ठेठ हिंदी का ठाट / दसवाँ ठाट / हरिऔध
भादों का महीना, बड़ी अंधियारी छाई है, बादल घिरे हैं, दो एक बूँदें भी पड़ रही हैं, रात के एक बजे हैं, कहीं कोई आता-जाता नहीं, पहरेवाले लम्बी ताने सो रहे हैं, दूर एक धुंधला उँजाला बिजली का हो रहा है, पर उससे चारों ओर की अंधियाली को कुछ धक्का नहीं पहुँचता है, वह दूर के तारे की भाँति अपनी ही ठौर चमक रही है। इसी बेले कलकत्ते की सड़क पर एक भलामानस बहुत ही धीरे-धीरे जा रहा है, उससे भी धीरे-धीरे पाँव दबाये एक जन उसका पीछा कर रहा है, इन दोनों से भी पाँच सात हाथ दूर एक जन और इन दोनों पर आँख गड़ाये लम्बी डगों चल रहा है। ज्यों ही वह भलामानस एक मोड़ पर पहुँचा, और मुड़ कर एक गली में जाने लगा, वोंही पीछेवाला जन उस पर झपटा, और उठा कर उसको दे मारा, छाती पर चढ़ बैठा, और चाहता था, छुरी से उसका गला काट डाले, वोंही उस तीसरे जन ने उसको भी आकर धर दबाया, उसके हाथ से छुरी को छीन लिया और बहुत फुर्ती के साथ उसका हाथ पाँव बाँध कर उसको वहीं डाल दिया। भलेमानस के औसान जाते रहे थे। वह अपने को मरा ही समझ रहा था, पर अब उसके जी में भी जी आया, वह चाहता था चिल्लाकर पहरे वालों को बुलाऊँ, पर उस तीसरे जन ने रोका, कहा आप चुप रहें, मेरी बातों को सुन लें फिर जो चाहे करें। पहरेवालों को बुलाकर आप क्या करेंगे, जब तक मैं यहाँ हूँ आपका कोई एक रोआँ भी नहीं छू सकता। उन्होंने कहा आप जो कहेंगे मैं करूँगा। आपने मेरा जी बचाया है, आपके कहने से मैं कभी मुड़ना नहीं चाहता। वह बोले, यहाँ कुछ न कहूँगा, आप किसी ठौर चलें, वहीं सब बातें होंगी, मैं इस बँधुये को भी साथ ले चलूँगा। उन्होंने कहा अच्छा आइये, मेरे साथ चले आइये। कुछ बेर में यह तीनों जन एक घर में पहुँचे। वहाँ एक खुली कोठरी में बैठकर इन लोगों में बातचीत होने लगी। एक जलते हुए दीवे को छोड़ वहाँ और कोई न था।
पहले तीसरे जन ने भलेमानस से कहा, आप बताइये, आप कौन हैं, क्या आप इस बँधुये को पहचानते हैं? इसने क्यों आज आप पर छुरी चलानी चाही थी?
उन्होंने कहा, मैं मारवाड़ी हूँ, आप की दया से इन दिनों मेरा काम-काज कुछ अच्छा है, इसी से यहाँ के निठल्लू और निकम्मे सब मुझको कभी-कभी घेरा करते हैं, मैं भी उनको कभी-कभी कुछ दे दिया करता हूँ, पर अब इन में गुण्डे और लुच्चे भी बहुत हो गये हैं, वह डराकर बहुत कुछ लेना चाहते हैं, जो न दो तो इसी भाँत गला घोंट कर मार देने में ही अपनी बड़ाई समझते हैं। यह जो इस घड़ी यहाँ बैठा है, इसने परसों मुझसे पचास रुपया रोक माँगा था,मैंने कहा इस घड़ी मैं तुमको कुछ नहीं दे सकता, मैं समझता हँ इसी से आज यह मेरा जी लेना चाहता था। इसको मैं पहचानता हूँ, यह मुझसे दो चार बार दो-दो एक-एक रुपया ले चुका है। यह पछाँह का रहनेवाला बाम्हन है। आप बताइये आप कौन हैं?
तीसरे जन ने कहा, आप देख ही रहे हैं, मैं एक साधु हूँ, दूसरे के दुख-के-दुख को दूर करना ही हम लोगों का काम है, डेढ़ महीना हुआ, मैं कलकत्ते आया हूँ, तब रात से दिन इनको, जो आपके सामने बैठे हैं, खोज रहा हूँ, संजोग की बात है, आज अचानक इनसे भेंट हो गयी। मैं इन्हीं की खोज में एक ठौर जा रहा था, मग में देखा, आप पर घात लगाये यह चले जा रहे हैं, मुझको खटका हुआ, मैं भी पीछे-पीछे चला, जो सोचता था, वही हुआ, पर आप का जी बच गया, यह बड़ी बात हुई, मैंने यहाँ पहुँचने से पहले इनको न पहचाना था, दीवे के साम्हने आने पर मैंने इनको पहचाना, मेरा काम भी हुआ, अब मैं आप से यही चाहता हूँ आप इनका जी छोड़ दें, बिना पहचाने भी मैं इनको बचाना चाहता था, और इसीलिए आप को वहाँ से यहाँ लिवा लाया,बोलचाल होने पर पहरेवालों से पकड़े जाने का डर था।
मारवाड़ी ने कहा-एक तो यह बाम्हन हैं, दूसरे आप कहते हैं, इसलिए मैंने इनको छोड़ दिया, पर यह न जान पड़ा आप इनको क्यों खोजते रहे हैं।
मैं सब बातों को कहकर आपका जी भी दुखाना नहीं चाहता, पर अब इनसे कुछ पूछूँगा। यह कहकर उस तीसरे जन ने, उस जन की ओर फिर कर कहा, क्यों मुझको तुम पहचानते हो? रमानाथ तुम्हारा ही नाम है न?
रमानाथ के जी में इस घड़ी एक अचम्भे का उलट फेर हो रहा था, वह सोच रहा था, एक यह है जो दूसरे के दुख को दूर करना ही अपना धरम समझता है, एक मैं हूँ, जो दिन रात दूसरे के सताने ही मैं चैन पाता हूँ, क्यों उनका जी ऐसा है, और मेरा ऐसा! मैं इसको समझ नहीं सकता हूँ। पर कुछ-कुछ जी में आज यह बात समाती है, जो भले हैं, उन्हीं को सुख मिलता है मैं जितना ही सुख को खोजता फिरता हूँ, उतना ही वह मुझसे दूर भागता है,राम जानें यह क्या बात है, यह सोचकर वह बोला, हाँ रमानाथ मेरा ही नाम है, पर मैं आपको पहचानता नहीं हूँ, आप बड़े लोग हैं, सब कुछ जान सकते हैं, अनजान को भी पहचान सकते हैं, पर मैं पापी हूँ आप जैसों को कैसे पहचान सकता हूँ।
यह तीसरे जन हमारे देवनंदन हैं। रमानाथ की बातें सुनकर उनका जी भर आया, उन्होंने झट उसका हाथ-पाँव खोल दिया। पीछे मारवाड़ी से कहा,अब हम लोग जाते हैं, आप भी घर में जाइये। पर एक बात आपसे कहे जाता हूँ, आप धनी हैं, आप के बैरी कितने होंगे, इसलिए आप को बहुत रात गये घर से बाहर न जाना चाहिए।
मारवाड़ी ने कहा, आप बहुत ठीक कहते हैं, पर आज दो घड़ी रात गये अचानक मेरा साथ मेरे साथियों से छूट गया, मैं एक भलेमानस के यहाँ काम से गया था, वहाँ से आ रहा था, बीच ही में यह बात हो पड़ी। साथ तो छूटा ही, पंथ भी भूल गया, इसी से आज यह धोखा हुआ, नहीं तो मैं कभी रात को अकेले बाहर नहीं जाता और न बहुत रात बीते तक कहीं रहता हूँ।
इतना कहकर वह मारवाड़ी उठा, और घर में से पाँच-पाँच सौ रुपये की दो थैलियाँ लाकर देवनंदन के सामने रक्खीं, और कहा, आपने जो कुछ आज मेरे साथ किया है, उसका पलटा जनम भर मुझसे नहीं हो सकता, पर इन दो थैलियों को मैं आप की भेंट करता हूँ, आप इनको लीजिए, अपना टहलुआ मुझको समझते रहिये।
देवनंदन ने कहा, रुपया लेकर मैं क्या करूँगा, मैंने तुमारा जी बचा कर अपना काम किया है, तुमारा नहीं, इसका कुछ निहोरा नहीं है, तुम इन रुपयों को अपने पास रखो, इनको किसी धरम के काम में लगाओ, भूखों, कंगालों में इनको बाँटों, इसी से मेरे जी को सुख होगा, तुम्हारा जन्म सुधारेगा, धरती में इससे बढ़कर कोई दूसरा काम नहीं है।
इतना कहकर देवनंदन, रमानाथ के साथ चले गये।