तीसरा अध्याय / बयान 10 / चंद्रकांता
सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे। स्याह पत्थर के दलान में बैठ गए और तिलिस्मी किताब खोलकर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था-
“जब तुम तहखाने में उतर धुएं से जो उसके अंदर भरा होगा दिमाग को बचाकर तारों को काट डालोगे तब उसके थोड़ी ही देर बाद कुल धुआं जाता रहेगा। स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर चौखूटे सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर पड़ता है मगर ये कुल बातें उन तारों के कटने से जाती रहेंगी क्योंकि अंदर ही अंदर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहासन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएं वाले तहखाने में जाना, धुआं बिल्कुल न पाओगे। मशाल जला लेना और बेखौफ जाकर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहां रखी हुई है। सब बाहर निकाल लो और जहां मुनासिब समझो रखो। जब तक बिल्कुल दौलत तहखाने में से निकल न जाए तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर जो चौखूटा सुर्ख पत्थर रखा है उसको भी ले जाओ। असल में वह एक छोटा-सा संदूक है जिसके भीतर बहुत-सी नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।”
कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, बाद उसके उस धुएं वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी तीनों ने मशाल बाल ली और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अंदर उसी कोठरी में गये जिसमें बहुत-सी तारें काटी थीं। इस वक्त रोशनी में मालूम हुआ कि तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं, कोठरी खूब लंबी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चांदी के बड़े-बड़े संदूक चारों तरफ पड़े हैं, एक तरफ दीवार में खूंटी के साथ तालियों का गुच्छा भी लटक रहा है।
कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं संदूकों की ये तालियां हैं। एक संदूक को खोलकर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरंत बंद कर दिया और दूसरे संदूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नजर आये। कुमार ने उसे भी बंद कर दिया और बहुत खुश होकर तेजसिंह से कहा-
“बेशक इस कोठरी में बड़ा भारी खजाना है। अब इसको यहां खोलकर देखने की कोई जरूरत नहीं, इन संदूकों को बाहर निकलवाओ, एक-एक करके देखते और नौगढ़ भेजवाते जायेंगे। जहां तक हो जल्दी इन सबों को उठवाना चाहिए।”
तेजसिंह ने जवाब दिया, “चाहे कितनी ही जल्दी की जाय मगर दस रोज से कम में इन संदूकों का यहां से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देखकर नौगढ़ भेजने लगेंगे तो बहुत दिन लग जायेंगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा। इससे मेरी समझ में यह बेहतर है कि इन संदूकों को बिना देखे ज्यों का त्यों नौगढ़ भेजवा दिया जाय। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोलकर देख लिया जायगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी न होगा कि इसमें क्या निकला और दुश्मनों की आंख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाजत के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया!”
इस राय को कुमार ने पसंद किया और देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मालूमी रास्ते से खंडहर के दलान में आकर पत्थर की चट्टान से ऊपर वाले तहखाने का मुंह ढांप तिलिस्मी ताली से बंद कर खंडहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आये।
आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्म के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि ”अब तुम उन संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने का इंतजाम करो।”