तुम भी / राजी सेठ / पृष्ठ 3
थोड़ा-थोड़ा हर बोरी से...इतना अनाज तो चूहे भी खा जाते हैं गोदाम में...। तभी तो पसीने से लथ-पथ हो जाते हो...सुनो, कोई और रास्ता नहीं निकल सकता? क्या चोरी का? कड़वी-सी भड़ास फेंकता वह बोला। वह आहत हुई। फिर भी दृढ़ता से बोली, नहीं, कमाई का...। जिस दिन तुझे दिख जाए, मुझे बता देना...छोड़ दूंगा...। तुम लोगों के लिए ही... बुदबुदाता हुआ वह बाहर निकल गया। पत्नी अपने ही शब्दों के ताप-संताप में झुलसती रही। शाम को वह घर आया तो मुंह पर बादल नहीं थे। हाथ में दो बड़े-बड़े कांधारी अनार और संतरों का पैकेट लिये वह सीधा रसोई में घुसता चला आया। गीतू को सामने देख पैकेट नीचे रखे और उसे गोद में उठाकर चूम लिया। गीतू पहले तो भौचक्क...फिर संतरे लेकर नाचने लगी। गुल्लू बीच में झपटकर बोला, रहने दे, रहने दे, दादी के लिए हैं...डॉक्टर ने बताए हैं। नहीं, तुम्हारे लिए भी हैं बेटे...दादी के लिए वहां रख आया हूं...लाओ, चाय लाओ... बूट उतारकर वह खरखरी खाट पर पसर गया। सरना व्यस्त-सी हो आयीएक अनजानी कृतज्ञता से न जाने उसके मन की कौन-सी कोर भीग आयी...पति को चाय का कप उसने कुरकुरे पापड़ों के साथ पास बैठकर पिलाया।
मां एक रात अचानक मर गई। देह औंधी ऐंठी हुई। एक टांग नीचे उतरने की मुद्रा में पाटी से नीचे लटकी हुई...गरदन आधी ऊपर को...आंखें जड़-स्थिर। बिस्तर ऐसी सलवटों से भरा...खूब छटपटाती रही हों जैसे...शायद उन्होंने खाट से उतरना चाहा हो। वह और सरनादोनों धक् से रह गएअावाज़ ही न निकली। न गंगा- जल, न गीता-पाठ, न दीया, न बाती, न कोई पास...बच्चों का झुंड ज़मीन पर बेख़बर सोया हुआ! घबराकर मां का शव उन्होंने नीचे उतारा और एक अपराधी आकुलता से बच्चों को झकझोर दिया। पास-पड़ोसी जब तक आए...मौत एक यथार्थ बन चुकी थी। अमर का मन अंदर से रह-रहकर छीजता रहा। दाहकर्म...दान, सब उसने समुचित श्रध्दा से किए। मां पहले भी मात्रा उपस्थिति भर थी...पर यह अनुपस्थिति तो? ...क्या था जो पसलियों में सलाख की घोंप की तरह उसे बींधता रहा। दो ही दिन पहले तो...खाट से लगकर रखे मोढ़े पर बैठे अमर की गोद में मां ने अपनी शिथिल कलाई डाल दी। वह चौंका, हाथ का अख़बार उसने नीचे रख दिया, कुछ चाहिए मां...? नहीं, कुछ नहीं। बेहद थकी-टूटी, भरी-सी आवाज़। मां ने अपना हाथ उसकी गोद से वापस न लिया। एक बोलता हुआ दर्दीला स्पर्श उसे छूता रहा। मां! बचपन के किसी भूले हुए आवेग का झोंका उससे आ लिपटा, कुछ कहना चाहती हो मां? नहीं रे! सोचती हूं, तेरे कच्चे कंधों पर कितना बोझ पड़ गया और ऊपर से मैं करमजली... फिर फफक कर रो पड़ी। वह विचलित हो गया। किसी ने कुछ कह दिया है तुम्हें मां?' उसका इशारा पत्नी की ओर था। नहीं, नऽऽहीं रे... रो पाने में भी असमर्थ मां का स्वर एक घुटी हुई चीख़ की तरह बिखरा। वह मां के सिर पर हाथ फेरता रहा। मां के बाल रस्सियों के से सूखे, खुरदरे हो गए थे...और अब आंसुओं की धाराओं से गीले हो रहे थे। मां! जी छोटा न कर। मां के भीतर कोई फोड़ा फूट गया था। सिसकते हुए बोलीं, तेरे बाबूजी गए तो लगता था...लगता था, दस घड़ी न जिया जाएगा...अब दस साल से जीती हूं... मां, तुम अच्छी हो जाओगी... एक खोखली-सी सांत्वना उसके मन में उभरी, फिर होठों में ही डूब गई। नहीं! नहीं...! मां के भीतर उबाल उठा था, मेरे जीने में क्या धरा है...तू कमा-कमाकर खुट रहा है...एक बात कहूं बिटवा... हूंऽ। मेरी मिट्टी तो वैसे ही उठेगी...तू क्यों मेरे कारण बच्चों के मुंह से ग्रास छीने है...? तुम्हें क्या हो गया है मां? मां फिर फूट पड़ीं, सच कहूं बिटवा, मेरा तो दवा-दारू, डॉक्टर, सेवा सब होता है...और तू रात-रातभर इस मोढ़े पर निढाल पड़ा रहता है। मैं, क्या अंधी हूं? ...तू मेरी बात मान, कुछ दिनों के लिए देबू की पढ़ाई छुड़ा दे। देबू अपने उद्यम से पढ़ता है, मां! उसका उद्यम तेरे किस काम...? तू चिंता न कर मां! एक गहरी सांस उसने भीतर ही रोक ली। ऐसी सहानुभूति से खखोलकर मां उसे अपने ही सामने नंगा कर देती है। कितना दारुण होता है यह, मां अगर जानती... तीसरे ही दिन मां का यूं मर जाना...इन सब बातों की स्मृति उसे ख़ूब खली। मां के बक्से से निकलींबाबूजी की कुछ बहुत पुरानी चिट्ठियां...बाबूजी के साथ का एक मटमैला मुड़ा-तुड़ा फोटो...थोड़े-से कपड़े...एक शॉल...दो अंगूठियां...दो जोड़े चांदी के बिछुए और सत्तााईस रुपये तीस पैसे...रुपयों को हथेली पर रखे देखता रहा वहमां की जन्म-भर की पूंजी...।