तीसरा अध्याय / बयान 9 / चंद्रकांता
जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को लेकर अपने खेमे में गये। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह,देवीसिंह, और ज्योतिषीजी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहां न था।
कुमार-क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली!
तेज-जी हां, मगर महाराज शिवदत्त की खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।
देवी-उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।
ज्यो-इस वक्त बहुत सोच-विचारकर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।
तेज-आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख के।
ज्यो-(कुछ विचारकर) यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखी है मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।
तेज-आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता! अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखी है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?
ज्यो-इसका भी जरूर कोई सबब होगा।
कुमार-क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।
ज्यो-जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।
तेज-कुछ समझ में नहीं आता!
देवी-वह चुडैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।
ज्यो-कभी नहीं, मैं सोच चुका हूं, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।
कुमार-खैर जो कुछ होगा देखा जायगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।
तेज-हां कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।
कुमार-अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।
तीनों ऐयार कुमार से बिदा हो अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए। तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दलान में पहुंचकर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकालकर अलग किया और नीचे उतरकर कोठरी में होते हुए बाग में पहुंचे जहां थोड़ी-सी जमीन खोदकर छोड़ आये थे।
उसी जमीन को ये लोग मिलकर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुंह एक छोटे से तांबे के पत्तार से ढंका हुआ था जिससे अंदर मिट्टी न जाने पावे।
कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका। ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार होकर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था-
“ताली में रस्सी बांधाकर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जायगी। वहां की मिट्टी हटाकर ताली उठा लेना,बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुंह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आवे खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचो ंबीच जो फव्वारा है उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हटकर जमीन खोदना, एक हांडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे लाकर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियां दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।
भीतर से वह तहखाना बहुत अंधेरा और धुएं से भरा हुआ होगा। खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआं बल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुंह पर कपड़ा लपेटकर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआं दिमाग में न चढ़ने पावे। थोड़ी ही दूर जाकर एक चमकती कोठरी मिलेगी जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काटकर बाहर निकल आना।”
इतना पढ़कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हटकर जमीन खोदी, हांडी निकली, उसमें से ताली निकालकर तहखाने का मुंह खोला। देवीसिंह ने कहा, “अब अपने-अपने मुंह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अंधेरामें टटोलते चलो, आंख रहते अंधो बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआं भी न चढ़ने पावे!”
देवीसिंह की बात सुनकर कुमार हंस पड़े। सबों ने मुंह पर कपड़े लपेटे और घुसकर चमकती हुई कोठरी में पहुंचे। जहां तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर तहखाने से बाहर निकल आये।
मुंह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे तिस पर भी थोड़ा-बहुत धुआं दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सबों की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकलकर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुधा पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, “अब दिन कितना बाकी है?” उन्होंने जवाब दिया, “अभी चार घंटा बाकी है।”
कुमार ने कहा, “अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?” ज्येतिषीजी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खंडहर के दलान में आये। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुंह पर रख ताला बंद कर दिया और खंडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आये।
थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूमकर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गये, आखिर तीनों ऐयारों को साथ लेकर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।
कुमार धीरे- धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गये होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा। तेजसिंह ने कहा, “देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?” यह सुनकर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जाकर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-
“क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूं! कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़कर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब बता दूं। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिखकर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊंगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अबकी दफे मैं चंद्रकान्ता और चपला को जान से मार कलेजा ठण्डा करूंगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफे जाऊं और आऊं। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके?मानो, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है। अब भी समझ जाओ!
-तुम्हारी सूरजमुखी।”
इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सबों को अपने पास बुलाया और कहा, “आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।”
आखिर में 'सूरजमुखी' पढ़कर सबों को हंसी आ गई। कुमार ने कहा, “देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।” तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, “देखिए यह सब क्या लिखा है!”
ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, “चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूं कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफख्याल न कीजिये।”
कुमार ने कहा, “आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।” इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषीजी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास होकर अपने लश्कर में लौट आये और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गये।
थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा, “हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाय।” यह कहकर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से बिदा हो गश्त लगाने चले गये। कुमार भी कुछ भोजन करके पलंग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकान्ता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बुङ्ढी चुडैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादे गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले, “कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाये क्या!”
तेज-हां एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?
कुमार-क्या है? कहां है? देखूं।
तेज-खेमे के बाहर चलिये तो दिखाऊं।
कुमार-चलो।
कुंअर वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा, “यह भीड़ कैसी है?”तेजसिंह ने कहा, “चलिए देखिये, बड़ी खुशी की बात है!”
कुमार के पास पहुंचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है,कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ अभी तक मौजूद है। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।”
तेज-भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?
कुमार-तो फिर किसने मारा?
तेज-मैं क्या जानूं।
कुमार-फिर लाश को कहां से लाये?
तेज-बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खंडहर के पिछवाड़े चले गये। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जायं, वे सब भाग गये। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहां से डोली और कहार मंगवाये और इस लाश को त्यों का ज्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।
कुमार-बड़े ताज्जुब की बात है! इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।
तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाये। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में 'चपला' का नाम खुदा हुआ था। तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा, “देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूं, यह बराबर चपला के कमर में बंधा रहता था। मगर फिर यहां कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?”
देवी-चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकान्ता के पास बैठी होगी जहां चिराग भी न जलता होगा।
कुमार-तो वहां से इस खंजर को कौन लाया?
तेज-इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहां क्यों आया! यह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।
कुमार-किसी को भेजकर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।
तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जाकर बुला लाओ। देवीसिंह गये, उन्हें नींद से उठाकर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुंचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले, “बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुंच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाज़िम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठण्डा होता।” कुमार ने पूछा, “क्या यह आपके यहां अब नहीं है!”
दीवान साहब ने जवाब दिया, “नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूटकर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहां का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाज़िम और अहमद को साथ लेकर चुनार से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।”
देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफे हिचकी ली और दम तोड़ दिया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, “अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुंचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जायगा।” तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।