चौथा दृश्य / अंक-1 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : मधुबन। सबलसिंह का चौपाल।

समय : आठ बजे रात। फाल्गुन का आरंभ।

चपरासी : हुजूर, गांव में सबसे कह आया है। लोग जादू के तमाशे की खबर सुनकर उत्सुक हो रहे हैं।

सबल : स्त्रियों को भी बुलावा दे दिया है न ?

चपरासी : जी हां, अभी सब-की-सब घरवालों को खाना खिलाकर आई जाती हैं।

सबल : तो इस बरामदे में एक पर्दा डाल दो। स्त्रियों को पर्दे के अंदर बिठाना। घास-चारे, दूध-लकड़ी आदि का प्रबंध हो गया न ?

चपरासी : हुजूर, सभी चीजों का ढेर लगा हुआ है। जब यह चीजें बेगार में ली जाती थीं तब एक-एक मुट्ठी घास के लिए गाली और मार से काम लेना पड़ता था।हुजूर ने बेगार बंद करके सारे गांव को बिन दामों गुलाम बना लिया है। किसी ने भी दाम लेना मंजूर नहीं किया। सब यही कहते हैं कि सरकार हमारे मेहमान हैं। धन्य-भाग ! जब तक चाहें सिर और आंखों पर रहैं। हम खिदमत के लिए दिलोजान से हाजिर हैं। दूध तो इतना आ गया है कि शहर में चार रूपये को भी न मिलता।

सबल : यह सब एहसान की बरकत है। जब मैंने बेगार बंद करने का प्रस्ताव किया तो तुम लोग, यहां तक कि कंचनसिंह भी, सभी मुझे डराते थे।सबको भय था। कि असामी शोख हो जाएंगे, सिर पर चढ़ जाएंगी। लेकिन मैं जानता था। कि एहसान का नतीजा कभी बुरा नहीं होता। अच्छा, महराज से कहो कि मेरा भोजन भी जल्द बना देंब

चपरासी चला जाता है।

सबल : (मन में) बेगार बंद करके मैंने गांव वालों को अपना भक्त बना लिया। बेगार खुली रहती तो कभी-न-कभी राजेश्वरी को भी बेगार करनी ही पड़ती, मेरे आदमी जाकर उसे दिक करते। अब यह नौबत कभी न आएगी। शोक यही है कि यह काम मैंने नेक इरादों से नहीं किया, इसमें मेरा स्वार्थ छिपा हुआ है। लेकिन अभी तक मैं निश्चय नहीं कर सका कि इसका

अंत क्या होगा? राजेश्वरी के उद्वार करने का विचार तो केवल भ्रांत है। मैं उसकी अनुपम रूप-छटा, उसके सरल व्यवहार और उसके निर्दोष अंग-विन्यास पर आसक्त हूँ। इसमें रत्ती-भर भी संदेह नहीं है। मैं कामवासना की चपेट में आ गया हूँ और किसी तरह मुक्त नहीं हो सकता। खूब जानता हूँ कि यह महाघोर पाप है ! आश्चर्य होता है कि इतना संयमशील होकर भी मैं इसके दांव में कैसे आ पड़ा। ज्ञानी को अगर जरा भी संदेह हो जाय तो वह तो तुरंत विष खा ले। लेकिन अब परिस्थिति पर हाथ मलना व्यर्थ है। यह विचार करना चाहिए कि इसका अंत क्या होगा? मान लिया कि

मेरी चालें सीधी पड़ती गई और वह मेरा कलमा पढ़ने लगी तो? कलुषित प्रेम ! पापाभिनय ! भगवन् ! उस घोर नारकीय अग्निकुंड में मुझे मत डालना। मैं अपने मुख को और उस सरलह्रदय बालिका की आत्मा को इस कालिमा से वेष्ठित नहीं करना चाहता। मैं उससे केवल पवित्र प्रेम करना चाहता हूँ, उसकी मीठी-मीठी बातें सुनना चाहता हूँ, उसकी मधुर मुस्कान की छटा देखना चाहता हूँ, और कलुषित प्रेम क्या हैजो हो, अब तो नाव नदी में डाल दी है, कहीं-न-कहीं पार लगेगी ही। कहां ठिकाने लगेगी ? सर्वनाश के घाट पर ? हां, मेरा सर्वनाश इसी बहाने होगी। यह पाप?पिशाच मेरे कुल का भक्षण कर जाएगी। ओह ! यह निर्मूल शंकाएं हैं। संसार में एक-से-एक कुकर्मी व्यभिचारी पड़े हुए हैं, उनका सर्वनाश नहीं होता। कितनों ही को मैं जानता हूँ जो विषय-भोग में लिप्त हो रहे हैं। ज्यादा-से-ज्यादा उन्हें यह दंड मिलता है कि जनता कहती है, बिगड़ गया, कुल में दाफजलगा दिया । लेकिन उनकी मान-प्रतिष्ठा में जरा भी अंतर नहीं पड़ता। यह पाप मुझे करना पड़ेगा। कदाचित मेरे भाग्य में यह बदा हुआ है। हरि इच्छा। हां, इसका प्रायश्चित करने में कोई कसर न रखूंगी। दान, व्रत, धर्म, सेवा इनके पर्दे में मेरा अभिनय होगी। दान, व्रत, परोपकार, सेवा ये सब मिलकर कपट-प्रेम की कालिमा को नहीं धो सकते। अरे, लोग अभी से तमाशा देखने आने लगे। खैर, आने दूं। भोजन में देर हो जाएगी। कोई चिंता नहीं बारह बजे सब गिल्म खत्म हो जाएंगी। चलूं सबको बैठाऊँ। (प्रकट) तुम लोग यहां आकर फर्श पर बैठो, स्त्रियां पर्दे में चली जाएं। (मन में) है, वह भी है ! कैसा सुंदर अंग-विन्यास है ! आज गुलाबी साड़ी पहने हुए है। अच्छा, अब की तो कई आभूषण भी हैं। गहनों से उसके शरीर की शोभा ऐसी बढ़ गई है मानो वृक्ष में फूल लगे हों।

दर्शक यथास्थान बैठ जाते हैं, सबलसिंह चित्रों को दिखाना शुरू करते हैं।

पहला चित्र : कई किसानों का रेलगाड़ी में सवार होने के लिए धक्कम-धक्का करना, बैठने का स्थान न मिलना, गाड़ी में खड़े रहना, एक कुली को जगह के लिए घूस देना, उसका इनको एक मालगाड़ी में बैठा देना। एक स्त्री का छूट जाना और रोना। गार्ड का गाड़ी को न रोकना।

हलधर : बेचारी की कैसी दुर्गति हो रही है। लो, लात-घूंसे चलने लगे। सब मार खा रहे हैं।

फत्तू : यहां भी घूस दिए बिना नहीं चलता। किराया दिया, घूस उसपर सेब लात-घूंसे खाए उसकी कोई गिनती नहीं बड़ा अंधेर है। रूपये बड़े जतन से रखे हुए हैं। कैसा जल्दी निकाल रहा है कि कहीं गाड़ी न खुल जाए।

राजेश्वरी : (सलोनी से) हाय-हाय, बेचारी छूट गई ! गोद में लड़का भी है। गाड़ी नहीं रूकी। सब बड़े निर्दयी हैं। हाय भगवन्, उसका क्या हाल होगा?

सलोनी : एक बेर इसी तरह मैं भी छूट गई थी। हरदुआर जाती थी।

राजेश्वरी : ऐसी गाड़ी पर कभी न सवार हो, पुण्य तो आगे-पीछे मिलेगा, यह विपत्ति अभी से सिर पर आ पड़ीब

दूसरा चित्र : गांव का पटवारी खाट पर बस्ता खोले बैठा है। कई किसान आस-पास खड़े हैं। पटवारी सभी से सालाना नजर वसूल कर रहा है।

हलधर : लाला का पेट तो फूलके कुप्पा हो गया है। चुटिया इतनी बड़ी है जैसे बैल की पगहिया।

फत्तू : इतने आदमी खड़े गिड़गिड़ा रहे हैं, पर सिर नहीं उठाते, मानो कहीं के राजा हैं ! अच्छा, पेट पर हाथ धरकर लोट गया। पेट अगर रहा है, बैठा नहीं जाता। चुटकी बजाकर दिखाता है कि भेंट लाओ। देखो, एक किसान कमर से रूपया निकालता है। मालूम होता है, बीमार रहा है, बदन पर मिरजई भी नहीं है। चाहे तो छाती के हाड़ गिन लो।वाह, मुंशीजी ! रूपया फेंक दिया, मुंह फेर लिया, अब बात न करेंगी। जैसे बंदरिया रूठ जाती है और बंदर की ओर पीठ फेरकर बैठ जाती है।

बेचारा किसान कैसे हाथ जोड़कर मना रहा है, पेट दिखाकर कहता है, भोजन का ठिकाना नहीं, लेकिन लाला साहब कब सुनते हैं।

हलधर : बड़ी गलाकाटू जात है।

फत्तू : जानता है कि चाहे बना दूं, चाहे बिगाड़ दूं। यह सब हमारी ही दशा तो दिखाई जा रही है।

तीसरा चित्र : थानेदार साहब गांव में एक खाट पर बैठे हैं।

चोरी के माल की तगतीश कर रहे हैं। कई कांस्टेबल वर्दी पहने हुए खड़े हैं। घरों में खानातलाशी हो रही है। घर की

सब चीजें देखी जा रही हैं। जो चीज जिसको पसंद आती है, उठा लेता है। औरतों के बदन पर के गहने भी उतरवा लिए

जाते हैं।

फत्तू : इन जालिमों से खुदा बचाए।

एक किसान : आए हैं अपने पेट भरनेब बहाना कर दिया कि चोरी के माल का पता लगाने आए हैं।

फत्तू : अल्लाह मियां का कहर भी इन पर नहीं गिरता। देखो बेचारों की खानातलाशी हो रही है।

हलधर : खानातलाशी काहे की है, लूट है। उस पर लोग कहते हैं कि पुलिस तुम्हारे जान?माल की रक्षा करती है।

फत्तू : इसके घर में कुछ नहीं निकला।

हलधर : यह दूसरा घर किसी मालदार किसान का है। देखो हांडी

में सोने का कंठा रखा हुआ है। गोप भी है। महतो इसे पहनकर नेवता खाने जाते होंगे।चौकीदार ने उड़ा लिया। देखो, औरतें आंगन में खड़ी की गई हैं। उनके गहने उतारने को कह रहा है।

फत्तू : बेचारा महतो थानेदार के पैरों पर फिर रहा है और अंजुली भर रूपये लिए खड़ा है।

राजेश्वरी : (सलोनी से) पुलिसवाले जिसकी इज्जत चाहें ले लें।

सलोनी : हां, देखते तो साठ बरस हो गए। इनके उसपर तो जैसे कोई है ही नहीं

राजेश्वरी : रूपये ले लिए, बेचारियों की जान बचीब मैं तो इन सभी के सामने कभी न खड़ी हो सयं चाहे कोई मार ही डाले।

सलोनी : तस्वीरें न जाने कैसे चलती हैं।

राजेश्वरी : कोई कल होगी और क्या !

हलधर : अब तमाशा बंद हो रहा है।

एक किसान : आधी रात भी हो गई। सबेरे ऊख काटनी है।

सबल : आज तमाशा बंद होता है। कल तुम लोगों को और भी अच्छे?अच्छे चित्र दिखाए जाएंगे, जिससे तुम्हें मालूम होगा कि बीमारी से अपनी रक्षा कैसे की जा सकती है। घरों की और गांवों की सगाई कैसे होनी चाहिए, कोई बीमार पड़ जाए तो उसकी देख?रेख कैसे करनी चाहिए । किसी के घर में आगजलग जाए तो उसे कैसे बुझाना चाहिए । मुझे आशा है कि आज की तरह तुम लोग कल भी आओगी।

सब लोग चले जाते हैं।