पाँचवाँ दृश्य / अंक-1 / संग्राम / प्रेमचंद
प्रात: काल का समय। राजेश्वरी अपनी गाय को रेवड़ में ले जा रही है। सबलसिंह से मुठभेड़।
सबल : आज तीन दिन से मेरे चंद्रमा बहुत बलवान हैं। रोज एक बार तुम्हारे दर्शन हो जाते हैं। मगर आज मैं केवल देवी के दर्शनों ही से संतुष्ट न हूँगी। कुछ वरदान भी लूंगा।
राजेश्वरी असमंजस में पड़कर इधर-उधर ताकती है और सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है।
सबल : देवी, अपने उपासकों से यों नहीं लजाया करती। उन्हें धीरज देती हैं, उनकी दु: ख-कथा। सुनती हैं, उन पर दया की दृष्टि फेरती हैं। राजेश्वरी, मैं भगवान को साक्षी देकर कहता हूँ कि मुझे तुमसे जितनी श्रद्वा और प्रेम है उतनी किसी उपासक को अपनी इष्ट देवी से भी न होगी। मैंने जिस दिन से तुम्हें देखा है, उसी दिन से अपने ह्दय-मंदिर में तुम्हारी पूजा करने लगा हूँ। क्या मुझ पर जरा भी दया न करोगी ?
राजेश्वरी : दया आपकी चाहिए, आप हमारे ठाकुर हैं। मैं तो आपकी चेरी हूँ। अब मैं जाती हूँ। गाय किसी के खेत में पैठ जाएगी। कोई देख लेगा तो अपने मन में न जाने क्या कहेगी।
सबल : तीनों तरफ अरहर और ईख के खेत हैं, कोई नहीं देख सकता। मैं इतनी जल्द तुम्हें न जाने दूंगा। आज महीनों के बाद मुझे यह सुअवसर मिला है, बिना वरदान लिए न छोडूंगा। पहले यह बतलाओ कि इस काक-मंडली में तुम जैसी हंसनी क्यों कर आ पड़ी ? तुम्हारे माता-पिता क्या करते हैं ?
राजेश्वरी : यह कहानी कहने लगूंगी तो बड़ी देर हो जाएगी। मुझे यहां कोई देख लेगा तो अनर्थ हो जाएगी।
सबल : तुम्हारे पिता भी खेती करते हैं ?
राजेश्वरी : पहले बहुत दिनों तक टापू में रहै। वहीं मेरा जन्म हुआ। जब वहां की सरकार ने उनकी जमीन छीन ली तो यहां चले आए। तब से खेती-बारी करते हैं। माता का देहांत हो गया। मुझे याद आता है, कुंदन का-सा रंग था। बहुत सुंदर थीं।
सबल : समझ गया। (तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखकर) तुम्हारा तो इन गंवारों में रहने से जी घबराता होगी। खेती-बारी की मेहनत भी तुम जैसी कोमलांगी सुंदरी को बहुत अखरती होगी।
राजेश्वरी : (मन में) ऐसे तो बड़े दयालु और सज्जन आदमी हैं, लेकिन निगाह अच्छी नहीं जान पड़ती। इनके साथ कुछ कपट-व्यवहार करना चाहिए । देखूं किस रंग पर चलते हैं। (प्रकट) क्या करूं भाग्य में जो लिखा था। वह हुआ।
सबल : भाग्य तो अपने हाथ का खेल है। जैसे चाहो वैसा बन सकता है। जब मैं तुम्हारा भक्त हूँ तो तुम्हें किसी बात की चिंता न करनी चाहिए । तुम चाहो तो कोई नौकर रख लो।उसकी तलब मैं दे दूंगा, गांव में रहने की इच्छा न हो तो शहर चलो, हलधर को अपने यहां रख लूंगा, तुम आराम से रहना। तुम्हारे लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ, केवल तुम्हारी दया-दृष्टि चाहता हूँ। राजेश्वरी, मेरी इतनी उम्र गुजर गई लेकिन परमात्मा जानते हैं कि आज तक मुझे न मालूम हुआ कि प्रेम क्या वस्तु है। मैं इस रस के स्वाद को जानता ही न था।, लेकिन जिस दिन से तुमको देखा है, प्रेमानंद का अनुपम सुख भोग रहा हूँ। तुम्हारी सूरत एक क्षण के लिए भी आंखों से नहीं उतरती। किसी काम में जी नहीं लगता, तुम्हीं चित्त में बसी रहती हो, बगीचे में जाता हूँ तो मालूम होता है कि फूललों में तुम्हारी ही सुगंधि है, श्यामा की चहक सुनता हूँ तो मालूम होता है कि तुम्हारी ही मधुर ध्वनि है। चंद्रमा को देखता हूँ तो जान पड़ता है कि वह तुम्हारी ही मूर्ति है। प्रबल उत्कंठा होती है कि चलकर तुम्हारे चरणों पर सिर झुका दूं। ईश्वर के लिए यह मत समझो कि मैं तुम्हें कलंकित कराना चाहता हूँ। कदापि नहीं ! जिस दिन यह कुभाव, यह कुचेष्टा, मन में उत्पन्न होगी उस दिन ह्रदय को चीरकर बाहर फेंक दूंगा। मैं केवल तुम्हारे दर्शन से अपनी आंखों को तृप्त करना, तुम्हारी सुललित वाणी से अपने श्रवण को मुग्ध करना चाहता हूँ। मेरी यही परमाकांक्षा है कि तुम्हारे निकट रहूँ, तुम मुझे अपना प्रेमी और भक्त समझो और मुझसे किसी प्रकार का पर्दा या संकोच न करो। जैसे किसी साफर के निकट के वृक्ष उससे रस खींचकर हरे-भरे रहते हैं उसी प्रकार तुम्हारे समीप रहने से मेरा जीवन आनंदमय हो जाएगी।
चेतनदास भजन गाते हुए दोनों प्राणियों को देखते चले जाते हैं।
राजेश्वरी : (मन में) मैं इनसे कौशल करना चाहती थी पर न जाने इनकी बातें सुनकर क्यों ह्रदय पुलकित हो रहा है। एक-एक शब्द मेरे ह्रदय में चुभ जाता है। (प्रकट) ठाकुर साहब, एक दीन मजूरी करने वाली स्त्री से ऐसी बातें करके उसका सिर आसमान पर न चढ़ाइए। मेरा जीवन नष्ट हो जाएगी। आप धर्मात्मा हैं, जसी हैं, दयावान हैं। आज घर-घर आपके जस का बखान हो रहा है, आपने अपनी प्रजा पर जो दया की है उसकी महिमा मैं नहीं गा सकती। लेकिन ये बातें अगर किसी के कान में पड़ गई तो यही परजा, जो आपके पैरों की धूल माथे पर चढ़ाने को तरसती है, आपकी बैरी हो जाएगी, आपके पीछे पड़ जाएगी। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। मुझे भूल जाइए। संसार में एक-से-एक सुंदर औरतें हैं। मैं गंवारिन हूँ। मजूरी करना मेरा काम है। इन प्रेम की बातों को सुनकर मेरा चित्त ठिकाने न रहेगी। मैं उसे अपने बस में न रख सयंगी। वह चंचल हो जाएगा और न जाने उस अचेत दशा में क्या कर बैठे। उसे फिर नाम की, कुल की, निंदा की लाज न रहेगी। प्रेम बढ़ती हुई नदी है। उसे आप यह नहीं कह सकते कि यहां तक चढ़ना, इसके आगे नहीं चढ़ाव होगा तो वह किसी के रोके न रूकेगी। इसलिए मैं आपसे विनती करती हूँ कि यहीं तक रहने दीजिए। मैं अभी तक अपनी दशा में संतुष्ट हूँ। मुझे इसी दशा में रहने दीजिए। अब मुझे देर हो रही है, जाने दीजिए।
सबल : राजेश्वरी, प्रेम के मद से मतवाला आदमी उपदेश नहीं सुन सकता। क्या तुम समझती हो कि मैंने बिना सोचे-समझे इस पथ पर पग रखा है। मैं दो महीनों से इसी हैस?बैस में हूँ। मैंने नीति का, सदाचरण का, धर्म का, लोकनिंदा का आश्रय लेकर देख लिया, कहीं संतोष न हुआ तब मैंने यह पथ पकड़ा। मेरे जीवन को बनाना-बिगाड़ना अब तुम्हारे ही हाथ है। अगर तुमने मुझ पर तरस न खाया तो अंत यही होगा कि मुझे आत्महत्या जैसा भीषण पाप करना पडे।गा, क्योंकि मेरी दशा असह्य हो गई है। मैं इसी गांव में घर बना लूंगा, यहीं रहूँगा, तुम्हारे लिए भी मकान, धन-संपत्ति, जगह-जमीन किसी पदार्थ की कमी न रहेगी। केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि चाहता हूँ।
राजेश्वरी : (मन में) इनकी बातें सुनकर मेरा चित्त चंचल हुआ जाता है। आप-ही-आप मेरा ह्रदय इनकी ओर खिंचा जाता है। पर यह तो सर्वनाश का मार्ग है। इससे मैं इन्हें कटु वचन सुनाकर यहीं रोक देती हूँ। (प्रकट) आप विद्वान हैं, सज्जन हैं, धर्मात्मा हैं, परोपकारी हैं, और मेरे मन में आपका जितना मान है वह मैं कह नहीं सकती। मैं अब से थोड़ी देर पहले आपको देवता समझती थी। पर आपके मुंह से ऐसी बातें सुनकर दु: ख होता है। आपसे मैंने अपना हाल साफ-साफ कह दिया । उस पर भी आप वही बातें करते जाते हैं। क्या आप समझते हैं कि मैं अहीर जात और किसान हूँ तो मुझे अपने धरम-करम का कुछ विचार नहीं है और मैं धन और संपत्ति पर अपने धरम को बेच दूंगी ? आपका यह भरम है। आपको मैं इतनी सिरिद्वा से न देखती होती तो इस समय आप यहां इस तरह बेधड़क मेरे धरम का सत्यानाश करने की बातचीत न करते। एक पुकार पर सारा गांव यहां आ जाता और आपको मालूम हो जाता कि देहात के गंवार अपनी औरतों की लाज कैसे रखते हैं। मैं जिस दशा में भी हूँ संतुष्ट हूँ, मुझे किसी वस्तु की तृषना नहीं है। आपका धन आपको मुबारक रहै। आपकी कुशल इसी में है कि अभी आप यहां से चले जाइए। अगर गांव वालों के कानों में इन बातों की जरा भी भनक पड़ी तो वह मुझे तो किसी तरह जीता न छोड़ेंगे, पर आपके भी जान के दुश्मन हो जाएंगी। आपकी दया, उपकार, सेवा एक भी आपको उनके कोप से न बचा सकेगी।
चली जाती है।
सबल : (आप-ही-आप) इसकी सम्मत्ति मेरे चित्त को हटाने की जगह और भी बल के साथ अपनी ओर खींचती है। ग्रामीण स्त्रियां भी इतनी दृढ़ और आत्माभिमानी होती हैं, इसका मुझे ज्ञान न था।अबोध बालक को जिस काम के लिए मना करो, वही अदबदाकर करता है। मेरे चित्त की दशा उसी बालक के समान है। वह अवहेलना से हतोत्साह नहीं, वरन् और भी उत्तेजित होता है।
प्रस्थान।