम है! तुम घर चलो, तुमारी भलाई इसी में है।

रमानाथ-मेरे खेत सब गिरों हैं, दूसरा काम करने आता नहीं, आज तक मुझ को अपने ही पेट से छुट्टी नहीं है, कल घर चलने पर बालबच्चों का निबाह कैसे होगा, जिन बखेड़ों से घबरा कर मैं भागा था, उन्हीं सब बखेड़ों को आप फिर मेरे सिर डालते हैं, घर चलने पर मेरी गत फिर जैसी की तैसी होगी। आप दया करके मुझको घर चलने को न कहिये?

देवनंदन-यह लो, इसको पढ़ो, देखो तुम्हारे सब खेत छूट गये, मैं इन सब बातों को ठीक कर चुका हूँ, मैं जानता था, तुम घर आने की बात चलने पर यही कहोगे, मैं घर चलकर खाऊँगा क्या? इसीलिए इस का रुपया चुकाकर इसको साथ लेता आया हूँ, जो तुम न पढ़ सकते हो, इसको किसी से पढ़ा देखो। फिर आज तक तुम्हारे बालबच्चों का निबाह कैसे होता है! जिस दाता ने आज तक उनका निबाह किया है, वही अब भी करेगा, तुमको ऐसी-ऐसी बातें न उठानी चाहिए।

रमानाथ, देवनंदन की करतूत देखकर और उनकी बातें सुनकर अचरज में आ गया, बोला अब मैं क्या कहूँ, जो आप कहते हैं वही करूँगा, घर चलूँगा,मैं आप की बात टाल नहीं सकता, आप कहते हैं घर चलने ही से मेरा भला होगा, तो मैं घर चलूँगा?

इतनी बातें होने पीछे दोनों जन घाट पर से उठे, और अपने डेरे की ओर चले गये।