डायरी / भाग 2 / मोहन राकेश

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जालन्धर : 13.6.57

सुबह अश्क दम्पति को आना था, इसलिए जल्दी उठकर किसी तरह स्टेशन पर पहुँचा। लेकिन वे फ्रंटियर से नहीं आये। वे बाद में जनता से आये। मेरे कॉलेज से लौटने तक वे घर पहुँच गये थे। अश्क साहित्य जगत की चर्चाएँ सुनाते रहे। दोपहर को खाना खाकर प्लाज़ा चले गये। अश्क और कौशल्याजी को आश्चर्य होता है कि लोग अश्कजी की इतनी निन्दा क्यों करते हैं। उन्हें अपनी प्रतिक्रिया बतलाई। वास्तव में यह अश्क कीmisplaced humour के सबब से है। बहुत कम लोग उसे enjoy कर पाते हैं और अक्सर कुढ़ जाते हैं। अश्क के लोगों के साथ व्यवहार में कुछ peculiarities आ गयी हैं, जिसके कारण हैं, इलाहाबाद के लोगों की आरम्भ में hostile attitude से पैदा हुई प्रतिशोध भावना, कुछ शारीरिक और मानसिक frustration, अनुकूल सहयोगियों का अभाव, आदि। अश्क से बहुत बार serious और non-serious की रेखा नहीं रखी जाती। इसी से अधिकांश tragedies का श्रीगणेश होता है। He has been playing up younger people against older ones, resulting in their similar behaviour towards him also.

दर्शन सिंह के आ जाने पर बात हिंदी-पंजाबी मसले पर होती रही। दर्शन सिंह से भी वही बातें कहीं जो उस दिन नरेन्द्र से कही थीं।

It is mainly a quesiton of vested interests and not of emotions and sentiments. Ministers themselves are the culprits while swamis are playing in the hands of the culprits keeping behind the scenes.

प्लाज़ा से उठकर दर्जियों के चक्कर लगाए। फिर मैं उनसे अलग होकर ख... के यहाँ चला गया। वहाँ विनय बहुत देर teaching profession को कोसता रहा। काफी पीकर चला आया। ख... के स्वभाव में वह स्थिरता और कोमलता है जिसकी एक इन्सान को अपेक्षा हो सकती है।

घर आकर पता चला कि पीछे म... और ल... आयी थीं। मेरे मन से वह सूत्र बिल्कुल ही टूट गया है क्या?

जालन्धर : 14.6.57

I am dead tired, too tired to write anything. And what is there to write about after all? We got up, we bathed, we ate, we talked a lot and we felt tired.

Ashk and Kaushalya, they are both good-hearted children, but very much self contained and with many misconceptions about themselves.

अश्क का छोटा भाई इन्द्रजीत समझौतेबाजी में पडक़र तबाह हुआ आदमी प्रतीत होता है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं रहा।

Ashk today bullied him a lot and to a great extent unnecessarily. Indrajit is an unsuccessful man-unsuccessful in the worldly sense-and that is what makes him a weak, fumbling and faltering fool. Otherwise he has a lot of sense and a lot of vigour. But...

जालन्धर : 9.7.57

सुबह-सुबह बारिश ने बाहर से खदेड़ दिया। बरामदे में आ लेटे पर नींद नहीं आयी। जल्दी ही उठकर नाश्ता कर लिया। अखबार लेकर बैठे थे कि ज्ञानचन्द भाटिया तथा चार और आदमी चन्दाग्रहण मिशन पर पहुँच गये। ग्यारह रुपये देकर निस्तार पाया।

मदान के दिमाग़ से हर चीज़ दो खानों में विभक्त हो जाती है-अच्छी और बुरी, और वह हर चीज़ के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रिया की घोषणा ऐसे विश्वास के साथ करते हैं जैसे दूसरा मत हो ही न सकता हो।

खोसला ज़्यादा दुखी था। उससे उठा नहीं जा रहा था। किसी तरह उठना हुआ, घर पहुँचे।

आज कई दिनों के बाद ठंडी तेज हवा चली है। मेंढकों की आवा$जें फिर वातावरण में फैल रही हैं। मेंढक मुझे कितने जघन्य लगते हैं-यह स्वर उतना ही आकर्षक लगता है। न जाने क्यों?

जालन्धर : 7.1.58

“मिस्टर सुरेश का कब तक वापस आने का प्रोग्राम है?”

“उनका टर्म तो मार्च में समाप्त हो जाएगा, पर थीसिस पूरा होने में अभी थोड़ा समय और लगेगा। वे यहाँ पर खुश नहीं हैं। मैं तुम्हें उनके पत्र दिखाऊँगी।”

धूप आँखों में पड़ रही थी, इसलिए मैंने कुर्सी की दिशा ज़रा बदल ली।

“उनके लौटने के बाद कहाँ रहोगी? यह वर्तमान अरेंजमेंट हमेशा तो नहीं चल सकेगा।”

“यह अरेंजमेंट तो मेरे लिए मौत के बराबर है। पहले स्कूल के काम में दिल लग जाता था। अब बिल्कुल नहीं लगता। बच्चों की तरह घंटियाँ गिनती रहती हूँ-अब तीसरी घंटी बजी, अब चौथी, अब पाँचवीं। जब सब घंटियाँ बज चुकती हैं तो फिर एक शून्य आ घेरता है कि इसके बाद क्या करूँगी। इतवार काटना तो असम्भव हो जाता है। सारा वातावरण विरक्त और उदासीन प्रतीत होता है। अन्तर निरर्थकता की अनुभूति से भर जाता है। बार-बार मन पूछता है कि क्यों जीवित हूँ, मर क्यों नहीं जाती? मगर मरने में भी बहुत व्यर्थता लगती है। जी लिया हो तो मरूँ। यह जीने की साध जो बचपन से हृदय को व्याप्त किए है, क्या साध ही बनी रहेगी, और मैं कभी एक क्षण के लिए भी मरकर न जी पाऊँगी?”

वह इस तरह मेरी ओर देख रही थी जैसे उसके प्रश्न का निश्चित उत्तर अभी-अभी मेरे माथे पर उभरनेवाला हो।

“देखो मैं नहीं समझता कि मैं तुम्हारे केन्द्र में वर्तमान होकर सोच सकता हूँ। मगर मैं तुम्हारी परिस्थिति को समझने की कोशिश अवश्य करता हूँ। मैं भी परिस्थितियों की उस कटुता में कई वर्ष बिता चुका हूँ। तुम यह सोचकर भूल करती हो कि तुम्हारी समस्या का हल बाहर कहीं से प्राप्त होगा। तुम्हें उसे अपने अन्दर से ही हल करना होगा। जीवन के सब सम्बन्ध सापेक्ष हैं, अनिवार्य नहीं, पहली चेतना तो हमें यह उपलब्ध करनी होगी कि समुदाय के अन्तर्गत व्यक्ति नगण्य है, फिर भी व्यक्ति एक सम्पूर्ण इकाई है-एक पूरा मानसिक यन्त्र है। उपयुक्त चालक न हो तो वह यन्त्र व्यर्थ पड़ा रह सकता है। परन्तु उससे यह अर्थ कदापि नहीं निकलता कि वह यन्त्र व्यर्थ है। उसकी शक्तिमत्ता ही उसकी उपयोगिता का प्रमाण है। उपयोग न होने का खेद हो सकता है पर व्यर्थता की प्रतीति नहीं होनी चाहिए।”

जालन्धर : 28.9.58

तीन दिन से वर्षा ही नहीं थमती। लगभग वैसी ही स्थिति हो रही है जैसी सितम्बर-अक्तूबर सन् 55 में हुई थी। छोटी-छोटी वर्षा-लगातार। इस बार फिर मकान-अकान गिरेंगे।

कल एक कहानी 'गुनाहे बेलज्जत' के पीछे पड़े रहे। आज पूरी करने का प्रयत्न करेंगे।

कहानी पूरी नहीं हुई। दिन में पुरुषोत्तम और उसका एक मिलनेवाला आ गये। Madame Bovary देखने चले गये। Jennifer Jones की performance बहुत अच्छी थी।

दादी माँ से देर तक बातें हुईं। अब रात काफी हो गयी है, आँखें भारी हैं सोएँगे।

जालन्धर : 29.9.58

आज कहानी 'गुनाहे बेलज्जत' पूरी हो गयी। एक नई कहानी की रूपरेखा भी बन गयी।

शाम को पांडे, बशीर और प्राण चाय पीने आये थे। उसी समय म... भी अपने cousin के साथ आ गयी। वह कुछ nervous और excited लगती थी। कमरे से निकलते हुए उसने पीछे से चिकुटी काट दी। दो-चार मिनिट में ही वह चली गयी।

दादी माँ से बदस्तूर बातें होती रहीं पर आजकल उतना खाली-खाली नहीं लगता।

नींद से बुरा हाल है।

जालन्धर : 3.10.58

उपन्यास के तीन पृष्ठ टाइप किए। दिन रुटीन में बीत गया।

जालन्धर : 6.10.58

आज कॉलेज गये और एक पीरियड पढ़ा आये।

दिन में कुछ लिखा, कुछ सोए। शाम को घूम लिया और विरक के यहाँ बैठे रहे।

दोपहर को 'सुहागिन' शीर्षक कहानी का synopsis लिख डाला।

बस इतना ही किया।

जालन्धर : 14.10.58

कल से कहानी 'सुहागिनें' पूरी करने के पीछे पड़े हैं। कहीं गये नहीं, यहीं घूम लिये। परसों से सिगरेट पीना भी छोड़ रखा है।-इसके अलावा अभी और भी कटौतियाँ करनी होंगी।

जालन्धर : 16.10.58

आज 'सुहागिनें' शीर्षक कहानी पूरी रिवाइज़ भी कर डाली। शायद कहानी बुरी नहीं है।

कल नरेन्द्र से देर तक कौशल्याजी और उमा के बारे में बात हुई। मुझे खुशी है कि दोनों के बारे में जो मेरी राय है, वही नरेन्द्र की भी है। उमा में सचमुच इस छोटी-सी उम्र में वह maturity है जो आश्चर्य में डाल देती है। नरेन्द्र ने बताया कि चंडीगढ़ से part होते समय जैसे वह हँसी और अश्क के गले से लिपट गयी-फिर कौशल्या की कमर में बाँह डाले हुए उसे बस की ओर ले गयी। जब कौशल्याजी ने कहा कि वह दिसम्बर में इलाहाबाद कैसे आएगी, अश्क तो तब बाहर गये होंगे; तो उसने कहा पापाजी न सही, मम्मी तो वहाँ होंगी। कौशल्या ने earrings उसे दे दीं, तो 25/- देने का इरादा बदल दिया। फिर भी 10/- वे देने लगीं तो उमा ने कहा कि अभी मेरे पास पैसे हैं, मैं किराया लेकर आयी हूँ।

नरेन्द्र का कहना था कि उसने उमा के गले लगने पर अश्क के चेहरे पर जो मुस्कराहट देखी, वह जीवन भर पहले कभी नहीं देखी-it was true happiness. फिर उमेश के अभिनयपूर्ण जीवन की बात हुई-कैसे वह कौशल्याजी के प्रति भी कोमलता का अभिनय करता है-उस घर में हर आदमी दूसरे को at arm's lengthरखकर जीता है-पुत्री अपनी जगह great है, उमेश अपनी जगह, अश्क अपनी जगह और कौशल्या अपनी जगह-नरेन्द्र ने कहा- "As if everybody is struggling for existence in a hostile camp. This can't fit in there. That's why I feel uncomfortable there."

सचमुच इस लडक़ी को यदि पिता का प्यार और वह सुविधा न मिली जिसकी वह अधिकारिणी है तो यह एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी होगी।

कल रेडियो स्टेशन पर श्री जगदीशचन्द्र माथुर से भेंट हुई। He seems to be a nice person. कल रेडियो के सांस्कृतिक कार्यक्रम में बुलगानिन वाला skit मुझे बहुत अच्छा लगा।

आज शाम बहुत अच्छी बीती। कुछ भी लिख लेने पर एक बहुत स्वाभाविक-सी खुशी होती है। ज़िन्दगी में जरा-सा balance और हो तो मैं कितना-कितना काम कर सकता हूँ?


जालन्धर : 19.10.58

'सुहागिनें' शीर्षक कहानी में कुछ हेर-फेर करने में दो दिन निकल गये।

कल दिन में दीनानाथ (राजपाल एंड सन्ज़) के आने पर दो घंटे प्रकाशन-लेखन सम्बन्धी गपशप होती रही।

दोपहर को वीणा का पत्र मिला। उसने चम्बा आने को लिखा था। पढक़र काफी देर असमंजस में पड़ा रहा। अश्क और कौशल्याजी शायद रात को आएँगे। कौशल्या भाभी का हठ था कि उनके साथ दिल्ली ज़रूर चलूँ।

आखिर झूठ का आश्रय लेने की सोची। एक बड़ा-सा बहाना बनाकर आज निकल चलें-भाभी नाराज होंगी तो सँभाल लेंगे।

दो बजे की बस से पठानकोट के लिए रवाना होंगे। रात वहाँ रहकर कल आगे चलेंगे।

कहते हैं, अक्टूबर में चम्बा बहुत सुहाना होता है।

जालन्धर : 8.11.58

अक्सर कई-कई दिन कुछ न लिखना आदत-सी होती जा रही है। क्यों इतनी थकान रहती है?

कई बातें लिखना चाहता हूँ-कमल और सत्येन्द्र के विषय में; राजेन्द्र यादव के विषय में; नरेन्द्र के साथ हुईBoris Pasternak सम्बन्धी बातचीत के विषय में-मगर सिर इजाज़त दे तो न।

कितने अकेले-अकेले से दिन निकलते हैं। कब सोचा था कि ऐसी भी ज़िन्दगी व्यतीत करेंगे!

घड़ी की टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक्-ऊँह!