डायरी / भाग 3 / मोहन राकेश

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जालन्धर : 12.11.58

1. उपन्यास-लेखन

2. कमरे में चहल-कदमी

3. भोजन

4. मध्याह्न शयन

5. सम्भाषण

6. जम्हाइयाँ

7. पत्र-लेखन

8. झपकियाँ

9. निद्रा

इति

दिवसारम्भ से दिवसान्त तक की चर्चा समाप्त हुई।

...हिमालय जिसने अनन्त विचारों को जन्म दिया है, क्या उस समुद्र से कम महान है जिसके प्रति वे सब निर्झर समर्पित हैं?

...अपनी विस्मृति ही जीवन का रहस्य है, दूसरे की प्रतिभूति नहीं।

...सम्बन्ध तो संयोग है, चांस है, एक घटना है। उसे पुरानापन छा लेता है। नित्य नूतन अपना काल है, जो घटना नहीं, चांस नहीं, संयोग नहीं।


नई दिल्ली : 31.1.59

राजेन्द्र यादव के आ जाने के बाद कई दिन उसी व्यस्तता में निकल गये। उसके सैटिल हो जाने के बाद ही अपना कुछ होश हुआ।

इस बीच 'सुहागिनें' शीर्षक कहानी को रिराइट करने के सिवा कुछ नहीं किया।

...आज जाने कैसा दिन था। सुबह राजेन्द्र पाल की बात पर गुस्सा आ गया। शाम को कॉफी हाउस में कुछ अजब-सा लगा। हबीब, कुमुद, चमन, सन्तोष और श्याम साथ आये। 'आषाढ़ का एक दिन' का पहला अंक पढ़ा, खाना खाया-

कैसा लगता है, कह नहीं सकता। देयर इज़ एक्साइटमेंट इन दि माइंड, व्हाई? आई डू नाट नो।

नाउ आई मस्ट ट्राइ टु गेट सम गुड, ओनेस्ट स्लीप।

रेस्ट, लेटर।

26.6.1964

आज मुक्तिबोध को भोपाल से यहाँ ले आया गया है। जिस अचेतन अवस्था में हैं, उसे देखकर डर-सा लगता है। शरीर में जान तो जैसे है ही नहीं। जिस शालीनता से उनकी धर्मपत्नी यह सब सह रही हैं, वह सचमुच प्रशंसनीय है। बचने की सम्भावना कितनी है, इसका पता डॉ. विग के लौटकर आने पर ही शायद चल सकेगा।

दिन में ज़्यादा वक़्त घर से बाहर रहा। दोपहर को कुछ देर काम किया। रात को आने तक उसने एक कहानी लिख रखी थी-अधूरी...रेखा के साथ 'एल्प्स' में बिताई एक दोपहर को लेकर। पूछती रही कि कैसी लगी। कहा, पूरी कर लो तो बताऊँगा। इस पर ज़िद पकड़ बैठी। नहीं, बताओ। यही बता दो कि थीम कैसी है। कहा कि पूरी होने से पहले कोई कमेंट नहीं दूँगा। इस पर मन्नू की अनलिखी कहानियों के उससे सुने प्लाट सुनाने लगी। मना किया, तो रूठकर बैठ गयी। फिर कमलेश्वर के संग्रह 'खोई हुई दिशाएँ' की'प्लाटविहीन एब्स्ट्रेक्ट' कहानियों के प्लाट सुनाने लगी। बोली कि ये तो कहानियाँ हैं ही नहीं, डायरी के अंश हैं-इससे अच्छी डायरी तो वह खुद लिख सकती है। मना किया कि अब रात के वक़्त कहानियों की चर्चा से बोर न करो, तो कोर्स की किताब उठाकर मार खाई-सी दोहरी होकर उस पर झुक गयी। बीच-बीच में शिकायत भरी नज़र से देखती रही।

और सब बात समझ जाती है-इतनी बात नहीं समझ पाती कि मुझे भी कभी अपने लिए एकान्त चाहिए,लिखने और सोचने के लिए समय चाहिए। उसे लगता है कि मेरा होना तो सिर्फ़ उसके लिए है-बस उसे देखने, प्यार करने और उसकी बातें सुनने के लिए-कम-से-कम उतना समय जितना कि घर पर रहूँ। कहेगी, “इतनी-इतनी देर तो तुम बाहर रह आते हो। मैं तुमसे कब बात करूँ? मेरी बात तुम्हें अच्छी लगती ही नहीं। मेरी बात तुम कभी सुनना ही नहीं चाहते। मैं सोचती थी कि तुम मेरे सहायक और पथ-प्रदर्शक बनोगे, पर तुम हो कि...।”

कहते-कहते कांशस हो जाती है। “सॉरी, सॉरी, सॉरी। मेरा यह मतलब नहीं था। सच, यह मतलब मेरा बिलकुल नहीं था। तुम जो कुछ मेरे लिए करते हो, वह तो है ही। पर मैं जो चाहती हूँ, वह क्यों नहीं करते?देखो, मन्नू यादव को अब भी अपनी कहानियाँ दिखाती हैं।”

“तो मैं क्या तुम्हारी कहानियाँ नहीं देखता? मैं तो बल्कि...।”

“बस यही तो बात है। तुम मुझे बस ताने ही दे सकते हो। जानते हो कि मुझे अभी ठीक से लिखना नहीं आता। जो कुछ मन में होता है, जैसे-कैसे काग़ज़ पर उगल देती हूँ। तुम चाहते हो तो नहीं लिखा करूँगी।”

“हाँ, यही तो मैं चाहता हूँ। इसीलिए तो तुम्हारी एक-एक कहानी दोहराने में इतना वक़्त लगाता हूँ।”

“तो यह सब अपनी पत्नी के लिए ही तो करते हो। मैं तो यह कहानी लिखना ही नहीं चाहती थी, और भी कई कहानियाँ हैं जो मैं नहीं लिख रही। मेरे दिमाग़ में इस वक़्त...”

“कम-से-कम सात कहानियों के प्लाट हैं।”

“तीन कहानियों के प्लाट हैं...ऐं...क्या कहा तुमने...अब मेरा मज़ाक उड़ाते हो न...मेरे साथ हमेशा तुम्हारा यही सलूक रहेगा-” और वह रोने लगती है।

घर से जाकर गर्मी में जिस्म टूटने लगा। लौटते में काफी सिरदर्द था।

आकर खाना खाया। खाना खाते हुए आर्थिक परेशानी का जिक्र किया तो गुमसुम-सी हो रही। बोली, “एक मेरी कहानी अभी पढ़ लोगे?” जैसे कि कहानी पढऩा आर्थिक समस्या का हल हो।

रात को चिट्ठियाँ लिखने बैठा, चौकी पर पास बैठकर ऊपर झुकी रही। पूछती रही, “अब कैसी तबीयत है?”

कुछ चिट्ठियाँ छाँटकर फाइलों में रखने को दीं, तो अनमनी-सी फाइलों के पास चली गयी। फिर चिट्ठियों का पुलन्दा एक तरफ रखकर फर्श पर लेट गयी। थोड़ी देर में मैं बाहर होकर आया, तो बोली, “राकेश, तुम मुझे बम्बई भेज दो।”

उसके बाद माथे पर त्योरियाँ डाले कुछ देर लगातार बोलती रही कि किस तरह उसका यहाँ होना मेरे काम में बाधा डालता है-कि आर्थिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए उसका मुझसे दूर रहना ही ठीक है।

एक साँस में बोली, “तो मैं कल बम्बई जा रही हूँ” और दूसरी साँस में, “क्या मदन से कहकर तुम मुझे अभी इंटर की क्वालिफिकेशन के बेसिस पर कोई नौकरी नहीं दिलवा सकते?”

“तुम बम्बई जाना चाहती हो या नौकरी करना चाहती हो?”

इस पर उसकी त्योरियाँ गहरी हो गयीं और वह फिर कुछ देर लगातार अपनी परेशानी की बात करती रही-कि उसके मन पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है-कि आखिर मेरे काम न करने के लिए उसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा-कि अभी वह बाईस साल की नहीं हुई, इतनी लम्बी उम्र किस तरह कटेगी-कि दो-एक साल में मन पक्का करके वह मेरे साथ केवल 'इमोशनल' सम्बन्ध रखेगी, शारीरिक सम्बन्ध बिल्कुल खत्म कर देगी...।


28.6.1964

रात (या सुबह) साढ़े तीन-चार तक बात का सिलसिला चलता रहा।

ग्यारह से बारह के बीच अपनी तैयारी करती रही। बारह बजे बोली कि गाड़ी आनेवाली होगी, अभी चले चलें। मैंने कहा अभी रुको, मैं नहा लूँ, फिर खाना खाकर एक बजे तक चलते हैं। मैं नहा लिया तो खाना लेकर आ गयी। खाना खाकर मैंने कहा कि टैक्सी लाने से पहले मैं कमलेश्वर को बुलाता हूँ, उससे नमस्कार-अमस्कार कर लो। कमलेश्वर आया, तो पहले दो-चार मिनट उससे बोली नहीं, फिर रोती हुई पास आकर बैठ गयी।

“क्या बात है?” कमलेश्वर ने पूछा।

“कुछ नहीं, बम्बई जा रही हूँ,” और सारा चेहरा उसका आँसुओं से भीग गया।

“अपनी मर्ज़ी से ही जा रही हो न?” कमलेश्वर ने पूछा।

इस पर फूट पड़ी। “ये मेरी वजह से काम नहीं कर पाते। यूँ वजह चाहे आने-जानेवालों की हो, पर बात मेरे सिर पर ही आती है। सो मैं जा रही हूँ। देखूँगी, मेरे पीछे कितना काम करते हैं।”

बात खुलने लगी, तो खुलती गयी। कमलेश्वर चुप बैठा सुनता रहा। दो-चार बार मैंने बात काटकर रोकने की कोशिश की भी पर रुकी नहीं। “मेरी नेचर ही ऐसी है तो मैं क्या करूँ। मैं बहुतेरा अपने पर कंट्रोल करती हूँ, पर नहीं कर पाती। बात दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जाती है। आपको नहीं पता, कैसे-कैसे क्राइसिस में से हम लोग गुज़रे हैं। पहले तो ऐसी-ऐसी स्थितियाँ आया करती थीं कि बस...। मैंने अपने को कितना ही डेवेलप पहले से किया है, पर जो नहीं हो पाता, उसके लिए क्या करूँ? मैंने सुबह कहा इनसे कि मुझे मत भेजो, मैं मर जाऊँगी। मेरे लिए वहाँ एक-एक साँस लेना असम्भव होगा। पर इन्होंने डाँट दिया कि बार-बार नए-नए प्रोग्राम क्यों बनाती हो? अब इसी लिए मैं जा रही हूँ।”

“तुम अपने मन में क्या चाहती हो?” कमलेश्वर ने पूछा।

“अपने मन से अब जाना ही चाहती हूँ।” और फिर रोने लगी।

मैंने फिर समझाना चाहा कि अब आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि और रिस्क हम नहीं उठा सकते, तुम अपनी ही नहीं, मेरी भी तो स्थिति देखो। मुझे दोहरी परेशानी है-पूरे साल भर से चल रही है। एक तरफ तो पैसा नहीं है, उधार चढ़ता जाता है। दूसरी तरफ कुछ लिख-पढ़ न पाने से वैसे भी अपने में व्यर्थता-सी लगती है। अगर बीच में दो-एक महीने हम एक-दूसरे को ब्रेक दें, तो उससे हम लोगों के लिए अच्छा ही रहेगा।”

“इस ब्रेक से मैं तो बिल्कुल ब्रेक कर जाऊँगी,” वह बोली, “पर मैं कुछ कहती नहीं। आप चाहते हैं चली जाऊँ, तो चली जाती हूँ।”

फिर समझाया कि 'इमोशन' पर काबू पाना कई बार कर्तव्य हो जाता है। कमलेश्वर ने भी समझाया। बोला, “जाओ, टैक्सी ले आओ।”

“मैं अभी टैक्सी लेकर आता हूँ,” कहकर मैं उठ खड़ा हुआ। पीछे से कमलेश्वर भी आ गया।

टैक्सी आयी, तो उसमें भी रोती हुई सवार हुई। सबको ऐसे हाथ जोड़े जैसे क्रास पर लटकने जा रही हो। रास्ते में मेरा हाथ हाथ में ले लिया। स्टेशन के पास पहुँचकर बताने लगी कि दवाई की शीशी कहाँ रखी है और-और क्या-क्या कहाँ-कहाँ पर है। आँखों में रुके हुए आँसू बार-बार नीचे ढुलक आना चाहते हैं।

स्टेशन पर उतरकर देखा कि जिस डायरी में रुपये रखे थे, वह घर पर ही भूल आया हूँ। कुल दस रुपये जेब में थे। गाड़ी के छूटने में सिर्फ़ पौन घंटा रहता था। लाचार दूसरी टैक्सी पकडक़र वापस चले आना पड़ा-यह सोचकर कि अब तो रात की गाड़ी से ही जाना हो सकता है।

शाम को जाकर उसकी सीट पठानकोट एक्सप्रेस में बुक करा आया। उससे पहले काफी देर उसे भाषण दिया-बचकाना हरकतें छोडक़र एक गम्भीर स्तर पर मन को लाने के लिए। कुछ देर रुआँसी रही, फिर हारे-से भाव से माफी माँगने लगी। मैं गुस्से में बोलने लगा, तो बोलता ही गया। लम्बा भाषण दिया कि उसका सारा attitude है-I versus the world, कि उसे अपने करने, होने, सहने, न सह पाने का ही अहसास रहता है-सारे पविार को एक इकाई के रूप में लेकर वह 'हम' में नहीं जी सकती। और भी जो-जो बातें मन में आयीं, कहता गया। वह कुछ नहीं बोली। बाँहों में सिर डालकर पड़ी रही। कुछ देर बाद उठ आयी। “देखना, इस बार वहाँ से पूरी तरह बदलकर आऊँगी,” हल्के से कन्धे पर सिर रखकर बोली, “जैसी तुम चाहते हो न, बड़ी और गम्भीर-वैसी ही बनकर आऊँगी। आज तक के लिए तुम माफ कर दो। कर दिया है न माफ?”

मन उमड़ आया, तो उसके सिर को सहलाता रहा। “अच्छा ठीक है, अब ये बातें छोड़ दो। अगर सचमुच अपनी बात साबित करना चाहती हो, तो वहाँ जाकर ठीक से पढ़ो और सितम्बर में परीक्षा दो।”

“जरूर पढ़ूँगी। ज़रूर परीक्षा दूँगी। माफ तुमने कर दिया है न?”

“कर दिया है।”

“भाई को अच्छी-सी चिट्ठी लिखोगे?”

“लिख दूँगा।”

“भाभी को भी।”

“उन्हें भी।”

“और देखो-इक्कीस को वर्षगाँठ के दिन ज़रूर आ जाना।”

“अच्छा।”

“ज़रूर!'

“कह दिया है न।”

“देख लेना, इस बार मैं वहाँ से कितनी अच्छी होकर आऊँगी।”

टिकट ले आने के बाद भी इसी तरह की बातें करती रही। आठ बजे खाना खा लिया। साढ़े आठ पर टैक्सी मँगवा ली। अम्माँ ने कहा, वे भी साथ चलेंगी।

स्टेशन पर टहलते और बातें करते रहे। रोने से मना किया था, सो अन्दर से रुआँसी होकर भी ऊपर से संयत रही। बताती रही कि रूमालों से लेकर चिट्ठियों तक कौन-सी चीज़ कहाँ रख आयी है। वही एक बात कई-कई बार। यह भी कहती रही कि सिगरेट कम पीना। आँखों से, होंठों से, बातचीत से लग रहा था जैसे यह लडक़ी लडक़ी न होकर पतली-सी खाल में भरी कोई भावना हो-एकान्तिक भावना जो कि एक व्यक्ति के समूचे अस्तित्व को काटकर, आप्लावित करके, यहाँ तक कि तहस-नहस करके, स्वयं भी तहस-नहस हो जाना चाहती हो। उस समय उसके पहले के कहे शब्द मुझे याद आते रहे-”क्या किसी तरह मैं पूरी की पूरी'फिजिकली' तुम्हारे अन्दर नहीं समा सकती?”

और लग रहा था कि उसके शरीर को अगर कहीं से भी नाखून से कुरेद दूँ, तो वह वहीं से जेलीफिश की तरह टूट जाएगी और पलों में बहकर अदृश्य हो जाएगी।

गाड़ी चलने से कुछ पहले अन्दर जाकर अपनी खिडक़ी की सीट के पास बैठ गयी-मेरे कहने से। गाड़ी ने सीटी दी, तो देर तक हाथ दबाए रही। गाड़ी चली, तो दूर तक हाथ हिलाती रही। पर अचानक गाड़ी रुक गयी। किसी का बच्चा नीचे रह गया था।

जल्दी से पास पहुँचे, तो फिर हाथ पकडक़र बोली, “देखा, मैंने गाड़ी रोक दी है।”

गाड़ी दोबारा चली, तो बोली, “अच्छा अम्माँ, अब नहीं रोकूँगी।”

फिर हाथ हिलाते-हिलाते गाड़ी दूर निकल गयी।

लौटते में बिना बात के अम्माँ पर गुस्सा हो आया। रास्ता भर 'शाउट' करता रहा।

2.7.64

सिनेमा हाउस में बैठे-बैठे सोचा कि एक उपन्यास लिखना चाहिए-दिल्ली की ज़िन्दगी के 'स्पाट नोट्स' के रूप में। ऐसा कि जिसमें ज़िन्दगी के कच्चे रेशे ही हों, कहानी न हो। इससे ज़्यादा कुछ नहीं सोच सका क्योंकि गर्मी बहुत थी।

अब रात हो गयी है। मतलब अकेले सोने का वक़्त आ गया है। कितनी खोखली ज़िन्दगी होती अगर पिछले चौदह महीने इसी अकेलेपन में काटे होते।

मगर जब वह आ जाएगी, तो दूसरी तरह से कोफ्त हुआ करेगी। न इस तरह चैन है, न उस तरह।

7.8.64

रमेश पाल अपनी जगह परेशान है। रेडियो की नौकरी को लात मारने के बाद आज इज़्ज़त के साथ उस ज़िन्दगी में लौटना उसके लिए मुश्किल हो रहा है। टेलीविज़न की नौकरी के लिए एप्लाई नहीं किया-चाची से हुई बातचीत ने हौसला तोड़ दिया। संगीत-नाटक अकादमी वाली जगह के लिए डॉ. मेनन ने निरुत्साहित कर दिया। अब दिल्ली नाट्य संघ के अन्तर्गत नाट्य अकादमी के प्रिंसिपल की जगह के लिए कोशिश कर रहा है। कल इंटरव्यू है। शाम तक पता चलेगा।

...न जाने क्यों एक बेगानेपन का अहसास उसे होने लगा है। कुछ-कुछ मुझे भी होता है। उसके जिस आत्मविश्वास के लिए मन में बहुत कद्र थी, उसमें अब एक खोखलेपन का अहसास होता है। जब वह इस तरह की बात करता है-'डॉ. ...ने अपनी भूमिका में मेरा ज़िक्र किया है'-तो बात ही नहीं, वह खुद भी छोटा लगता है।

रवीन्द्र कालिया ने मार्कंडेय का पत्र दिखाया। पत्र से लगा कि वह आदमी अस्तित्व के लिए छटपटा रहा है। अपने पर ओढ़े एक बोझ के नीचे स्वयं दब गया है। जैसे-कैसे अपने को जस्टीफाई करना चाहता है। पत्र कमलेश्वर ने भी पढ़ा। मज़ाक होता रहा, जैसे कि पत्र की जगह स्वयं पत्र-लेखक सामने हो।

गोपाल मित्तल के मिलने और हाथ मिलाने में एक अधिकार भावना होती है। पर उससे बीच की दूरी कम नहीं होती। लगता है, एक चौड़ी सडक़ के दो फुटपाथों से दो आदमी एक-दूसरे की तरफ हाथ बढ़ा रहे हैं।

महेन्द्र भल्ला, प्रबोध और अशोक सेक्सरिया साथ-साथ थे। अक्सर साथ-साथ होते हैं। टापिक प्राय: एक ही होता है-श्रीकांत वर्मा। उसी की निन्दा-प्रशंसा करते हैं। अक्सर निन्दा। विषय बदलने के लिए निर्मल का ज़िक्र कर लेते हैं। यही दो पोल हैं जिनके इर्द-गिर्द उनकी बातचीत घूमती है। उसी में से ह्यूमर पैदा होता है, उसी से साहित्य चर्चा का दायित्व पूरा होता है। उनके लिए साहित्यिक दुनिया श्रीकांत वर्मा से शुरू होती है, निर्मल वर्मा पर समाप्त हो जाती है। बीच के कुछ मुकाम हैं-रामकुमार, विजय चौहान,मुक्तिबोध, शमशेर, नामवर सिंह। नामवर के ज़िक्र से गाली देने का शौक पूरा हो जाता है। नगेन्द्र-जैनेन्द्र से राकेश-कमलेश्वर तक का उल्लेख इतिहास-बोध के सिलसिले में होता है। कभी-कभी नेमि, सुरेश और नरेश मेहता का। उदार-भावना भीष्म साहनी और कृष्ण बलदेव वैद के ज़िक्र से सन्तुष्ट होती है। और लोगों का ज़िक्र उन्हें सम्मानघातक लगता है। कभी-कभी करना पड़ जाता है, फिर भी। नीचे झुककर सडक़ पर पड़ा पैसे का सिक्का उठाने की तरह।

मुद्रा, रवीन्द्र जिमनेज़ियम के नए पहलवान हैं। हर वक़्त पोल वाल्ट करते हैं। और नहीं तो हाट-स्टेप-जप्म का ही अभ्यास करते हैं। गनीमत है कि दोनों हँसना जानते हैं।

मन्नू नए घर में खुश नज़र नहीं आयी। वह खुद उखड़ी-उखड़ी-सी थी, इसलिए सभी कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा लगा। कह रही थी कि न उसे दिल्ली शहर पसन्द आ रहा है, न दिल्ली का कॉलेज। टिंकू खेल रही थी। कुसुमजी देख रही थीं, सुन रही थीं। 'पैसा नहीं है'-राजेन्द्र के जीवन-संगीत का यह स्थाई पहलू मन्नू ने भी पिक-अप कर लिया है।

15.8.64

रवीन्द्र कालिया, घर पर। यहाँ, 8ए/54, डब्ल्यू.ई.ए. में।

काम करते-करते हाथ रोककर उससे बात करने के लिए उठ गया। वह अपना वक्तव्य लेकर आया था-'नई कहानियाँ' के स्तम्भ 'नई कहानी : कुछ और हस्ताक्षर' के लिए।

वक्तव्य में शब्द चयन अच्छा था। पर बात वही-किताबों के तहखाने से नए-नए निकलकर आये मौलवियों जैसी। हवाला दूसरों का, इसका, उसका। कि कहानी मर चुकी-दुनिया भर में। जो लिख रहे हैं, झख मार रहे हैं। कि जो लिखी जानी चाहिए वह कहानी नहीं होगी। इत्यादि, इत्यादि।

दो घंटे की माथापच्ची। वेल्यूज़ को लेकर। कहानियों और कहानीकारों को लेकर। कहता रहा कि वह कुछ कहानीकारों की बहुत कद्र करता है। उनकी कृतियों का बहुत मूल्य समझता है। मगर लिख नहीं सकता क्योंकि लोग उसे चापलूसी समझेंगे। इसके बावजूद इंटेग्रिटी की बात करता रहा। बोला कि अश्क ने उसकी पहली तीन पंक्तियाँ इस्तेमाल करके और बाकी का हिस्सा छोडक़र उसके साथ बे-इन्साफी की है। 'यह सरासर बेईमानी है।' कुछ हिस्सों के बारे में कहता रहा, 'मेरा इससे यह मतलब नहीं, मतलब इससे बिल्कुल उलटा है। फिर बोला, 'मैंने तो आपकी ही बात का समर्थन किया है!' बहुत मासूमियत से।

कमलेश्वर कहता है कि यह लडक़ा बहुत 'चालाकी' दे रहा है। हर ग्रुप से हॉब-नॉब करता है और हर जगह दूसरों के खिलाफ बात करता है। मज़ाक उड़ाता है। लिखते वक़्त प्रिटेंशन्ज ओढ़ लेता है।

उससे यह सब कह भी दिया। वह रुआँसी शक्ल बनाए बात करता रहा। कहता रहा, “मेरा ऐसा मकसद कभी नहीं होता। मैं ईमानदारी से जो महसूस करता हूँ, वही कह देता हूँ।”

कहा कि उसे ईमानदारी से और खुलकर ही बात करनी चाहिए। समझौता नहीं करना चाहिए। किसी भी उपलब्धि के लिए नहीं। किसी के असर में नहीं आना चाहिए। न मेरे, न किसी और के।

जाते वक़्त वह डिस्टब्र्ड था। मगर जो मन में था, न कहता, तो मैं डिस्टर्ब्ड रहता।

करोलबाग। अजमलखाँ रोड पर छुट्टी के दिन की शाम। फुटपाथ मार्केट। ग़लत नहीं कहते लोग कि अब भी यह शहर एक बड़ा-सा गाँव है। यह करोलबाग खासतौर से। नीलाम से लाटरी तक। झूले से लेकर वजन तोलने की मशीन तक। हर चीज़ हाजिर। पगड़ी से पाजामे तक। देसी जूती से पेशावरी चप्पल तक! हर शख्स हाजिर। कन्धेबाजी का स्वर्ग।

आइडेंटिफिकेशन-अपने काम के साथ। और कुछ भी अच्छा नहीं लगता। घूमना-फिरना, मजलिसें लगाना। मन झट वहाँ से उचाट हो जाता है। काम में लगा रहूँ, तो न थकान होती है, न मन उचाट होता है।

मासूमियत और धूर्तता के बीच कभी-कभी बहुत सूक्ष्म रेखा होती है जिसे आदमी पकडक़र भी पकड़ नहीं पाता। कहीं समझ में आ जाता है कि यह ऐसे है-फिर भी आदमी दूसरे को 'बेनीफिट ऑफ डाउट' दिए जाता है। परिणाम आखिर वही निकलता है जिसकी कि उम्मीद होती है। मगर यह मीठा धोखा खाने का खेल वह फिर-फिर खेलता जाता है। शायद इससे भी अपने अन्दर की ही कोई ज़रूरत पूरी होती है।

16.8.64

सुबह-सुबह भीष्म साहनी। अनुवाद के लिए कहानी लेने। देर तक बातचीत। विषय : 'समकालीन सामाजिक और साहित्यिक सन्दर्भ में लेखक का विचाराभिव्यक्ति का दायित्व'। भीष्म के चेहरे और बातचीत में आज भी वह सहजता है जो 22-24 की उम्र के बाद नहीं रहती। विश्वास नहीं होता कि यह आदमी अगले साल पचास साल का हो जाएगा।

भीष्म कहता रहा कि 'मनीषा' गोष्ठी की गन्दगी देखने के बाद कुछ कहने-लिखने को मन नहीं होता। कि वह अपने में कहीं कन्फ्यूज्ड महसूस करता है। कि उसने सब लेखकों को पूरा पढ़ा नहीं है।

बात चलती रही। जीवन-सन्दर्भों से टूटे हुए लेखन को लेकर। इंडो-यूरोपियन तथा इंडो-अमेरिकन आदान-प्रदान की कहानियों को लेकर। स्थान-लन्दन, न्यूयार्क, बर्लिन, पेरिस-या अनिश्चित। एक कमरा-होस्टल, क्लब या रेस्तराँ का। नाच, सैर, बातचीत। शारीरिक कसाव। मानसिक अजनबीपन। परिणति-टेंशन या रिलीज़ में। टेंशन में कटुता। रिलीज़ में वितृष्णा।

हिंदुस्तानी पात्र-अपने माँ-बाप, बहन-भाई बहुत छोटे पड़ते हैं इन साफ़िस्टिकेटिड पाइंट्स के लिए। जिन सन्दर्भों से निकलकर विदेश गये हैं, उन्हें स्वीकार करते शरम आती है। इनका अजनबीपन फ़कत विदेशी होने का अजनबीपन है। या वह कुछ जो अजनबी दर्शन के बारे में पढ़ा है।

भीष्म कुछ उत्साहित हुआ कि वह अब लिखेगा। कि अपने को व्यक्त करना-इन सभी विषयों पर लेखकीय दायित्व की अनिवार्य शर्त है। बोला, 'मनीषा'-गोष्ठी के बाद एक लेख लिखना शुरू किया था, पर वह बीच में ही रह गया। पूरा नहीं किया। अब पूरा करूँगा।”

कुछ दोस्तों पर उसने दबे-दबे रायज़नी भी की। पर एहतियात रखते हुए कि बात का कहीं ग़लत इस्तेमाल न हो। साथ ही भलमनसाहत का तकाज़ा कायम रखते हुए। एकाध को छोडक़र औरों के नाम लेने में हिचकिचाते हुए।

टी-हाउस। मेज़ के इर्द-गिर्द चार आदमी। चौधरी, कश्यप और दो अपरिचित। अपरिचितों में से एक आँखें आधी-आधी भींचता हुआ कह रहा है,...'बेचकर तो दिखाएँ एक गाड़ी भी। एक दिन दो गाड़ी अनाज मँगवा लें और बेचकर दिखाएँ। मैंने कहा नन्दाजी से कि भाई हम तो हैं ही ऐसे-हमारा तो काम ही है हेरफेर करना। चोरी-चकारी हम नहीं कर सकते, डाका हम नहीं डाल सकते, किसी औरत पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने का हौसला हममें नहीं-हम लोग बनिए की जात, कलम की हेरफेर ही तो कर सकते हैं। तुम लाओ अनाज...हमसे एक आना कम में बेचो, तो ग्राहक तुमसे ही खरीदेगा। उसे जो सस्ता देगा, उसी से तो वह लेगा। आओ तुम मार्केट में हमारे कम्पीटीशन में। आते क्यों नहीं?

'कीमत गिरेंगी-गिर सकती हैं-अगर तुम्हारे अपने आदमी करोड़ों के सौदे न कर रहे हों। तुमने कैरों को पकड़ा-वह तो छोटी-मोटी हेरफेर ही कर रहा था। सत्तर-अस्सी लाख की हेरफेर भी कोई चीज़ है और वह मारा गया अपने लडक़ों की गुंडागर्दी की वजह से। वरना तुम बिज्जू पटनायक को क्यों नहीं हाथ लगाते?उसे जिसने पचास करोड़ की हेरफेर की है? वह तो साफ कहता है कि पचास लाख खर्च करके मैं चीफ मिनिस्टर हो गया। प्राइम मिनिस्टर बनने में कितना लगेगा? ज्यादा से ज्यादा दो करोड़?

'और कुम्भन दास (?) राजस्थान का। उसने गुड़ में पचास लाख बना लिया है और मूँछों पर हाथ फेरता बैठा है। गुंडागर्दी वह करता है, लोगों की लड़कियाँ वह उठवाता है, डाके वह डलवाता है, यहाँ तक कि चीफ मिनिस्टर के लडक़े को ही अगवा करवा दिया और तीन लाख वसूल करके वापस छोड़ा...राजस्थान की विधान सभा की चाबी उसके हाथ में है। जिसे चाहे बनाए, जिसे चाहे बिगाड़े-उसको तुम छू भी सकते हो? बनाने को कमेटियाँ तुम चाहे कितनी बना लो-स्टेटमेंट चाहे कितने दे दो-कीमतें क्या कमेटियाँ और स्टेटमेंटों से गिरती हैं? अनाज क्या काग़ज़ों और भाषणों से पैदा होता है? हम तो कहते हैं कि हम रखते हैं अपने गोदामों में, बनिए हैं, इसलिए नफे पर बेचते हैं, तुम आओ भरे बाज़ार में बनिए बनकर और हमारे कम्पीटीशन में बेचो।

'ये लोग चिल्लाते हैं को-आपरेअिव, को-आपरेटिव। यही साझेदारी की भावना है लोगों में जो को-आपरेटिव कामयाब होंगे? को-आपरेटिव बनते हैं दस दिन मुनाफा कमाने के लिए-उस वक़्त जब किसी चीज़ की किल्लत होती है। माल बाज़ार में आते ही को-आपरेटिव नदारद हो जाते हैं। यह है तुम्हारी को-आपरेटिव योजना। कि जो चीज़ प्राइवेट व्यापारी छ: रुपये क्विंटल ढोकर यहाँ से महाराष्ट्र पहुँचा सकते हैं,उसके लिए तुम किसी अपने गुरगे के को-आपरेटिव को ओबलाइज करने के लिए चौदह रुपये क्विंटल में ठेका दे देते हो?

'यह मुल्क है जहाँ गन्दम और चावल तक लोगों को आसानी से मयस्सर नहीं, उस दिन एक अमरीकन कह रहा था कि चिकन को तो वे लोग रफ फूड समझते हैं। कहते हैं अंडा-मुर्गा भी कोई खाने की चीज़ है? एक डबलरोटी के बराबर वहाँ एक मुर्गे की कीमत होती है। वे खाते हैं स्टीक जिसमें अच्छी गिज़ा की सभी खासियतें मिली रहती हैं, जो कि प्योर और मेडिकेटिड फूड होता है। वहाँ भी है को-आपरेटिव मगर किस काम के लिए? फसलों को कीड़े से, चिडिय़ों से बचाने के लिए। ज़रूरत हुई, तो हज़ारों मीलों में को-आपरेटिव से दवाइयाँ छिडक़वा लीं, बुलडोज़र मँगवाकर मीलों में जमी बर्फ तुड़वा ली कि वह पिघलकर सिंचाई के लिए पानी बन जाए। को-आपरेटिव की भी एक मोरेलिटी होती है। यहाँ है कोई भी मोरेलिटी तुम लोगों में-सिवाय इसके कि अगली इलेक्शन के लिए जो दस-बीस-पचास लाख रुपया चाहिए, वह कैसे और किससे हासिल करो?”

टी हाउस के बाहर पेड़ के इर्द-गिर्द बूट पालिश के बक्सों का ढेर-जंजीरों से बँधा हुआ।

चौधरी कहता है, “लगता है जैसे, यहाँ किसी बूट फकीर का थान हो।...वह है न मटकेशाह का थान-नुमायश ग्राउंड और सुन्दर नगर के बीच जहाँ लोगों को मानता मानने से पहले मटके चढ़ाने पड़ते हैं। इधर-उधर, पेड़ों और दीवारों पर मटके ही मटके लटके नज़र आते हैं।”

तभी कोई लडक़ा आकर 'ईवनिंग न्यूज' हाथ में देता है। 'श्री शास्त्री के खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव पेश होने की सम्भावना। कांग्रेसियों के मन में भी असन्तोष की लहर।”

स्नैक बार में सरदार के साथ बैठी हुई लडक़ी। दोनों कुछ आर्डर नहीं देते। कोई बैरा भी उनके पास नहीं जाता। आपस में वे बात भी नहीं करते। लडक़ी बस शरमाती-मुस्कराती आँखों से इधर-उधर देखती जाती है।

सरदार उठकर कुछ देर के लिए बाहर चला जाता है। लडक़ी उसी तरह देखती बैठी रहती है। सरदार लौट आता है। कुछ देर में वह अचानक उठ पड़ता है। लडक़ी भी उठ पड़ती है और दोनों स्नैकबार से बाहर चले जाते हैं। चौधरी की आवाज़ जो कुछ देर खोई रही थी, अचानक फिर सुनाई देने लगती है,...”हाँ, यही तो बात है। राजेन्द्र से मैंने यही कहा कि अगर सचमुच तुम महसूस करते हो कि तुम लोगों के सोच-विचार की ज़मीन एक नहीं है, तो ईमानदारी का तकाजा यही है कि अपनी दोस्ती कायम रखो और साहित्यिक स्तर पर अपनी-अपनी ज़मीन पर खड़े होकर बात करो।”

टी हाउस। कुछ बौखलाई हुई नज़रें। कुछ घूरती हुई आँखें। कुछ चुभती हुई बातें। रुके-रुके कहकहे। कुछ दबे-दबे इशारे। एक का बेतकल्लुफी से हाथ मिलाना। दूसरे का त्योरी डालकर बाँहें सिकोड़ लेना। किसी का कन्धे हिलाना। 'हमारी तो समझ में नहीं आता साहब कि आजकल लोग एक-दूसरे से इतने जले-भुने क्यों रहते हैं? फिर भी इतने हिलमिलकर कैसे बैठते हैं।'

इसमें क्या सार्थकता है कि आदमी एक ही जिये हुए दिन को बार-बार जिये : फिर-फिर से उसी तरह, उसी क्रम से और उसी दायरे में। वही बातें करे-या वे नहीं तो वैसी ही। उसी तरह हँसे। उसी तरह हैरानी जाहिर करे। उसी तरह बैठे। उसी तरह उठे। और उसी तरह मुँह उठाए। कल की तरह आज भी बस के क्यू में आ खड़ा हो?

एक घटनाहीन घटना अपने अन्दर घटित होती रहती है-घटनाहीन नहीं, क्रियाहीन। वह जो मन को,मनन को, ग्रहणहीन अनुभूति को एक प्रलक्षित क्रम से तोडक़र फिर-फिर से बनाती चलती है। हर आज, हर बीते कल का परिणाम होता है, उसका नया, बदला हुआ संस्करण, उससे समृद्ध और परिष्कृत। पर यह घटना क्या सभी के अन्दर घटित होती है? होती हो, तो क्यों फिर...?

पता है कि बहुत छोटी-सी बात है। बहुत साधारण। एक स्वाभाविक तनाव होता है स्नायुओं का जो नर और मादा मांसपिंडों को आपस में लिपटा देता है। एक-दूसरे में खो जाने, डूब जाने के लिए मजबूर कर देता है। सारी प्रक्रिया में एक मशीनीपन नज़र आता है। जैसे कि एक के बाद एक पुर्जा अपने वक़्त पर स्टार्ट होता जाता हो। मशीन एक खास रफ्तार पकडऩे के बाद एक परिणाम पर पहुँचकर रुक जाती हो-तारघर में लगे टेबुलेटर की तरह। सब ठीक है, फिर भी उन क्षणों में जो विवशता, जो विस्मृति, जो अवसन्नता होती है, वह क्या है? उसमें चाहे क्षण भर को ही सही, एक दिशा और काल निरपेक्ष अनुभूति का स्पर्श क्यों होता है? क्यों उस हूँ-हाँ और चिपचिपाहट के बीच भी कहीं वह मुकाम आ जाता है जहाँ लगता है कि सामने आकाश रूप सार्वकालिकता है और हम उसे अपने सिर की ठोकर से तोडक़र उसकी आखिरी तह तक पहुँच जाने को हैं? और वह अनुभूति चेतना में जाग्रत होने से पहले ही विलीन क्यों हो चुकी होती है? उसके बाद शेष होती है चिपचिपाहट से शीघ्रातिशीघ्र मुक्ति पाने की कामना। हाथ कपड़ों को ढूँढ़ते हैं-नंगेपन में अपना आप जानवर जैसा लगता है।...मगर वह जानवर का-सा नंगापन भी तो किसी-किसी स्थिति में अद्भुत होता है।

21.8.64

अट्ठाइस को पहले कॉफी हाउस। सुदेश (नहीं, स्वदेश कुमार) और वेद व्यास। सन्तोष नौटियाल। 'चाय पार्टियाँ' नाटक। डी.ए.वी. में रीडिंग है।

स्वदेश का एक ही विषय है-विश्वनाथ। नौकरी करता था, तब भी वही था, अब भी वही है। अब कहता है कि उस आदमी की नौकरी छोडऩे (मतलब छुड़ाये जाने) से ही स्वास्थ्य सुधर गया है।

बोला, “एक कहानी लिख रहा हूँ। अभी पूरी नहीं कर पाया क्योंकि समझ नहीं पा रहा कि वह नई कहानी है या पुरानी।”

टी हाउस में रवीन्द्र कालिया और लक्ष्मीनारायण लाल। फिर एक के बाद एक- कुलभूषण, रमेश गौड़,राजेन्द्र अवस्थी और पाँच अदद और। रमेश गौड़ अश्क की किताब 'कहानियाँ और फैशन' का ज़िक्र करते हुए कहता है, साहब इधर एक किताब आयी है। उसका नुस्खा सुनिए। पहले एक जमूरा घंटी बजाता हुआ आता है और मजमा इकट्ठा करता है-'मेरा उस्ताद, उस्तादों का उस्ताद, उनका भी उस्ताद।'

फिर उस्ताद आता है और जमूरे का परिचय देता है 'यह जमूरा, मेरा नहीं, मैं इसका नहीं, जो है सब खुदा का है। तो साहबान, अब खुदा को हाजिर-नाज़िर जानकर जो कुछ मुझे कहना है, वह इस जमूरे की ज़बान से सुनिए...।'

जमूरे, तेरा नाम?

सुरेश सिन्हा।

काम?

डॉक्टरी।

पेशा?

जी हजूरी।

शहर का नाम?

इलाहाबाद।

इरादा!

नेक।

फिर भी।

मजमे में नाम पाना।

तो जिस बात को मैं सच कहूँ, उसी को सच बताएगा।

बताऊँगा।

जो बात जबान पर लाऊँ, उसे मजमे में फैलाएगा?

फैलाऊँगा।

चार बार दिल्ली जाएगा।

जाऊँगा।

तो लेट जा चादर ओढक़र।

(जमूरा लेट जाता है चादर ओढक़र।)

अब तेरे ऊपर कलमा पढ़ूँ?

पढ़ो।

जब तक मैं न कहूँ, तब तक आँखें तो नहीं खोलेगा?

नहीं खोलूँगा।

और जो कुछ भी मैं कहूँ, उस पर पूरा यकीन लाएगा?

लाऊँगा।

जो कुछ न कहूँ, वह खुद बताएगा।

बताऊँगा।

तो आ, और बता कि इनमें सचेतन कहानीकार कौन-कौन हैं...।

भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, लक्ष्मीनारायण लाल कॉफी हाउस में। हल्की-फुल्की बातचीत। बेमतलब की।

राजकमल में मुलाकात श्री राजकुमार से। बातचीत 'अम्बर' में। विषय-दीदी का ऑपरेशन। विषयान्तर-व्यंग्य।

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का दीक्षान्त समारोह। भाषण श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा, अध्यक्षा, का। शब्द बेढब-चालीसवें साल की गोलाइयों की तरह। ब्लाउज़ ब्रेसियर, दो साइज़ छोटे। दस साल के रिट्रोस्पेक्ट में लडक़ी खूबसूरत। बिल्कुल डिप्टी मिनिस्टर या फिल्म हीरोइन होने के लायक! आज-

नाटक 'द फादर' (स्टिंबर्ग) का हिंदी (?) रूपान्तर। भाषा बेढब। उठान, लाउड। इंटरप्रेटेशन-जर्की। तकनीकी पहलू, पालूटेड। नख से शिख तक दुरुस्त-चुस्त। क्लाइमेक्स-ढीला।

डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल। वहाँ से साथ टी हाउस। टी हाउस में निर्मल, प्रबोध, कमलेश। हमारे आने पर वे उठकर चले गये।

डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल साथ घर। उनके नाटक 'दर्पन' का पहला अंक?

नाटक समर्पित-श्री नेमिचन्द्र जैन को।

पहली प्रति-भाई श्री अलकाजी को।

उनकी सूचना-'इलाहाबाद से भैरव एक नई कहानी पत्रिका निकाल रहे हैं। बहुत सम्पन्न प्रकाशक की ओर से।'

बीस की सुबह। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रिसेप्शन। समोसा,पेस्ट्री, चाय। सिवाय इसके कोई तालमेल नहीं। अलकाजी-कसे हुए। माया-ढीले-ढाले। भारतभूषण के कमरे में। डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव। चुगद।

यूनाइटिड कॉफी हाउस में सुरेश, नेमि और हबीब के साथ। हबीब अलकाजी से बुरी तरह खार खाए हुए। बेतरह, बेवजह अलकाजी की निन्दा। हर बात पर। वह एक्टर बुरा है, डायरेक्टर बुरा है, प्रोड्यूसर बुरा है,स्कूल के लिए बुरा है, रंगमंच के लिए बुरा है, भाषा के लिए बुरा है, संस्कृति के लिए बुरा है।

फिर टी हाउस में। राजेन्द्र यादव, नेमि, लक्ष्मीनारायण लाल।

धर्मप्रकाश शर्मा का पालतू शायर-उसकी बेमतलब की ऊल-जलूल बातचीत।

कमलेश्वर पर हुई किराये की डिक्री को लेकर परेशानी। राजेन्द्र के और मेरे बीच। ओंप्रकाश के और मेरे बीच। गायत्री परेशान। अनीता परेशान। कमलेश्वर अलग-अलग जगह वक़्त देते हुए। हमारी दौड़-धूप। कमलेश्वर लापता है।

शाम। राजकमल में ओंप्रकाश, राजेन्द्र यादव, श्रीकांत वर्मा। श्रीकांत वर्मा के साथ 'मोना लीज़ा' में बातचीत। कृत्रिमता और प्रामाणिकता। सामाजिकता का अर्थ। महेन्द्र भल्ला की कहानी (उपन्यास-अंश)'एक पति के नोट्स'। प्रिटेंशस और जेनुइन राइटिंग। श्रीकांत वर्मा की सफाई, 'मैं आज भी मार्क्सिस्ट हूँ और ज़िन्दगी भर रहूँगा... पर मेरा मतलब तो यह है कि...।'

फुटपाथ पर राजेन्द्र से बातचीत। कमलेश्वर और ओंप्रकाश के बीच की समस्या को लेकर। डिक्री के प्रकरण में। बूँदाबाँदी। उससे घर पर देखने का निश्चय।

रात। घर पर। कमलेश्वर हँस रहा है। कहता है, सब ठीक है। सुबह पैसा वह ले आएगा। बस।...

खाना। पत्रिकाओं के बारे में बातचीत। किसे कितना सहयोग देना चाहिए।

इक्कीस की शाम। कॉफी हाउस। अशोक सेक्सरिया। विषय-'श्रीकांत ने कहा कि आपको महेन्द्र की कहानी बहुत पसन्द आयी।' लिट्रेचर इन जनरल। भाषा। इतने में राजेन्द्र यादव। प्रयाग शुक्ल। उखड़ी-उखड़ी बातचीत। 'कल्पना' कार्यालय की स्थिति। सामन्ती वातावरण।

दूसरे दौर में श्री सेंगर, मन्नू, बांटिया। विषय-वेफ़र्ज, कॉलेज, टिंकू, कॉफी, हाट डाग्ज़, रेडियो टाक्स, श्री सेंगर की ज़िम्मेदारियाँ, उनकी भौजाई, ज़िन्दगी, वेफ़र्ज, हाट डाग, कॉफी, दिल्ली में अकामोडेशन, रेडियो की पालिटिक्स, चिरंजीत गन्दा आदमी, कलकत्ते की याद...।

टी हाउस। फ्लेश लेमन सोडा। दूर से देवराज दिनेश की आँखें। फिर दिनेश उठकर उस टेबल पर। विषय-उम्र, आँखें, चश्मे का नम्बर, उर्मिल की बीमारी, डॉक्टर तिवारी...।

घर। कमलेश्वर का अब भी पता नहीं। मतलब, वह सामने नहीं गया। सुना, बारह बजे टी हाउस में था, साढ़े छ: बजे घर पर आया था।


24.8.64

बाईस को भीष्म और मिसेज़ साहनी घर पर। औपचारिक बातें। तेईस को पहले कालिया, फिर मन्नू।

कालिया ने नया वक्तव्य सुनाया। मन्नू से हँसी-मजाक चलता रहा। आज-दोपहर से नौ बजे तक आवारागर्दी।

27.8.64

स्थान-कमलेश्वर का कमरा। अवसर-बियर की तीन बोतलें। भोक्ता राकेश, कमलेश्वर। भोजन : राजेन्द्र। विषय : राजेन्द्र की बेईमानी।

विषयारम्भ : राकेश के कन्फेशन्ज़। स्थिति का विश्लेषण।

मध्य : राजेन्द्र द्वारा भलमनसाहत से कथ्य का आरम्भ। परन्तु शुरू करते ही कुंठा। फिर बेईमानी।...आखिर स्वीकृति।

अन्तत: एक लेख की योजना।

28.8.64

निर्मल रामकुमार के घर के बाहर। उनके पिताजी की मृत्यु का सोग। साहित्यिक परिवार में से सिर्फ़ तीन आदमी। भीष्म, कुलभूषण और मैं।...वीरानगी।

खामोशी का बाँध टूटा। अच्छा लगा। उदासी से निर्मल की आँखें पहले से ज़्यादा डूबी हुई लगीं। पर उनमें मस्ती नहीं थी। रामकुमार की आँखों में, चेहरे में, मुरझाव ज़्यादा था, मस्ती भी थी।

भीष्म ने बताया कि मुक्तिबोध की हालत नाजुक है।

मेडिकल इन्स्टीट्यूट। शमशेर, शमशेर सिंह नरूला, श्रीकांत। नेमि।

पता चला कि सुबह मुक्तिबोध की साँस रुक गयी थी। आर्टिफिशियल रेस्पायरेशन से ज़िन्दा रखा जा रहा है। अब किसी भी क्षण...।

बरामदा।

अपने सिवा हर एक की हँसी-मुस्कराहट अजीब लगती है। अस्वाभाविक। लगता है, मौत के साये में कैसे कोई हँस-मुस्करा सकता है। पर फिर अपने गले से भी कुछ वैसी आवाज़ सुनाई देती है।

कमलेश, अशोक वाजपेयी।

व्यस्त, जैसे कि किसी साहित्य समारोह के कार्यकर्ता हों। व्यस्त, चेहरे से।

मुक्तिबोध-रुकी-रुकी साँसें...

ऊपर से देखने में अन्तर नहीं...

लगभग वैसे ही जैसे दिल्ली आने के दिन थे।

बाहर बातचीत...

'चिता वगैरह का प्रबन्ध कैसे करना होता है?'

'भीष्म बता सकेंगे। इसके लिए हमने उन्हीं का नाम लिख रखा है।'

...मुस्कराहटें!

'कुछ महाराष्ट्रियन विधि भी तो होगी।'

'वह प्रभाकर माचवे बता देंगे।'

हँसी।

मुक्तिबोध का सबसे छोटा बच्चा-खेलता-चिल्लाता 'अंकल! अंकल।'

कुछ वाक्य :

'एक साहित्यकार की अकाल मृत्यु! कितना अनर्थ है।'

'इसके लिए एक सरकारी कोष होना चाहिए।'

'हेल्थ सर्विसिज़ फ्री होनी चाहिए।'

'हेल्थ सर्विसिज़! हा-हा!'

'या सोशलिज़्म हो, या कुछ भी न हो।'

'हम प्रजातन्त्र के लायक नहीं।'

'आजकल क्या लिख रहे हैं?'

'कितनी बड़ी पुस्तक होगी?'

... ... ...

'कब तक पूरी हो जाएगी?'

... ... ...

'नागपुर से प्लेन कितने बजे आता है?'

'भिलाई की गाड़ी को उसका कनेक्शन नहीं मिलता।'

'चलें?'

'अच्छा...!'


8.11.64

कालिया का लेख उसकी बातचीत से ज़्यादा बचकाना है...दो बार लिखे जाने पर भी उसका कोई अर्थ नहीं बना। परसों वह तीन घंटे बैठा रहा। जो बात मन में थी, उससे कह भी दी...कि आधारभूत ईमानदारी लेकर न चलने से वह साल-दो साल के लिए एक भ्रम तो पैदा कर सकता है, पर वह भ्रम जब टूटेगा, तो वह बहुत तकलीफदेह स्थिति होगी। वह कहता रहा कि अब इस तरह की स्थिति से बचकर चलना चाहता है...जब शुरू-शुरू में दिल्ली आया था, तो ज्यादा ग़ैर-ज़िम्मेदार था...अब उतना नहीं है...कि विमल जैसे व्यक्ति का उस पर कोई प्रभाव नहीं है।

जब वह मासूम बनकर बात करता है, तो मन में बहुत हमदर्दी जागती है। पर साथ ही कहीं यह भी लगता है कि उसकी मासूमियत सिर्फ़ एक लबादा है...वह हर ऐसे व्यक्ति के साथ मासूम बन जाता है जो कहीं किसी तरह का प्रभाव रखता हो...

कभी-कभी यह भी सोचता हूँ कि ऐसा सोचना मेरा कमीनापन है...वह कहीं सचमुच मुझसे 'इमोशनली अटेच्ड' है...या कम-से-कम उन दिनों की एक इज़्ज़त तो उसके मन में है ही जब डी.ए.वी. कॉलेज जालन्धर में मुझसे पढ़ता था। पर उसकी कही या लिखी हर बात का 'अंडरकरेंट' इसके विपरीत जाता है।

जुकाम, खाँसी। हल्का-सा बुख़ार। घर से बाहर वैसे ही बहुत कम निकलता हूँ...आज दिन भर मजबूरन पड़े रहना पड़ा। बिना कुछ किए-धरे। हाँ, छींकते और रूमाल खराब करते हुए कुछ चिट्ठियाँ लिख डालीं। बेमतलब की चिट्ठियों की सफाई भी कर दी।

...यह स्वीकृति कैसी है, नहीं जानता। सच, मुझे लगता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता...जो ख्याल आता है वह यही कि बहुत-सा काम अभी करने को पड़ा है। अनीता का ख्याल भी आता है। वह अभी बहुत छोटी है...उसे बीस-तीस साल की ज़िन्दगी मिलनी ही चाहिए, इतना। मगर अपनी वजह से, अपने शरीर की वजह से, डर नहीं लगता। दूसरों की तरह अपनी तरफ से भी मन काफी हद तक तटस्थ है उस दृष्टि से। हो सकता है कि यह 'स्वस्थ' दृष्टि तब तक ही हो जब तक कि स्वास्थ्य ठीक है, उसके बाद न रहे। किसी ने कहा था कि यह दृष्टि स्वस्थ नहीं है। पराजय की स्वीकृति है। मैं नहीं जानता। मुझे इस अहसास से कहीं पराजय नहीं लगती। कुछ वैसा ही लगता है जैसे क्षणभर के इरादे से एक अच्छी-खासी लगी-लगाई नौकरी छोड़ देना।