तीसरा दृश्य / अंक-1 / संग्राम / प्रेमचंद
समय: आठ बजे दिन।
स्थान: सबलसिंह का मकान। कंचनसिंह अपनी सजी हुई बैठक में दुशाला ओढ़े, आंखों पर सुनहरी ऐनक चढ़ाए मसनद लगाए बैठे हैं, मुनीमजी बही में कुछ लिख रहे हैं।
कंचन : समस्या यह है कि सूद की दर कैसे घटाई जाए। भाई साहब मुझसे नित्य ताकीद किया करते हैं कि सूद कम लिया करो। किसानों की ही सहायता के लिए उन्होंने मुझे इस कारोबार में लगाया। उनका मुख्य उद्देश्य यही है। पर तुम जानते हो धन के बिना धर्म नहीं होता। इलाके की आमदनी घर के जरूरी खर्च के लिए भी काफी नहीं होती। भाई साहब ने किफायत का पाठ नहीं पढ़ा। उनके हजारों रूपये साल तो केवल अधिकारियों के सत्कार की भेंट हो जाते हैं। घुड़दौड़ और पोलो और क्लब के लिए धन चाहिए । अगर उनके आसरे रहूँ तो सैकड़ों रूपये जो मैं स्वयं साधुजनों की अतिथि-सेवा में खर्च करता हूँ, कहां से आएं ?
मुनीम : वह बुद्विमान पुरूष हैं, पर न जाने यह फजूलखर्ची क्यों करते हैं?
कंचन : मुझे बड़ी लालसा है कि एक विशाल धर्मशाला बनवाऊँ। उसके लिए धन कहां से आएगा ? भाई साहब के आज्ञानुसार नाम-मात्र के लिए ब्याज लूं तो मेरी सब कामनाएं धरी ही रह जाएं। मैं अपने भोग-विलास के लिए धन नहीं बटोरना चाहता, केवल परोपकार के लिए चाहता हूँ। कितने दिनों से इरादा कर रहा हूँ कि एक सुंदर वाचनालय खोल दूं। पर पर्याप्त धन नहीं यूरोप में केवल एक दानवीर ने हजारों वाचनालय खोल दिए हैं। मेरा हौसला इतना तो नहीं पर कम-से-कम एक उत्तम वाचनालय खोलने की अवश्य इच्छा है। सूद न लूं तो मनोरथ पूरे होने के और क्या साधन हैं ? इसके अतिरिक्त यह भी तो देखना चाहिए कि मेरे कितने रूपये मारे जाते हैं? जब असामी के पास कुछ जायदाद ही न हो तो रूपये कहां से वसूल हों। यदि यह नियम कर लूं कि बिना अच्छी जमानत के किसी को रूपये ही न दूंगा तो गरीबों का काम कैसे चलेगा ? अगर गरीबों से व्यवहार न करूं तो अपना काम नहीं चलता। वह बेचारे रूपये चुका तो देते हैं। मोटे आदमियों से लेन-देन कीजिए तो अदालत गए बिना कौड़ी नहीं वसूल होती।
हलधर का प्रवेश।
कंचन : कहो हलधर, कैसे चले ?
हलधर : कुछ नहीं सरकार, सलाम करने चला आया।
कंचन : किसान लोग बिना किसी प्रयोजन के सलाम करने नहीं चलते। फारसी कहावत है: सलामे दोस्ताई बगैर नेस्तब
हलधर : आप तो जानते ही हैं फिर पूछते क्यों हैं ? कुछ रूपयों का काम था।
कंचन : तुम्हें किसी पंडित से साइत पूछकर चलना चाहिए था।यहां आजकल रूपयों का डौल नहीं क्या करोगे रूपये लेकर?
हलधर : काका की बरसी होने वाली है। और भी कई काम हैं।
कंचन : स्त्री के लिए गहने भी बनवाने होंगे ?
हलधर : (हंसकर) सरकार, आप तो मन की बात ताड़ लेते हैं।
कंचन : तुम लोगों के मन की बात जान लेना ऐसा कोई कठिन काम नहीं, केवल खेती अच्छी होनी चाहिए । यह फसल अच्छी है, तुम लोगों को रूपये की जरूरत होना स्वाभाविक है। किसान ने खेत में पौधे लहराते हुए देखे और उनके पेट में चूहे कूदने लगे नहीं तो ऋण लेकर बरसी करने या गहने बनवाने का क्या काम, इतना सब्र नहीं होता कि अनाज घर में आ जाए तो यह सब मनसूबे बांधें। मुझे रूपयों का सूद दोगे, लिखाई दोगे, नजराना दोगे, मुनीमजी की दस्तूरी दोगे, दस के आठ लेकर घर जाओगे, लेकिन यह नहीं होता कि महीने-दो-महीने रूक जाएं। तुम्हें तो इस घड़ी रूपये की धुन है, कितना ही समझाऊँ, ऊँच-नीच सुझाऊँ मगर कभी न मानोगे। रूपये न दूं तो मन में गालियां दोगे और किसी दूसरे महाजन की चिरौरी करोगी।
हलधर : नहीं सरकार, यह बात नहीं है, मुझे सचमुच ही बड़ी जरूरत है।
कंचन : हां-हां, तुम्हारी जरूरत में किसे संदेह है, जरूरत न होती तो यहां आते ही क्यों, लेकिन यह ऐसी जरूरत है जो टल सकती है, मैं इसे जरूरत नहीं कहता, इसका नाम ताव है, जो खेती का रंग देखकर सिर पर सवार हो गया है।
हलधर : आप मालिक हैं जो चाहे कहैं। रूपयों के बिना मेरा काम न चलेगा। बरसी में भोज-भात देना ही पड़ेगा, गहना-पाती बनवाए बिना बिरादरी में बदनामी होती है, नहीं तो क्या इतना मैं नहीं जानता कि करज लेने से भरम उठ जाता है। करज करेजे की चीर है। आप तो मेरी भलाई के लिए इतना समझा रहे हैं, पर मैं बड़ा संकट में हूँ।
कंचन : मेरी रोकड़ उससे भी ज्यादा संकट में है। तुम्हारे लिए बंकधर से रूपये निकालने पड़ेंगी। कोई और कहता तो मैं उसे सूखा जवाब देता, लेकिन तुम मेरे पुराने असामी हो, तुम्हारे बाप से भी मेरा व्यवहार था।, इसलिए तुम्हें निराश नहीं करना चाहता। मगर अभी से जताए देता हूँ कि जेठी में सब रूपया सूद समेत चुकाना पड़ेगा। कितने रूपये चाहते हो ?
हलधर : सरकार, दो सौ रूपये दिला दें।
कंचन : अच्छी बात है, मुनीमजी लिखा-पढ़ी करके रूपये दे दीजिए। मैं पूजा करने जाता हूँ। (जाता है)
मुनीम : तो तुम्हें दो सौ रूपये चाहिए न। पहिले पांच रूपये सैकड़े नजराना लगता था।अब दस रूपये सैकड़े हो गया है।
हलधर : जैसी मर्जी।
मुनीम : पहले दो रूपये सैकड़े लिखाई पड़ती थी, अब चार रूपये सैकड़े हो गई है।
हलधर : जैसा सरकार का हुकुम।
मुनीम : स्टाम्प के पांच रूपये लगेंगी।
हलधर : सही है।
मुनीम : चपरासियों का हक दो रूपये होगी।
हलधर : जो हुकुम।
मुनीम : मेरी दस्तूरी भी पांच रूपये होती है, लेकिन तुम गरी। आदमी हो, तुमसे चार रूपये ले लूंगा। जानते ही हो मुझे यहां से कोई तलब तो मिलती नहीं, बस इसी दस्तूरी पर भरोसा है।
हलधर : बड़ी दया है।
मुनीम : एक रूपया ठाकुर जी को चढ़ाना होगी।
हलधर : चढ़ा दीजिए। ठाकुर तो सभी के हैं।
मुनीम : और एक रूपया ठकुराइन के पान का खर्च।
हलधर : ले लीजिए। सुना है गरीबों पर बड़ी दया करती हैं।
मुनीम : कुछ पढ़े हो ?
हलधर : नहीं महाराज, करिया अच्छर भैंस बराबर है।
मुनीम : तो इस स्टाम्प पर बाएं अंगूठे का निशान करो।
सादे स्टाम्प पर निशान बनवाता है।
मुनीम : (संदूक से रूपये निकालकर) गिन लो।
हलधर : ठीक ही होगी।
मुनीम : चौखट पर जाकर तीन बार सलाम करो और घर की राह लो।
हलधर रूपये अंगोछे में बांधता हुआ जाता है। कंचनसिंह का प्रवेश।
मुनीम : जरा भी कान?पूंछ नहीं हिलाई।
कंचन : इन मूखोऊ पर ताव सवार होता है तो इन्हें कुछ नहीं सूझता, आंखों पर पर्दा पड़ जाता है। इन पर दया आती है, पर करूं क्या? धन के बिना धर्म भी तो नहीं होता।